गीता मेराचिन्तन अध्याय १
श्रीमद्भगवद्गीता विषयानुक्रमणिका—
क्र.
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अ.
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विषय
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पृ.सं.
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क्र.
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अ.
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विषय
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पृ.सं.
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०१
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००
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निवेदन
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००३
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०२
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००
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मेरा वक्तव्य
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००४
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०३
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००
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श्रीवाराहपुराणान्तर्गत
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००५
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०४
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००
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साम्प्रदायिकता
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००७
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०५
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००
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मंगलाचरण
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००८
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०६
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००
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मेरा लक्ष्य
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००९
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०७
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००
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अंगन्यास (पाठ विधि)
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०१०
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०८
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००
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ध्यान
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०१०
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०९
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००
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गीता माहात्मय
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०११
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१०
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००
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गीता की प्राथमिक संगति
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०१४
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११
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०१
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अर्जुन विषादयोग
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०१५
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१२
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०२
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सांख्ययोग
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०१९
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१३
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०३
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कर्मयोग
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०४६
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१४
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०४
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ज्ञानकर्मयोग
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०६८
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१५
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०५
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कर्मसंन्यास योग
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०८८
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१६
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०६
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आत्मसंयम योग
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१०६
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१७
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०७
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ज्ञानविज्ञान योग
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१३०
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१८
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०८
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अक्षरब्रह्म योग
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१५२
|
१९
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०९
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राजविद्याराजगुह्ययोग
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१७३
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२०
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१०
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विभूति योग
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१९६
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२१
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११
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विश्वरूप दर्शनयोग
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२१२
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२२
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१२
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भक्तियोग
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२२७
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२३
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१३
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क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योग
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२४२
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२४
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१४
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गुणत्रयविभाग योग
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२७३
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२५
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१५
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पुरुषोत्तम योग
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२९२
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२६
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१६
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देवासुर संपद्विभाग योग
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३१३
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२७
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१७
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श्रद्धात्रयविभाग योग
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३२५
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२८
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१८
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मोक्षसंन्यास योग
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३३५
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२९
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श्रीमद्भगवद्गीता सारांश एवं तत्संबंधित विषय
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३७१
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सूचना― दी गई सारिणी की पृष्ठ संख्या में आगे पीछे भी हो सकता है ।
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समत्त्वं योग उच्यते २/४८, निर्दोषं हि समंब्रह्म ५/१९ अर्थात जीवब्रह्मैक्य प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ का नाम योगशास्त्र है । अद्वैत का प्रमाण गीता में इससे बढकर नहीं हो सकता है । ――स्वामी शिवाश्रम
ॐश्रीपरमात्मने नमः
निवेदन—
हमने दूसरे अध्याय का विचार बहुत ही सामान्य रूप से किया है, क्योंकि मेरे मन में भाव यह था कि अपने लिए ही तो समझना है अतः विस्तार की क्या आश्यकता । तथापि २/४५ का विस्तार इस दृष्टि से किया कि यही श्लोक संपूर्ण गीता की नींव है एवं अध्याय ३/१२ में यज्ञ के प्रसंग में हमारे हृदय की कुछ पीड़ाएं उभर कर सामने आ गईं जिस कारण से उसका विस्तार किया । इस प्रकार से अध्याय तीन के अन्त तक पहुंचते पहुंचते किसी ने कहा कि लिखने में कंजूसी क्यों ? भले अन्य कोई न पढ़े अपने लिए ही सही लेकिन लिखना है तो ठीक से लिखो । अतः आगे संक्षेप वृत्ति के आश्रित थोड़ा ठीक से समझने का प्रयत्न किया है ।
हमने दूसरे अध्याय का विचार बहुत ही सामान्य रूप से किया है, क्योंकि मेरे मन में भाव यह था कि अपने लिए ही तो समझना है अतः विस्तार की क्या आश्यकता । तथापि २/४५ का विस्तार इस दृष्टि से किया कि यही श्लोक संपूर्ण गीता की नींव है एवं अध्याय ३/१२ में यज्ञ के प्रसंग में हमारे हृदय की कुछ पीड़ाएं उभर कर सामने आ गईं जिस कारण से उसका विस्तार किया । इस प्रकार से अध्याय तीन के अन्त तक पहुंचते पहुंचते किसी ने कहा कि लिखने में कंजूसी क्यों ? भले अन्य कोई न पढ़े अपने लिए ही सही लेकिन लिखना है तो ठीक से लिखो । अतः आगे संक्षेप वृत्ति के आश्रित थोड़ा ठीक से समझने का प्रयत्न किया है ।
चूंकि हमें ठीक से लिखना नहीं आता, कहीं मात्रा तो कहीं शब्द और कहीं वाक्य ही गायब । अतः इस संपर्क यंत्र पर संपादन के आधार पर लिखना प्रारंभ किया । जिसका फल यह हुआ कि लेख को समझने में आने वाली परेशानियां यहाँ दूर हो गई । यद्यपि हमने देखा कि बहुत प्रयत्न किया कि लेख त्रुटियां दूर सकूँ, कई बार प्रयत्न किया तथापि पुनः त्रुटियाँ संभव हैं अतः विज्ञजन त्रुटियों का सुधार करते हुए पढने की कृपा करें । जो विज्ञजन हमारे विचारों से सहमत न हो वे यह विचार करें कि यदि सभी एक मत हो जाते तो विश्व में हजारों की संख्या में टीका, टिप्पणी और भाष्य लिखे गए हैं तो कैसे होते ? लोग आचार्य शंकर को भी प्रच्छन्न बौद्ध कहते हैं । अतः अगर आपको लगता है कि निर्विवाद आपकी दृष्टि में किसी आध्यात्मिक पुस्तक की आवश्यकता है और वह पुस्तक उपलब्ध नहीं है तो आप भी निर्विवाद ऐसी पुस्तक लिखें जिससे सभी सहमत हो सकें यह आपका समाज और आध्यात्मिक जगत पर ऋण होगा । अगर नहीं लिख सकते तो इस प्रकार विचार करें कि कम से कम सांसारिकता से ऊपर उठकर विचार तो किया, जगत के प्रपंच से तो अच्छा ही है ।
गीता के विचार से हमने अनुभव किया कि वस्तुतः पूर्वापर का विचार ही शास्त्र के दृष्टिकोण को समझने का प्रधान साधन है । इसके विचार से पूर्व की समझ और अब में बहुत अन्तर हो गया है । हमारे संपूर्ण पूर्व के विचार इस क्रम विचार में ध्वस्त हो गये हैं । हमारा विचार तत्त्वमसि को केन्द्रित करके है । यहाँ अभी त्वम् पद का समान्य विचार हुआ है । आगे तत् पद का विचार सातवें अध्यासे प्रारंभ होगा, और अन्तिम पद का लक्ष्य असि पद होगा जो अध्याय तेरह से पंद्रह तक विचार किया जयेगा । यह विचार इतना गंभीर है कि बड़े बड़े पण्डित मोहित हो जाते हैं, तो फिर मुझ जैसे अशिक्षित और अनपढ़ की क्या बिसात ? अतः मेरी ऐसी ही प्रकृति है और दोष तो लोग आचार्य शङ्कर, व्यास जी और ईश्वर में भी निकालते हैं । अतः हमारे द्वारा यहाँ विचारों में उत्पन्न दोषों पर दृष्टिपात न करते हुए विद्वत्वृन्द लक्ष्य पर विचार करके अपनी अहैतुकी कृपा से संतुष्ट हो जायें ।
हमने जिन आदरणीय आचार्यों का आश्रय लेकर विचार किया है वे निम्न हैं―
१- रामानुज भाष्य, २-सारार्थवर्षिणी ―विश्वनाथ चक्रवर्ती– गौड़ीय मठ, ३-साधक संजीवनी ―स्वामी रामसुखदासजी, ४-शांकर भाष्य, ५-तात्पर्यबोधिनी ―शंकरानन्द सरस्वती, ६-गीतार्थ ― अभिनवगुप्त, ७-गूढ़ार्थ दीपिका ―मधुसूदनान्द सरस्वती, ८-आनन्दगिरी जी, ९-गीता रस रहस्य एवं कहीं कहीं गीतादर्शन―अखंडानंद सरस्वती जी एवं १०-कहीं कहीं गीतातत्वावलोक ―उडिया बाबा जी ।
इस श्रीमद्भगवद्गीता_मेराचिन्तन में हमारे निजी विचार नहीं हैं जो भी लिखा है उसमें उपरोक्त महापुरुषों के विचारों की ही समालोचना मात्र है । चूंकि जो भी विषय हमने चयन किया है, वह व्यक्तिगत प्रकृति के ही अनुरूप चयन किया ताकि इतने सारे विचारों के स्थान पर एक ही स्थान पर मेरी प्रकृति के अनुसार साधन सामग्री प्राप्त हो सके । मेरा पूरा विश्वास है कि इसमें सब कुछ विचार तो अन्य महापुरुषों के हैं तथापि निष्ठावान साधक को गीता समझने के लिए विपुल सामग्री प्राप्त होगी । ओ३म् !
