श्रीमद्भगवद्गीता मेराचिन्तन— सूक्ष्म सारांश एवं तत्संबंधित विचार


                           
श्रीमद्भगवद्गीता का सूक्ष्म सारांश―
               मनुष्य जीवन की एक सच्चाई है कि जब वह किसी गहरे संकट में पड़ता है तभी वह एक ऐसे मार्ग की ओर चल पड़ता है जिसका स्वयं उसको भी पता नहीं होता है । जीवमात्र का प्रतिनिधित्व करने वाले अर्जुन की भी यही स्थिति युद्धक्षेत्र में हुई । जिसपर वह किंकर्तव्यविमूढ़ है अब उसे कोई  मार्ग नहीं दिख रहा कि वह क्या क्या करे ? इस पर उसने परम हितैषी अपने सखा, सारथी और स्वामी कृष्ण की शरण ग्रहण की ।
                 वास्तव में आर्य की क्या परिभाषा है २/२ और मनुष्य किसे कहते हैं यह गीता भलीभाँति प्रतिपादित करती है । जब भी किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति बने और गीता की तटस्थ होकर शरण ग्रहण की जाये तो हमें हमारे कर्तव्य का बोध हो जायेगा । मनुष्य कौन है और कौन मनुष्येतर ? यही गीता का सूक्ष्म विषय है । वास्वत में मनुष्य वही है जो आध्यात्म को समझ ले । यह और मैं का अन्तर समझ ले, तदनुसार जीवन को तितिक्षा पूर्वक ढालकर आत्मभाव में स्थित हो जाये ।

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र―
                वास्तव में यह शरीर ही धर्मक्षेत्रे है जिसमें रहकर हम सभी धार्मिक कृत्य लौकिक यज्ञ से लेकर आध्यात्मिक यज्ञ संपादित करते हैं । यह शरीर तब तक धर्मक्षेत्र है जब तक हमारे अन्दर अर्जुन की भांति अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर दूसरों के हित और उनके अधिकारों के प्रति चिन्तित हैं । 

गीता का उपक्रम एवं उपसंहार― 
             गीता में अध्याय २/१२ से २/३० तक आत्मस्वरूप की नित्यता व्यापकता और निर्विकारता का भलीभाँति प्रतिपादन करके श्लोक ३४ में कर्मयोग की महानता बताते हुए ज्ञान और कर्म दोनों का फल तीनो गुणों से ऊपर उठकर आत्मभाव में स्थित होना बताया है २/४६ जिसके साधन बताया निर्द्वन्द्वता यह पहला साधन है जो साधन चतुष्टय संपन्नता के बिना संभव नहीं है । अतः साधक को सर्वधर्मान्परित्यज्य से पहले इस पर भी विचार करना आवश्यक है, फिर बताया नित्यसत्त्वस्थ होना, इसमें दैवी स्वभाव का होना आवश्यक है जो गुरु शास्त्र द्वारा संस्कारित बुद्धि में ही संभव है अतः यहां श्रवण, मनन की आवश्यकता बतायी गई है, यह दूसरा साधन है, क्योंकि जब तक सात्त्विक स्वभाव नहीं होगा तब तक सात्त्विक श्रद्धा नहीं होगी और और बिना सात्त्विक श्रद्धा के आगे का आध्यात्मिक कोई भी कार्य संपादित नहीं हो सकता है । तीसरा साधन बताया निर्योगक्षेम होना । इसके अन्तर्गत निदिध्यासन समझना चाहिए । श्रवण मनन का निदिध्यासन में ही आत्मा और अनात्मा का अपरोक्ष यानी प्रत्यक्ष ज्ञान होगा । प्रत्यक्ष ज्ञान होने के बाद कहते आत्मवान् यह साधन नहीं है बल्कि यह पूर्वोक्त तीनो साधनों से प्राप्त साध्य है । यहीं पर हमारी निर्विकल्प समाधि है और आत्मैक्य का बोध होकर परिच्छिन्नता का नाश होगा । यहां पर सभी कामनाएं नष्ट हो जाती हैं और मुमुक्षु स्वयं से स्वयं में संतुष्ट होकर अपने सत्तात्मक अस्ति नामक सत्ता में प्रतिष्ठित हो जाता है २/५५ । यही ब्राह्मी स्थिति है जिसको प्राप्त होकर पुनः मोहित नहीं होता अर्थात मोक्ष स्वरूप होकर सबका मोक्ष हो जाता है । २/७२ ।। यही मत्तः नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ है । तम् १८/६२ एवं माम् १८/६६ में तत् और त्वं अर्थात ईश्वर और जीव का एकत्त्व सिद्ध करके इसी एकमात्र अद्वितीय परमतत्त्व में स्थित होने की बात कही है । जिसके लिए सभी स्वकर्म, यज्ञ, दान आदि समस्त वैदिक कर्म का अनुष्ठान करते हैं उन सबका फल आत्मप्रतिष्ठा है । यहाँ आत्मप्रतिष्ठा ही सभी अनात्म धर्म का स्वतः परित्याग कर देता है करना नहीं पड़ता है यही इसका भाव है ।
                  यहाँ एक बात और ध्यान रखना चाहिए कि तत् अर्थात वह को जिस वृत्ति से जानते हैं वह वृत्ति ही ज्ञान है, इसलिये ज्ञेय से ज्ञान अभिन्न है और जिसके द्वारा ज्ञेय और ज्ञान जाना जा रहा है वह ज्ञाता है, ये जो त्रुपुटी दिख रही हैं वह तीनो परस्पर अभिन्न हैं, इसका विरण अ. १८/६८ में देखना चाहिए । इस प्रकार जब ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय अभिन्न हैं तो भिन्न का कहीं कोई कारण ही नहीं दिखता है । एक होकर भी अनेक दिखना और अनेक होकर भी एक होना यही आश्चर्य है जिसे बिना विवेक और गुरु परंपरा के नहीं जाना जा सकता है । विचार करने पर सब असत दिखता है और अविचार से सत, किन्तु वह दोनो से भिन्न ही है यही ऋषियों और वेदवेत्ताओं का मत है ।

मेरा व्यक्तिगत विचार―
                मायामात्रमिदं द्वैतं यह अथवा वह करके जितना कुछ जानने में आ रहा है वह द्वैत है अद्वैतं परमार्थतः अद्वैत तो परम स्थिति का नाम है । अतः जब तक हमारी स्थित अद्वैत में प्रतिष्ठित न हो जाये तब तक साधन में सविशेष ब्रह्म की उपासना दृढ निष्ठा से हृदय गुप्तरूप से अद्वैत निष्ठा लक्षित रखकर अज्ञानी की भांति निष्ठा पूर्वक करना चाहिए और तब तक निष्कामकर्म का भी कर्तव्यत्वेन त्याग नहीं करना चाहिए यही गीता का भी मत है और मेरा भी ।  
                  गीता की इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि― समत्त्वं योग उच्यते २/४८,निर्दोषं हि समं ब्रह्म ५/१९ योग का अर्थ किया सम और सम का अर्थ किया निर्दोष ब्रह्म । तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ५/१९ इसीलिये ज्ञानीजन ब्रह्म में स्थित होते हैं । गीता का नाम है योगशास्त्र और यहाँ योग का अर्थ गीता कहती है निर्दोष ब्रह्म और ज्ञानी को उसमें स्थित बताती है । इससे अधिक और एकमेवाद्वितीयम् का प्रमाण क्या हो सकता है ? अतः गीता के योगशास्त्र नाम से ही जीवब्रह्मात्मैक का प्रतिपादन सिद्ध होता है । फिर भी द्वैत द्वैत यदि कोई चिल्लाता तो उसको द्वैत नामक कोई भूत लग गया है ऐसा समझना चाहिए ।
                  स्थूल दृष्टि से कर्मनिष्ठा, सूक्ष्मदृष्टि से ईश्वर शरणागति और कारण दृष्टि आत्मनिष्ठा यही है गीता का सार ।

