गीता मेराचिन्तन अध्याय ५

ॐश्रीपरमात्मने नमः
              

अथ पञ्चमोऽध्यायः

              पूर्व अध्याय से संबंध---- पूर्व अध्याय में किं कर्म किमर्मेति इत्यादि से कर्म का और ज्ञानानग्निः दग्धकर्माणं इत्यादि से ज्ञान का का विवेचन करके  समभाव में स्थित होकर मुमुक्षु को कर्म करने का आदेश दिया गया तथापि अर्जुन कर्म त्याग पर ही बल दे रहा है क्योंकि उसके मन में ‘कर्मणाबध्यते जन्तुर्विद्यया विमुच्यते’ बैठा है । आत्मा में कर्म का त्याग कैसे करना है यह बताने के लिए पांचवें अध्याय का आरंभ किया जाता है.....
अर्जुन उवाच
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चतम् ।।५/१।।
             शब्दार्थ---- अर्जुन बोले― हे कृष्ण ! आप कर्मों के संन्यास की और पुनः कर्म की प्रशंसा करते हो इन दोनों में जो श्रेष्ठ हो वह सुनिश्चित करके मुझसे कहो ।
              तात्पर्यार्थ---- प्रिय मुमुक्षु साधकवृन्द ! हम सभी साधक हैं या नहीं ? हम साधक बनना चाहते हैं या नहीं ? हम सभी का जीवन प्रश्नों से परिपूर्ण है । हमें अनेक बार हमारे हित की बात उदाहरण देकर समझाया जाता है तथापि हमारा मन इतना मोहमय कल्मष से परिपूर्ण होता है कि जो हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं होता है और अधिकार न होने से पतन भी सुनिश्चित होता है, उसी को करते हैं या श्रेष्ठ मानते हैं । अब यहीं पर देखिए न.... श्रीभगवान ने पहले ही कह दिया कि एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु २/२९ अर्थात यह जो विचार कहे हैं तेरे लिए विहित नहीं हैं यह विचार सर्वत्यागी संन्यासी के लिए हैं तू अभी मोहग्रस्त है ‘यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्ताऽसि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च’ ।।२/५२ ।। अर्थात जब तेरी बुद्धि मोह के दलदल को पार कर जायेगी तब तू इस सांख्ययोग का अधिकारी होगा अभी तो अ.१ में नानाप्रकार के जो विवेक रहित मोहमय उदाहरण दिया है और जो भिक्षुक रहने की बात करता है वह कोई शास्त्रीय नहीं है । वह नानाप्रकार की जो सकाम फलश्रुति सुन रखी है उसका भ्रम है श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला २/५३ अर्थात जब नानाप्रकार से शास्त्रों में सुने गये विरोधी व्याख्यान का भ्रम मन से निकल जायेगा तब तू स्थिर होगा । फिर सिद्धों का लक्षण सुनकर अपने हित की बात का विचार न करते हुए पुनः ज्ञान कर्म पर आशंका करके किसी एक को करने को कहा तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽमानुयाम् ३/२ , इस पर श्रीभगवान ने न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं ३/४ कहते हुए किं कर्म किमकर्मेति ४/१६ कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ४/१८ से कर्तव्यकर्म की विधिवत परिभाषा समझाया । तथापि अर्जुन को न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ४/३८, ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते इत्यादि क्यों कहा गया इस पर ध्यान न देकर फल पर ध्यान गया । अतः निर्णय न कर सका कि मैं क्या करूँ ?
                    हम सबका अर्थात जो अपना कल्याण चाहते हैं उन सबको सिखाने के लिए अर्जुन प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, क्योंकि कल्याण उसी का होना है जो येनकेन प्रकारेण अपना कल्याण चाहता है । जो अत्यंत मूढ़ है और जिनका विषय और ८४का चक्र ही कल्याण है उनके लिए और न कोई दूसरा उपदेश है, न कल्याण, उन प्रकृति के सहायकों को नमस्कार है क्योंकि पशुवत्, वृक्षवत् जीवन जीने वाले ही तो अगला जन्म लेकर पशु, वृक्षादि के वंश की शोभा बढ़ायेंगे । जिनका कल्याण हो चुका है अर्जुन उनका भी प्रतिनिधित्व नहीं करते क्योंकि वे स्वयं साक्षात् कल्याणस्वरूप हैं । अतः यह सिद्ध हुआ कि संसार चक्र से विक्षुब्ध होकर मन वैराग्य को प्राप्त हो गया है तथापि अभी नानाप्रकार के मोहमय कल्मष, संशय विपर्यय बुद्धि में अर्थात जो श्रुति-शास्त्र-आचार्य से सुना उसका विपरीत भाव मन में उत्पन्न होना जिसके कारण निश्चय नहीं हो पाता और भ्रम हो जाता है, ऐसे जिज्ञासुओं के लिए अर्जुन प्रतिनिधित्व करते हुए कहते हैं कि हे कृष्ण ! आपने सर्वत्याग संन्यास की महिमा का भी बखान किया तथापि योग की महिमा का बखान करते हुए योगमातिष्ठोत्तिष्ठ ४/४२ कहते हो एक ही काल में एक ही व्यक्ति से दोनो कार्य संभव नहीं हैं अतः आप पूर्णतः सुनिश्चित करके किसी एक को ही कहो जिसे किया जाये ।।१।।

               संबंध--- अर्जुन की बात सुनकर श्रीभगवान कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं....
श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकराउभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यात्कर्मयोगो विशिष्यते ।।५/२।।
              शब्दार्थ---- श्रीभगवान बोले― संन्यास अर्थात सांख्ययोग और कर्मयोग दोनो ही कल्याणकारी हैं, इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है, किन्तु उन दोनों में ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग ही श्रेष्ठ है ।
                     तात्पर्यार्थ---- प्रत्येक महापुरुष, महामानव, गुरुजन जो तत्त्व में पूर्णतः प्रतिष्ठित हो चुके हैं उनकी महिमा वही जानें । आज एक निंदा न्याय समाज में प्रचलित है, एक की प्रशंसा करने के लिए दूसरे की निंदा करना, किन्तु श्रीभगवान अंग-अगी न्याय का आश्रय लेकर कर्मयोग की स्तुति करते हैं, क्योंकि ये पीछे उन्हीं के वाक्य हैं ‘न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म सङ्गिनाम्’ ३/२६ एवं कृत्स्नविन्न विचालयेत् ३/३९ अर्थात बुद्धिमान को उचित है कि जिसकी बुद्धि जिस शास्त्रीय कर्म में लगी है उसको वहाँ से विचलित न करे, स्वयं भी करे और दूसरे से भी कर्मों की स्तुति करके करवाये, कर्मों का स्वरूप अत्यंत गंभीर है, अज्ञानी कुछ समझता नहीं । अतः कर्म न करना से करना ही श्रेष्ठ है “शरीर यात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ३/८ कर्मयोग को विशेष क्यों कहतै हैं” ? देखिये चित्त शुद्ध हुआ नहीं, किसी कारण से घर त्यागकर संन्यास ग्रहण कर लिया । आप श्रवण,मनन एवं अन्तःकरण चतुष्टय संपन्न भी नहीं हैं तो वैराग्य टिकने वाला नहीं । गुरु के बातये हुए प्रेषमंत्र, महावाक्य को ही भूल गये अथवा याद भी है तो उसक प्रयोग ही पता नहीं और कूड़े कचरे की पेटी में जैसा कचरा रहता है, वैसे ही प्रेष का उपयोग है । आज हमारे समाज में ऐसे तथाकथित संन्यासियों, वैरागियों की बरसाती नाले की तरह बाढ़ आ गई है । अपना स्वधर्म त्यागकर कहाँ लगे हैं यह किससे छिपा है ? ऐसे संन्यास की अपेक्षा श्रीभगवान कहते हैं कि कर्मयोग ही श्रेष्ठ है क्योंकि संन्यास जिन कर्मों को करने के बाद नैष्कर्म्य को प्राप्त किया जाता है वह सब संन्यासी का हो चुका है । वह संन्यास तो उसका आत्मस्वरूप हो चुका है । उसको किसी कर्म की आवश्यकता नहीं है तस्य कार्यं न विद्यते ३/१७, किन्तु जिनके लिए अभी चित्तशुद्धि नहीं हुई है वे ज्ञानियों की देखा-देखी यदि कर्म का त्याग करते हैं तो वे ज्ञान और कर्म दोनो से भ्रष्ट हो जायेंगे । वे कहीं के नहीं रहेंगे ।अतः चित्तशुद्धि के निमत्त कर्मयोग से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ साधन है ही नहीं । ऐसा तात्पर्य है न कि संन्यास को नीचा दिखाना या निंदा करना । इस प्रकार के अभी और आख्यान आयेंगे जहाँ अविवेकी निर्णय ही नहीं कर पाते कि श्रीभगवान ने क्या कहा है ? और हमें क्या करना है ?
                       भावार्थ---- कर्मयोग की स्तुति करके कर्तव्यपालन में लगाना ।।२।।

                      संबंध----कर्मयोग के बाद कर्मयोगियों की प्रशंसा......
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।५/३।।
           शब्दार्थ---- क्योंकि हे महाबाहो ! नित्यसंन्यासी तुम उसी को जानो जो न किसी से द्वेष करता हो, न किसी से भी कोई इच्छा रखता हो और निर्द्वन्द्व हो वही सुख पूर्वक कर्मबन्धन से भलीभाँति मुक्त होता है ।
                    शब्दार्थ---- अर्जुन ने कहा था श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके २/५ अर्थात संन्यास ही श्रेष्ठ है, इस पर श्रीभगवान कहते हैं ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी अर्थात संन्यास लेना चाहते हो, लेकिन जानते भी हो कि संन्यास किसे कहते हैं ? पहले यह तो जान लो कि जो किसी से द्वेष नहीं करता है, क्या तुम किसी से द्वेष नहीं करते ? अगर नहीं करते तो तुम्हारे अन्दर राग कहाँ से आया ? क्योंकि एक की अपेक्षा ही दूसरा संभव है । वह किसी से किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं रखता, क्या तुम्हारे अन्दर कोई इच्छा नहीं है ? यदि नहीं है तो यह क्यों कहा--- यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः, यानेव हत्वा न जिजीविषामः २/६, ? संन्यासी निर्द्वन्द्व होता है, क्या तुम निर्द्वन्द्व हो गये ? अगर हां ! कुलक्षय कृतं दोषं १/३८, प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः १/४१ इत्यादि क्यों कहा ? इसलिए हे महाबाहो ! आप पुरुषार्थी हो, हमने जो संन्यासी के लक्षण कहे वे कर्ममार्ग से पूर्णतः संतुष्ट होकर उस सहज भाव को प्राप्त हुए हैं । राग द्वेष, इच्छा अनिच्छा, आदि सभी प्रकार के द्वन्द्वों से परे ये संन्यासी का सहज गुण अर्थात स्वभाव है । उस भाव को पाने के लिए भी कर्मयोगी अर्थात पुरुषार्थी बनो ।
                भावार्थ---- न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं ३/४ , अतः उस स्थिति की प्राप्ति के लिए कर्मयोग ही श्रेष्ठ है ऐसा तात्पर्य है न कि संन्यासी को लघु दिखाने का ।।३।।