क्षमा प्रार्थना― सपर्क सूत्र (फोन) में सीधी पीडीएफ की व्यवस्था नहीं मिल सकी और जो मिली वह बड़ी पीडीएफ नहीं बना सकती थी । आवश्यकता से बीस गुणा अधिक बड़ी पुस्तिका बनती थी । नेट भी काम नहीं करता था । अतः जिस ऐप का आश्रय लिया उसके माध्यम से पहले Word बनाकर फिर कम नेट में भी छोटी पीडीएफ बनाना पड़ा जिसमें ४-५ ऐप से गुजरना पड़ता है । ऐप काफी मनमानी भी कर जाता है । आवश्यकता से अधिक अक्षरों को फैला देता है जिससे पढ़ने में असुविधा हो सकती एवं Word बनाने में भी मूल लेख से भिन्न मोटे और पतले अक्षर हो गए हैं । इस विकृति एवं पढ़ने में आने वाली असुविधा के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ । ओ३म् !
―स्वामी शिवाश्रम
मेरा वाक्तव्य—
गीता वेदान्त का ही प्रतिपादन करती है―
गीता एक अत्यंत गोपनीय तत्त्व है जिसके विचार करने पर बड़े से बड़े शूरवीर धाराशायी हो जाते हैं फिर मेरे जैसे कीड़े-मकोड़े कहाँ लगते हैं ? तथापि यही तो वह आकाश है जिसमें मनोवेग गति वाले गरुण भी उड़ान भरते हैं, किन्तु वे अन्त नहीं पाते, तो क्या गरुड़ ने आकाश का अन्त नहीं पाया यह सोचकर कर मच्छर उड़ना बन्द कर देगा ? नही....! गरुड़ की तरह उसे भी सत्ता आकाश ने ही दी है अतः उसका भी पूर्ण अधिकार है कि वह भी आकाश के अन्त की इच्छा का त्याग करके अपनी सामर्थ्य के अनुसार उड़े । इसी प्रकार मैं विद्वान तो नहीं हूँ, अशिक्षित भी हूँ तो क्या हुआ ? मैं भगवती गीता पर बड़े-बड़े विद्वान भाष्यकारों और टीकाकारों को देखकर विचार करना छोड़ दूं ? अगर यह छोड़ दूं तो करूंगा क्या ? मेरा समय कैसे पास होगा अतः समय पास के लिए मैं भगवती गीता का विचार करता हूँ ।
गीता साक्षात् वेदान्त शास्त्र का प्रतिपादन करती है । इसका प्रमाण भी कहीं और से नहीं स्वयं श्रीभगवान के द्वारा कहे गये शब्दों में समझने का प्रयत्न करते हैं….
श्रीभगवान गीता में अर्जुन को कहते हैं कि मैं उस पद को कहता हूँ जो मेरा गुणगान करते हैं….
ऋषिभिर्बहुधागीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्र पदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।।१३/४।।
ब्रह्मसूत्र पदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।।१३/४।।
अर्थात ऋषियों और वेदों ने जो कहा है उसको कहूंगा । विशेष ध्यान देने की बात यह है कि जिसका वर्णन ब्रह्मसूत्र पदों द्वारा चार भागों में चार प्रकार से मेरे निमित्त अपना युक्तिपूर्ण निश्चय कहते हैं । यहां वि उपसर्ग के सहित निश्चित आया है जिसका अर्थ है जिस निश्चय के बाद कोई निश्चय करना शेष नहीं रहता । साथ ही आगे कहते हैं -👉 वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।१५/१५।। यहाँ भी श्रीभगवान ने स्वयं के द्वारा वेदों और वेदवित् अर्थात वेद के तात्पर्य के द्वारा ही जानने योग्य स्वयं को बताने के साथ ही कहते हैं 👉"वेदान्तकृत्" अर्थात वेदान्त का निर्माता मैं स्वयं हूँ । अतः यह श्रीभगवान के शब्दों में ही गीता का कलेवर वेदान्त प्रतिपाद्य है यह सिद्ध हुआ तथापि हम श्रीभगवान के ही शब्दों में और विचार कर लेते हैं….
श्रीवाराहपुराणान्तर्गत—
पृथ्वी के पूछने पर भगवान विष्णु कहते हैं….
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः ।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वानिर्वाच्यपदात्मिका ।।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वानिर्वाच्यपदात्मिका ।।
अर्थात गीता मेरी परा विद्या है यह ब्रह्मस्वरूपा है इसमें किसी प्रकार का कोई संशय नहीं है । यह गीता अकार, उकार, माकार के साथ प्रणव में अर्धमात्रा है, नित्या है अर्थात यह त्रिकाल में एकस्वरूप रहती है जिसे सामन्य शब्दों में शाश्वत एवं अविनाशी कहना ही उचित है क्योंकि अविनाशी के मुख कमल की वाणी है अतः स्वाभाविक अविनाशी अपने प्रियतम से अभिन्न है । स्व नाम का जो अनिर्वाच्य पद है वह उसी पद स्वरूपा है अर्थात साक्षात स्वनिर्वाच्यपद वाली है । आगे कहते हैं ----
वेदत्रयी परानन्दा तत्वार्थज्ञानसंयुता ।।
अर्थात ये वेदत्रयी है (वेदत्रयी कहने मात्र से चारों वेद समझना चाहिए) । यह गीता तत्त्वज्ञान से युक्त है । अगला श्लोक संभतः स्कन्द पुराण का है तथापि न हो तो भी यह श्लोक वेदान्तियों और सिद्धान्तियों सबको मान्य है गीताप्रेस की गीता में माहात्म्य में देखा जा सकता है-----
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः ।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।
यहाँ तो गीता को वेदों का दूध अर्थात सार कह दिया गया है । इसके अतिरिक्त प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर "श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृणार्जुन संवादे” कहा गया है, अर्थात इस उपनिषद का नाम गीता है गीतासु+उपनिषत्सु अर्थात गीता नामक उपनिषद में , जैसे छांदोग्य, बृहदारण्यक, ऐतरेय, माण्डूक्य आदि नाम के उपनिषद हैं, वैसे ही यह गीता नामक उपनिषद है इसीलिये कहा गीतासु+उपनिषत्सु जो श्रीमत् का अर्थ दैवी संपत्ति से युक्त, भगवत् का अर्थ है जो स्वयं साक्षात् षडैश्वर्य के समान अर्थात जिसके अध्ययन से षडैश्वर्य की प्राप्ति हो जाये, ब्रह्मविद्यायां का अर्थ है ब्रह्मविद्या के वर्णन के अंतर्गत योगशास्त्रे योग अर्थात जीवब्रह्मात्मैक्य नामक शास्त्र में जो श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्थात श्रीकृष्णार्जुन संवाद हुआ वह अमुक नाम से अमुक अध्याय । अर्थात श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृणार्जुनसंवादे यानी जो दैवी संपत्ति और साक्षात् षडैश्वर्य को प्रदान करने वाली गीता नाम की ब्रह्मविद्या है उस ब्रह्मविद्या के अन्तगर्त जीवब्रह्मात्मैक्य नामक योगशास्त्र में से श्रीकृष्णार्जुन नामक जो संवाद है अमुक अध्याय के नाम से इति अर्थात इस प्रकार जो ॐ तत् और सत् अर्थात तत् यानी वह सत् अर्थात जो नित्य सत्स्वरूप है उसका वर्णन किया गया । ऐसा ही संवाद उपनिषदों में भी कहा गया है भिन्न नहीं ।
आप सभी सुधीजन ऐसा कोई प्रवचन न करे जिससे गीता, वेदान्त और उसके चिंतकों के प्रति अश्रद्धा का दोष उत्पन्न ही हो, क्योंकि अश्रद्धा हमारे जीवन का सबसे बड़ा अंधकार है । इसीलिये आपकी श्रद्धा गीता पर है तो इस पर भी विचार करें "श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्" लेकिन "तत्परः संयतेन्द्रियः ।।४/३९।। गीता श्रद्धा का विषय है "श्रद्धवाननसूयश्च" १८/७१ तब जब श्रद्धापूर्वक-----