गीता संबंधित कुछ विचारणीय तथ्य

किमकुर्वत
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              सूचना--- यह निबंध प्रचलित व्याख्यानों और व्याकरण से हटकर एक भाव से भवित है । किन्तु विचारणीय अवश्य है ।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ।।९/१७।।
             प्रश्न― संपूर्ण गीता को पढ़ा, परंपरा से श्रवण किया, मनन किया तथापि जीवन में परिवर्तन क्यों नहीं दिखता ?
             उत्तर― जहाँ से समस्या होती है समाधान भी वहीं से मिलता है, गीता के श्रवण मनन से परिवर्तन न आने पर पहले श्लोक का चिंतन भलीभाँति करना चाहिए और जब पहले श्लोक का मनन ठीक से हो जाये तब अन्तिम श्लोक का ठीक से मनन करना चाहिए । पहले और अन्तिम श्लोक के ठीक से मन में बैठ जाने पर बीच के पहले से श्रवण होने से स्वतः समझ में आ जायेंगे । पहला श्लोक....
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । 
मामाकाः पाण्वाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।१/१।।
              शब्दार्थ--- हे सञ्जय ! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए उत्सुक युद्ध का समान ज्ञान रखने वाले मेरे और पाण्डुपुत्रों ने क्या किया ?
            व्याख्या--- यहां हमें प्रचलित परंपरा से हटकर कुछ चिंतन करना होगा ।
             पहली बात यह है कि हमें निरीक्षण करना होगा कि कहीं हम धृतराष्ट्र तो नहीं है । धृतराष्ट्र अहंकार का एक ऐसा पुतला जो सब कुछ न्याय अन्याय जानता है तथापि मानता किसी की भी नहीं है । युद्धारंभ से पहले भगवान सनत्कुमार जी ने जिस धर्मोपदेश का वर्णन किया उससे उसको युद्ध की वृत्ति से न्यायपूर्वक उपराम होना चाहिए था, किन्तु नहीं हुआ । महाभारत का यह उपदेश “सनत्सुजातीय दर्शन" नाम से प्रसिद्ध है । वहाँ “प्रमादो वै मृत्युः" कहा है । धृतराष्ट्र ने प्रमाद पूर्वक उस परम तात्विक ज्ञान की उपेक्षा कर महाविनाश को उपस्थित कर दिया । युद्ध के दसवें दिन पितामह भीष्म के शरशैया विश्रामोपरांत संजय ने आकर युद्ध वृत्तांत के साथ ही श्रीमद्भगवद्गीता का परम पावन समस्त कल्मषों का नाश करने वाले परमतत्त्व का वर्णन करते हुए अन्त में पाण्डवों की विजय का भी अपना निश्चित मत प्रस्तुत किया, तथापि वह अहंकार के रथ से नीचे न उतर सका जिससे बची हुई संपत्ति और संतति की रक्षा करता हुआ “सनत्सुजातीय दर्शन एवं श्रीमद्भगवद्गीता" के अनुसार अपने शेष जीवन को कल्याणापथ का अनुगामी बना पाता । अतः पहले सुनिश्चित करो कि मैं धृतराष्ट्र नहीं हूँ फिर इस प्रकार विचार करो...
             यहाँ सबसे पहला शब्द है धर्मक्षेत्रे--- विष्णु सहस्रनाम में एक नाम धर्म आया है “धर्मो धर्मविदुत्तमः" अर्थात स्वयं भगवान धर्म और धर्म को जानने वाले हैं वेत्तासि वेद्यम् । “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" ७/७ भगवान से भिन्न अन्य किंचित्मात्र कुछ भी नहीं है । अतः शरीर भी धर्मक्षेत्र अर्थात शरीर रूप भगवान ही है । भगवान के दिये शरीर रूप भगवान में रहकर जो कुरुक्षेत्रे अर्थात कुछ कर गुरने के लिए यह कर्म क्षेत्र मिला मिला है तो इस शरीर रूपी क्षेत्र में कर्तव्य रूपी क्षेत्र के अन्तर्गत “मामकाः" अर्थात जो कुछ है वह सब मेरा ही है । यानी इदं जगत की प्रत्येक वस्तु का स्वामी भोक्ता मैं ही हूँ इस प्रकार आसुरी राक्षसी बुद्धि वाला, “पाण्डवाः" अर्थात जिनमें ये मेरा है की बुद्धि बनती ही नहीं, उनके बुद्धि सदैव मेरे की दैवी संपत्ति वाली धर्म एवं न्यायपक्ष की होती है ।  दोनो ही बुद्धियां बन्ध और मोक्ष का “समवेता" बराबर ज्ञान रखने भी भी जीवन भर क्या किया ? अर्थात पाण्डु बुद्धि है तब तो मात्र गीता सुनकर ही “नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा" १८/७३ हो जायेगा और यदि धृतराष्ट्र बुद्धि है तो नहीं होगा । ऐसी स्थिति में बदलाव की इच्छा रखने वाले को विचार करना चाहिए “किमकुर्वत" अभी तक जीवन भर किया क्या ? और क्या करना चाहिए था ? फिर विचार करे "सञ्जय" क्या सम्यक् प्रकार से जय अर्थात इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की “युयुत्सवः" उत्सुकता हुई अर्थात इच्छा हुई ? अगर नहीं तो फिर कितने भी वेद शास्त्र के ज्ञाता होने पर भी जीवन में बदलाव की कोई उम्मीद नहीं है । 
              विशेष--- कहने का भाव यह है कि इस धर्ममय शरीर को प्राप्त करके भी मैं, मेरा के भाव से मुक्त होकर मेरे का भाव जगत और भगवान में उत्पन्न होकर क्या भगवान को प्राप्त करने की इच्छा से गीता, वेदान्त श्रवण, मनन करके भी क्या भली प्रकार से साधन  चतुष्टय के माध्यम से मन सहित छहों इन्द्रियों को जीता ? अगर नहीं तो अब तक शास्त्र श्रवण मनन के साथ अभी तक और किया क्या ? बिना साधन चतुष्टय के जीवन में आसुरी राक्षसी भाव रहेगा ही, कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है । 
             जब जीव साधन चतुष्ट संपन्न होकर इन्द्रियों को जीत लेता है तब वह संजय बन जाता है और मुठ्ठी बांधकर उद्घोष करता है.....
सञ्जय उवाच
यत्र योगेश्वरो कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नितिर्मतिर्मम।।१८/७८।।
              शब्दार्थ--- जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं, जहाँ पृथापुत्र धनुर्धर अर्जुन हैन वहीं पर विजय रूपी ऐश्वर्य है ऐसी मेरी नीति अर्थात निर्णय है ।
              व्याख्या--- जब व्यक्ति साधन चतुष्ट संपन्न होकर इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है तब सद्गुरु रूपी कृष्ण मिल जाते हैं । जहाँ तत्त्ववेत्ता गुरु हो पृथा अर्थात नीर-क्षीर का विवेक करने वाली बुद्धि से उत्पन्न धनुर्धर अर्थात साहस पूर्वक शरीर और प्राणों का भय त्याग कर परमेश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित हो गया हो, वहीं पर आत्मैक्य रूपी ऐश्वर्य की प्राप्ति निश्चित है ऐसा साधक का अपना दृढ़ निश्चय हो जाता है । अपनी सीमित अहंता का व्यापक अहंता रूप में बदलाव हो जाता है । साधन चतुष्टय रहित धृतराष्ट्र में कभी बदलाव नहीं हो सकता है ।
               विशेष--- गीता का प्रारंभ धर्म से होता है और मम से विश्राम । अर्थात परमेश्वर से अभिन्न मम प्रत्यय से आत्म प्रत्यय लेना चाहिए । यानी सभी धर्मों का आत्म भाव में विश्रान्ति होना ही गीता और मुमुक्षु का लक्ष्य है । यह प्राण पर्यंत लक्ष्य की स्थिति ही सांसारिक जीवन से परमार्थ में परिवर्तन है ।

                                                                   हरिः ॐ
  

भौगोलिकता और अध्यात्म―
              प्रश्न उठता है कि क्या भौगोलिकता का अध्यात्म से कोई संबंध है या नहीं ? 
         प्रश्न विचारणीय है । हम देखते हैं विशेष रूप से पुराणों में अधिकांश भौगोलिक वर्णन आता है । पृथ्वी का व्यास क्या है ? इसमें छिपे खनिज आदि पदार्थों का क्या महत्व है ? जल कितना है ? अग्नि, वायु, आकाश आदि का वर्णन, फिर लोकों का एक एक के बाद एक की उत्कृष्टता का वर्णन आदि । यह सब कहकर अन्त में एक व्यापक सत्ता का वर्णन अनन्त और नेति नेति से विश्राम दे दिया जाता है । 
             इतिहास और उपनिष्दों में भी में भी बड़ी सूक्ष्म भौगोलिकता का वर्णन मिलता है, क्यों ? इसका अध्यात्म से क्या संबंध ? स्मृतियां भी इस वर्णन में पीछे नहीं हैं । गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ का वर्णन करते हुए अध्याय ३/१०-१५ तक इसी भौगोलिकता का वर्णन किया है । अध्याय ७/४-५में अपरा और परा प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया है । यद्यपि इसका विस्तार बीच बीच में अन्य स्थानों में मे विशेषतः अ. ७/११ तक में देखा जा सकता है । क्यों ? आचार्य चरण शंकराचार्य जी ने भी पंचीकरण नाम से अलग ही एक प्रक्रिया ग्रंथ ही हमें पुरस्कार स्वरूप में अपनी अहैतुकी कृपा से दी है, क्यों ?
               इसलिये कि इस माध्यम से ही सृष्टि के रहस्य को समझ सकेंगे । इसी माध्यम से शरीर, संसार और उससे भिन्न अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकेंगे और उनके प्रति मन में बैठी मिथ्या धारणा का कि मैं यही शरीर हूँ, मैं मरने वाला हूँ के भ्रम का निवारण हो सकता है अन्य कोई इस भ्रम का निवारण नहीं कर सकता । अतः हमें हमारी भौगोलिक स्थितियों-परिस्थितियों का सूक्ष्मता से भी निरीक्षण करते हुए प्रत्येक स्थूल का उससे सूक्ष्म की व्यापकता दिखाते हुए अन्त मे सबमें अपनी सूक्ष्मता और व्यापकता का ज्ञान स्वतः स्फुरिता होगा उसी व्यापक आत्मा का गीतानायक इस प्रकार वर्णन करते हैं....

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे परतस्तु सः ।।३/४२।।

             यहां “सः" का अर्थ संपूर्ण जगत को व्याप्त करे आत्मा ही है येन सर्वमिदं जगत् २/१७। इस आत्मा से भिन्न और कुछ भी नहीं है । इसी को ...