                 संबंध---- इस प्रकार कर्मयोग और कर्मयोगी की प्रशंसा करके अब ज्ञान और कर्म की एकता का प्रतिपादन करते हैं.....
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।५/४।।
            शब्दार्थ---- ज्ञान और योग अलग अलग है यह अविद्याग्रस्त अज्ञानी कहते हैं बुद्धिमान नहीं, क्योंकि दोनो में से एक का भी भलीभाँति अनुष्ठान किया जाये तो दोनो का फल प्राप्त होता है ।
                  तात्पर्यार्थ---- जो अर्जुन ने संन्यास के बारे में पूछा था वही यहाँ सांख्ययोग समझना चाहिए । इस ज्ञान योग में ही स्वयं को स्वयं में देखना और ब्रह्मरूपता का अनुभव किया जाता है । आत्मन्येवात्मनातुष्टः २/५५, आत्मरतिः ३/१७, आत्मवान्, आत्मवन्तः आदि कहा गया एवं ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति १३/२४,  । अब कर्मबन्धन का खंडन करके कर्म के साथ संयुक्त योग के साथ कहते हैं– समत्वं योग उच्यते २/४८, अर्थात कर्म को योग बना लो उसमें सम भाव बना लो क्योंकि राग द्वेषादि रहित होकर संन्यास सम भाव की स्थिति है तभी वेदों को साक्षी मानकर अभयं सर्वभूतेभ्यः ददाम्येतत्व्रतं मम् का संकल्प करके उसमें स्थित होता है । इस प्रकार संन्यासी जिस भाव में सहज है उसी भाव में कर्म को योग बनाकर प्राप्त हो जाओगे, फिर जो संन्यासी के ज्ञान का फल होता है वही मोक्षफल तुम कर्मयोगी को भी मिलेगा इसी को ‘कर्मयोगेन चापरे’ कहा गया है । इस प्रकार दोनों में अपने अधिकारानुसार एक का भलीभाँति अनुष्ठान करने पर दोनो का मिलने वाला एक ही फल मोक्ष प्राप्त हो जाता है ।
                  भावार्थ---- ऐसी जगह पर ही लोग भ्रमित हो जाते हैं कि जब दोनो का फल एक ही है तो यह क्यों करें, वह क्यों नहीं ? तथापि ये अविवेक प्रधान बच्चों की बुद्धि है । श्रीभगवान ने स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि २/३० एवं श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः ३/३६ पर भी ध्यान देना चाहिए एवं अपने अधिकार का चयन करके ही पुरुषार्थ पूर्वक सिद्धि प्राप्त करना चाहिए । अन्यथा धोबी का कुत्ता वाली कहावत चरितार्थ होगी ।।४।।

                 संबंध----  पुनः सांख्य और योग की एकता का प्रतिपान करते हैं.....
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५/५।।
           शब्दार्थ---- जो परमतत्त्व सांख्ययोगियों द्वारा प्राप्त किया जाता है वही कर्मयोगियों द्वारा प्राप्त किया जाता है फलप्राप्त्यर्थ सांख्य और योग को जो एक देखता है वास्तव में वही ठीक देखता है ।
                 तात्पर्यार्थ----इस श्लोक में पूर्व के श्लोक को ही प्रकारान्तर से पुष्ट किया गया है । सांख्य और योग साध्य साधन भाव से भिन्न हैं, क्योंकि सांख्य साध्य है और कर्म साधन । ज्ञान द्वारा ही संशय का नाश होता है यह ज्ञान बिना चित्त शुद्धि के प्राप्त नहीं होता । चित्तशुद्धि होने पर स्वतः सर्वकर्म संन्यास हो जाता है । अतः कर्म को योग बनाकर सर्वकर्म संन्यास करे । इस प्रकार फलप्राप्ति दृष्टि से एक ही हैं, भिन्न नहीं । यहाँ श्रीभगवान ने दोनो का एक ही फल बताकर श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः के अनुसार यह कह रहे हैं कि तुझे कल्याण अर्थात मोक्ष ही चाहिए न ? तो जब दोनो का फल एक ही है तो अपना स्वधर्म प्राप्त युद्ध अर्थात स्वाभाविक कर्म क्यों न कर ? स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दन्ति मानवाः १८/४६ इत्यादि अवलोकन कर लेना चाहिए ।।५।।

                   संबंध---- संन्यास अर्थात ज्ञान की दुर्लभता बताकर कर्मयोग की प्रशंसा.....
सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधि गच्छति ।।५/६।।
            शब्दार्थ---- क्योंकि हे महाबाहो ! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात सांख्ययोग प्राप्त करना कठिन है जबकि कर्मयोग से युक्त मननशील मुमुक्षु शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है ।
                  तात्पर्यार्थ---- इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में भी कर्मयोग की प्रशंसा की गई है और यहाँ भी संन्यास को कठिन बता रहे हैं । संन्यास कठिन ही नहीं बल्कि अजितेन्द्रिय के लिए वन्ध्यापुत्रवत् है । संन्यास संपूर्ण शास्त्रीय कर्मों से तृप्त होकर उनके स्वर्गादि फलों से भी तृप्त होकर अर्थात जो ऐषणात्रय का भी त्याग कर चुका है, जीने मरने और मोक्ष तक की कामना नहीं रह गई है आत्मन्येवात्मनातुष्टः २/५५ आत्मरतिः ३/१७ इत्यादि में स्थित स्वयं मोक्षस्वरूप है । वही ज्ञानी सर्वकर्म संन्यासी है । यदि ऐसा नहीं तो संन्यास आकाश कुसुम, खरगोश के सींग जैसा ही है, जबकि मननशील जानता है ‘न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यम्’ ३/४, वह कर्म को योग अर्थात समत्व भाव से उसी परमपद को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि वह जानता है कि हमारे लिए वही सांख्ययोग का फल देने वाला सरल मार्ग है और हमारे लिए चित्तशुद्ध्यर्थ यही मार्ग श्रेष्ठ है । ऐसा तात्पर्य है । अर्थात जो अर्जुन ने संन्यास और कर्म का एक निश्चित मत पूछा था वह यहाँ बता दिया ।।६।।

              संबंध----मुमुक्षु के लिए योग निश्चित करके वह नैष्कर्म्य को कैसे प्राप्त करता है यह बता रहे हैं……
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।५/७।।
            शब्दार्थ---- समता में स्थित निर्मल जितेन्द्रिय एवं शरीर को अपने आधीन रखने वाला संपूर्ण प्राणियों का आत्मा कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता ।
                  तात्पर्यार्थ---- इस श्लोक में विभिन्न संप्रदायों के शाब्दिक अर्थ में बड़े मतभेद हैं । विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक द्वैताचार्य ने विशुद्धात्मा और विजितेन्द्रियः के अर्थ में गोलमोल किया है । आप  की बात हम समझ नहीं सके संभवतः मैं आपके ज्ञान का अधिकारी नहीं हूँ । जो जिसका अधिकारी होता है, उसको वही बात समझ में आती है । गौड़ीय संप्रदाय वालों ने विशुद्धात्मा का अर्थ शुद्ध अन्तःकरण और विजितात्मा का अर्थ बुद्धि को वश में करना बताया है । यहाँ पर इनके मत के अनुसार यदि समझेंगे तो विजितात्मा का अर्थ मन करने पर किसी का विरोध नहीं होता तो विरोध विशुद्धात्मता में परस्पर है । अतः विशुद्धात्मता का अर्थ यदि हम अन्तःकरण मान भी लेते हैं, तो कोई क्षति होती दिखाई नहीं देती क्योंकि शमदमादि से नियंत्रित हुआ मन ही संपूर्ण इन्द्रियों को भी वश में करता है, मन और इन्द्रियों के वश में होने पर ही अन्तःकरण अर्थात चित्त शुद्ध होगा, इस प्रकार जिसका चित्त शुद्ध हो गया है वही सम्पूर्ण प्राणियों आत्मभाव देख सकता है अन्य नहीं । स्वयं आनन्दगिरि जी ने भी शुद्ध अन्तकरण दर्शाया है तथापि अर्वाचीन वैष्णव महात्मा स्वामी रामसुखदासजी और हमारे अद्वैताचार्यों के अर्थ में समानता है, अतः हमारे लिए यही अर्थ उचित है जो आगे दिया जा रहा है हम आप सभी को जिनसे हमारे निम्न विचार नहीं मिलते हो क्षमा याचना पूर्वक विचार रखने की अनुमति चाहता हूँ ।
                यहाँ पर पहले योगयुक्तो कहा गया है, योग अर्थात बिना समत्व बुद्धि के विशुद्ध अन्तःकरण होना कठिन है । अतः पहले अन्तःकरण चतुष्टय को आत्मसात करते हुए पहले इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे फिर विजितात्मा होने का प्रयास करे । विजातात्मा के विषय में पहले शंकरानन्दी टीका का आश्रय लेकर समझते हैं..... विशुद्धात्मत्वं जितेन्द्रियत्वं च चिरकाल समनुष्ठित समाध्येकलभ्यमत एव विजातात्मा अर्थात विशुद्धात्मता और जितेन्द्रियता चिरकाल अनुष्ठित समाधि से ही प्राप्त होती है इसीलिए विजितात्मा है, एवं.... आत्मा यत्नधृति स्वान्तःस्वभाव परमात्मसु इति अभिधानात् विजितो निर्जितो निर्यापित आत्मा स्वभावो बाह्यवासनालक्षणो येन स विजितात्मा अर्थात यत्न, धृति, अन्तःकरण, स्वभाव, परमात्मा में आत्म शब्द का प्रयोग होता है इस कथन से विजित अर्थात जीत लिया है यानी दूर कर दिया है, आत्मा― यहाँ आत्मा का अर्थ किया बाह्यवासना रूप स्वभाव जिससे वह विजातात्मा है । कम शब्दों में----  समाधि निर्मूलित अनात्मवासन इत्यर्थः । अर्थात एकान्त में रहकर जिसने अपनी बाह्य वासनाओं को निर्मूल अर्थात जड़ से खतम कर दिया है ऐसा जो विजातात्मा है ।
          यह भी थोड़ा समझने में कठिन हो सकता है अतः इसप्रकार समझते हैं------ पहले तो हमें योग अर्थात समत्व बुद्धि अपनाना होगा क्योंकि जब तक सर्दी गर्मी, सुख दुःख,जय पराजय में सम बुद्धि नहीं होगी, तब तक मन अनियंत्रित होगा वह निर्मल नहीं हो सकता, अतः योगयुक्त का अर्थ समत्व बुद्धि से युक्त होकर, फिर विशुद्धात्मा होने का अर्थ कि अन्तःकरण अर्थात मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये चारों मिलकर एक मन रूप में ग्रहण करने पर― जब मन में निर्मलता होगी, किसी प्रकार का छल दंभ आदि नहीं होगा तभी वह इन्द्रियों को जीतने में सफल हो सकेगा । अतः पहले मन की निर्मलता और मन की निर्मला से जितेन्द्रियता और जितेन्द्रिय होने पर ही वासनाओं को निर्मूलित करके ही शरीर को वश में अर्थात शरीर संचालन मात्र से जो आवश्यक है दे दिया प्राण संचार हो रहा है अधिक देने से शरीर प्रमादी होगा ऐसा समझकर बाह्य वासनाओं पर नियंत्रण करके शरीर को भी जिसने नियंत्रित कर लिया है । इस प्रकार मन, शरीर, और इन्द्रिय निग्रह रूप जिसने तीन दंड़ धारण किये हैं ऐसा त्रिदंडी मननशील मुमुक्षु संपूर्ण जो चींटी से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त संपूर्ण प्राणियों की आत्मा हो गया है वह सभी कर्म करता हुआ भी कर्मबन्धन से नहीं बंधता अर्थात जन्ममृत्यु रूप बंधन का अतिक्रमण करके मोक्ष को प्राप्त करता है ।
                 भावार्थ---- भावार्थ ऐसा भी ले सकते हैं कि क्षुधा-पिपासा से मन भी अनियंत्रित हो जाता है और अनियंत्रित मन के होने पर इन्द्रियां भी अनियंत्रित होंगी । अतः शरीर की क्षुधा-पिपाशा का नियंत्रित मन एवंं नियंत्रित इन्द्रियों के द्वारा शरीर की क्षुधा-पिपासा को शान्त करके, ऐसा जिसका निर्मल शरीर अर्थात आलस्य प्रमाद आदि से रहित शरीर वाला ही नित्य आत्मैक्य भाव का अभ्यास करके ही सम्पूर्ण प्राणियों को अपना आत्मा देखता हुआ जो कर्म करता है उन कर्मों और उनके फल से लिपायमान नहीं होता ।
         सारांश👉 इन्द्रियों पर यहाँ भी यही दिखाया गया है कि आत्मैक्य के बिना भिन्नभाव से मोक्ष संभव नहीं है ।
          सूचना👉 विशुद्धात्मता का भाव श्लोक ५/१३ में भी स्पष्ट किया गया है ।।७।।