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ।।१८/७०।।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ।।१८/७०।।
अर्थात जो श्रीकृष्णार्जुन के इस गीता रूप संवाद को पढ़ेगा, इसे यह ज्ञानयज्ञ है ऐसा करके दूसरों को अर्थात गीता के अधिकारी को कहेगा वह मेरी ही आराधना करता हुआ मुझको ही प्राप्त होगा । अर्थात गीता में ज्ञानी को अपना आत्मा बताया गया है "ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम्" ७/१८ जो लोग यहाँ पर भेद दृष्टि रखते हैं उनको इस उपरोक्त प्रमाण सहित, और भी प्रमाण गीता में ही मिल जायेंगे जो आत्मैक्य का स्पष्ट वर्णन करते हैं । यहाँ मुझे प्राप्त होने का अर्थ है कि मुझ आत्मस्वरूप को जिसे तू उपाधि के कारण जीव मानता था और ज्ञान होने के बाद जीव-ब्रह्म की दीवार ढह जाने के बाद जो मैं का अर्थ होता है, वह अर्थ रूप मैं हूँ, उसी अर्थ रूप मुझ को प्राप्त होता है । यदि आप उस परमात्मा को अखण्ड मानते हैं और अपने को उससे अलग रखते हैं तो आपकी सीमा एक होगी और परमात्मा की सीमा एक होगी इससे शूद्धचैतन्यत्व को प्राप्त पूर्व में जीव संज्ञक आत्मा की असीमता बाधित होकर और जिस परमात्मा को आप अखण्ड मानते हो उसका अखण्डत्व बाधित होकर ससीम हो जायेगा और ससीम होने से निश्चल और अचल २/५३ की संज्ञा समाप्त होकर विनाश को प्राप्त होने वाला आपका परमात्मा और जीव दोनो ही होंगे । क्या आपके गीता चिंतन का यही फल होगा ? नहीं….! वह अखंड और असीम एवं अविनाशी ही है ऐसा विचार करो । साथ ही बीच में थोड़ा प्रसंग छूट गया वह यह है कि हमने ऊपर गीता के अधिकारी को ज्ञान देने की बात कही थी तो प्रश्न होगा कि गीता का अधिकारी कौन है ? इसका निर्णय भी गीता ही करती है-----
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।।१८/६७ ।।
अर्थात जो ब्रह्मचर्यादि से शरीर को तपाया हुआ नहीं है, जो मेरा भक्त नहीं है मेरा भक्त का अर्थ यह कदापि न करना कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि अलग अलग हैं क्योंकि कृष्ण साढ़े तीन हाथ का शरीर नहीं है वह व्यापक ब्रह्म है, अतः जो उस अखण्डित परमात्मा को खण्डित करता है संसार का सबसे बड़ा पापात्मा वही है उसको यह ज्ञान कदापि नहीं देना चाहिए और किसी को भले दे ही दिया जाये कदाचन का यही अर्थ है, अखंड ज्ञान क्या है स्वयं श्रीभगवान ही बताते हैं “सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ।।१८/२०।। अर्थात भिन्न भिन्न प्रणियों में एक अखंड परमात्मा को देखना ही सात्विक ज्ञान है, एवं– पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् । वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।।१८/२१।। अर्थात संपूर्ण प्रणियों में एक अखंड परमेश्वर को भिन्न भाव से देखने वाला राजस ज्ञान है इसके बाद तामस ज्ञान कहा गया है । इसीलिये इतना ही नहीं यह ज्ञान जो मेरी इस वाणी अर्थात गीता को सुनने की इच्छा न रखता हो उसके और जो मुझमें एवं मेरी इस गीतारूपी वाणी में दोष देखता उसको भी यह ज्ञान नहीं देना चाहिए । अतः श्रीभगवान को भिन्न देखना उनका और उनकी वाणी के अपमान का दोष कोई विचारशील कैसे ले सकता है ? इसलिये श्रीभगवान की वाणी गीता वेदप्रतिपाद्य एक अखंड आत्म सत्ता का वर्णन करती है इसमें संदेह को स्थान नहीं देना चाहिए क्योंकि संशयात्मा विनश्यति ।
१८/६७ में गीता का अधिकारी बताया गया है । अब अर्जुन का अधिकार देखिए― श्रीभगवान अर्जुन को कहते हैं "भक्तोऽसि"४/३ । अर्जुन भक्त कैसे है देखिये ---"शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्" २/७ मैं आपका शिष्य हूँ लेकिन आजकल जैसा शिष्य नहीं कि कान फुंकाया और चलता बना । उपदेश गुरु का सुनने की बजाय गुरु को ही उपदेश करने लगा । अर्जुन शिष्य ही नहीं "त्वां शरणं प्रपद्ये" मैं आपकी शरण में हूँ । शरणात वही होता है जो सब प्रकार से अपने को शरणागत, रक्षक के हाथों में सौप कर आत्मसमर्पित हो जाये । शरणात रक्षक जैसा कहे वैसा करे उसको शरणात कहते हैं । अतः अर्जुन ने शरणागति के साथ ही शिष्यता स्वीकार की, इस प्रकार समर्पण के बाद कहता है "शाधि माम्" मुझ भ्रमित बुद्धि वाले को शिक्षा देकर अनर्थ को रोको । ऐसे शरणापन्न को भक्त कहते हैं इसलिए भगवान ने कहा भक्तोऽसि । भक्त का अर्थ आप क्या करेंगे ? राजभक्त-राजभक्ति, देशभक्त-देशभक्ति, स्वामिभक्त-स्वामिभक्ति इत्यादि में भक्त का अर्थ क्या हुआ ? अर्थ एक ही है उस उस के प्रति सब कुछ जो कुछ भी अपने पास है समपर्ण कर देना है भक्त का लक्षण है, लेकिन स्वयं को भी समर्पण कर देना भक्ति है, कि उस उस के प्रति धन तो क्या प्राण भी दे देना ही भक्ति है । इसीलिये कर्मयोग हो या ज्ञानयोग भक्त और भक्ति के बिना दोनो ही पूर्ण नहीं होते ।
सब कुछ आराध्य को समर्पण कर दिया इसलिए आप भक्त अवश्य हैं, लेकिन आपने अभी स्वयं को भगवान से अलग रखा है गीता में अनेकों बार "अनन्यचेताः” कहा जिसका अर्थ है कि तू मुझसे भिन्न चित्तवाला न होकर एक मात्र मुझमें चित्त वाला हो जा । जैसे समुद्र में समायी पानी की बूंद ‘मैं’ समुद्र में हूँ का ज्ञान नहीं रखती वैसे ही ‘मैं ब्रह्म का हूँ’ का ज्ञान ब्रह्मस्थ होने पर जो कि भिन्नभाव है कैसे रह सकता है ? अगर मैं ब्रह्म का हूँ जैसा भाव है तो इसका अर्थ है कि अभी ब्रह्मस्थ हुए ही नहीं । अतः जैसे पानी की बूंद समुद्र में प्रवेश करते ही बूंद और समुद्र में समाने का भाव समाप्त और ‘मैं’ समुद्र ही हूँ का अभिन्न भाव उत्पन्न हो जाता है वैसे ही लक्ष्य ‘मैं ब्रह्म ही हूँ’ कभी इस श्रुति वाक्य पर विपरीत भाव उदय नहीं होने देना चाहिए । अन्यथा बहुत बड़ा अपराध हो जायेगा ।
इस प्रकार अपने को आराध्य से भिन्न न देखना ही आराध्य को अपनी बलि देना अर्थात समर्पित कर देना ही भक्ति है । अलग से कोई भक्ति की अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं है, क्योंकि आज तक संसार के जितने भी धर्मग्रंथ हैं उनमें दो ही मार्गों का वर्णन है एक प्रवृत्ति यानी कर्ममार्ग और दूसरा निवृत्ति अर्थात ज्ञान मार्ग जिसका कोई भी खण्डन नहीं कर सकता है । इस प्रकार का अर्जुन का पूर्व वर्णित के अनुसार होने के कारण ही अर्जुन भक्त था और स्वयं श्रीभगवान ने भक्तोऽसि कहकर मुहर भी लगा दी । किन्तु यह ज्ञान सर्वसामान्य नहीं है, स्वयं श्रीभगवान गीताज्ञान को अनेक बार गुह्य, गुह्यतर, और गुह्यतम कहते है । गीता के अधिकारी के उपरोक्त लक्षणों के साथ अपनी दिनचर्या का बहीखाता मुमुक्षु साधक को अवश्य मिलाना चाहिए ।