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।७/७।।

                अर्थात मुझसे परतर अन्य कुछ है ही नहीं एक मात्र मैं ही हूँ । यह जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वह मुझ सूत्र में मणियों की तरह मुझमें ही पिरोया है । इस प्रकार भौगोलिकता और अध्यात्म क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की तरह समझना चाहिए ।
              
                                                                      हरिः ॐ



गीता का अंग अंगी भाव―
            गीता की एक विशेषता है कि वह किसी की निंदा नहीं करती । अधिकांश विद्वान अपने मत की प्रतिष्ठा करने में निंदा न्याय का आश्रय लेते हैं, पहले निंदा करना और फिर अपने पक्ष का प्रतिपादन करना, जबकि गीता निंदा करने के स्थान पर अंग अंगी भाव का आश्रय लेकर अपनी बात रखते हैं जैसे---

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।३/४।।

               यहाँ पर बिना कर्म किये नैष्कर्म्य प्राप्त नहीं होता कहकर कर्म की ओर प्रोत्साहन करते हैं यह बताकर कि केवल कर्मसंन्यास से ही सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती है । यहाँ कर्म का भी प्रतिपान हुआ और संन्यास की निंदा भी नहीं हुई । दूसरी बात कर्म से ही नैष्कर्म्य अर्थात सर्वकर्मसंन्यास की सिद्धि होती है यह कहकर सर्वकर्म संन्यास को ही परम सिद्धि का अंगी और शास्त्रीय निष्कामकर्म को अंग माना है । इसकी पुष्टि अ.३/६ में उदाहरण पूर्वक की गई है ।

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।।६/१।।

            यहाँ पर भी कर्मफल का आश्रय न लेने वाले को संन्यासी और योगी कहा गया है केवल क्रियाओं और अग्नि का त्याग करने वाला ही संन्यासी योगी है ऐसा नहीं । इसका विवरण भी अ.३,६ आदि देखा जा सकता है । यहाँ पर भी निष्काम कर्मी की स्तुति करके यह बताया जा रहा है कि सर्वकर्म संन्यास का फल जो है कि अग्नि आदि क्रियाओं का त्याग करके संपूर्ण कर्मों से निवृत होना और वह तुझे अग्नि आदि क्रियाओं के करने पर भी फलाकाङ्क्षी न होने पर मिलेगा ही । अर्थात यहाँ सर्वकर्म संन्यास को अंगी और निष्काम कर्म को अंग माना है क्योंकि जिसकी प्राप्ति लक्ष्य होता है वह अंगी हो होता है और जिसके माध्यम से प्राप्त किया जाये वह अंग होता है ।

एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धियोगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्ययुक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ।।२/३९।।

                 अर्थात अभी ज्ञानयोग कहा और अब बुद्धियोग अर्थात कर्मयोग सुना जिससे कर्म बंधन से भलीभांति छूट जायेगा का । यहाँ पर कर्मबन्धन यद्यपि ज्ञानयोग से ही छूटता है तथापि ज्ञानयोग का अनधिकारी कर्मयोग के द्वारा चित्तशुद्धि पूर्वक उसी लक्ष्य को प्राप्त करता है । अतः ज्ञानयोग अंगी और कर्मयोग अंग हुआ । 

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । २/४५

यहां पर पहले सकाम शास्त्रीय/वैदिक कर्मों का दोष दिखाकर फिर निस्त्रैगुण्य होने की बात करते हैं । यहाँ पर कोई निंदा न्याय नहीं है क्योंकि लक्ष्य अंग नहीं अंगी की प्राप्ति है । इसीलिये---

कर्म ब्रह्मोद्भव विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।३/१५।।

            अर्थात कर्मों की उत्पत्ति वेद से और वेद की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है । अर्थात वेद अंग है और अक्षर परमात्मा अंगी है इसलिए ब्रह्म अर्थात वेद व्यापक हैं और वह नित्य यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं । यहां ध्यान देने के बात यह है कि अर्जुन को “निस्त्रैगुण्य" २/४५ होने का आदेश दिया । और यहां वेदों का अंगी स्वयं को बता रहे हैं, वे स्वयं त्रिगुणातीत हैं अतः उनसे उत्पन्न त्रिगुण कैसे हो सकते हैं ? अतः यहाँ ध्यान देने की बात है कहते हैं कि वेद नित्य यज्ञ में प्रतिष्ठित और व्यापक हैं कैसे ? क्योंकि व्यापक परमात्मा से उत्पन्न होने और उसकी श्वास होने के कारण परमात्मा जहाँ होगा वहीं वेद होगा तो स्वतः ही वेद व्यापक हो गये । नित्य यज्ञ के अंतर्गत पंचमहायज्ञ अ.३/१० से लेकर अध्याय चार में यज्ञों का अवलोकन कर लेना चाहिए । उन यज्ञों का अनुसरण करने से निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति होती है, अतः वेद भी इसी न्याय से निर्गुण सिद्ध होते हैं । जैसे ब्रह्म माया का आश्रय लेकर ईश्वरोपाधि धारण करके भी माया से निरपेक्ष होते हैं, वैसे ही जब औपाधिक ईश्वर की श्वास बनकर वेद भी त्रिगुणात्मक हो जाते हैं तथापि वे उन गुणों के आधीन न होकर निर्गुण होकर निर्गुण ब्रह्म का दर्शन कराते हैं । यही निर्गुण रूप ही वेदों का नेति नेति है । अतः त्रैगुण्यविषया विषया वेदा अंग और निस्त्रैगुण्य अंगी सिद्ध हुआ ।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।।३/१६

अर्थात इस अंग, अंगी भाव को जानकर जो इसका अनुसरण नहीं करता वह व्यर्थ ही जीता है, अर्थात ऐसे व्यक्ति का जीना पृथ्वी पर बोझ है उसे आत्महत्या कर लेना चाहिए, उसे जीने का अधिकार नहीं है । अर्थात एक मात्र सर्वात्मा ही निस्त्रैगुण्य है वेद अंग हैं उनके सकाम कर्म का प्रतिपान करने वाले त्रिगुणात्मक अंश का त्याग कर पहले सात्विक अंग का आश्रय लेकर उस निस्त्रैगुण्य में स्थित होना ही मानव मात्र का लक्ष्य है । यही यहाँ अंग अंगी भाव से समझाया गया है । न कि अविवेक प्रधान निंदा का आश्रय लेकर ।
             जिस किसी को उत्कृष्ट दिखाना है तो दूसरे पक्ष की निंदा न करके स्वपक्ष की स्तुति कर दो, बस आपका लक्ष्य पूरा हो गया । यही कृष्ण ने पूरी गीता में किया है । गुण दोष । दिखाया, लेकिन यह दावा नहीं करते हैं कि हमने जो कहा वही करो, बल्कि वे कहते हैं कि हमने तो बता दिया है । मार्ग दर्शन करा दिया है भलीभांति विचार कर लो फिर जैसी इच्छा हो वैसा करो....