          संबंध---- आगे और भी कर्मबन्धन से न बंधने का कारण दिखा रहे हैं......
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्पञ्श्वसन् ।।५/८।।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।।५/९।।
            शब्दार्थ---- तत्त्ववेत्ता सांख्ययोगी देखता हुआ, सुनता हुआ स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यगता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आंखो की पलकों को खोलता और बंद करता हुआ, यह सब इन्द्रियां ही अपने अपने विषयों को विषय कर रही हैं मैं कुछ नहीं करता ऐसी धारणा करे अर्थात माने ।
              तात्पर्यार्थ---- यहाँ तत्त्ववित् समझने के लिए ३/२८, ३० की व्याख्या देखना चाहिए एवं पश्ञ्श्रृण्वन् आदि को भी गुणा गुणेषु वर्तन्त ३/२८ देखना चाहिए । कर्तापन के अभिमान से रहित होना ही लक्ष्य है ।।५/८-९।।

                  संबंध----- अब यह बता रहें कि जिस मुमुक्षु को ज्ञान नहीं हुआ है, वह कर्म से लिप्त किस प्रकार नहीं होता है......
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्सा ।।५/१०।।
             शब्दार्थ---- कर्मों की फलासक्ति का त्याग करके जो कर्मों का ब्रह्म में आधान अर्थात ब्रह्म को सौंप देता है वह कर्म के बन्धन रूप पाप से मुक्त हो जाता है ।
           तात्पर्यार्थ---- पहले एक बात समझकर रखना चाहिए कि जो भी कर्म हमें जन्ममृत्यु के बन्धन में डाले वह पाप ही हैं भले पुण्य दिखने में पुण्य दिख रहे हों, क्योंकि बिना पुण्य के पाप और पाप के पुण्य नहीं होता ।
                   हमने थोड़ा भी पूर्वापर को समझने का प्रमाद किया तो वर्तमान अर्थ भले ठीक लगे लेकिन वह अर्थ नहीं अनर्थ होगा, शास्त्र नहीं अशास्त्र होगा । अतः इस श्लोक को हमें दो दृष्टि से समझना होगा पहला ज्ञानी मुमुक्षु की दृष्टि से जो अब अज्ञानी नहीं है, जो संपूर्ण प्राणियों के साथ जो परमात्मा के साथ अभिन्न भाव देखता है तथापि परिछिन्नता नहीं गई है क्योंकि वर्तन्त इति धारयन् ५/९ कहा है । ऐसा ब्रह्मवेत्ता जो आरूढ़ हो चुका है, मैं ब्रह्म हूँ के भाव से भावित होकर परिच्छन्नता का भी त्याग कर चुका है, उसके लिए ऐसी धारणा संभव नहीं है, उसके लिए स्वरूप से भिन्न कुछ भी नहीं है, तो धारणा किसकी करेगा ? अतः ज्ञानी मुमुक्षु ही उपरोक्त धारणा सहित गुणा गुणेषु वर्तन्त ३/२८ आदि धारणा करेगा । 
                  ऐसा मुमुक्षु संपूर्ण कर्मों को ब्रह्म का अर्थ प्रकृति में आधान करके मैं ब्रह्म हूँ के भाव में स्थित होकर जो शरीर निमित्तार्थ शास्त्रीय कर्म करेगा उससे होने वाले पुण्य और पाप दोनो लिप्त नहीं होते अर्थात पुण्य पाप के फलस्वरूप जन्म मृत्यु का बन्धन स्पर्श भी नहीं करता, जैसे कमल के पत्ते पर जल नहीं ठहर सकता ठीक वैसे ही । यहाँ शंका हो सकती है कि ब्रह्म का अर्थ प्रकृति क्यों किया ? तो आप ही देखिए.... मम योनिर्महद्ब्रह्म १५/३।। ज्ञानी का स्वरूप से भिन्न कोई परमात्मा होता ही नहीं तो वह किस ब्रह्म को कर्म अर्पित करे ? अतः ब्रह्म का अर्थ ज्ञानी के लिए प्रकृति ही उचित है । यह अर्थ अर्थात मात्र ब्रह्म का अर्थ प्रकृति मात्र (शेष नहीं) यह अर्थ स्वामी रामानुजाचार्य जी द्वारा भी मान्य है ।
                  अब दूसरा अर्थ करते हैं जो स्वामी रामसुखदासजी सहित सभी अद्वैताचार्यों को भी मान्य है । ४/२४ में शुद्ध ब्रह्म का वर्णन करके उसका विस्तार दैवमेवाऽपरे ४/२५ से परब्रह्म और अपरब्रह्म का वर्णन किया गया है उपरोक्त अर्थ पर उपरोक्त अर्थ परब्रह्म आत्मवान् २/४५, आत्मन्येवात्मनातुष्टः २/५५, आत्मरतिः ३/१७ आदि की दृष्टि से है । अब नित्यसत्वस्थ २/४५ की दृष्टि से विचार करें तो श्रीभगवान ने अर्जुन को कहा था निस्त्रैगुण्य २/४५ होने के लिए पहला सूत्र निर्द्वन्द्व और दूसरा सूत्र नित्यसत्वस्थ होना था । नित्यसत्व क्या है ? संपूर्ण प्राणियों में एक ही परमतत्त्व परमात्मा को देखना सत्वगुण है सर्वभूतेषु येनैकं १८/२०, नानात्व देखना रजोगुणी १८/२१ और नानाप्रकार की अवैदिक उपासनाएं तमोगुणी १८/२२  हैं इस प्रकार के अन्तःकरण चतुष्टय संपन्न एकत्व भाव में स्थित होना ही सत्वस्थ है । वैसे ही उपासक की यहाँ परमात्मा में अर्पण की बात कही जा रही है, क्योंकि ज्ञानी तो आत्मस्वरूप में स्थित है और अज्ञानी को आधार चाहिए । इसलिये अपर ब्रह्म जो साकार-निराकार है और वही सब रूपों में है वासुदेवः सर्वम् ७/१९ ऐसा समझकर उपरोक्त ५/८-९ में इन्द्रियां इन्द्रियों में ही उनके विषयों को वर्त रही हैं के स्थान पर परमात्मा सर्व रूप है । वह परमात्मा इन्द्रिय इन्द्रिय के भोग और उनको भोगने वाला भी परमात्मा ही है मैं कुछ नहीं करता । इस प्रकार संपूर्ण कर्मों और उनके फलों को परमात्मा के अर्पण करके स्वयं को अकर्ता मानने वाला मुमुक्षु भी जल में कमलपत्र के समान कर्मबन्धन से लिप्त नहीं होता ।
          एक बात और ध्यान रखना चाहिए जिस निष्क्रिय ब्रह्म केवलाद्वैत का वर्णन किया जाता है वह स्थिति है, सहज भाव है उपासना नहीं उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए अधिकार प्राप्त स्वधर्म  का पालन अर्थात उपासना करना ही होगा, इसीलिये अपरब्रह्म ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ८/१३ की उपासना बताया और गति परब्रह्म की । जैसे सभी कर्मों का विनियोग ज्ञान में किया गया है, वैसे ही अपरब्रह्म की उपासना जिसको सगुण-निराकार भी कह सकते हैं क्योंकि उपासना साकार की होती है निराकार की नहीं । उपसना साकार और लक्ष्य निराकर होता है । अपरब्रह्म और परब्रह्म को स्वरूपतः जाने बिना साकार निराकार कहीं भी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, क्योंकि वह सर्वम् अर्थात सर्वरूप है । यही भाव समझाने के लिए श्रीभगवान ने अ.७-१०तक अपनी विभूतियों का वर्णन करके अ.११ में उनका साक्षात्कार करवा देते हैं । उन्हें समग्र भाव से समझकर परमतत्त्व को प्राप्त करना चाहिए ।
               भावार्थ---- अधिकार भेद से उपासना का स्वयं निर्णय करके उसमें स्थिति होकर निद्वन्द्व हो जाना चाहिए ।।१०।।
                 संबंध----उपरोक्त तभी संभव है जब मात्र चित्त शुद्धि के लिए उपासना करे.....
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ।।५/११।।
            शब्दार्थ---- कर्मयोगी केवल शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा कर्मफलासक्ति का त्याग करके केवल आत्मशुद्धि के लिए कर्म करे ।
              तात्पर्यार्थ---- योगीजन भगवदर्थ कर्म करते हैं । जो शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा कर्म होते हैं इसप्र कार कर्मफल की आसक्ति नष्ट हो जाती है । अतः योगी के द्वारा किया जाने वाला कर्म आत्मशुद्धि का हेतु बनता है ।।११।।

                  संबंध----युक्त-अयुक्त पुरुष द्वारा किये जाने वाले कर्मफल का कथन.....
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।।५/१२।।
                शब्दार्थ---- कर्मयोगी जो समत्व भाव में स्थित है कर्मफल का त्याग करके नित्यशान्ति को प्राप्त करता है, जबकि अयुक्त पुरुष अपनी कामनाओं के कारण फल की आसक्ति होने से बन्धन को प्राप्त होता है ।
                 तात्पर्यार्थ---- बन्ध-मोक्ष का हेतु कर्मफलासक्ति एवं उसका त्याग है जो आसक्ति रहित भगवदर्थ बुद्धि से कर्म करते हैं वे नित्य शान्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त होते हैं और कर्मफलासक्त जन्म मृत्यु के बन्धन को प्राप्त करता है ।।१२।।