साम्प्रदायिकता—
यह गीता का ज्ञान ब्रह्मविद्या है और ब्रह्मविद्या समझने के लिए कठोर तप की आवश्यकता है आइयास नहीं समझ सकते, वे अगर कुछ कर सकते हैं तो झगड़ा कर सकते हैं, ऐसा कैसे ? वैसा कैसे ? आदि । इतना ही नहीं हमारी परम्पराओं को साम्प्रदायिक कहकर लोग गाली देते हैं । लेकिन मैं पूछता हूँ कि आपने जो पढ़ाई की वह जिस विद्यालय से की क्या वह साम्प्रदायिक नहीं है ? भले वह भारतीय न होकर ईसायत शिक्षा से हो लेकिन वह सम्प्रदाय ही है । इसी प्रकार गीता को भी सम्प्रदाय परंपरा से ही समझा जा सकता है ।
👉 इसीलिए अर्जुन ने पहले शरण ग्रहण करते हुए शिष्यता स्वीकार की और फिर कहा मुझे शिक्षा दो । कौन सी शिक्षा ? यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे २/७ श्रेयमार्ग अर्थात मोक्ष का मार्ग पूछा । प्रेयमार्ग कहते हैं प्रवृत्ति मार्ग यानी कर्ममार्ग को और श्रेयमार्ग कहते हैं निवृत्तिमार्ग अर्थात मोक्षमार्ग को, तो यहाँ अर्जुन द्वारा स्पष्ट श्रेयमार्ग पूछना लिखा है, जिससे मोक्षमार्ग ही सिद्ध होता है । दूसरी बात अर्जुन शरणागति से पहले संन्यासियों द्वारा आचरणीय भिक्षावृत्ति २/५ से जीवन यापन करने की बात कर चुके हैं, युद्ध की नहीं । येन श्रेयोऽमानुयाम् ३/२ अर्जुन फिर भी कर्ममार्ग का अनुसरण नहीं करना चाह रहा था तो पुनः पूछा जिससे मेरा कल्याण हो अर्थात मोक्ष प्राप्त हो वही एक बात कहने का आग्रह किया किन्तु भगवान ने अर्जुन को समझाते हुए विद्या की की गंभीरता का भी वर्णन करते हुए बिना परंपरा के समझ में न आने की बात कही जिसमें अर्जुन की शरणागति २/७ के अतिरिक्त परंपरा का सूचन ३/२०, ४/१,२,१५,२५से३४, ८/११, १०/१०,११, ११/८, १३/४,७, १७/१४ इसके अतिरिक्त १८/२,३, और कृष्ण का मत १८/४,५ आदि स्थानों पर किया है । मेरा इतना ही चिन्तन है और भी हो तो कह नहीं सकता । अतः यह ब्रह्मविद्या है परंपरा से नहीं पढा तो अन्धकार से अन्धकार की ओर जाने से कोई नहीं रोक सकता । अतः परंपरा से पढ़ना ही चाहिए ।
अब प्रश्न उठ सकता है कि परंपराएं बहुत हैं तो हम किसे प्रमाण मानें ? इसका समाधान स्वयं श्रीभगवान ने ही किया है जब तेरी बुद्धि एक निश्चय वाली हो जायेगी२/४१,५३ यह एक निश्चय वाली बुद्धि परंपरा से ही होगी मनमुखी या स्वेच्छाचार से नहीं । आप जिस परंपरा से ज्ञान प्राप्त कर निश्चित बुद्धि वाले हो गये हैं वही परंपरा श्रेष्ठ है, फिर द्वैत अद्वैत आदि कोई भी परंपरा क्यों न हो । शास्त्र उस कल्प वृक्ष के सामन है कि जो भी कामना करो वही देता है, शास्त्र वृक्ष की छाया है चोर भी आनन्द लेता है और साधू भी । जैसी आपकी प्रकृति होगी वैसा ही विचार आपके मस्तिष्क को स्वीकार होगा । विभिन्न संप्रदायों के विभिन्न आचार्यों के द्वारा अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार भाष्य एवं टीकाएं लिखी गई हैं, मुसलमानों और ईसाइयों आदि की भी बहुत सी टीका टिप्पणियाँ हैं अर्थात आप जिस किसी भी जगह पर खड़े हैं वहीं से विचार करें, वहीं से आपके कल्याण का मार्ग सुनिश्चित होता है । गीता का यही स्वधर्म है । हम संन्यासी हैं हम लिखेंगे तो संन्यास अर्थात त्याग वैराग्य की ही बात लिखेंगे । सांसारिक और प्रवृत्ति की बात तो करेंगे नहीं । अतः जहाँ आपके अनुकूल न लगे वहां यह समझें कि कि मेरी और आपकी प्रकृति भिन्न है, अतः मतभिन्नता स्वाभाविक है । जिसका जितना अधिकार होता है उतना ही समझ में आता है अधिक नहीं । अतः आप अपने अधिकार के अनुसार विचारशील तो हैं ही, इसलिये जितना दोष निकालने में समय नष्ट करेंगे, उससे कम समय में अपने अधिकारानुसार विचार करके जीवन को सार्थक बना सकते हैं ।
स्वामी शिवाश्रम
मङ्गलाचरण—
गजाननं भूतगणादि सेवितं कपित्थजम्बूफल चारुभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाश कारकं नमामि विघ्नेश्वर पादपङ्कजम् ।।
उमासुतं शोकविनाश कारकं नमामि विघ्नेश्वर पादपङ्कजम् ।।
शब्दार्थ― गजमुख संपूर्ण देव दानव आदि प्राणियों द्वारा सेवित कैथा और जामुन के फलों का प्रसन्नतापूर्वक भक्षण करने वाले, तपस्विनी उमा देवी के पुत्र, शोक का नाश करने, वाले समस्त विघ्नों का नाश करने वाले आपके चरणकमलों को नमस्कार करता हूं ।
तात्पर्यार्थ― गजमुख अर्थात विचारों की विशालता को प्राप्त राजस-तामस गुणरूप देव दानव आदि द्वारा सेवित अर्थात देवदानवादि यानी राजस-तामस गुण भी जिनके आधीन रहते हैं, किन्तु वे स्वयं किसी के आधीन नहीं होते कपित्थ कहिए लाग रंग का प्रतीक रजोगुण और जामुन कहिए तमोगुण को अर्थात जो रजोगुण तमोगुण का भक्षण करके नित्य सत्वगुण में स्थित रहते हैं या अपने शरणागत भक्तों के रजोगुण तमोगुण का भक्षण अर्थात नाश कर डालते हैं जो मना करने पर भी तपस्या करनेवाली उमा हैं उनके पुत्र अर्थात जो स्वभाव से ही इन्द्रिय निग्रह रूप तप में तत्पर रहने वाले हैं, जन्म-मृत्यु जैसा दुर्निवारक शोक का भी जो नाश करने वाले हैं हम उनके पदपङ्कज में नमस्कार करते हैं ।
भावार्थ― आप हमें हे गणेश जी ! विचारों की विशालता, इन्द्रिय आदि भूतों का स्वामित्व अर्थात जितेन्द्रिय, रजोगुण और तमोगुण से रहित, स्वभाव से ही समत्व रूप तप में प्रवृत्त रहने वाले जन्मादि सम्पूर्ण अनर्थों का नाश करने वाले ! वेदान्त के श्रवण मनन निदिध्यासन में प्रवृत्त बना दो, क्योंकि आप ही संपूर्ण विघ्नों पर शासन करनेवाले हो, हम आपको बारंबार नमस्कार करते हैं ।
ॐ ॐ ॐ
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ।।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ।।
शब्दार्थ― जिसकी कृपा कटाक्ष गूंगे को वाचाल बना देती है, लंगड़ा पर्वत को लांघ जाता है, उस परमानंद स्वरुप लक्ष्मीपति की वन्दना करता हूं ।