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा करु ।।१८/६३।।

                                                                         हरिः ॐ


सांप्रदायिक हठ त्यागकर विचार करो―
              आत्मस्वरूप मुमुक्षुजन ! विचार करो, जब हमारा जन्म होता है तब न तो हमारा कोई नाम होता है, न जाति होती है, न ही हमें क्षुधा पिपासा का ज्ञान होता है । शरीर से लेकर नाम, जाति, संस्कार, क्षुधा पिपासा का ज्ञान, राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि सब कुछ तो समज ने दिया है । हमारा क्या है ? तथापि यह संस्कार इतना सुदृढ़ होता है कि मैं अमुक नाम और अमुक जाति वाला हूँ का बोध मृत्युपर्यन्त नहीं जाता । समाज के द्वारा कराया गया क्षुधा पिपासा का ज्ञान, शीत, उष्ण, मान, अपमान का ज्ञान जन्मजन्मांतर पीछा नहीं छोड़ते । हम कभी भी अपनी बुद्धि से विवेक से सोचना ही नहीं चाहते क्यों ? इस प्रश्न कआ उत्तर इतना आसान नहीं है क्योंकि जो भी उत्तर दिया जायेगा उस पर संसार "ननु न च" करने लगेगा । 
             हम समाज के जिस विभाग में होते हैं वही दृढता हमें ऊपर उठकर कुछ भी नहीं करने देती, और न ही समाज करने की अनुमति देती है । उदाहरण के तौर पर एक सज्जन जिन्होंने प्रस्थान त्रयी का १४वर्षों में अध्ययन कर चुके हैं, उस पर उन्होंने पुस्तक भी लिख दी हैं, यद्यपि अर्थाभाव से बाजार में उपस्थित नहीं हैं तथापि कुछ पुस्तकें छपकर घर में रखी हैं । वे जैसा पढ़ाया जाता है अक्षरशः वैसा ही कंप्यूटर पर संपादित कर देते हैं अलग से विचार ही उत्पन्न नहीं होता । उनसे हमने कहा कि गीता रामानुज भाष्य को भी देखें । उन्होंने उत्तर दिया कि हमारे गुरूजी ने मना किया है । हमने कहा यदि आप प्रतिपक्ष को नहीं समझेंगे तो अपना मत कैसे रखेंगे ? बोले नहीं गुरू जी ने जो कह दिया मैं वही करूंगा । मैं अन्य ग्रंथ नहीं पढ़ सकता । अब देखिये जब आप शांकर वेदान्त पर पुस्तक लिख सकते हैं तो कौन सा भय है जो आपको अन्य संप्रदाय के ग्रंथ नहीं पढ़ सकते ? इसी प्रकार और भी बहुत लोग हैं जो न तो अन्य परंपरा का जानना चाहते हैं और न ही उनको उधर जाने ही दिया जाता है, क्यों ? 
           👉मुझे भी शांकरभाष्य के अतिरिक्त पढ़ने को अनेक लोगों ने मना किया था । किन्तु मैं हठधर्मी हूँ । यद्यपि परंपरा से पढ़ा नहीं । आज भी गीता के श्लोक नहीं समझ सकता तथापि कुछ हिन्दी अनुवाद का आश्रय लेकर पढ़ता हूँ । मैं जो भी लेख लिखता हूँ उन पर मेरा जन्मज अधिकार नहीं है, समाज से सुना, समाज की स्थिति को पढ़कर, सब कुछ अपने शब्दों में विवेचन करना और फिर आप सभी के बीच उसको साझा करना । यही है मेरी विद्वत्ता का रहस्य । अथवा अज्ञानी होकर ज्ञानी होने का दंभ । आप एक बात और आश्चर्य करेंगे किन्तु मानेंगे या नहीं मैं नहीं जानता तथापि मैं बताऊंगा, मैं कुछ भी पढ़ूं और उसी समय मुझसे पूछो तो मैं बता नहीं सकता भूल जाता हूँ, कई बार व्यक्ति को देखने के बाद भी पहचान लूं तो बड़ी बात है । तथापि जो लिखता हूँ वह ऐसा नहीं कि आज फोन है तो आपसे साझा करने और वाहवाही के लिए लिखता हूँ, जब फोन नहीं था तब भी लिखता था । किसी को प्रमाण चाहिए तो हमारी डायरियाँ सुरक्षित हैं तारीख और वर्ष के साथ देख सकता है । 👉फिर भी मैं जो लिखता हूँ वह अपने ही शब्दों में आपके द्वारा सुना गया, पढा गया, देखा गया ही लिखता हूँ मेरा अपना उसमें कुछ नहीं होता । 
         इस लेख के माध्यम से मैं मात्र इतना कहना चाहता हूँ कि जब आप मूल ग्रंथ लिखते हैं यह अच्छी बात है, आप किसी का लेख पसंद आने पर उसे लिखते हैं अच्छी बात है लेकिन उससे भी अच्छी बात वह होगी कि किसी संप्रदाय का भय मत करो रट्टू तोता मत बनो, सबको पढ़कर मन से भुला दो । मन से भुलाकर फिर कलम लेकर बैठो और क्या लिखना है ? किस विषय पर लिखना है ? इसका विचार करो और लिखना प्रारंभ करो । तो आप जिन संस्कारों वाले होंगे, जैसा आपका स्वभाव होगा आपको उस पढ़े और पढ़कर भूले हुए से हर वह सामग्री मिलेगी जो आपके स्वभाव के अनुरूप होगी । सभी तो आप के पास शब्द और संस्कार दूसरे के हैं लेकिन आपने अपने शब्दों में अपनी प्रकृति के अनुरूप उसे गढ़ा है इसलिए उससे लाभ यह होगा कि आप निर्भय होगे । कोई भी कुछ भी टीका टिप्पणी करे लेकिन वे शब्द आपके होंगे और वही शब्द आपको मन में बैठेंगे, उसी के अनुसार आपका नया मार्ग प्रशस्त होगा । यही मनन है, यही निदिध्यासन का प्रशस्त मार्ग है । अन्य लोग जो मात्र दूसरों के टीका और भाष्य को अक्षरशः रटते हैं और ठीक है करके स्वयं विचार नहीं करते वे भले कुछ भी कहें लेकिन उन्होंने श्रवण तो किया है पर मनन नहीं किया । मात्र रट्टू तोता बनकर रह गये और रट्टू तोता निदिध्यासन क्या करेगा ?
                अतः विद्वान बनने की होड़ छोड़कर जो सामग्री संसार से प्राप्त है उसी को लेकर अपना अलग नया मार्ग प्रशस्त करो । इस पर दो बातें ध्यान रखना होगा---
         १-👉 आप कहां खड़े हैं ? जहाँ खड़े हो वहीं से चलना है ।
         २-👉आपका लक्ष्य क्या है ? अर्थात आपको जाना कहाँ ?
             इतना सुनिश्चित हो जाने पर मार्ग में आप किस साधन से जायेंगे ? यह विचार करने की आवश्यकता नहीं है । जो साधन आपके पास उपलब्ध है उसी को अपनना होगा ।  नदी पार जाना है तो नौका, और कहीं तो बस, रेल, हवाई जहाज आदि ।
            इसी प्रकार आप ज्ञान योगी हैं या कर्मयोगी महत्व इसका नहीं । आपको परंपरा से प्राप्त साधन क्या है उसका आश्रय लेकर चलो । आपको आपके अनुकूल सामग्री मिल जायेगी । जिस ग्रंथ को अपना आधार बनाया अन्य को छोड़कर उसी पर बारंबार चिंतन करना और उसी पर बारंबार लिखना मात्र यह ध्यान रखते हुए कि प्रस्तुत ग्रंथ का उपक्रम किस विषय का करता है और उसका उपसंहार अर्थात अन्तिम लक्ष्य क्या है ? यह पहले देखो । उपक्रम का अर्थ जहाँ आप खड़े हो और उपसंहार का अर्थ आपका अन्तिम लक्ष्य ।  इतना याद रखने पर जैसे नदी पार नौका के बिना नहीं कर सकते किन्तु नौका को नदी पार करके तुरन्त छोड़ ही नहीं देते बल्कि स्वतः छूट जाती है, वैसे ही ज्ञान, ध्यान, भक्ति, कर्म सब स्वतः लक्ष्य प्राप्ति पर छूट जाते हैं यह कभी नहीं भूलना चाहिए । अगर नहीं छूटा मतलब लक्ष्य प्राप्त नहीं, उसका एक ही कारण है जिस साधन को अपनाया उसके प्रति आसक्ति । साधन से आसक्ति नहीं लक्ष्य लक्ष्य केंद्रित होना चाहिए । क्योंकि ये साधन और साध्य भी समाज ने ही दिया है अपना क्या ? अर्थात हम तो साधन असाधन से भी परे हैं ।

                                                                     हरिः ॐ



गीता पर मतभेद कारण―
            गीता पर मतभेद का एक ही कारण है वह यह कि उपसंहार और उपक्रम की एक के द्वारा बारीकी से निरीक्षण ओर अन्य के द्वारा अपनी नई परंपरा का निर्माण करने और अपनी परंपरा की रक्षा हेतु की गई ईष्या द्वेष का आश्रय लेकर व्याख्या ।
         यदि व्याख्याकारों ने निम्न विन्दुओं पर ध्यान दिया होता तो व्याख्या शैली में तो अन्तर स्वाभाविक रूप से हो सकता था/है, लेकिन लक्ष्य में मतभेद कदापि न होता ।
         👉 गीता के उपक्रम में सबसे पहली बात सकाम कर्मियों का अनधिकार है यह बात "त्रैगुण्यविषया वेदा" २/४५ से सिद्ध होती है । अधिक समझने के लिए इसका पूर्व प्रसंग देख लेना चाहिए ।
          👉गीता समझ में उसी को आती है जो पूर्णतः निष्काम हो "निस्त्रैगुण्यो भव" २/४५ से स्पष्ट कृष्ण ने कह दिया है ।
          👉निस्त्रैगुण्य होने के लिए माया को पार करना पड़ेगा । यहाँ माया का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है ---