                  संबंध----चित्तशुद्ध्यर्थ कर्म तो श्रेष्ठ है तथापि सर्वकर्म संन्यास की ही श्रेष्ठता का कथन........
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ।।५/१३।।
            शब्दार्थ---- नव द्वार वाले शरीर से कर्म करता हुआ भी जिसने संपूर्ण कर्मों को मन से त्याग दिया है वह न तो कोई कर्म करता ही है और न ही करवाता ही है । सदा प्रसन्न रहता है ।
                  तात्पर्यार्थ---- हमें प्रतिक्षण पूर्व में कहे गये प्रसंग का स्मरण अवश्य करना चाहिए । हमें पहले देही वशी पर विचार करना चाहिए देही अर्थात वह शरीराभिमानी आत्मा जिसने अपनी संपूर्ण इन्द्रियां वश में कर रखी हैं अर्थात योगयुक्तो विशुद्धात्मता विजितात्मा जितेन्द्रियः ५/७ इन चार लक्षणों से संपन्न शरीरधारी आत्मा ही “देही वशी" है । वही आत्मा नौ द्वार वाले शरीर में ---- नौ द्वार ही क्यों कहा जबकि द्वार शरीर में ११ होते हैं ? इसलिए कि दसवां द्वार मूर्धा और ग्यारहवां द्वार नाभि बन्द होते हैं, जबकि दो नाक, दो कान, दो आंखें, मुख, गुदा, और लिंग/योनि ये नौ द्वार सदैव सक्रिय रहते हैं, पहले विशुद्धात्मता ५/७ में कह चुके हैं अर्थात इनका भी शोधन करके जो निर्मल शरीर है उसमें वह आत्मा मन से सभी कर्मों का त्याग करके सुख पूर्वक रहता है । वह न कुछ करता है और न करवाता ही है । क्योंकि वह जानता है किं कर्म किमकर्मेति ४/१६ क्या है ? कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ४/१८ के रहस्य को जानता है ।
                 शंका होती है कि ज्ञानी को सुखपूर्वक शरीर में रहने की बात कही लेकिन अज्ञानी भी तो शरीर में सुखपूर्वक रहता है, इसमें नया क्या है ? इस पर समाधान यह है कि अज्ञानी शरीर को ही आत्मा मानकर उसकी अनुकूलता, प्रतिकूलता पर सुखी-दुःखी होता है, शरीर से भिन्न भूमि पर ही उसका घर आदि दृष्टिकोण होता है, जबकि ज्ञानी अपने को शरीर से भिन्न और इसे ही घर मानता है । जैसे अज्ञानी भूमिगत घर में रहकर ही सुख का अनुभव करता है वैसे ही ज्ञानी शरीर को ही घर मानकर सुखी होता है । अब पुनः शंका होती है कि ज्ञानी सब कुछ करता हुआ दिखाई देता है फिर भी वह कुछ नहीं करता यह बात समझ में नहीं आयी ? इसका समाधान यह है कि वह शरीर मन के द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों का गुणा गुणेषु वर्तन्ते ३/२८ एवं नैव किञ्चित्करोमीति ५/८-९ अर्थात वह जानता है कि मैं प्रकृति से परे हूँ अर्थात यह कार्य प्रकृति के हैं मेरे नहीं अतः उन कृत कर्मों से लिप्त नहीं होता । अथवा जैसे आकाश में बड़े-बड़े उत्पात सृष्टि, स्थिति, लय हो जाते हैं तथापि आकाश निर्लिप्त रहता है अजो नित्यः शाश्वतोऽयं २/२०, वासांसि जीर्णानि २/२२ अव्यक्तोऽयम् २/२५ आदि जिसका स्वरूप भाव स्थित है वह कैसे कुछ कर सकता है ? अथवा करवा सकता है ? अर्थात वह न तो कुछ करता ही है और न ही कुछ करवाता है ।
                      ठीक है..... लेकिन कुछ करवाता नहीं है यह कैसे मान लें ? क्योंकि मन बुद्धि, इन्द्रिय आदि को प्रेरणा तो देता ही है, क्योंकि बिना प्रेरणा के मन, बुद्धि आदि सक्रिय हो नहीं सकते, अतः कर्म करवाने का दोष तो लगेगा ही ? तो इस पर कहते हैं कि नहीं...., वह करवाता भी नहीं है तथापि अज्ञान वश लोग अध्यारोप करके ऐसा मानते हैं । जैसे सूर्य स्वयं तो प्रकाशस्वरूप है यह उसका सहज भाव है तथापि लोग कहते हैं कि सूर्य ने प्रकाश कर दिया, अंधेरा मिट गया जबकि सूर्य न तो किसी अंधेरे को ही जानता है और न ही प्रकाश करता है प्रकाश तो सहज है । जैसे चुंबक का सहज स्वभाव है लोहे को आकर्षित करना । उसको पता ही नहीं है कि मैं लोहे को आकर्षित करने वाला हूँ तथापि लोग कहते हैं कि चुंबक ने लोहे को आकर्षित कर अर्थात खींच लिया । इसी प्रकार उस निर्मल आत्मा की सत्तामात्र से संपूर्ण जड़ चेतन अपना कार्य कर रहे हैं उनसे आत्मा कुछ नहीं करवाता है । वह सहज है । ऐसा सहज भावस्थ आत्मा का ज्ञान हो जाने पर शरीर तो कर्म सहज भाव से गुणा गुणेषु वर्तन्ते के अनुसार करता रहता है और आत्मा कूटस्थ भाव से सुखपूर्वक निवास करता है ।
                   भावार्थ----जैसे आप कहीं यात्रा में गये रेलगाड़ी में जब आपने देखा कि सामने किसी का लावारिस कीमती सामान पड़ा है । आपने उसे अपने अधिकार में ले लिया । संयोग से जांच हुई और आपने अपना सामान बता दिया तथापि रहस्य खुल गया और आपको जेल की हवा खानी पड़ी, जबकि आपका दूसरा साथी भी देख रहा था कि वह कीमती सामान पड़ा है किन्तु न तो उसने स्वयं उठाया और न ही आपको उठाने या न उठाने की प्रेरणा ही दी । अतः पुलिस उससे कुछ नहीं बोली और वह अपने गन्तव्य स्थान तक सुखपूर्वक पहुंच गया । ठीक इसी प्रकार कार्य तो सारे प्रकृति ही कर रही है “कोई भी समय बिना कर्म के नहीं जाता क्योंकि प्रकृति क्रियमाण है और ये सभी क्रियमाण गुण प्रकृति के हैं ३/३५ तथापि अज्ञानी उन प्रकृतिजन्य कर्मों को स्वकृत मानकर जन्म-मृत्यु के कारणभूत कर्म बन्धन को प्राप्त होता है और ज्ञानी प्रकृति के रहस्य को जानकर कूटस्थ या उदासीन हो जाता है, अतः वह परम पुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त कर लेता है और उसे करने कराने या प्रेरणा देने का दोष भी नहीं लगता ।।१३।।

                    संबंध---- अब यदि शंका हो कि वह आत्मा कुछ नहीं करती/कराती है, तो फिर यह सृष्टि कार्य कैसे चल रहा है ? इसका कारण अविद्या बता रहे हैं.......
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजित प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।५/१४।।
             शब्दार्थ---- आत्मा/परमेश्वर में लोक के लिए न कोई कर्तृत्व है, न कर्म और न ही कोई उसके लिए कर्मफल का संयोग ही है, बल्कि अविद्या ही सृजन आदि में प्रवृत्त होती है ।
                 तात्पर्यार्थ---- यहाँ पर पहली बार प्रभु शब्द आया है इससे पहले आत्मा या देही शब्द आता रहा है । इससे यह सिद्ध होता है कि अभी तक जीव बोधक त्वं पद का शोधन हुआ है जिसमें जीव का अजत्व, नित्यत्व एवंं अविकारत्व आदि सिद्ध किया गया है । अब यहाँ से आगे प्रभु अर्थात परमात्मा जिस तत् पदार्थ का वाचक है उस तत् पद का शोधन प्रारंभ हो रहा है, क्योंकि जब तक तत्त्वं का शोधन नहीं हो जाता तब तक असि पद को समझना एक कल्पना मात्र ही है । यहाँ पर जीव के बाद परमात्मा में भी निर्विकारत्व बताने के लिए ही यह प्रकरण आरंभ किया जा रहा है ।
                 यहाँ पर कर्तृत्व, कर्म एवं तत्फल का संयोग इसमें कोई भी रचना परमात्मा नहीं करता है । तो फिर यह शंका होती है कि यह सब कौन करवा रहा है ? इसका समाधान किया “स्वभावः" । स्वभाव क्या है ? इसका समाधान किया स्वभाव ही प्रकृति है--- स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा । कर्तुं नेच्छसि.....।।१८/६०।। अर्थात स्वभाव अर्थात प्रकृति से उत्पन्न कर्म ही जीव को बांधता है अर्थात कर्तृत्व का अहं, कर्म का अहं उत्पन्न करके उस अहं नामक खूंटे में बांधकर पशु की तरह जैसा चाहती है वैसा कराती है क्योंकि प्रकृति ही जीव को कर्म में नियुक्त करती है “प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति १८/६९ यही प्रकृति अविद्या या महामाया कही गई है “दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया" ७/१४ यही जीव को मोहित करके बलात् अपनी ओर खींच लेती है “प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः" ९/१२ और खींचकर स्वयं कर्म करवाती और तत्फल से बांधती रहती है “कार्यते ह्यवशः कर्म" ३/५ अर्थात स्वभाव अर्थात अविद्या ही संपूर्ण कर्म, उसका कर्तृत्व अहं एवं तत्फल भोक्तृत्व के अहं का सृजन करती है न कि प्रभु अर्थात वह सभी जगह उत्कृष्ट प्रकाश रूप से विद्यमान है तथापि वह कुछ करता नहीं है ।
                शंका हो सकती है कि उत्कृष्ट प्रकाश क्यों कहा ? इसका उत्तर यह है कि सामान्य प्रकाश तो रात्रि में भी होता है तभी तो प्राणी परस्पर अंधेरा होने पर भी एक दूसरे को देख लेते हैं । अथवा और अधिक अंधेरा होने पर भी स्वयं और अंधकार को तो देखते ही हैं, यह कार्य सामान्य प्रकाश का ही है तथापि प्राणी कर्म में प्रवृत्त नहीं होते और जब दिन में उत्कृष्ट प्रकाश होता है तभी स्व-स्व कर्म में प्रवृत्त होते हैं । इसी प्रकार सर्वत्र उत्कृष्ट प्रकाश रूप से विराजमान प्रभु की सत्तामात्र से अविद्या कार्य कर रही है न कि वह आत्मा जो प्रभु नाम से जानी जाती है, ठीक वैसे ही जैसे सूर्य के प्रकाश में ही सभी कार्य हो रहे हैं तथापि सूर्य का प्रकाश स्वयं न कुछ करता है, न ही कराता ऐसा तात्पर्य है ।
                विशेष---- जब तक तत्त्वं का शोधन नहीं होगा तब तक आत्मैक्य नहीं होगा । आत्मैक्य को प्राप्त करने के लिए संपूर्ण प्राणियों को आत्म भाव से देखते हुए परमात्मा में लय हो जाना ही आत्मैक्य रूप "असि" पद है । इसके लिए परमात्मा के साकार-निराकर अर्थात सगुण-निर्गुण रूप को जानना आवश्यक है । जिसके एक अंग त्वं का शोधन कर चुके हैं और "तत्" पद अर्थात विराट परमेश्वर की व्यापकता बताना ही मुख्य उद्देश्य की यहाँ से प्रारंभिक भूमिका के रूप में तैयार करके उसकी प्राप्ति का साधन आत्मसंयमयोग बताकर "तत्" पद का वर्णन अध्याय ७-११ तक करके बारहवें अध्याय में "तत्" पद के प्रति आत्मसमर्पण किस प्रकार से करना यह बताते हैं । इसी "तत्" शोधन और इसके साथ तादात्म्य हेतु आत्मैक्य के अंगभूत "वासुदेवः सर्वम्" ७/१९ एवं "ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म" ८/१३ बताते हैं । बारहवें अध्याय में भक्ति के नाम से जाना जाने वाला आत्मसमर्पण आवश्यक क्यों है ? इसका भी कारण बताया कि शरीराभिमान के रहते ज्ञानयोग की साधना अत्यंत क्लेशकारी है "क्लेशोऽधिकतरं तेषाम्" १२/५। जब तक इसप्रकार संसारासक्ति का त्याकरके आत्म समर्पण न कर दे जब तक आत्मैक्य रूप असि पद का अधिकारी नहीं हो सकता,क्योंकि वहाँ तो परमात्मा को को जीव १३/२२ कह दिया जायेगा तो यह बात उसके गले उतरेगी नहीं तो आत्मैक्य होगा कैसे ? अतः अध्याय १३-१४ में "असि" पद का ज्ञान कराकर अध्याय १५ में "असि" पद में प्रतिष्ठित अर्थात आत्मैक्य का बोध कराकर श्रीभगवान अपने उपदेश का उपसंहार कर लेते हैं ।।१४।।