तात्पर्यार्थ― ‘वाचालं' मूल शब्द है जिसको वाचा+अलम् दो शब्दों का योग प्राप्त है पंगु कहिए लंगड़े को― संसार में अभी तक दो ही मार्ग कहे गए है एक श्रेयमार्ग यानी ज्ञान मार्ग और दूसरा प्रेयमार्ग या कर्म या प्रवृत्ति मार्ग, अमृत मार्ग । मनुष्य मात्र अपना श्रेय चाहता है, किंतु यह मार्ग बड़ा दुस्तर है । अतः प्रेयमार्ग ही मानवमात्र के कल्याण का सर्वश्रेष्ठ साधन है । अतः श्रेय प्राप्ति के लिए ‘अहं' ‘इदं' आदि वेद प्रतिपादित का ज्ञान तो नहीं है, तथापि भक्ति है । भक्ति कहिए उस समर्पण को जिसके बाद अपनी स्वतंत्र सत्ता ही नहीं रहती, जैसे पतिव्रता स्त्री की अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती । पति ही जीवन, पति ही मरण, पति ही गति, पति ही मति अर्थात पति ही जिसका सर्वस्व है, पति परायणता में कोई किसी भी प्रकार का कोई विकल्प रूपी व्यभिचार नहीं होता, ठीक वैसे ही सर्व समर्पण रूप एक मात्र जिसका जीवन है, जीना भी प्रभु के लिए, मरना भी प्रभु के लिए ऐसा जो समर्पित विवेक मात्र जिसके पास है वह विषय रूपी, कामना रूपी, द्वन्द रूपी दुर्गम पर्वतों को भी पार करके वाणी के अलम् अर्थात चरम सीमा अर्थात जिस मौन के बाद कोई वाणी का मौन शेष नहीं रहता ऐसे मौन की सीमा रूप लक्ष्य को जिसकी कृपा से प्राप्त कर लिया जाता है उस परमानन्दस्वरूप लक्ष्मी के स्वामी की मैं वन्दना करता हूँ ।
भावार्थ― हे प्रभु ! हम आपकी कृपा से ज्ञान, विज्ञान से रहित होकर भी नाना प्रकार के विषय रूपी पर्वतों को पार करके मौन की सीमा आत्मैक्य रूप लक्ष्य को प्राप्त करने के निमित्त से हे लक्ष्मी के स्वामी अर्थात तपस्या एवं ब्रह्मतेज को धारण करने वाले मैं भी ब्रह्मतेज धारण कर सकूं इसके लिए आपकी वन्दना करता हूँ ।
ॐ ॐ ॐ
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
शब्दार्थ---- अज्ञान रूपी तिमिर रोग से अन्धे हुए के लिए ज्ञान ही कजरौटा― ज्ञानरूपी काजल जिसमें रखा जाता है वह काजल जिनके द्वारा लगाकर तिमिरान्ध नष्ट कर दिया जाता है उन श्रीगुरुदेव के श्रीचरणों में नमस्कार है ।
तात्पर्यार्थ---- सत, असत का विचार न होना ही अज्ञान रूप तिमर रोग है जिसके कारण जो नित्य सत्य वास्तु अर्थात परमतत्त्व दिखाई नहीं देता । ऐसी स्थिति में सहज ही करुणानिधि, दयालु और अपनी अहैतुकी कृपा के परवश होकर वेदान्त श्रवण कराकर, परमार्थ का निरूपण करके जो आत्मा-अनात्मा रूपी सदसद् का विवेक रूपी काजल लगाकर आत्मैक्य रूपी नेत्र खोलने वाले श्रीगुरुदेव जी आपके चरणों में सतत नमस्कार करता हूँ ।
भावार्थ---- हे गुरुदेव ! मैं अज्ञानी मूढ़ हृदय विषयान्ध हुआ आपकी महिमा को नहीं जानता तथापि आप ही अपनी अहैतुकी कृपा से मुझपर कृपा करके मेरे अन्दर इन्द्रिय संयम और मुमुक्षुत्व का ज्ञान देकर कृतार्थ करो, मैं आपके चरणकमलों की बारंबार वन्दना करता हूँ ।
ॐ ॐ ॐ
गौरीशंकर वंदना करता शीश झुकाय ।
तत्त्वं का ही बोध हो काम सकल जरि जाय ।।
गीता की महिमा नहीं जानूं हे यदुराय ।
फिर भी हठ करता यही आकर देहु बताय ।।
ॐ ॐ ॐ
ॐ ॐ ॐ
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्-
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् ।।
पूर्णेन्दु सुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्-
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ।।
शब्दार्थ----- हे कृष्ण ! नवकमल खिलने पर जैसा उसके दलों का रङ्ग होता है वैसा ही आपके हाथों का रङ्ग है, जिन हाथों में आपकी प्रियतमा बांसुरी सुशोभित हो रही है, आप पीताम्बर ओढ़े हुए हैं, आपके ओठ पके हुए कुंदरू के समान लाल हैं अथवा पीले रङ्ग और लाल कुंदरू का सम मात्रा में मिलने पर जो रङ्ग होता है वैसे ही हैं । आपका मुखकमल पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान खिला हुआ है और नेत्र नवकमल जैसे लाल हैं । आप क्या हो आप ही जानो आपका तत्त्व अर्थात रहस्य मैं नहीं जानता ।
भावार्थ---- आपको जैसा उपरोक्त कहा वैसा तो आप दिखते हो किन्तु विचार पूर्वक देखने से वैसे भी नहीं दिखते हो, तथापि आप जो हो, सो हो, वह तो आप ही जानो । आप जो भी हो, जैसे भी हो आपके तत्त्व प्राप्ति के लिए ही ये मेरा नमस्कार है । अपना तत्त्व आप जैसे हो उसकी प्राप्ति स्वयं ही करायें ।
मेरा लक्ष्य—
मैं एक आत्यंतिक विषयी पामर कोटि का विषयी जीव यतिकुलकलंक हूँ तथापि कुछ पुण्य पुराकृत कर्मों की प्रेरणा, देवकृपा अवश्य है, जो कि शास्त्रों और व्यवहार का क ख ग न जानकर भी मुझ जैसा कामी, क्रोधी स्वभाव से ही पतन को प्राप्त हुआ व्यक्ति भी श्रीभगवती गीता जी के विचार में तत्पर हुआ । श्रीभगवती गीता ‘अपि चेत्सुदुराचारो' ‘स्त्रियोवैश्यास्तथा शूद्राः' का भी उद्धार करने वाली एक मात्र अम्मा हैं । अतः मैं भगवती गीता की शरण लेता हूँ ।
चूंकि मैं अशिक्षित हूँ अतः मेरा श्रीभगवती गीता पर किया गया विचार किसी साधक के लिए अनुकरणीय नहीं है । ये विचार मात्र अपने अन्तःकरण की संतुष्टि और नाना प्रकार के प्रपञ्चों से बचने हेतु मात्र हैं । मैं एक भी श्लोक का अर्थ करने में यद्यपि असमर्थ हूँ तथापि उसका भावार्थ आचार्य आदि जगद्गुरु भगवान शंकर, सन्त ज्ञानेश्वर एवं अपनी परंपरा से प्राप्त गुरुजनों को साक्षी करके लिखता हूँ । अनधिकारी होने के नाते मैं यह भी कामना नहीं करता कि मुझे ज्ञान, मोक्ष या भक्ति ही प्राप्त हो । न ही मेरा यह लक्ष्य है कि मैं द्वैत, अद्वैत, करण सापेक्ष या करण निरपेक्ष का ही प्रतिपान करूँ तथापि कोई न कोई केन्द्रविन्दु होना ही चाहिए इस दृष्टि से गीता का विचार तत्त्वमसि को केन्द्रित करके ही किया जा रहा है । यह लक्ष्य भी तीसरे अध्याय के अन्त में ही बना था इसलिए संभव है इन दो अध्यायों में त्वं पद का उतना विचार न हो सका हो जितना होना चाहिए था और हाँ....! मेरा अधिकार है कि श्रीभगवती गीता जी से प्रार्थना करूँ कि वे मुझे अपने श्रीचरणों से दूर न करें । अस्तु !
अङ्गन्यास
।।पाठ विधि।।
।।पाठ विधि।।
विनियोग----
ॐ अस्य श्रीमद्भगवद्गीतामालामन्त्रस्य भगवान्
वेदव्यास ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः । श्रीकृष्णः परमात्मा
देवता । अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे
इति बीजम् । सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज
इति शक्तिः । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा
ॐ अस्य श्रीमद्भगवद्गीतामालामन्त्रस्य भगवान्
वेदव्यास ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः । श्रीकृष्णः परमात्मा
देवता । अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे
इति बीजम् । सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज
इति शक्तिः । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा
शुचः इति कीलकं । श्रीकृष्णः प्रीत्यर्थे पाठे विनियोगः ।।
करन्यास----
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