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ।।७/२६
               अर्थात इच्छा और द्वेष से उपन्न द्वन्द्व को पहले पार करना होगा यह पहली सीढ़ी है इसी को कहा “निर्द्वन्द्वो" २/४५।।
             👉जब हम निर्द्वन्द्व हो जायेंगे तब हमको शुद्ध सत्वगुण मे स्थित होना होगा, इसमें थोड़ा भी रजोगुण का लेश भी नहीं होना चाहिए, इसी को कहा "नित्यसत्वस्थो" २/४५ अगर थोड़ा भी रज हुआ तो समझ में आने वाली गीता नहीं है । इसका प्रमाण गीता में जगह जगह लिया गया है तथापि अ.७/२३-२५ तक एवं १८/२१-२२ देख लेना चाहिए । यह हुआ गीता को समझने का दूसरा चरण ।
           👉जब तक हम नित्यसत्वस्थ नहीं हो पा रहे हैं तब तक हम तीसरा चरण "निर्योगक्षेम" ३/४५ नहीं बन सकते । जब तक योगक्षेम की चिन्ता है तब तक हमें योगक्षेम की पीड़ा होगी ही । अतः इस तीसरे चरण को भी पार करना होगा । इसका लक्षण अ. १८/२० में देख लेना चाहिए ।
            👉जब हम निर्योगक्षेम की तृतीय मंजिल पार कर जायें तब जाकर कहीं हम "आत्मवान्" २/४५ हो पायेंगे । इसी आत्मवान को ही "आत्मन्येवात्मना तुष्टः" अ. २/५५ कहा ये चरण पार करके ही हम हम निस्त्रैगुण्य हो सकते । 
             अतः हमें रजोगुणोत्पन्न राग द्वेष इच्छा और हठधर्मिता का पहले त्याग करना होगा । तब हम जिन वेदों को सकाम भाव से “त्रैगुण्यविषया" कहकर त्याज्य समझते हैं वही वेद हमें परमतत्त्व का रहस्य स्वयं “नित्यसत्वस्थ" भाव से “निस्त्रैगुण्य" का रहस्य बतायेंगे । क्योंकि “वेदैश्च सर्वेरहमेव" १५/१५ अर्थात सभी वेदों के द्वारा एकमात्र मैं ही जानने के योग्य हूँ इसके लिए ही “वेदान्त कृत" १५/१५ अर्थात वेदान्त की रचना भी मैने ही की है, क्योंकि वेद को एक मात्र मैं ही जानने वाला हूँ दूसरा कोई नहीं “वेदविदेव चाहं" १५/१५ । इसी परमतत्त्व को ही उन ऋषियों ने वेदों में नाना प्रकार से वर्णन किया है “ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव" १३/४ वह वेदान्द ही उपनिषद रूप से है जिसकी समीक्षा चार पादों द्वारा करके मेरे स्वरूप का विस्तृत वर्णन है ।
         निस्त्रैगुण्यो भव से आत्मवान २/४५ तक जिसका वर्णन किया किया उपसंहार में पुनः उसी को इस प्रकार कहा---
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।।१८/६७।
                  अर्थात पहली बात ये है कि वह साधन चतुष्ट संपन्न होना चाहिए, शारीरिक तप से यही सिद्ध होता है, तपस्वी तो हो लेकिन मेरा भक्ता न हो भक्त का अर्थात अनन्यभाव समर्पित न हो, जिसका ज्ञानी भक्त अ.७ में कहा गया है जो मुझे एकांश में न देखकर सर्वांश “वासुदेवः सर्वम्" के रूप में अपनी भी सत्ता को मुझमें समर्पित कर देने वाला होना चाहिए, जो मेरी वाणी को सुनने की इच्छा रखता हो अर्थात मेरी वाणी में विश्वास करने वाला हो कि मैने कह दिया “योगक्षेमं वहाम्यहम्" तो मैं अपनी प्रतिज्ञा का पालन करूँगा ही । इतना दृढ़ विश्वास होना चाहिए । फिर मुझमें दोष देखने वाला न हो अर्थात “व्यक्तिमापन्नं" मैं साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला हूँ, मैं जन्मने मरने वाला हूँ, मैं मंदिर तक ही सीमित हूँ अथवा मैं अर्थात सर्वात्मा ईश्वर या ब्रह्म अलग हूँ और वह अर्थात जीव अलग है ऐसे भिन्न भाव के दोष से रहित हो । यदि न चार लक्षणों से संपन्न न हो तो उसे गीता का अधिकारी नहीं है अर्थात वह समझ नहीं सकता । मात्र भेद उत्पन्न करेगा, झगड़ा करेगा ।
           अब उपक्रम और उपसंहार से मिलान करें---
            १-👉अ.२/४ में पहला साधन बताया “निर्द्वन्द्व" होना, तो यहाँ पहला साधन बताया शारीरीक तप जो साधन चतुष्टय से ही संभव है, जिसके बिना निर्द्वन्द्व होना संभव नहीं है ।
            २-👉वहां दूसरा साधन बताया "नित्यसत्वस्थ" होना तो यहाँ बता दिया मेरा भक्त होना चाहिए । भक्त की परिभाषा भी समझकर रखना चाहिए । उसमें भेद नामक व्यभिचार नहीं होना चाहिए, यही अव्यभिचारी पराभक्ति है ।
            ३-👉वहां तीसरा साधन बताया "निर्योगक्षेम"  तो यहां बताया मेरी वाणी पर विश्वास रखने वाला होना चाहिए कि मैंने कह दिया "योगक्षेमं वहाम्यहम्" तो कह दिया । "ददामि बुद्धियोगं तं" कह दिया तो कह दिया, यही श्रद्धा है जो वेदान्त प्रतिपाद्य आत्मतत्त्व सुनने का अधिकारी बनाती है ।
            ४-👉वहां कहा "आत्मवान्" तो यहाँ कहा मुझमें भेद दृष्टि आदि का दोष नहीं होना चाहिए, जब आत्मनिष्ठ हो जायेगा तो संपूर्ण दोषदृष्टि ही नष्ट हो जायेगी ।
            यदि इतना है तो वह गीता का अधिकारी है और ठीक वैसा ही समझ में आयेगा जैसा कृष्ण ने कहा है अन्यथा-- “गुह्याद्गुह्यतरं" गोपनीय से भी गोपनीय है । “इति गुह्यतमं शास्त्रम्" १५/२०  एक गोपनीय होता है लेकिन गोपनीय से भी गोपनीय होता है, उन गोपनीय से गोपनीयता में भी जो अधिक गोपनीय हो वह गुह्यतम है । अथवा जितनी भी गोपनीयताएं हो सकती हैं उन सभी गोपनीयताओं में “सर्वगुह्यतमम्" १८/६४ है यह गीता का ज्ञान । 
               सारांश--- इतने मतभेद मात्र रजोगुणोत्पन्न राग द्वेष आदि के कारण हैं । यही कारण है बड़े बड़े तपस्वियों द्वारा राग द्वेष की प्रवृत्ति में लिखे गये भाष्य टीका आदि का अनुसरण करने वाले भी राग द्वेष से आवृत होकर वही लकीर के फकीर अर्थ करते हुए समाज को भ्रम में डालते हुए शास्त्रों के लक्ष्य को ही आवृत कर दिया है । उनको गी. अ.७/२३-२५ के अनुसार समझकर बुद्धिमान को उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिए । इनकी समझ में कुछ आनेवाला नहीं है ।

                                                                    हरिः ॐ

वासुदेवः सर्वम्―
            हमारी समस्या तब बढ़ जाती है जब हम श्रुति-शास्त्र के अनुभवों की अनदेखी करने लगते हैं । अब कहा “वासुदेवः सर्वम्" तो आपने सबको वासुदेव मान लिया, अपने को नहीं । यह तो भगवान ने कहा नहीं कि आपको छोड़कर बाकी सब मैं हूँ....! अगर नहीं कहा तो सबको वासुदेव मान लिया अपने को क्यों नहीं माना ? नहीं माना तोफिर वासुदेवः सर्वम् कैसे हुआ ? इसके अतिरिक्त देखिये--- “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" ७/७ यहाँ पर कहा मुझसे भिन्न अन्य नहीं है लेकिन यह भी संभव था कि मुझको छोड़कर अन्य कुछ भी श्रीभगवान से भिन्न नहीं है, इसीलिये कहा “किञ्चित्" अर्थात कुछ भी ऐसा नहीं है जो मुझसे भिन्न हो, इस जगत का निमित्त उपादन कारण मैं हूँ और आप भी जगत से भिन्न न होने के कारण मुझसे भिन्न नहीं हो, द्विविधा प्रकृति मुझसे अभिन्न है इसलिये आप भी मुझसे भिन्न नहीं हो । 
           आप जीवन धारण करते हो ? तो “जीवनं सर्वभूतेषु" अर्थात प्राणियों के जीवन का मूलभूत गुण प्राण मैं हूँ । प्राणों का मूल अन्न मैं हूँ “अन्नं वै प्राणः" । अन्न का मूल ब्रह्म मैं हूँ “अन्नं वै ब्रह्म" । अन्न से ही जीवन धारित होता है और वह अन्न मैं हूँ तो तुम मुझसे भिन्न कैसे हो गये ? इस शरीर को धारण करने वाली आत्मा मैं हूँ “अहमात्मा" १०/२० "क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि" १३/२ तुम जो अपने को जानने वाला मानते हो वह कोई और नहीं मैं स्वयं वासुदेव हूँ ऐसा जानो ।
               इस पर एक द्वैतवादी मित्र ने कहा कि इस शरीर में जानने वाले दो हैं । एक जीव और दूसरा आत्मा । जीव मात्र मन, बुद्धि, शरीर सहित संसार को जानता है और ईश्वर इस संसार सहित जीव को भी जानता है । अब इनसे पूछा जाये कि जीव अगर मात्र बुद्धि शरीर सहित संसार को ही यदि जानता है तो उसने कैसे जाना कि कोई ईश्वर है ? और अगर वह जानता है कि कोई ईश्वर है और उसे प्राप्त करना चाहिए, तो अनजान वस्तु के लिए मन में कल्पना भी नहीं हो सकती है फिर प्राप्ति की बात कैसे की जा सकती है ? इसका मतलब जिसे आप जीव कह रहे हैं वह ईश्वर को भी जानता है, जानता है तो किस रूप में जानता है ? यदि जीव ईश्वर को जानता है तो ईश्वर व्याप्य और जीव व्यापक होगा और यदि ईश्वर जीव को जानता है तो जीव व्याप्य और ईश्वर व्यापक होगा । दोनो व्याप्त व्यापक हो नहीं सकते अतः आप कैसे कह सकते हैं कि ईश्वर ही जीव को जानता है जीव नहीं । आपकी ही बात से आपकी बात की हानि हो रही है । फिर श्रुति-शास्त्र सिद्धांत को चोट पहुंचे तो क्या आश्चर्य ?
           अतः आप जीव को ही व्याप्य कहेंगे ये स्वाभाविक है । अब विचार करो कि व्याप्य का अस्तित्व क्या है ? घड़ा है, जिस समय घड़ा दिख रहा है उस समय भी वह मिट्टी ही है क्योंकि घड़ा बनने से पहले भी मिट्टी ही थी और घड़ा बनने के बाद भी वह मिट्टी ही है । अगर आप घड़ा और मिट्टी अलग मानते हो तो हम कहते हैं घड़े से मिट्टी अलग करके फेंक और घड़ा ले जाओ । तो घड़ा बचेगा ? नहीं न ? इसी प्रकार जीव व्याप्य है ईश्वर व्यापक है, ईश्वर से भिन्न कोई जीव नहीं है क्योंकि व्याप्य व्यापक से भिन्न नहीं हो सकता । जीव प्रकाश्य है ईश्वर प्रकाशक है । जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ज्ञान गुन धामू ।। सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ।। सब कर परम प्रकाशक कहने का भव यह है कि जो द्विविधा प्रकृति भगवान ने बताया उसमें अपरा अर्थात जड़ का प्रकाशक परा अर्थात जीव है और और इन दोनों का प्रकाशक ब्रह्म है जैसा कि “अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा । ७/६ ।
              भगवान कहते हैं “जीवभूतां" ७/५ वह जीव है नहीं जीव भाव को प्राप्त हुआ है, उसने जीवत्व रूप उपाधि को स्वयं स्वीकार करके व्यापक अहंता का त्याग करके सीमित अहंता को स्वयं स्वीकार करके स्वयं को बांध लिया है । जब मुक्त होना चाहेगा तब सीमित अहंता को व्यापक अहंता में हवन करके, “त्वम्" पदार्थ का “तत्" पदार्थ में लय करके “अहमात्मा" १०/२० के रूप में अपने आपको देखेगा । वह स्वयं सबका एक मात्र क्षेत्रज्ञ होगा । वह “वासुदेवः सर्वम्" के रूप में अपने आपको देखेगा । अर्थात वह मुझसे अभिन्न अपने को सर्वत्र मुझ व्यापक सर्वात्मा के रूप में जानेगा । वासुदेवः सर्वम् का यही भाव है ।