                      संबंध---- पूर्वोक्त श्लोक “स्वभावस्तु प्रवर्तते" का स्पष्टीकरण करते हैं.....
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।५/१५।।
                शब्दार्थ---- व्यापक परमात्मा न तो किसी का पाप ग्रहण करता है और न पुण्य ही, अविद्या से ज्ञान ढका होने के कारण जीव ऐसा मानता है ।
                 तात्पर्यार्थ---- पूर्व श्लोक में जिसे प्रभु कहा गया था उसे ही यहाँ विभु कहा गया है । पूर्व में परमात्मा को निर्लिप्त बताया गया है उस पर शंका होती है कि अगर परमात्मा कुछ करता नहीं है तो जो श्रुति-स्मृति प्रसिद्ध है कि परमात्मा ही सब कुछ करता है, और लोकप्रसिद्धि भी करता है, क्योंकि परमात्मा की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता एवं यहाँ भी श्रीभगवान आगे कहेंगे “पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृमश्नामि प्रयतात्मनः ।।" ९/२६ “यत्करोषि यदश्नासि........ तत्कुरुष्व मदर्पणम् ।।" ९/२७।। इससे तो परमेश्वर का कर्तृत्व, कर्मत्व एवं तत्फल भक्त पर कृपा आदि का संयोगत्व भी दिखता है ? इस पर कहते हैं, हाँ ! दिखता है...., जैसे जिस समय रस्सी में सर्प और उसका भय दिखता है, उस समय भी क्या उसमें सर्प और भय है ? जिसको रस्सी का ज्ञान नहीं है उसे तो सर्प भी दिखेगा ओर भय भी होगा किन्तु जिसे रस्सी का ज्ञान है उसे न तो सर्प ही दिखेगा और न भय ही होगा । 
              इसी प्रकार जिसका ज्ञान अज्ञान से ढका हुआ है ऐसे लोग ही मोहित होकर आत्मा पर अध्यारोप करते हैं कि वही सभी पुण्य-पापमय कर्मों को करने वाला है । वस्तुतः जब आत्मा से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, तो कैसा कर्म ? कैसा कर्तृत्व ? और कैसा कर्मफल संयोगत्व ? क्योंकि इसके लिए सब स्व से भिन्न होना चाहिए, जबकि वह सर्वरूप एकमेवाद्वितीयम् होने से उसमें यह सब कुछ सिद्ध ही नहीं होता, क्योंकि उसके लिए स्व से भिन्न शरीर चाहिए । ऐसा होने पर जो अखंड कहा जाता है वह खंडित होगा, असीम ससीम होगा, निर्विकारी विकारी हो जायेगा इस प्रकार अनवस्था दोष और श्रुति-शास्त्र विरोध हो जायेगा अतः उसमें यह सब कुछ न होने पर भी अज्ञान/अविद्या के वशीभूत होकर उसमें अध्यारोप मात्र करते हैं जबकि अविद्या के नाश होने पर उसमें यह कुछ न होना स्वयं सिद्ध है ।

                  संबंध---- तब तो फिर कहा जा सकता कि जब सभी कार्य अविद्या जनित स्वतः अनादिकाल से होता चला आ रहा है तो फिर किसी का मोक्ष होना भी सिद्ध नहीं होता ? इस पर कहते हैं......
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ।।५/१६।।
             शब्दार्थ---- परन्तु जिन्होंने आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर दिया है उसका ज्ञान उस परमतत्त्व को सूर्य के समान प्रकाशित करता है ।
                तात्पर्यार्थ----यहाँ उस अज्ञान का अर्थ पूर्व श्लोक में वर्णित जो अज्ञान है वही जिसके द्वारा जीव और ईश्वर में भेद ज्ञान के द्वारा ईश्वर ही सब करता और करवाता है इत्यादि मानता है । उसका तर्क है “न त्वेवाहं जातु नाशं न त्वं नेमे जनाधिपाः" २/१२ में बहुवचन होने से जीव बहुत हैं अतः ईश्वर भी उससे भिन्न होता है ऐसा जो अज्ञान है उस अज्ञान का नाश “येन सर्वमिदं ततम्" २/१७, अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो २/२० प्रकृतेः क्रियमाणानि ३/२७ के द्वारा गुणकर्म विभाग करता हुआ गुणा गुणेषु वर्तन्ते ३/२८ द्वारा भलीभांति त्वं पदार्थ आत्म तत्त्व को जान लेता (यहाँ रामानुजाचार्य जी ने भी उपाधि त्यागपूर्वक जीव का एकत्व माना) है । उसके उस त्वं पदार्थ के ज्ञान होने मात्र से तत्पदार्थ उपलक्षित त्वं पदार्थ का वैसे ही ज्ञान हो जाता है जैसे सूर्य के उदित होने पर रूप का । सूर्यप्रकाश से रूप प्रकाशित होना उपलक्षित मात्र है क्योंकि सूर्यप्रकाश रूप को प्रकाशित करता है जबकि परमतत्त्व अरूप है, इसलिये त्वं पदार्थ के ज्ञान से तत्पदार्थ का जो त्वं पदार्थ के साथ और त्वं पदार्थ का तत्पदार्थ के साथ जो एकत्व का ज्ञान है जिस एकत्व को त्वं पदार्थ के अविवेक से एकत्व असंभव मानता था वह अब स्पष्ट हस्तगत वस्तु की भांति अनुभव करने लगता है । यही आत्मज्ञान द्वारा उस परमतत्त्व का प्रकाशित होना है ऐसा तात्पर्य है ।।१६।।

                संबंध---- इसप्रकार जब वस्त्र से ढके हुए घट से वस्त्र हट जाने के समान जब त्वं पदार्थ के द्वारा तत्पदार्थ का ज्ञान अर्थात साक्षात्कार कर लेता है तब भी साक्षात्कार मात्र से काम नहीं चलता उसे उसकी प्राप्ति के लिए चार कार्य और करने होते हैं……
तद्बुधयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ।।५/१७।।
             शब्दार्थ---- तत्बुद्धि वाला, तद् आत्मा वाला तन्निष्ठा वाला एवं तत्परायण होकर त्वं पदार्थ के द्वारा जिसने अशेष कल्मष को धो डाला है वह अपुनारावृत्ति को प्राप्त होता है ।
               तात्पर्यार्थ---- तद्बुद्धि का अर्थ है कि बुद्धि की जो अभी तक अहं वृत्ति शरीराधिकृत थी, वह वृत्ति तत् पद में स्थित हो जाये, उस परमतत्त्व के विचारों में ही तन्मय हो जाये, उससे भिन्न कुछ सोचे भी नहीं । तदात्मानं अर्थात मन भी स्वतंत्र सत्ता वाला न होकर न कुछ करे और न ही सोचे अर्थात सर्वकर्म संन्यास कर दे, क्योंकि मुमुक्षु के लिए कर्म ही विक्षेप का कारण है चाहे वह नित्य-नैमित्तिक कर्म ही क्यों न हों क्योंकि ज्ञानी के लिए कोई कर्म है ही नहीं “तस्य कार्यं न विद्यते" ३/१७ । तन्निष्ठा का तात्पर्य है कि अभी तक जो जो नानात्व देखने के कारण अस्थिर थी उसे परमतत्त्व में अभिन्न भाव में स्थिर कर दे । तत्परायणः अर्थात उसकी प्राप्ति से भिन्न और कुछ भी अब शेष नहीं है । अभी तक जो भी श्रवण, मनन किया है उसी के निदिध्यासन में लगा रहे । स्वयं श्रीभगवान भी आगे कहेंगे---- भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः । ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।।१८/५५ अर्थात भक्ति के द्वारा (भक्त-भक्ति के लक्षण अ.४/३ में देखना चाहिए) जो मुझे जिस समय तत्त्व से जान लेता है वह उसी समय मुझ आत्मस्वरूप को जानकर मुझमें प्रवेश करके मुझको प्राप्त अर्थात मुझसे अभिन्न हो जाता है । यहाँ भी तत्त्व से परमात्मा को जानने का तात्पर्य है ‘तत्त्वं’ पदार्थ के शोधन पूर्वक असि पदार्थ को जानकर तत्काल उसी में प्रविष्ट हो जाता अर्थात अभिन्न होकर अहं ब्रह्मास्मि में स्थित हो जाता है । कहने में देर है किन्तु जानने और प्रवेश होने में एक विपल का भी अन्तर नहीं है । इसे ही यथैधांसि समिद्धोग्निः ४/३७ कहा गया है । इसलिए ज्ञान की पवित्रता की कोई समता नहीं है न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ३/३८ । इसप्रकार तत्त्वं के ज्ञान से जिसके सभी पुण्य-पाप रूप कल्मष धुल अर्थात नष्ट हो गये हैं, जो अहं ब्रह्मास्मि में स्थित हो चुका है वह अपुनारावृत्ति अर्थात जन्म-मृत्यु रूप संसार का अतिक्रमण कर जाता अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।।१७।।