न चैनं क्लेन्त्यापो न शोषयति मारुतः इति तर्जनीभ्यां नमः ।।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति मध्यमाभ्यां नमः ।।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनम् इत्यनामिकाभ्यां नमः ।।
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रः इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
न चैनं क्लेन्त्यापो न शोषयति मारुतः इति तर्जनीभ्यां नमः ।।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति मध्यमाभ्यां नमः ।।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनम् इत्यनामिकाभ्यां नमः ।।
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रः इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।।
एवं उक्त प्रकारेण हृदयादि न्यासः ।।
एवं उक्त प्रकारेण हृदयादि न्यासः ।।
ध्यानम्—
ॐ पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेेन स्वयं
व्यासेन ग्रथितां पुराण मुनिना मध्येमहाभारतम् ।
अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशध्यायिनी-
मम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम् ।।१।।
नमोऽस्तुते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र ।
येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः ।।२।।
प्रपन्नपारिजाताय तोत्त्रवेत्रैकपाणये ।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतदुहे नमः ।।३।।
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।४।।
भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला
शल्यग्राहवती कृपेण वहनी कर्णेन वेलाकुला ।
अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै रणनदी कैवर्तकः केशवः ।।५।।
पाराशर्यवचःसरोजममलं गीतार्थगन्धोत्कटं-
नानाख्यानककेसरं हरिकथा सम्बोधनाबोधितम् ।
लोके सज्जनषट्पदैरहरह पेपीयमानं मुदा
भूयाद्भारतपङ्कजं कलिमल प्रध्वंसि नः श्रेयसे ।।६।।
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ।।७।।
ॐ पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेेन स्वयं
व्यासेन ग्रथितां पुराण मुनिना मध्येमहाभारतम् ।
अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशध्यायिनी-
मम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम् ।।१।।
नमोऽस्तुते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र ।
येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः ।।२।।
प्रपन्नपारिजाताय तोत्त्रवेत्रैकपाणये ।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतदुहे नमः ।।३।।
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।४।।
भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला
शल्यग्राहवती कृपेण वहनी कर्णेन वेलाकुला ।
अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै रणनदी कैवर्तकः केशवः ।।५।।
पाराशर्यवचःसरोजममलं गीतार्थगन्धोत्कटं-
नानाख्यानककेसरं हरिकथा सम्बोधनाबोधितम् ।
लोके सज्जनषट्पदैरहरह पेपीयमानं मुदा
भूयाद्भारतपङ्कजं कलिमल प्रध्वंसि नः श्रेयसे ।।६।।
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ।।७।।
गीता माहात्म्य
धरोवाच----
भगवन् परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी । प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे प्रभो ।।१।।
भगवन् परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी । प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे प्रभो ।।१।।
पृथ्वी बोली--- हे भगवन् ! हे परमेश्वर ! हे प्रभो ! प्रारब्ध का भोग करते हुए आपकी अव्यभिचारिणी भक्ति किस प्रकार हो सकती है ? १।।
विष्णुरुवाच-----
प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा ।
स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ।।२।।
स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ।।२।।
विष्णु बोले--- प्रारब्ध का भोग करता हुआ जो सदैव गीता के अभ्यास में आसक्त होता है वही इस लोक में मुक्त है, वही सुखी है, वह कर्मों में नहीं बंधता अर्थात कर्मों के फलस्वरूप जन्म मृत्यु को प्राप्त नहीं होता ।
महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत् ।
क्वचित् स्पर्शं न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्बुवत् ।।३।।
क्वचित् स्पर्शं न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्बुवत् ।।३।।
जो गीता का चिंतन करता है उसे महापापों से भी बढकर महापाप ही क्यों न हो उसका थोड़ा भी स्पर्श ठीक वैसे ही नहीं करते, जैसे कमल के पत्ते के ऊपर पानी स्पर्श नहीं करता अर्थात गीला नहीं करता ।।३।।
गीतायाः पुस्तकं यत्र यत्र पाठः प्रवर्तते ।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै ।।४।।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै ।।४।।
जहाँ गीता की पुस्तक होती है, जहाँ गीता का पाठ होता है, प्रयाग आदि सभी तीर्थ वहीं होते हैं ।।४।।
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये ।
गोपाला गोपिका वाऽपि नारदोद्धव पार्षदैः ।।५।।
गोपाला गोपिका वाऽपि नारदोद्धव पार्षदैः ।।५।।
सभी देवता, ऋषि, योगी, नाग नामक देवता, ग्वालबाल, गोपिकाएं, एवं नारद, उद्धव आदि पार्षद ।।५।।
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते ।
यत्र गीता विचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम् ।
तत्राऽहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि ।।६।।
यत्र गीता विचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम् ।
तत्राऽहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि ।।६।।
जहाँ गीता का पाठ चिंतन अर्थात गीता में प्रवृत्ति होती है, जहाँ गीता का पाठ, परस्पर विचार, कथन एवं श्रवण होता है वहाँ पर उपरोक्त पार्षदादि शीघ्र सहायता करते हैं । हे पृथ्वी ! निश्चित ही मैं भी वहाँ सदैव निवास करता हूँ ।।६।।
गीताश्रेयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम् ।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान् पालयाम्यहम् ।।७।।
मैं गीता के आश्रित रहता हूँ अर्थात जहाँ गीता होती है मैं भी वहीं रहता हूँ क्योंकि गीता मेरा उत्तम घर है । गीता का आश्रय लेकर मैं तीनो लोकों का पालन करता हूँ ।।७।।
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः ।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वानिर्वाच्यपदात्मिका ।।८।।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वानिर्वाच्यपदात्मिका ।।८।।