                                                             झ         हरिः ॐ


क्या प्रकृति का नाश होता है ?
                  प्रकृति यानी माया अनिर्वचनीय कही गई है अनिर्वचनीय का अर्थ होता है जिसका वाणी द्वारा किसी एक पक्ष में न कहा जा सके । आचार्य शंकर अपने भाष्य में प्रकृति यानी माया को अनिर्वचनीय डंके की चोट पर कहते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि प्रकृति का नष्ट होना इसलिए नहीं कह सकते कि जगत के जितने भी कार्य करण कर्तृत्व भोक्तृत्व आदि गुण हैं प्रकृति के हैं और अविनाशी इसलिये नहीं कह सकते क्योंकि संपूर्ण जगत का नाश होता दिख रहा है अतः प्रकृति अनिर्वचनीय है । आइए हमारे साथ गीता के माध्यम से चिनतन करते हैं---
            गीता अध्याय ७/४-५ में अपरा और परा प्रकृति का वर्णन है और परा प्रकृति ने ही संपूर्ण जगत को धारण किया है । ध्यान देने की बात यह है कि अपरा जड़ प्रकृति है, और उसमें परा प्रकृति व्याप्त है । इसीलिये जड़ पदार्थों में भी जीव है । जैसे वृक्षादि में जीव है तभी वृद्धि को प्राप्त होते हैं । जल में रस जीव है तभी पीते ही तृप्ति होती है । अन्नादि में भी जीव है । अलग अलग न कहकर संपूर्ण आकाशादि जड़ पदार्थ कहे जाने वाले पंचमहाभूतों में भी जीव अर्थात परा प्रकृति व्याप्त है और इसका नाश नहीं होता तभी तो इसमें धारण आदि की क्षमता है । जो भी कुछ देखने समझने में आ रहा है वह सब प्रकृति ही है । गीता में प्रकृति और पुरुष को लेकर बहुत विस्तृत विवेचन है तथापि अल्पांश में विचार करते हैं----
              गीता अध्याय ७/४-५ में अपरा और परा प्रकृति का वर्णन है । परा प्रकृति ने ही संपूर्ण जगत को धारण किया है । ध्यान देने की बात यह है कि अपरा जड़ प्रकृति है तथापि उसमें पर प्रकृति व्याप्त है । इसीलिये जड़ पदार्थों में भी जीव होता है । जैसे--वृक्षादि में जीव होता है तभी तो वृद्धि को प्राप्त होते हैं । जल में रस जीव है तभी तो पीते ही तृप्ति होती है । अलग अलग न कहकर एक साथ कहें तो आकाशादि संपूर्ण पंचमहाभूत पंच तंमात्राओं से युक्त हैं और ये तंमात्राएं ही चैतन्य और परा प्रकृति हैं । तभी इनमें जगत को धारण करने की क्षमता है । जो भी कुछ देखने समझने में आ रहा है वह सब परा प्रकृति ही है । जैसे---
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृति सम्भावान् ।।१३/१९//
            यहां प्रकृति पुरुष को अनादि कहते हुए जितने भी विकार और गुण हैं वे सभी प्रकृति से उत्पन्न कहे गये हैं ।
कार्यकरण कर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।१३/२०
          जितना भी कार्य करण है इन सबकी मूल कारण प्रकृति है । इतना ही नहीं उपद्रष्टा से लेकर परमात्मा १३/२२ तक की संपूर्ण उपाधियां प्रकृति की है पुरुष की नहीं, क्योंकि पुरुष निष्क्रिय है ।
          शंका--- पुरुष निष्क्रिय है जो “तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्" अर्थात उसका सृष्टि करना और उसमें प्रवेश करना रूप क्रिया का कथन तो स्वयं श्रुति ही करती है । स्वयं श्रीभगवान “चातुर्वण्यं मया सृष्ट्वा एवं तस्यकर्तारमपि मां विद्धि" ४/१३, “कल्पादौ विसृजाम्यहम्" ९/७ इत्यादि से स्वयं ओ क्रियावान कहते हैं तो वह अक्रिय कैसे हुआ ? 
          समाधान--- सृजन कला और क्रिया है या नहीं ? सृजन कला है और कला प्रकृति में होती है, पुरुष में नहीं इसीलिए वही श्रुति उसे “निष्कल" कहती है । क्रिया प्रकृति की है पुरुष की नहीं इसीलिये वही श्रुति उसे “निष्क्रिय" कहती है । अतः "तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्" के साथ "निष्कल एवं निष्क्रिय पर भी विचार करो, यह अपवाद भी है या नहीं ? जहाँ भी क्रियात्मक अध्यारोप है वहीं निष्क्रयात्मक अपवाद भी है । अध्यारोप अपवाद के बाद जो बचे वही ब्रह्म है, अतः उसे क्रियावन कैसे कह सकते हैं ? अध्यरोप अपवाद मात्र अर्थवाद है, जिज्ञासु को समझाने के लिए। वस्तुतः नहीं, क्योंकि “इदमित्थं" श्रुति ने कहीं भी नहीं कहा है । 
               इसी प्रकार चातुर्वण्यं मया सृष्ट्वा जहाँ लिखा है वहीं “गुणकर्मविभागशः" ४/१३ अपवाद भी लिखा है । ये गुण कर्म किसके है ? प्रकृति के या पुरुष के ? इसी प्रकार जहाँ तस्यकर्तारमपि मां विद्धि अध्यारोप लिखा है वहीं “अकर्तामव्ययम्" ४/१३ अपवाद भी लिखा हुआ है । कल्पादौ विसृजाम्यहम् के बाद “मयाध्यक्षेण सूयते सचराचरम्" ८/१० अपवाद भी लिखा हुआ है । अर्थात जहाँ भी प्रकृति वाचक क्रिया पद है वहीं पुरुष वाचक अक्रिय पद भी है । इस पर भी विचार करना चाहिए ।
             इस प्रकार पहले तो हमें प्रकृति पुरुष के विषय में अध्यरोप अपवाद समझने होंगे । जब यह समझ में आ जाता है कि जितने भी गुण कार्य हैं वे प्रकृति के हैं, वह स्वयं मूल प्रकृति नहीं है । गुण कर्म कार्य रूप का नाश दिखता है लेकिन यदि वे नष्ट हो गये तो कालान्तर में उसका फल कैसे प्राप्त होता है ? इसका अर्थ यह हुआ कि नष्ट न होकर वही गुण कर्म रूपान्तरित होकर फल के रूप में प्रकट होते हैं ।
               जब संपूर्ण सृष्टि का आत्यंतिक प्रलय होता है तब ब्रह्मा विष्णु और महेश्वर का भी संहार कौन करता है ? क्योंकि पुरुष तो निष्क्रिय है और निष्क्रिय किस बात का जो उसे कुछ भी करना पड़े ? तो स्वाभाविक है कि जो तीनों गुणों की साम्यावस्था है वही सत्व प्रधान विष्णु, रज प्रधान ब्रह्मा का और तम प्रधान महेश्वर का संहार करेगी । यहाँ समझना यह चाहिए कि जो प्रकृति निष्क्रिय पुरुष से चैतन्य प्रकाश को लेकर तीनो गुणों को तीन रूपों में विभक्त करके स्वयं स्थित थी वही अपने तीनो गुणों का संहार न करके उनका संवरण कर लेती है अर्थात तीनो गुणों को समेटकर एक मात्र मूल प्रकृति बचती है । यह संवरण ठीक वैसा ही है जैसे अवतारों का नाश नहीं होता वे मरते नहीं हैं वे अपनी लीला का संवरण करते हैं तथापि अविद्वान उसे मरना कहते हैं । यही प्रकृति का तीनो गुणों का संवरण करके अपने मूल रूपों में स्थित होना ही तीनो गुणों की साम्यावस्था कही जा जाती है । अब तक इतना सारा अनादि काल से कार्य करते करते मूल प्रकृति भी बहुत थक चुकी होती है । अब इसे शान्ति की आवश्यकता होती है । अतः सर्वाधिष्ठान निष्क्रिय ब्रह्म में अभिन्न भाव से एकाकार होकर विश्राम करती है, क्योंकि विश्राम क्रिया में नहीं बल्कि अक्रिय में ही होता है । अब वह परम शान्ति का अनुभव करते हुए शान्त हो जाती है । इसके प्राकट्य का कोई आदि नहीं और संपूर्ण ब्रह्मांड के कार्य का संवरण करके शान्त हो गई है अतः अब इसे अनादि शान्त कहते हैं । अनादि है अविनाशी नहीं । इसीलिये प्रकृति को आचार्य शंकर ने अनिर्वचनीय कहा है अब इस प्रकार जो पुरुष से अभिन्न प्रकृति है उसका नाश कहने से ब्रह्म के नाश का भी प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । 
             दूसरी बात---
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । 
यहाँ पर आया हुआ माता शब्द स्वयं श्रीभगवान अपने लिए प्रयोग कर रहे हैं जबकि यह माता प्रकृति ही है पुरुष नहीं देखिए अर्धनारीश्वर की लीला---