                संबंध---- उपरोक्त चार साधनों द्वारा आत्मैक्य होने पर शरीर पात के पश्चात मोक्ष की प्राप्ति कहा गया है तथापि जिनका प्रारब्ध अभी शेष है वे किस प्रकार रहते हैं ? यह बता रहे हैं.......
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी ।
शुनि चैव स्वपाके च पाण्डिताः समदर्शिनः ।।५/१८।।
            शब्दार्थ----विद्या और विनय से सम्पन्न यति ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल में समदर्शी होते हैं ।
             तात्पर्यार्थ---- यहाँ पर पण्डिताः को पूर्व प्रकरण से जोड़ने पर अर्थ बनता है एकत्व को प्राप्त निर्विकार भाव में स्थित...., ऐसा मात्र सर्वकर्म संन्यास में ही संभव है  इतर नहीं ऐसा तात्पर्य है, इसी दृष्टि से यति संबोधित किया है न कि विरजा संपन्न संन्यासी के लिए । ज्ञान में दम्भ हो सकता है, अहंकार हो सकता है, क्योंकि ज्ञान वह है जिन साधनों द्वारा ‘तत्त्वं’ का बोध प्राप्त होता है, वह अहंकार और पतन का कारण हो सकता है इसीलिये तत्त्वं बोध के पश्चात असि पद में प्रतिष्ठा आवश्यक है, जिसके चार साधन पू्र्व श्लोक में बताए गए हैं, उन साधनों को अपनाकर असि पद में प्रतिष्ठित हुआ सर्वकर्म संन्यासी शेष प्रारब्ध को भोगते हुए परमतत्त्व का ज्ञाता और और उसमें प्रतिष्ठित होने पर भी विनय से संपन्न होकर ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता एवं चाण्डाल आदि---- यहाँ आदि शब्द देने का तात्पर्य है कि मूल श्लोक में श्वपाके कहने के पश्चात च का कोई औचित्य नहीं दिखता तथापि च दिया गया है जिसका अर्थ है कि उपरोक्त चैतन्य त्रिगुण सम्पन्न से हानि-लाभ आदि की विषमता त्याग के साथ साथ समलोष्टाश्मकाञ्चनः का भी समाहार कर लेना चाहिए, कारण कि जैसे उपरोक्त से अनुकूल प्रतिकूल प्राप्ति पर सुख-दुःख का अनुभव होता है वैसे ही कञ्चनादि की प्राप्ति और नष्ट होने पर भी अनुकूल प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है उसमें भी सम भाव का होना आवश्यक है तभी समदर्शिनः और समत्वं योग उच्यते सिद्ध होगा अन्यथा ब्राह्मी स्थित के साथ समता का विरोध होगा । इस प्रकार सर्वत्र समभाव से देखता है ।
                यहाँ एक बात और समझना आवश्यक है कि उपरोक्त ब्राह्मणादि चैतन्य प्राणियों को ही प्रत्यक्ष क्यों कहा है जबकि च सबका समावेश करता है ? तो इसका समाधान यह है कि जड़ पदार्थ में सम देखो या विषम उतना अधिक अन्तर नहीं पड़ता किन्तु उपरोक्त तीनों गुणों से संपन्न तीन प्रकार के प्राणी कहे गये हैं जो चाहने और न चाहने पर भी विक्षेप का कारण बनते हैं । मुमुक्षु को उनके साथ भी सम भाव कैसे रखना है यह बताया गया है कि जैसे शरीर में भी हाथ, मुंह, पैर, गुदा, लिंगादि के साथ भी विषम व्यवहार करके भी शरीर से अभिन्न मानकर ही वैसा व्यवहार करते हैं । वैसे ही उपरोक्त उस विराट शरीर के अंग हैं और वह विराट तत्त्वं के शोधन के पश्चात एकत्व के होने पर ‘मैं ही हूँ’ के भाव में स्थित होने के कारण सभी मेरे शरीर के विभिन्न अंग ही हैं, ऐसा राग द्वेष रहित होने के कारण समझता है । ऐसा यहाँ निस्त्रैगुण्य भव २/४५ का भाव है, इसीलिए यहाँ ब्राह्मण से सत्वगुण, गाय से रजोगुण और हाथी से तमोगुण और कुत्ता और चाण्डाल से भी भिन्न भिन्न जाति वाचक तमोगुण का ही प्रतिपादन समझना चाहिए । इस प्रकार शुद्ध त्रिगुण एवं मिश्र त्रिगुण प्रकृति के ही हैं आत्मा के नहीं, ऐसा समझकर समभाव में स्थित रहने को ही समदर्शिनः एवं समत्वं योग उच्यते २/४८ कहा गया है । ऐसा इसका तात्पर्य है ।।१८।।

               संबंध---- अब उपरोक्त समदर्शित्व का फल बता रहे हैं......
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ।।५/१९।।
             शब्दार्थ---- जिसका मन समता में स्थित है उसने इस लोक में ही जीते जी संपूर्ण संसार को जीत लिया है, क्योंकि ब्रह्म निर्दोष एवं सम है और वे तत्त्ववेत्ता समता रूप ब्रह्म में स्थित हैं ।
             तात्पर्यार्थ----जगत बड़ा विलक्षण है उसके अपने तर्क होते हैं । पूर्व श्लोक में वर्णित ब्राह्मणादि के अन्तर्गत निदिध्यासनरत मुमुक्षु की समता पर कोई आशंका कर सकता है कि शास्त्र संमत जिनके स्पर्श मात्र से वस्तु दूषित हो जाती है क्या ऐसे लोगों का उच्छिष्ट या स्पर्श किया हुआ आहारादि क्या ले सकता है ? इससे वह दूषण को प्राप्त नहीं होगा ? ऐसे लोगों को व्यवहार और परमार्थ को पहले तो समझने की शक्ति होनी चाहिए कि भिन्नता का नाम ही व्यहार और अभिन्नता का नाम ही परमार्थ है इस अन्तर को समझना चाहिए तथापि एक श्रुत उदाहरण देता हूँ.....
               कहते हैं कि धूनीवाले दादाजी खंडवा वाले के पास कोई अंग्रेजन गई और उन्हें नंगा देखकर वापस आकर अपने पति को बताया । वह अंग्रेज ब्रिटिश सरकार का कोई बड़ा अधिकारी था । उसने आकर दादाजी को कहा कि महाराज आप तो समदर्शी हो, अतः जो मैं खा लूंगा आप वह खा लोगे ? दादाजी ने विचार किया कि यह गाय,सुवर खाने वाला म्लेच्छ है ऐसा विचार कर पीछे हाथ ले जाकर हाथ पर विष्ठा करके उसको कहा लो मैं यही खाता हूँ तुम भी खाओ, म्लेच्छ घबड़ा गया और मना कर दिया, फिर दादा जी ने कहा अच्छा अब लो तो उसने देखा कि विष्ठा के स्थान पर मिठाई थी । यही है संसारी लोगों की समझ न होने की समस्या ।
                 एक महात्मा ओंकारेश्वर में रहता है मैंने देखा शरीर की ही स्मृति नहीं कब मल त्यागा और कब मूत्र, पता ही नहीं । ऐसे सिद्ध जिन्होंने इस लोक को ही भलीभाँति जीतकर इस देह में ही विदेह मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं, जिनका मन पूर्णतः समता में स्थिर हो चुका है, चूंकि ब्रह्म सम और निर्दोष है अर्थात वह हर देश हर काल में हर क्षण सम भाव में उपस्थित है एवं जन्मादि षड्विकारों से रहित होने से निर्दोष है, अशरीरी होने से किसी संग का कोई दोष ही नहीं है, जिस ऐसे ब्रह्म में ही वह ब्रह्मवेत्ता स्थित और वह भी आत्मैक्य रूप ब्रह्म भाव से स्पर्श दोष से रहित है । उसको कोई भी दोष स्पर्श भी नहीं कर सकता ।।१९।।

                    संबंध---- साधक और सिद्ध के लक्षण.....
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढ़ो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थिताः ।।५/२०।।
              शब्दार्थ---- जो प्रिय की प्राप्ति में हर्षित नहीं होता और अप्रिय की प्राप्ति में उद्विग्न नहीं होता है वही विवेकशील ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है ।
               तात्पर्यार्थ----इस श्लोक के पूर्वार्ध की व्याख्या २/५६ में देख लेना चाहिए । ये साधक के लक्षण हैं और असम्मूढ़ः अर्थात तत्त्वं के विचार में स्थिर मन वाला ही ब्रह्म को जानने वाला और ब्रह्म में स्थित है यह सिद्ध का लक्षण बताया ।।२०।।

                   संबंध---- पूर्वोक्त साधक के आनन्दानुभूति का कथन......
बह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यामनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।।५/२१।।
               शब्दार्थ---- बाह्य विषयों के स्पर्श से रहित मन वाला साधक जिस सुख का अनुभव करता है वही असक्त मन ब्रह्मयोग अर्थात ब्रह्म के साथ अभिन्न होकर अक्षय सुख को प्राप्त करता है ।
              तात्पर्यार्थ----बाह्य विषय शब्दादि अनुकूल हों  या प्रतिकूल पूर्वोक्त श्लोकानुसार वर्तता हुआ उसके सुख दुःख का अनुभव न करता हुआ आत्मा में अर्थात द्वितीय अध्याय में जिस त्वम् पदार्थ का चिन्तन किया गया है उस आत्मा में रमण करने पर जिस सुख की अनुभूति होती है, वही सुख ब्रह्म के साथ अभिन्नत्व की प्राप्ति होने पर अर्थात त्वम् पदार्थ का तत् पदार्थ में में लय हो जाने पर अक्षय सुख अर्थात नित्यानन्दैकरस आनन्दघन असि पद की प्राप्ति हो जाती है । यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि त्वम् पदार्थ के शोधन से अर्थात स्व-स्वरूप को जान लेने पर संपूर्ण प्राणियों को अपनी आत्मा के रूप में तो जान सकता है तथापि परिछिन्न भाव के न मिटने से मिलने वाला सुख अक्षय नहीं हो सकता है अतः उस आत्म भाव को भी तत् पदार्थ विलय करके ही नित्यानन्दैकरस को प्राप्त किया जा सकता है । इसी को येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ४/३५ कहा है एवं यथैधांसि  समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुते तथा ४/३७ अर्थात जैसे अग्नि में जलने पर राख कौन सी किस वृक्ष की है पहचान में नहीं आती वहाँ मात्र राख ही राख होती है वैसे ही तत् और त्वम् पद का ज्ञानाग्नि में जल जाने पर मात्र असि पद नामक राख ही राख बचती है वहाँ कौन जीव और कौन ब्रह्म है का ज्ञान ही नहीं होता इसी अक्षय सुख को मनसा वाचा कर्मणा बाह्य विषयों का त्याग करके तद्बुद्ध्यस्तदात्मानं तन्निष्ठास्तत्परायणाः ५/१७ के अनुसार करने का फल है ऐसा तात्पर्य है ।।२१।।

                    संबंध-----बाह्य विषयों के प्रति मुमुक्षु साधक अनासक्त क्यों रहता है यह बता रहे हैं....
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एवं ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।।५/२२।।
             शब्दार्थ---- क्योंकि हे कौन्तेय ! जो इन्द्रियों और उनके विषयों के संयोग से उत्पन्न सुख है वे आदि अन्त वाले हैं, ऐसा समझकर विवेकशील उनमें रमण नहीं करते ।
                तात्पर्यार्थ---- यहाँ हि शब्द पूर्व प्रकरण के साथ जुड़ा हुआ असक्तात्मा के स्पष्टीकरण के लिए है । यहाँ इन्द्रियों और उनके विषयों के संयोग से उत्पन्न सुख को भी दुःख का हेतु माना गया है। इसी बात को.... विषयेन्द्रिय संयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपम् । परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।।१८/३८। अर्थात विवेकशील जानता है कि इन्द्रियों के विषय चाहे  स्थूल हों या सूक्ष्म, अर्थात चाहे वे इसी शरीर में इसी लोक में प्राप्त होने वाले हों या सूक्ष्म शरीर से स्वर्गादि ऊर्ध्व लोक के, वे सभी जन्म मृत्यु का हेतु होने से दुःख के ही हेतु हैं, क्योंकि सुख आज है कल नहीं अर्थात पुण्य बढ़ा तो ऊर्ध्व लोक और क्षीण हुआ तो मनुष्यादि लोक, ये जन्म मरण का चक्र ही जिन इन्द्रिय सुख का परिणाम है अर्थात ये सभी सुख आद्यन्तवन्तः हैं, इनमें कोई विवेकशील कैसे रमण कर सकता है ? क्योंकि वह मुमुक्षु बुध अर्थात विवेकशील है वह जानता है कि ये सभी विषय आदि अन्त वाले हैं जबकि मैं अनादि अनन्त परमात्मा का अंश हूँ ‘ममैवांशो जीवलोके’ १५/७ इसलिये जब तक मैं अपने अंशी परमात्मा से मिलूंगा नहीं तब तक अक्षय सुख मिलने वाला नहीं है अतः कहा स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ५/२१ अर्थात वह अपना जीव अर्थात त्वम् पदार्थ का ब्रह्म अर्थात तत् पदार्थ के साथ योग करके अभिन्न होकर अक्षय सुख को प्राप्त करता है । इन विषयों में रमण नहीं करता । शंका होती है कि अगर विषयों में बिल्कुल रमण नहीं करता तो शरीर कैसे चलेगा ? इस पर पीछे की बात याद दिलाते हैं----रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।।२/४६ ।। अर्थ वहीं देख लेना चाहिए ।
                     भावार्थ---- आत्मैक्य ही जिसका लक्ष्य है वह स्थूल-सूक्ष्म इन्द्रिय और उसके विषय एवं तत्तत् भोग अर्थात सुख में मुमुक्षु रमण नहीं करता ।।५/२२।