गीता मेरी ब्रह्मस्वरूपा परा विद्या है इसमें संशय नहीं है । ओंकार की अर्धमात्र रूप अक्षरा अर्थात कभी नष्ट न होने वाली नित्या स्व-स्वरूप अनिर्वाच्य पद स्वरूपा है (अर्थात स्व-स्वरूप अनिर्वाच्य पद देने वाली है) ।।८।।
चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽर्जुन ।
वेदत्रयी परानन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता ।।९।।
वेदत्रयी परानन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता ।।९।।
चित् को आनन्द प्रदान करने वाली चिदानन्द स्वरूपा कृष्ण के स्वमुख द्वारा अर्थात स्वयं कृष्ण ने अपने ही मुख से अर्जुन से कहा है, ये तीनो वेद स्वरूप है, परम आनन्द देने वाली सूक्ष्म अर्थ वाली ज्ञान से युक्त है ।।९।।
योऽष्टादशजपो नित्यं नरः निश्चलमानसः ।
ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं पदम् ।।१०।।
ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं पदम् ।।१०।।
जो कोई निश्चल मन से अर्थात संशय रहित होकर इसके अठारह अध्यायों का पाठ करता है वह तत्त्वज्ञान को प्राप्त करता है और फिर परमपद अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ।।१०।।
पाठेऽसमर्थः सम्पूर्णे ततोऽर्धं पाठमाचरेत् ।
तदा गोदानं पुण्यं लभते नाऽत्र संशयः ।।११।।
पूरा पाठ करने में समर्थ न हो तो आधा अर्थात नौ अध्याय का पाठ करे । तब वह गोदान का पुण्य प्राप्त करता है इसमें संशय नहीं है ।।११।।
त्रिभागं पठमानस्तु गङ्गा स्नान फलं लभेत् ।
षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत् ।।१२।।
षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत् ।।१२।।
आधा पाठ न कर पाने पर एक तिहाई पाठ करे-- एक तिहाई में श्लोक दृष्टि से पहले दिन पांच, फिर छः और फिर सात अध्याय का पाठ करने पर लगभग बराबर श्लोक होते हैं, इससे गङ्गा स्नान का फल मिलता है । छठे अंश का पाठ करने से सोमयज्ञ का फल प्राप्त करता है ।।१२।।
एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्ति संयुतः ।
रुद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम् ।।१३।।
रुद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम् ।।१३।।
नित्य एक अध्याय का पाठ करने से भक्ति प्राप्त होती है । शिवलोक को प्राप्त करके शिवगण बनकर दीर्घकाल तक वहाँ निवास करता है ।।१३।।
अध्यायं श्लोकपादं वा नित्यं यः पठते नरः ।
स याति नरतां मन्वन्तरं यावद्वसुन्धरे ।।१४।।
स याति नरतां मन्वन्तरं यावद्वसुन्धरे ।।१४।।
एक अध्याय, एक श्लोक या एक पाठ का भी जो नित्य पाठ करता है वह जब तक मन्वतर रहता है तब तक पृथ्वी पर मनुष्य जन्म पाता है ।।१४।।
गीतायाः श्लोकदशकं सप्त पञ्च चतुष्टयं ।
द्वौ त्रीनेकं तदर्थं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः ।।१५।।
द्वौ त्रीनेकं तदर्थं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः ।।१५।।
गीता के दश,सात, पांच, चार, तीन, दो,अथवा एक अथवा आधे श्लोक का जो मनुष्य अर्थ सहित पाठ करता है….।।१५।।
चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्रुवम् ।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां ब्रजेत् ।।१६।।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां ब्रजेत् ।।१६।।
वह हजार वर्षों तक अटल रूप से चंद्रलोक को प्राप्त करता है एवं गीता का पाठ करता हुआ जो मरता है वह पुनः मनुष्यत्व को प्राप्त करता है अर्थात मनुष्य बनता है ।।१६।।
गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तम् ।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमणो गतिं लभेत् ।।१७।।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमणो गतिं लभेत् ।।१७।।
पुनः मनुष्य होकर गीता का अभ्यास करके उत्तम मुक्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है । ‘गीता’ इस प्रकार के उच्चारण पूर्वक जो मरता है वह भी सद्गति प्राप्त करता है ।।१७।।
गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा ।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह मोदते ।।१८।।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह मोदते ।।१८।।
अथवा महापाप से युक्त होने पर भी जो गीता और उसका अर्थ सुनने में आसक्त है वह बैकुंठ को प्राप्त करके विष्णु के साथ आनन्दित होता है ।।१८।।
गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः ।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहान्ते परमं पदम् ।।१९।।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहान्ते परमं पदम् ।।१९।।
गीता के अर्थ का ध्यान रखकर जो नित्य प्रशंसनीय अर्थात शास्त्रीय कर्म करता है वह जीते जी मुक्त है ऐसा जानो और शरीर का अन्त होने पर परमपद अर्थात मोक्ष प्राप्त करता है ।।१९।
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः ।
निर्धूतकल्मषा लोके गीता याता परं पदम् ।।२०।।
निर्धूतकल्मषा लोके गीता याता परं पदम् ।।२०।।
गीता का आश्रय लेकर बहुत से जनकादि राजा लोग संसार में पापों को धोकर अर्थात नष्ट करके परमपद को प्राप्त हुुए हैं ।।२०।।
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत ।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह्युदाहृत्यः ।।२१।।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह्युदाहृत्यः ।।२१।।
जो गीता का पाठ करता है किन्तु माहात्म्य का पाठ नहीं करता उसका पाठ व्यर्थ हो जाता है, श्रम मात्र ही कहा जाता है ।।२१।।
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं करोति यः ।
स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात् ।।२२।।
स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात् ।।२२।।
इस प्रकार माहात्म्य सहित जो गीता का अभ्यास करता है वह उसका फल प्राप्त करता है एवं दुर्लभ मोक्ष प्राप्त करता है ।
सूत उवाच---
माहाम्यमेतद्गीताया मया प्रोक्तं सनातनम् ।
गीतान्ते च पठेद्यस्तु तदुक्तं तत्फलं लभेत् ।।२३।।
गीतान्ते च पठेद्यस्तु तदुक्तं तत्फलं लभेत् ।।२३।।
सूत जी कहते हैं--- इस प्रकार मेरे द्वारा गीता का सनातन महात्म्य कहा गया है । गीता पाठ के बाद माहात्म्य का पाठ करने से गीता पाठ का फल मनुष्य प्राप्त करता है ।।२३।।
इति श्रीवाराहपुराणे धराप्रोक्तं श्रीगीतामाहात्यं सम्पूर्णं ।। ओ३म् !