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।।१४/३।।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।१४/४।।
यहां पर संपूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाली प्रकृति को कहा है और उत्पन्न करने वाली ही माता होगी, और वह माता स्वयं श्रीभगवान अपने को कहते हैं । इससे भी जगत के माता पिता रूप प्रकृति और पुरुष की अभिन्नता सिद्ध होती है । इस प्रमाण से प्रकृति के नाश से पुरुष के नाश का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । इसलिये प्रकृति के नाश की बात युक्ति संगत न होकर प्रकृति का रूपान्तरण और अनिर्वचनीयता ही युक्तिसंगत है ।
            प्रश्न--- यदि अभिन्न होने से प्रकृति का नाश नहीं होता तो---
           १-सर्प और रस्सी अभिन्न हैं तो सर्प के नाश से रस्सी का नाश हो जायेगा ?
           उत्तर--- आपका प्रश्न युक्ति संगत नहीं है । सर्प और रस्सी सावयव और विजातीय हैं । अभिन्नता के लिए सजातीय और गुण साम्यता का होना आवश्यक । यहां दोनो विरुद्ध हैं । यदि आपका आशय रस्सी में सर्प है तो--- रस्सी में सर्प दिख रहा है, दिखना और बात होती है और होना और बात होती है । रस्सी में सर्प होता तब तो रस्सी में सर्प के नष्ट होने पर रस्सी के नाश का प्रसंग उपस्थित होता । वहां भ्रम निवारण मात्र है सर्प का न कि सर्प का नष्ट होना । नष्ट होने वाली वस्तु पहले होगी तब तो नष्ट होगी । है ही नहीं तो नष्ट कैसे होगी ? अतः यह तर्क युक्ति संगत नहीं है ।
          २- घट और मिट्टी अभिन्न है तो क्या घट के नाश से मिट्टी नष्ट हो जायेगी ?
          उत्तर--- हमारा प्रश्न ये है कि घट और मिट्टी अभिन्न कैसे है ? घट में मिट्टी है या मिट्टी में घट ? यदि आप कहें कि घट में मिट्टी है तो ठीक है घट में मिट्टी है और हमने मान भी लिया । अब हम कहते हैं कि आपके घड़े की मिट्टी मैं ले लेता हूँ और आप अपना घड़ा ले जाइए । तो क्या मिट्टी के निकाल लेने पर घड़ा ले जाना संभव है ? इसका अर्थ क्या हुआ ? अब यदि आप कहें कि मिट्टी में घड़ा है तो तो भाई ! सभी जगह तो मिट्टी है वहां क्यों नहीं दिखता ? स्थान विशेष पर ही क्यों दिकता है ? सर्वत्र क्यों नहीं ? इसका अर्थ क्या हुआ ? इसका अर्थ यह हुआ कि मिट्टी में घड़ा कल्पित मात्र है, वस्तुतः मिट्टी मात्र मिट्टी है उसमें घड़ा है है नहीं तो नष्ट कैसे होगा ? अर्थात रस्सी में सर्प और मिट्टी का घड़ा नष्ट नहीं हुआ बल्कि वह अपने मूल स्वरूप में भ्रम निवारण होते ही परिवर्तित हो गया ।
          इसे और एक दृष्टि से समझें--- घड़ा बनने से पहले मिट्टी था अपने मिट्टी रूप में घड़ा विलीन हो गया, मिट्टी जल में, जल अग्नि में, अग्नि वायु में और वायु आकाश में विलय को प्राप्त हो गया । अब आकाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है फिर वही आकाश क्रमशः वायु, अग्नि, जल, मिट्टी और फिर घड़ा बना । अब बताइए आकाश में घड़ा है या घड़े में आकाश है ? क्या घड़े के नाश से आकाश का नाश होगा ? अरे भाई ! न आकाश घड़े में है और न घड़ा आकाश में है बल्कि आकाश ही घड़े के रूप में दिख रहा है । अतः घड़े के नाश से आकाश का नाश कैसे संभव है ? इसी प्रकार मिट्टी आदि का आकाश में विलय होने पर इनका नाश कैसे कहा जा सकता है ? बल्कि ये नष्ट न होकर आकाश रूप में ही सत्तावन हो रहे हैं । नष्ट कहना अविवेक की प्रधानता दर्शाता है ।
               हम अर्धनारीश्वर महादेव को देखते हैं । फिर भी कहना कठिन है कि वे अर्धनारीश्वर महादेव हैं या अर्धनरेश्वरी महादेवी । यह अभिन्नभाव बड़े बड़े धुरंधर विवेकशील विद्वानों को मोहित कर लेता है; फिर मैं कौन होता हूँ ? जब शरीर आधा आधा है तक एक आधे के नाश से दूसरे आधे के नाश का प्रसंग भी स्वतः उपस्थित हो जाता है । जो श्रुति शास्त्र के “सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म" “पूर्णमदः पूर्णमिदं" आदि श्रुति एवं “वासुदेवः सर्वम्" आदि स्मृतियों के सर्वथा विरोध का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । जो हमारी वैदिक व्यवस्था को नष्ट कर देगा । इसलिये आधे अंग प्रकृति का नाश मानना युक्ति संगत नहीं है । चूंकि पुरुष के बिना उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है इसलिये अविनाशी भी नहीं कह सकते । अतः परिवर्तनशील, अनादि शान्त, अव्यक्त प्रकृति को अनिर्वचनीय कहना ही युक्तिसंगत है ।
         क्या नदियाँ समुद्र में जाकर नष्ट हो जाती हैं ? अथवा तद्रूप हो जाती हैं ? स्वाभाविक है नदियां नष्ट नहीं होतीं हैं बल्कि वे तद्रूप हो जाती हैं अर्थात समुद्र रूप में ही स्थित हो जाती हैं इसी को कहा “आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वात् ।" २/७० । ठीक इसी प्रकार संपूर्ण कामनाएं जिसमें जाकर शान्त हो जाती वही तो प्राप्तव्य शान्ति पद है “तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति"  २/७० अर्थात यहाँ काम का अर्थ प्रकृति है प्रकृति भी जिस परम तत्त्व में जाकर तद्रूप हो जाती है । अर्थात प्रकृति भी पुरुष रूप में ही होती है समुद्र में नदियों की तरह । इसी लिए जब तक ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक मोह का भय नहीं जाता । किन्तु जब संपूर्ण कामना ब्रह्म में समाहित हो जाती हैं तब कामनाओं का नष्ट होना नहीं कहते हैं बल्कि “विहाय कामान्यः" २/७१ कामनाओं को छोड़ना अर्थात उपेक्षा करना कहते हैं उपेक्षा सांसारिक ईर्ष्या द्वेष कारण नहीं बल्कि साक्षी भाव से किसी प्रकार कामनाओं से संबध का न रह जाना होता है क्योंकि वे नदियों के समुद्र में विलय के समान ब्रह्म में विलय को प्राप्त हो चुकी हैं और यही ब्राह्मी स्थिति है जिसको प्राप्त करके पुनः मोह प्राप्त नहीं होता । “एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनं प्राप्य विमुह्यति ।" २/७२ ।।
          इसी बात को तुलसीदास जी कहते हैं--- सकल दृश्य निज उदर मेलि निद्रा तजि सोये जोगी । सोई हरि पद अनुभवे परम सुख अतिशय द्वैत वियोगी । देश काल तहँ नाहीं । तुलसिदास यह दशाहीन संसय निर्मूल न जाहीं ।। 
             कुछ विषयांतर प्रसंगात् हो गया । यदि नदियां समुद्र में जाकर नष्ट हो जाती हैं तो प्रकृति पुरुष से अभिन्न होकर अवश्य नष्ट होगी । प्रकृति के नष्ट होने का अर्थ है कि त्वं पदार्थ लक्ष्य आत्मा भी ब्रह्म से अभिन्न होकर नष्ट हो जायेगा । आत्मा उस अविनाशी ब्रह्म का अंश अभिन्न और अविनाशी कहा गया है इसी आत्मा को “अयमात्मा ब्रह्म" आदि कहा गया है, अतः आत्मा के नाश से ब्रह्म के भी नाश का भय उपस्थित होगा । जो संपूर्ण वैदिक व्यवस्था को चौपट करके नास्तिकों के मत का प्रतिपान करेगा । अतः प्रकृति स्थिर नहीं है इसलिये अविनाशी नहीं कह सकते और संपूर्ण सृष्टि का श्रोत और ब्रह्म से अभिन्न होने के कारण उसका नष्ट होना भी युक्तिसंगत नहीं है । अतः आचार्य शंकर के मतानुसार प्रकृति का अनिर्वचनीय होना ही सिद्ध हुआ । अस्तु ।