            संबंध---- शंका होती है कि पूर्व श्लोक में बताया कि प्रारब्धानुसार प्राप्त सुख में भी मुमुक्षु दुःख का अनुभव करता है, तो फिर सुखी कौन है ? इस पर कहते हैं.......
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीर विमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ।।५/२३।।
              शब्दार्थ---- शरीर छूटने के पहले जो यहीं जीते जी कामक्रोध के वेग सहने में समर्थ होता है वही मनुष्य युक्त और सुखी है ।
              तात्पर्यार्थ---- संपूर्ण गीता में जिसे जीतना अत्यंत दुष्कर माना गया है, वह है काम और क्रोध । इन दोनों को जीतना कितना कठिन है इससे समझ सकते हैं कि स्वयं श्रीभगवान ने ही कहा “दुरासदम्" ३/४३ । यही दोनो कल्याण मार्ग के शत्रु हैं– परिपन्थिनौ ३/३४ । इसलिये कल्याणमार्गी को उचित है कि इन दोनों को जीते जी भलीभांति जीते । यद्यपि मूल में सोढुं आया है जिसका अर्थ होता सहन करना तथापि यदि आपने काम को जीता नहीं है मात्र सहन कर रहे हैं तो इनके आवेग को सहन करते समय अनेक प्रकार की विकृति शरीर पर दिखाई देती है और अन्दर ही अन्दर व्यक्ति उसका विकृत चिन्तन करता है और अन्त में वर्षा ऋतु में उफनती हुई नदी के समान धैर्य नामक बांध को तोड़कर व्यक्ति के पतन का मार्ग सुनिश्चित कर देते हैं, इसीलिये श्रीभगवान कहते हैं जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ३/४३ अर्थात अशेष काम का नाश कर दे । 
                 यहाँ पर काम क्रोध सहने का अर्थ है भलीभांति उन पर विजय प्राप्त करके इनके उच्छृंखल प्रवाह को समुद्र की भांति गंभीर और सहज भाव से आत्मसात् किया जाये "आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे....२/७० (इस श्लोक की व्याख्या वहीं देखें)अर्थात समुद्र की भांति आत्मसात् किया जाये । यहाँ इस बात पर ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि प्राक्शरीर विमोक्षणात् भी कहा है अर्थात् जब तक यह शरीर पतित न तो जाये तब तक इस पर विश्वास कदापि न करें और शरीर गिरने तक उसे अपने आधीन यत्नपूर्वक रखें । ऐसा जो मुमुक्षु है वही युक्त और सुखी है । युक्त का तात्पर्य है श्रवण मनन निदिध्यासन के द्वारा तत्त्वम् पदार्थ के शोधन पूर्वक असि पद को प्राप्त हुआ एवं अखण्ड आनन्द में स्थित है ।
                 विशेष---- प्राक्शरीरविमोक्षणात् से ऐसा भी समझना चाहिए कि मृत्यु अवस्था अर्थात वृद्धावस्था से पूर्व जो शरीर की पहली अर्थात ब्रह्मचर्यावस्था है उसी समय कामादिक पर नियंत्रण कर लेना चाहिए अन्यथा इससे आगे युवा और शरीर की असमर्थता के कारण सहनशक्ति न होने से वृद्धावस्था में यह सब सहन कर पाना संभव नहीं है ऐसा तात्पर्य है ।।२३।।

                 संबंध----इस प्रकार मुमुक्षु जब बाह्य विकारों पर अन्तःकरण चतुष्टय ही एक मात्र निवारण का जिनका एक मात्र साधन है उन पर नियंत्रण कर लेता है, तब अन्तः सुखी एवं ब्राह्मी भाव को प्राप्त होता है यही भाव यहाँ दर्शाया गया है......
योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव च यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।।५/२४।।
                 शब्दार्थ---- जो अन्तः सुखी, अन्तराराम, तथा आन्तर्ज्योति वाला है वही योगी ब्राह्मी अनुभव करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है ।
               तात्पर्यार्थ---- अन्तःसुखी अर्थात बाह्य वृत्ति जो कामक्रोध का त्याग करके एक मात्र अन्तःकरण में स्थित हो जाती है तभी साधक अखण्ड सुख को प्राप्त कर लेता है तभी वह अन्तराराम अर्थात् आत्मरति, आत्मक्रीड़ा वाला होकर आत्मा में ही डूबकर उसी में मस्त एवं आन्तर्ज्योति वाला अर्थात निर्विकल्प स्थित हुआ होता है । कामादि पर विजय के पश्चात ऐसी जिसकी स्थिति है वही योगी अर्थात ज्ञानयोग में स्थित हुआ मुमुक्षु ही ब्राह्मीभाव अर्थात आत्मैक्य का अनुभव करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है ।।२४।।

                संबंध---- यहाँ शंका हो सकती है कि क्या ऐसा मोक्ष जिसने काम क्रोध को जीत लिया उन सबको मिलता है ? इस पर कहते हैं नहीं ! सबको नहीं मिलता बल्कि क्षीण कल्मष और दुविधा रहित को ही यह मोक्ष मिलता है......
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ।।५/२५।।
                भावार्थ---- जिनका मन जीता हुआ है, जिनके सारे कल्मष नष्ट हो गये हैं, जिनकी संपूर्ण दुविधाएं नष्ट हो गई हैं जो संपूर्ण प्राणियों का हित करने में लगे हैं ऐसे तत्त्वदर्शी ऋषिगण ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
               तात्पर्यार्थ---- जिनको मोक्ष मिलता है उनका लक्षण बता रहे हैं पूर्वोक्त श्लोक में वर्णित स्थिति जब बन जाती है तब अर्थात जब सभी प्रकार के बाह्य स्पर्श से रहित होकर जब आन्तर भाव को प्राप्त होता है तब भी कुछ आन्तर विघ्न होते हैं जो मोक्ष के बाधक हैं, वे अदृष्ट बाधक हैं जिनमें पहला है पुण्य-पाप नामक कल्मष जिनका नाश निष्कामकर्म करने से होता है । इन दोनों के नाश होने पर भी दुविधा और संशय नहीं होना चाहिए अथवा द्वैधा अर्थात जीव ब्रह्म दोनों भिन्न हैं ऐसा द्वैत अर्थात् भेद नहीं होना चाहिए । यहाँ द्वैधा का अर्थ द्वैताचार्य ने सर्दी गर्मी आदि बाह्य विघ्नों को लिया है, उनके अनुसार वह विचार ठीक ही होगा तथापि मेरी प्रकृति में संशय और जीव-ब्रह्म का भेद ही द्वैधा ठीक लगता है क्योंकि― श्रुति विप्रतिपन्ना ते यदास्थास्यति निश्चला । समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।२/५३ । सर्दी गर्मी आदि को जीतकर तो यहाँ तक पहुंचा है अतः अब यहाँ युक्ति संगत नहीं लगता । मेरा दृष्टिकोण द्वैधा का संशय और द्वैत ही ग्रहण करता है संशयात्मा विनश्यति २/४०, न सुखं संशयात्मनः २/४० इससे पूर्व भी बारंबार सुखी होने की बात कही है जो शुद्ध सत्व का प्रमाण है, जिसका लक्षण “सर्वभूतेष येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्” ।।१८/२०।। अभेद ही जिस सत्व का मूल है एवंं  ‘पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् । वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्’ ।। १८/२१।। इन प्रमाणों से द्वैधा का अर्थ बाह्य सर्दी गर्मी आदि द्वन्द्व नहीं बल्कि संशय और जीव-ब्रह्म का भेद जिनका मिट गया है अर्थात आन्तर द्वन्द्व ही इसका भाव है । ईश्वर सगुण है निर्गुण है, मैं अपनी साधना में सफल होऊंगा या नहीं, मोक्ष मिलेगा या नहीं आदि द्वन्द्व जिनके नष्ट हो गये हैं वही छिन्नद्वैधा है वही संपूर्ण प्राणियों के हित में लगा है, क्योंकि हर प्राणी का हित एक मात्र संशय रहित होकर परमात्व तत्त्व को प्राप्त करना मात्र लक्ष्य हो जो उसने अपने जीवन में चरितार्थ कर दिया है । वह शाप और आशीर्वाद के भी द्वन्द्व से रहित होकर प्राणियों का हित करता है यही इसका भाव है ।
                 विशेष--- जिसकी संशय और द्वैत नाम की गांठ नष्ट हो गई है वही इस परम तत्त्व असि पद का अधिकारी है दूसरा नहीं ।।२४।।

             संबंध― पूर्वोक्त दोनो श्लोकों में ब्रह्म प्राप्ति का साधन बताया और अब उन साधनों का प्रतिफल बता रहे हैं.....
कामक्रोध वियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्म निर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ।।५/२६।।
            शब्दार्थ---- आत्मस्वरूप को जानने अर्थात साक्षात्कार को प्राप्त यति अर्थात ज्ञान योगी जिसका मन भलीभांति जीता जा चुका है काम क्रोध से रहित हुआ अर्थात शरीर के रहते या नष्ट होने पर भी सभी दशाओं में हर प्रकार से मोक्षरूप ही है ।
                तात्पर्यार्थ---- यत चेतसाम् अर्थात जीते हुए मन वाला ही कामक्रोध पर विजय प्राप्त करके ही उनसे रहित हो सकता है, अतः यतचेतसाम् पहले लेना उचित लगा । विदितात्मनाम् अर्थात आत्मतत्त्व को भलीभांति अर्थात त्वं पदार्थ का साक्षात्कार करने वाला ज्ञानयोगी, यहाँ पर रामानुज भाष्य में विदितात्मनाम् के स्थान पर विजितात्मनाम् ऐसा पाठ भेद है जीते हुए मन वाला और यति का अर्थ संयतचित्तवाला किया गया है । अतः पाठभेद के कारण कोई टिप्पणी नहीं । तो जिस ज्ञानयोगी ने मन पर विजय प्राप्त कर त्वम् पदार्थ का साक्षात्कार करके कामक्रोध से रहित हो गया है...; यहाँ शंका हो सकती है कि कामक्रोध से रहित हुए बिना त्वम् पदार्थ का साक्षात्कार हो नहीं सकता है तो भी आपने त्वम् पदार्थ के बाद ही कामक्रोध क्यों लिया ? तो इसका उत्तर है कि साधनाकाल में कामक्रोध अत्यन्त उग्र होते हैं और हम उसे दबाकर ही त्वम् पदार्थ का साक्षात्कार करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं । जैसे जैसे त्वम् पदार्थ स्पष्ट होता जाता है, वैसे वैसे कामक्रोध क्षीण होते जाते हैं अर्थात उनके न दिखने पर भी बीज रूप से विद्यामान रहते हैं और जैसे ही आत्मसाक्षात्कार हो जाता है वह बीज भी नष्ट हो जाता है अर्थात कामक्रोध का सर्वथा नाश हो जाता है यही कामक्रोधवियुक्तानाम् है । 
            ऐसा जो ज्ञानयोगी है वह जीते जी मोक्ष रूप ही है फिर शरीर छूटने के बाद मोक्ष के विषय में क्या कहना ? यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि अभितः का अर्थ अर्थकारों ने चारों ओर से बताया है जबकि अभितः के स्थान पर सर्वतः पाठभेद भी मिलता है । जिससे शरीर की प्रत्येक अवस्था जैसे स्वस्थ-अस्वस्थ, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, शरीर रहते, शरीर पतन होने इत्यादि प्रत्येक दशा ही ब्रह्म अर्थात मोक्ष रूप ही है और यहाँ “ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते" आया है अर्थात् उसका जो वर्ताव अर्थात् व्यवहार है वह भी मोक्ष रूप ही है । जैसे परमात्मा का नख, केश आदि भी भी परमात्म रूप ही है उसकी लीला भी परमात्म रूप ही है वैसे ही ज्ञानी की प्रत्येक दशा ब्रह्म से अभिन्न होने के कारण ब्रह्म अर्थात मोक्ष रूप ही है । ऐसा इसका तात्पर्य है ।
              भावार्थ---- आत्मसाक्षात्कार के बिना कामक्रोध से सर्वथा रहित होना संभव नहीं है।।२६।।