ध्यानम्----
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।।१।।
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-
र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ।।२।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।।१।।
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-
र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ।।२।
वंशीविभूशितकरान्नवनीरदाभा-
त्पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोठात् ।
पूर्णेन्दु सुन्दरमुखादरविन्दनेत्रा-
त्कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ।।३।।
गीता की प्राथमिक संगति—
श्रीमद्भगवद्गीता 'धर्म' से प्रारम्भ होकर उपसंहार 'मम से होता है । यहाँ कहा जा सकता है कि आदि रस्सी अन्त रस्सी तो कहना नहीं पड़ेगा कि मध्य भी रस्सी ही है । आदि का धर्म और विश्रान्ति का मम शब्द से होना यही सूचित करता है कि सम्पूर्ण गीता धर्म का अर्थात मानव मात्र का कर्तव्य, न्यायपूर्वक परस्पर समाज का उत्थान 'परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ' ३/११ का विचार करते हुए 'अहं' तथा 'मम' पर ही गंम्भीरता पूर्वक विचार किया गया है । गीता का परम लक्ष्य मानव मात्र के सुख की आत्यन्तिक चरम सीमा को प्राप्त कराना है, जो आत्मैक्य के बिना संभव ही नहीं है । यही अन्तिम मम से लक्षित होता है । अतः कहना नहीं होगा कि मानव मात्र का कल्याण चाहने वाली गीता अपने प्रत्येक श्लोक में, प्रत्येक परिस्थिति में वर्ण, आश्रम, जाति, धर्म, देश, काल आदि के अनुसार सबको अधिकारभेद से अलग अलग उपदेश करती है जो जिस स्थान पर है उसी स्थान पर खड़ा होकर विचार करे तो उसको उसी स्थान पर वैसा ही उपदेश देकर शान्ति प्राप्त कराती है । उसमें किसी भी प्रकार का कोई भी भेद नहीं करती ।
धृतराष्ट्र भी इसी दृष्टिकोण को रखकर युद्धक्षेत्र को धर्मक्षेत्र सम्बोधित करते हैं, क्योंकि धर्म को ही आगे करके कर्म करने से मानव का कल्याण हो सकता है, इतर से नहीं । धृतराष्ट्र भी सामान्य व्यक्ति कैसे हो सकते हैं ? जिनको स्वयं सनत्सुजात जी ने ब्रह्मविद्या का उपदेश किया था । मैं प्रथम अध्याय के श्लोकों का भावार्थ न लिखकर मूलमात्र लिखूंगा । अर्थ लगभग स्पष्ट ही है । आवश्यकतानुसार अगले अध्यायों में उदाहरण रूप से प्रस्तुत करूंगा ।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
शङ्करं शंकराचार्यं केशवं बादरायणं ।
सूत्रभाष्य कृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ।।
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेद विभागाने ।
व्योमवद्व्याप्यदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ।।
सूत्रभाष्य कृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ।।
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेद विभागाने ।
व्योमवद्व्याप्यदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता॥
ॐश्रीपरमात्मने नमः।।
अथ प्रथमोऽध्यायः
धृतराष्ट्र उवाच----
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्वाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥१/१॥
मामकाः पाण्वाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥१/१॥
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥१/२॥
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥१/३॥
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥१/४॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥१/५॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥१/६॥
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ १/७॥
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ १/८॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ १/९॥
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥१/३॥
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥१/४॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥१/५॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥१/६॥
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ १/७॥
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ १/८॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ १/९॥
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥१/१०॥
अन्वय १- इदं अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितं पर्याप्तं, तत् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितं अपर्याप्तम् ।
अन्वय २- इदं अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितं अपर्याप्तं, तत् भीमाभिरक्षितं एतेषां बलं पर्याप्तम् ।
हमारी मान्यता ---- यद्यपि अधिकांश विद्वानों ने दूसरे अन्वय को ही ठीक माना है, तथापि मुझे पहला अन्वय ही श्रेष्ठ लगता है । क्योंकि पाण्डवों के पास मात्र ७ अक्षौहिणी सेना थी, जबकि कौरव सेना ११ अक्षौहिणी थी । जबकि पाण्डव पक्ष से श्रीकृष्ण शस्त्र ग्रहण न करने के लिए प्रतिज्ञा बद्ध थे अर्जुन, सात्यकि आदि जैसे अतिरथी भी पाण्डव सेना में कम ही थे, जबकि कौरव सेना में भीष्म, द्रोण, कृप आदि की समानता देवता भी नहीं कर सकते थे । दूसरी बात ये कि जिसका मन ११अक्षौहिणी सेना के साथ भी पहले से ही भयभीत हो वह युद्ध क्यों करेगा ? अतः हमारे लिए अज्ञानमय अहङ्कार का प्रतीक पहला अन्वय ही इष्ट है ।।१०।।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥१/११॥
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥१/१२॥
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१/१३॥
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥१/१४॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥१/१५॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥१/१६॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथाः ।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥१/१५॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥१/१६॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथाः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥१/१७॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥१/१८॥
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥१/१८॥
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥१/१९॥
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥१/२०॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।।
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥१/२०॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।।
अर्जुन उवाच----
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥१/२१॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ।।१/२२॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।।१/२३।।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ।।१/२२॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।।१/२३।।
सञ्जय उवाच----
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥१/२४॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥१/२५॥
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥१/२४॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥१/२५॥
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥१/२६॥
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥१/२७॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत ।।१/२६।।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत ।।१/२६।।
अर्जुन उवाच-----
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥१/२८॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥१/२९॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥१/३०॥
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥१/३१॥
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥१/३२॥
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥१/३०॥
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥१/३१॥
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥१/३२॥
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥१/३३॥
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥१/३४॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥१/३५॥
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥१/३४॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥१/३५॥
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ॥१/३६॥
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥१/३७॥
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥१/३८॥
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥१/३७॥
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥१/३८॥
भावार्थ----साधक के लिए विचारणीय यह है कि यद्यपि ये सभी परिवारी कुटुंबी, मित्रादि विषयी हैं विषयों के लिए ही लड़ना झगड़ना इनका काम है, लेकिन हमारा जन्म अध्यात्म की चरम सीमा को प्राप्त करने के लिए हुआ है, अतः हम इन अविवेकी विषयी लोभ ग्रस्त, लड़-झगड़कर कर मरने वालों की तरह नाशवान संसार के तुच्छ विषयों के चक्कर में अपना जीवन क्यों बरबाद करें ? ।।३८।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥१/३९॥
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥१/३९॥
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥/१/४०॥
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥१/४१॥
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥१/४२॥
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥१/४३॥
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥१/४४॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥१/४५॥
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।।१/४६॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥१/४५॥
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।।१/४६॥
भावार्थ---- यद्यपि यहां यह अर्थ नहीं है तथापि जिज्ञासु या मोक्ष कामी को इस श्लोक से यह समझना चाहिए कि सत्य असत्य का विवेक न रखने वाले ऐसे विषयी लोगों को अर्जुन के इस अन्तिम आत्मसमर्पण जैसा निर्णय लेकर विषयी विषयों को आत्मसमर्पण अर्थात विषयों के अधीन होकरके मर जाना ही श्रेष्ठ समझते हैं, लेकिन मैं इन विषयों और विषयी लोगों के चक्कर में अपना परमात्मा की प्राप्ति हेतु मिला जन्म क्यों नष्ट करूँ, मैं तो भगवान का भजन इनसे दूर रहकर ही करूंगा । इसके लिए १/३८ में भी देखना चाहिए ।
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥१/४७॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
ॐ अर्थात सच्चिदानन्दघनस्वरूप परमात्मा सत्स्वरूप है एवं उसे तत् पद से जाना जाता है उस परमात्मा की व्याख्या इस प्रकार से दैवी संपत्ति एवं षडैश्वर्य प्रदान करनेवाली गीता नामक उपनिषद के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या के वर्णनान्तर्गत योगशास्त्र अर्थात जीवात्मैक्य रूप समता प्रदान करने वाले शास्त्र के अन्तर्गत श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के माध्यम से अर्जुन के विषाद नामक प्रथम अध्याय का विश्राम हुआ ।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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