                                                                     हरिः ॐ


सम्भवतः अब कुछ कुछ समझ पा रहा हूँ―
               किसी बात को किसी से समझना और समझ का अंदर बैठना दोनो में बड़ा अन्तर है । हमारा वेदान्त “एकमेवाद्वितीयं" पर ही आधारित है और निःसंदेह अक्षय सुख की प्राप्ति कराता है तथापि गीता का एकमेवाद्वितीयं तो अलग ही है । वेदान्त में तत् पदार्थ का त्वम् पदार्थ करके ही बोध कराया जाता है जो कि साधना की परिपूर्णता के बिना पूर्णतः शुष्क है नीरस है, इसमें मन की स्थिरता कहीं नहीं दिखती, जबकि गीता में त्वं पदार्थ का तत् पदार्थ के रूप में विनियोग किया गया है । दोनो ही एकमेवाद्वितीयं है, तथापि गीता का एकमेवाद्वितीयं सरस है, रुचिकर है । गीता में आये अव्यभिचारिणी भक्ति और परा भक्ति आज अंशतः समझ में आ रहा है । गीता में प्रेमाद्वैत शब्द का कहीं प्रतिपादन दिखता तो नहीं है तथापि उसकी सार्थकता का अनुभव हो रहा है । 
           👉अब तक जो ज्ञान और भक्ति का मेरे अंदर चित्र था वह बाहर हो गया है, अब नये चित्र का निर्माण हो रहा है । आज मैं कह सकता हूँ कि अधिकांश लोग न तो ज्ञान और न ही भक्ति की समझ रखते हैं, मात्र शब्द रटते हैं । मैं कह सकता हूँ कि अगर पराभक्ति प्राप्त करना है तो ज्ञान-विज्ञान के बिना संभव नहीं है । ज्ञानोत्तर भक्ति का परंपरा से लोग वर्णन तो करते हैं, पर ज्ञानोत्तर भक्ति क्या होती है संभवतः अब समझ में आ रहा है । हर कल्याणपथगामी को मात्र गीता का ही अनुसंधान करना चाहिए, जो जीवन और साधना को सरस बनाते हुए परमाद्वैत में ही प्रतिष्ठिता करेगी । अन्य अवलंबन लेने की आवश्यता हमको नहीं दिखती ।
                👉हमने श्री महाराज जी से एक बार कोई प्रश्न किया था, जिस पर उत्तर मिला कि क्या बकबक करता रहा है ? मैने जो कुछ मुझे आता था वह तुझे सब कुछ बता दिया है, अगर समझ में नहीं आया तो समय की प्रतीक्षा कर, स्वयं ही समझ में आ जायेगा । आज पूज्य श्री के वे वचन सार्थकता की ओर कदम बढ़ाते दिख रहे हैं ।

                                                                             हरिः ॐ


गीता न होती तो क्या होता ?        
             मैं बचपन से बहुत अलग स्वभाव का रहा हूँ । धार्मिक आस्था तो थी तथापि मैं जिस धार्मिक पुस्तक को एक बार पढ़ लेता तो उसको दुबारा कभी देखने की इच्छा नहीं रखता और उसी पर लोगों से कुतर्क करता, इसी कड़ी में गीता का श्लोक सामने आते ही उपेक्षा कर देता कि इसे क्या पढ़ना ? ये सब तो पढ़ लिया है । इस परिवेश में आने के पश्चात गीता का पाठ तो करता लेकिन उसके अर्थ पर कभी ध्यान नहीं देता और उच्चारण भी ठीक से नहीं होता । सन् १९९७-९८ में किसी के द्वारा कुछ अध्याय मूल का उच्चारण करा लिया था । 
           मैं अक्सर मौत से लड़ता रहा हूँ , अतः शारीरक और मानसिक रोगो से ग्रस्त अर्धमृतक सा होने के कारण कुछ पढ़ तो न सका लेकिन परम पूज्य के पाठ में दिवाल के सहारे अवश्य बैठता था, कुछ भी पल्ले तो नहीं पड़ता था, फिर भी बैठता । एक बार महाराज श्री से कोई प्रश्न किया तो उन्होंने कहा कि मैंने कुछ नहीं छिपाया सब बता दिया है । समय आने पर स्वतः बोध हो जायेगा । फिर सन् २०१५ के अन्त में टाका स्वामी वेरुळ मुझे बीमार हालात में अपने यहाँ लाये और उनके माध्यम से आळंदी गया संत ज्ञानेश्वर की जीवित समाधि वहां है । 
          अंतर्प्रेरणा से वहां १०८ गीता का मूल पाठ किया । उसके बाद गीता कुछ कुछ समझ में आने लगी और तभी से गीता को आधार मान लिया । समझ में आये या न आये लेकिन हमारे जीवन का आधार वही होगी । आज भी मैं गीता के मूल श्लोक की ठीक से संगति नहीं लगा सकता, किसी से पढ़ा नहीं, यद्यपि इस समय शंकरान्दी गीता किसी से पढ़ रहा हूँ तो यहाँ भी कभी कभी परस्पर मतभेद सामने उपस्थित हो जाते हैं । आचार्य का कहना है जो समझ में न आये उसे श्रद्धा से मानो, मेरा कहना है कि श्रद्धा गाजर मूली नहीं है जो बाजार से खरीद लाऊं ये हृदय का विषय है, जब तक हमारे गले कोई बात न उतरे हम उसे क्यों और कैसे मान लें ?
           मैं सदैव मूर्ति पूजा का पक्षधर रहा हूँ, हूं, और रहूंगा, तथापि मैं बचपन से ही एक मात्र अद्वैत सत्ता को ही मानता रहा हूँ, मानता हूँ, मानता रहूंगा । इसमें कोई विकल्प नामक कल्मष उत्पन्न नहीं कर सकता ।अब मैं अपने मुख्य अनुभव की बात करता हूँ...
           मेरा सदैव मानना रहा है कि गीता सरल और जनसामान्य का प्रिया ग्रंथ है । उपनिषद समझ में नहीं आते हैं किन्तु गीता समझ में आती है । आज मेरा यह अनुभव उल्टा पड़ गया । उपनिषद समझा जा सकता है, ब्रह्मसूत्र समझा जा सकता है किन्तु गीता का समझ पाना कठिन ही नहीं अत्यन्त कठिन है । आज मैं मुठ्ठी बांधकर कह सकता हूँ कि भले ही गीता पर लंबे लंबे प्रवचन करने वाले विद्वान आज बहुतायत दिख रहे हों तथापि मैं कह सकता हूँ उन हजारों में भी कोई गीता को समझ पाया यह कहना कठिन होगा ।
          उपनिषद तो श्रवणीय है, ब्रह्मसूत्र मननीय है लेकिन गीता तो सीधे समाधि है, अनुभवगम्य है । हम गीता को बिल्कुल नहीं जानते तथापि आज जो कुछ भी आपको दिख रहा हूँ वह मात्र गीता की ही कृपा है । गीता न होती तो बर्बाद हो गया होता । इस कलियुग में एक मात्र गीता ही शरण्य है, हम उसी की शरण ग्रहण करते हैं ।

                                                               हरिः ॐ


गीता को लेकर अपना जीवन, अपनी श्वास बना लें― 
              मेरा मानना है कि गीता में ही पूर्णता है । गीता में वेदान्त, सिद्धांत, सांख्य योग, ज्ञान, कर्म भक्ति आदि सब कुछ है, जिन्हें शाब्दिक विद्वान बनना है वे कहीं भी भटकें किन्तु जिन्हें अपना कल्याण करना है कहीं भी न भटकें, क्योंकि श्रीभगवान स्वयं कहते हैं “यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञात्वयमवशिष्यते" ७/२ अर्थात् जिसको जानकर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता वह ज्ञान तुमसे कहता हूँ । तो जिसको जानकर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जायेगा, यह श्रीभगवान की प्रतिज्ञा है तो भगवान झूठ तो बोल नहीं सकते उनकी इस प्रतिज्ञा पर विश्वास करें, यह समझ समझ लें कि हमारी समझ में अभी भले कुछ न आये लेकिन हर ज्ञान यहाँ है और जब हमें जितना अधिकार प्राप्त होगा उतना ज्ञान मिलता रहेगा । अतः गीता को जीवन का अभिन्न अंग बनाये, गीता को अपनी श्वास बनायें । “ददामि बुद्धियोगं तम्" पर विश्वास रखें तो निश्चित आप अद्भुत विद्वान ही बनेंगे ।

                                                                 हरिः ॐ

                                                     श्रीकृष्णार्पणमस्तु                                                     

                           


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