                    संबंध---- साङ्ख्ययोगी की ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ५/२४ एवं अभितोब्रह्मनिर्वाणम् ५/२६ से सद्यः मुक्ति का वर्णन के पश्चात अब ऐसा साधन मन को नियंत्रित करने का बता रहे हैं जो ज्ञानयोगी और कर्मयोगी दोनो के लिए मोक्ष का साधन है साथ ही इसी श्लोक से आत्मसंयमयोग की भी भूमिका श्रीभगवान स्वयं कृपाविष्ट होकर तैयार कर रहे हैं......
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।।५/२७।।
            शब्दार्थ---- सभी बाह्य विषयों को बाहर छोड़कर, नासा के अन्दर विचरण करने वाली प्राण और अपान अर्थात श्वास और प्रश्वास को सम करके नेत्रों को भृकुटि में स्थिर करके.....
               तात्पर्यार्थ----सभी बाह्य विषय आंख बंद करते हु स्वतः बाहर ही छूट जाते हैं इसलिए यहाँ यह समझना चाहिए कि जो बाह्य विषयों का आन्तरिक चिंतन है उसको भी बाहर अर्थात चिंतन न करता हुआ श्वास प्रश्वास पर नियंत्रण रखते हुए नेत्रदृष्टि को भृकुटी के मध्य अर्थात दोनों भौहों के बीच नासिका के प्रारंभिक भाग में स्थिर करके......
                विशेष भाव----पूर्णतः पूर्व और अपर का ध्यान रखना ही शास्त्र की मर्यादा एवं उसके भावों का संरक्षण है । अतः ६ठे अध्याय के बीज इस श्लोक का ध्यानाकर्षण ६ठे अध्याय में करते हैं 👉संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वम् ६/१३ यहाँ पर भी ध्यान की विधि भृकुटी के मध्य ही नेत्रों को स्थिर करना अर्थात देखना बताया गया है और वहाँ पर भी नासिका के अग्र भाग को ही भलीभाँति देखना बताया गया है । यहाँ पर विषयों को बाहर त्यागने की बात कही गई है और वहाँ पर किसी अन्य दिशा में न देखने के माध्यम से अन्य विषय का चिन्तन न करने की बात कही गई है अर्थात यहाँ के ही इस बीज का वहाँ विस्तार किया गया है । अतः कुछ विषय यहीं समझ लेने से आगे के विषय को समझने में मदद मिलेगी । यहाँ जो भृकुटी के मध्य और वहाँ जो नासिकाग्र की बात कही गई है उसे भिन्न भिन्न नहीं समझना चाहिए । ओठो के ऊपर का जो अत्यधिक उन्नत अर्थात उठा हुआ जो नासिका का भाग है वह अग्र भाग न होकर पुच्छ भाग है, जबकि अग्र भाव भृकुटी के मध्य का भाग ही है । 
             स्वयं भी इस विषय में विचार कर सकते हैं, जैसे किसी रेखा का प्रारंभिक भाग ही अग्र अर्थात अगला और अन्तिम भाग ही पुच्छ अर्थात पिछला भाग कहा जाता है । शास्त्रों में जहाँ कहीं भी ध्यान का वर्णन आता है वहाँ पर भृकुटी के मध्य का ही आता है ओठों के उपर के उन्नत भाग पर नहीं । अतः शास्त्र संमत ही मत मान्य होने से नासिकाग्रं का अर्थ भृकुटी के मध्य ही होता है । स्वयं श्रीकृष्ण भी अलग अलग बात कहकर किसी को भ्रम में क्यों डालेंगे ? अतः किसी भी विषय पर पू्र्वापर का अवलोकन करने का स्वयं अपना भी विवेक आवश्यक है । भृकुटी का मध्य भाग ही छठा आज्ञा चक्र कहलाता है । संपूर्ण सिद्धियों का यही स्रोत है । योगदर्शन का विभूतिपाद कहता है कि कल्याणकामी को पूर्व के पांचों चक्रों को छोड़कर इसी चक्र में स्थिर होना चाहिए ।
                यहाँ पर जो प्राणापान अर्थात श्वास-प्रश्वास को सम करने की बात कही है वह गंभीर विषय है । शास्त्रावलोकन के आधार पर अनुभव रहित विषय लिखना नहीं चाहता क्योंकि इससे किसी का भी अहित हो सकता है जिसका दोषी मैं नहीं बन सकता, तथापि आगे आने वाले वाले विषय का अवलोकन यहीं करना/कराना चाहूंगा । प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति जानता है कि हमारा श्वास भोजन कम ज्यादा होने पर, अत्यधिक परिश्रम से, अधिक सोने से, अधिक वार्तालाप और अनर्गल कामक्रोधादिक क्रियाकलापों से अनियंत्रित होता है । उस अनियंत्रित श्वास को नियंत्रित अर्थात सम रखने का एक मात्र साधन है उपरोक्त क्रिया कलापों पर नियंत्रण किया जाये । नियंत्रण कैसे होगा ? इस पर युक्ताहारविहारस्य ६/१३ इत्यादि से आगे बतायेंगे । यही प्राणायाम की प्राथमिक शाला है और यदि प्राथमिक ही पास नहीं हुए तो आगे की चर्चा करके समय नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है ।।५/२७।।

                संबंध---- आगे की चर्चा आगे प्रारंभ होगी अभी की चर्चा देखते हैं, अब समाहित इन्द्रियादि मुमुक्षु के लिए ही मुक्ति का वर्णन……
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ।।५/२८।।
              शब्दार्थ---- जिसके इन्द्रिय, मन, बुद्धि जीते हुए हैं, इच्छा, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं जो निरन्तर तत्त्वम् पदार्थ के मनन में लगा हुआ सदैव मोक्षपरायण है, वह सदैव मुक्त ही है ।
                तात्पर्यार्थ---- पूर्व श्लोक में जो बाह्य विषयों का त्याग बताया वह बिना इन्द्रिय, मन, बुद्धि पर नियंत्रण के संभव नहीं है और न ही प्राणायाम की प्राथमिक शाला अर्थात युक्ताहारविहारस्य ६/१३ इत्यादि ही सिद्ध हो सकता है, अतः इन पर विजय पहले आवश्यक है, इसके पश्चात विषय चिन्तन तो स्वतः रुक जायेगा । यदि यह प्राथमिक नियंत्रण नहीं होगा तो मन में नाना प्रकार की इच्छाएं होंगी, उनकी प्राप्ति पर नाश का भय, न मिलने पर क्रोध होगा, अतः इनके भी नियंत्रण का बीज इन्द्रिय निग्रह ही है । साथ ही सन्न्यासी को ‘अभयं सर्वभूतेभ्यः ददाम्येतत्व्रतं मम’ कभी नहीं भूलना चाहिए । आपसे अगर किसी को भय है तो आप निर्भय कभी नहीं हो सकते । इतना कार्य पूर्ण होने के पश्चात ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’ अर्थात बिना चित्तवृत्ति निरोध के मन एकाग्र नहीं हो सकता । 
               जब तक मन एकाग्र नहीं होगा तब तक चिन्तन श्रवण, मनन, निदिध्यासन नहीं हो सकता । इसी के लिए ही यहाँ प्राणायाम दिया गया है । इन्द्रियादि निग्रह भी साथ ही करने की बाता कही गई है अर्थात इन्द्रिय निग्रह, प्राणायाम एवं श्रवण, मनन, निदिध्यासन एक साथ करना चाहिए । इन्द्रिय निग्रह अर्थात उनकी इच्छा के विरुद्घ अपनी इच्छा के अनुसार उनका आहार देकर नियंत्रित करना ये प्रत्याहार है । इससे योग के पांच अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार एक साथ यहाँ समाहित कर दिये गये हैं । इन पांचों के अभ्यास से चित्त शुद्ध होने पर ही तत्त्वं पदार्थ शोधन रूप श्रवण, मनन निदिध्यासन का अधिकारी बनता है । अतः प्रयत्नशील कर्मयोगी और मुमुक्षु अर्थात सर्वकर्म संन्यास पूर्वक जिनका एकमात्र लक्ष्य मोक्ष के अतिरिक्त और कुछ भी शेष नहीं रह गया है, ऐसा जो मननशील जो मुनि है वह सदा सर्वदा मुक्त ही है । ऐसा तात्पर्य है ।।२८।।
              विशेष---- यहाँ इच्छा से सर्वान्मनोगतान्२/५५ एवं भय, क्रोध आदि की भी व्याख्या अध्याय दो में देखना चाहिए ।।२८।।

                संबंध----पूर्व के दो श्लोकों में ध्यान की विधि बताया और अब ध्येय बता रहे हैं.....
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।।५/२९।।
             शब्दार्थ---- मुझे ही संपूर्ण यज्ञों एवं तप का भोक्ता, सभी लोकों का स्वामी, संपूर्ण प्राणियों का सुहृद अर्थात कुछ भी बदले में न चाहकर निःस्वार्थ सहज प्रेमी, ऐसा जानकर शान्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ।
             तात्पर्यार्थ---- यहाँ पर भागवन श्रीकृष्ण ने स्वयं को यज्ञों और तप अर्थात चान्द्रायण एवं कृच्छ्र चान्द्रायण आदि तपों का स्वयं को भोक्ता बताया है, तीसरे अध्याय में ब्रह्माक्षरसमुद्भवं ३/१५ यज्ञों के मूल वेद चूंकि वे ही संपूर्ण प्राणियों के जीवन और बीज हैं । उन्हीं की कृपा से संपूर्ण प्राणिजगत स्थिर है, इतने पर भी लोग उनका चिन्तन भजन नहीं करते तथापि श्रीभगवान उनसे भी कुछ बदले में नहीं चाहते क्योंकि वे चाह करेंगे भी तो किसकी ? क्योंकि उन्हें न तो कुछ प्राप्त करना शेष है और न ही कुछ अप्राप्त है नानवाप्तमवाप्तव्यं ३/२२ ।। अतः यहाँ जो माम् शब्द दिया है उसको तत्त्व से जानकर अर्थात त्वं पद वाच्य जीव और लक्ष्य आत्मा एवं तत् पद वाच्य ईश्वर और लक्ष्य ब्रह्म का विचार करके वाच्य पद का त्याग करके, क्योंकि इसी वाच्य पद को श्रुतियाँ नेति नेति पुकारने लगती हैं । अतः तत् पद का लक्ष्य आत्मा है और वह आत्मा तत्पदार्थ उपहित ब्रह्म ही है । इस प्रकार आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रतिपान करते हुए श्रीभगवान कहते हैं कि ऐसा तत्त्व से जानने वाला जो मननशील मुमुक्षु है वह अर्थात परमशान्तिस्वरूप तत् पदार्थ के लक्ष्यभूत मुझ असि पद को अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ।।५/२९।।

ॐतत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यात्कर्मयोगो नामपञ्चमोऽध्यायः ।

हरिः ॐ तत्सत् !                                     हरिः ॐ तत्सत् हरिः ॐ तत्सत्

                                                       श्रीकृष्णार्पणमस्तु


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