गीता मेराचिन्तन अध्याय ८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथाष्टमोऽमोध्यायः
संबंध---- अध्याय ७ में “ते ब्रह्म तद्विदुः" ७/२९-३० सहित जो सगुण रूप में जिस ब्रह्म को जानने की बात श्रीभगवान ने कहा था वे अनेकार्थी होने से और अधिक स्पष्ट जानने के लिए अर्जुन सात प्रश्न करता है....
अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ।।८/१।।
शब्दार्थ---- अर्जुन बोले― हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अधिभूत क्या है ? और अधिदैव किसे कहा गया है ?
तात्पर्यार्थ---- ब्रह्म शब्द से सोपाधिक समझना या निरुपाधिक ? अध्यात्म शब्द से आत्मा समझना या प्राण इन्द्रिय का समूह ? कर्म श्रौत, स्मार्त लौकिक क्या समझना ? अधिभूत से पृथ्वी आदि क्या लेना है ? अधिदैव से हिरण्यगर्भ, अग्नि आदि देवता या क्रिया समझना ? ।।८/१।।
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ।।८/२।।
शब्दार्थ---- हे मधुसूदन ! अधियज्ञ किस प्रकार एवं इस शरीर में कैसे स्थित है ? मृत्युकाल में समाहित चित्तवाले को किस प्रकार जानने में आता है ?
तात्पर्यार्थ---- अधियज्ञ से तत्तत् देवता लेना है या परमात्मा ? वह इस शरीर में कैसे अर्थात वह किसी आकार रूप में रहता है या निराकार रूप में ? मृत्युकाल में जिनका चित्त समाहित है उनको आप किस प्रकार जानने में आते हो ?
संबंध---- अर्जुन के सात में से तीन प्रश्नों के उत्तर....
श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म सञ्ज्ञितः ।।८/३।।
शब्दार्थ― श्रीभगवान बोले― अक्षर परब्रह्म है, स्वाभाव अध्यात्म कहा गया है, स्थावरजङ्गम प्राणियों के निमित्त किया जाने वाला त्याग कर्म नाम से जाना जाता है ।
तात्पर्यार्थ---- अक्षरं ब्रह्म-- यहाँ पहले पूर्वपक्ष का सिंहावलोकन करते हैं--- “तद् ब्रह्म इति निर्दिष्टं इति परमं अक्षरम्" अर्थात तत् ब्रह्म से जिसका निर्देश किया गया है वह परम् अक्षर ब्रह्म है यह बात तो सार्वभौम समझ में आती है, किन्तु--- “न क्षरति इति अक्षरं क्षेत्रज्ञं समष्टि रूपं" अर्थात जिसका नाश न हो वह अक्षर है अतः समष्टि क्षेत्रज्ञ को ही ब्रह्म कहा जाता है । यहाँ अर्थकार समष्टि क्षेत्रज्ञ का अर्थ जीव करते हैं जो पूर्व पक्ष की दृष्टि से उचित प्रतीत होता है किन्तु उदाहरण के लिए-- “जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्" ७/५, “येन सर्वमिदं ततम्" २/१७ “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि" १३/२, किन्तु व्यष्टि जीवभाव नष्ट होने वाला है । समष्टि और समष्टि जीव हिरण्यगर्भ कहलाता है उसको “पुरुषश्चाधि दैवतम्" ८/४ में आगे देंगे ही अतः यह भी युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता है । अतः आपको नमस्कार करके हम स्व-विचार करते हैं ।
न क्षरति इति क्षरः अर्थात परमात्मा । कैसा परमात्मा ? अज, नित्य, शाश्वत नित्य एकरस आदि । श्रुति भी कहती है कि “सूर्य चन्द्र भी जिसके शासन में स्थित हैं ।" अर्थात जो कभी नष्ट न होने वाला परमात्मा । शंका होती है कि “ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म" ८/१३ ॐ को भी अक्षर ब्रह्म कहा गया है, अतः इसे भी लिया जा सकता है ? इसका समाधान है कि ॐ उपासना का क्रियात्मक रूप है स्थिति नहीं । क्रिया हमेशा क्षरण को प्राप्त होती है । जैसे शालिग्राम एक पत्थर है लेकिन कहते हैं कि यही विष्णु है ऐसा दृढ निश्चय करो । ऐसा करने से शालिग्राम विष्णु न होने पर भी विष्णु भाव में स्थिति बनती है । इसी प्रकार ॐ ही अक्षर है ऐसा दृढ भाव करने से अक्षर की स्थिति बनती है । अतः ॐ अक्षर ब्रह्म नहीं हो सकता, इसिलिये अक्षर के साथ परम विशेषण भी दिया गया है । अर्थात जिस अक्षर से पर और कोई अक्षर नहीं है वही परम अक्षर ब्रह्म है । जो सर्वात्मा, सर्वाधार, सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशक आदि लक्षणों वाला है वही परब्रह्म यहाँ तद्ब्रह्म से कहा गया है ।
स्वभाव ही अध्यात्म है---- यहां पूर्वपक्ष प्रकृति को ही स्वभाव मानता है ।
उत्तरपक्षीय विचार---- जैसे सूर्य संपूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है वैसे ही जीवात्मा बुद्धि देह को प्रकाशित करने के लिए उनका अवलंबन लेकर स्थित है, यही अध्यात्म परब्रह्म का स्वभाव अर्थात स्वरूप है अर्थात अध्यात्म प्रत्यक्तत्त्व जो स्वयं होता है वह स्वभाव कहलाता है । अर्थात् वह स्वयं ब्रह्म संपूर्ण प्राणियों के शरीरों में अहं का जो अर्थ है उसका ज्ञाता होता है, क्योंकि “अहमात्मा" १०/२०, मैं सबका आत्मा अर्थात सर्वात्मा हूँ । “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि" १३/२ संपूर्ण क्षेत्रों को जानने वाला वही परमतत्त्व है । अतः यह अध्यात्म उसका स्वभाव है । जैसे घट है तो घट जो आकाश है वही आकाश घट से बाहर महाकाश है, मठ का आकाश मठ से बाहर मठाकाश है । घट, मठ है तो आकाश व्यापक होने से घटाकाश मठाकाश स्वाभाविक आकाश ही होगा और कहीं से तो आकाश आकर घट मठ में बैठेगा नहीं । यह आकाश का स्वभाव है । इसी प्रकार परमात्मा का समस्त शरीरों में विद्यमान होना स्वभाव है । यह उसका प्रत्यक् रूप है भिन्न नहीं ।
यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है--- श्रुतियों के चार महावाक्य इस प्रकार समझे जा सकते हैं---
१- तत्त्वमसि (छान्द.उ.सा.वे.)---- श्रुति जिसे “तत्" पद से वर्णन करती है वही यहाँ तद्ब्रह्म कहा गया है । और जिसे “त्वम्" पद से वर्णन करती है उसी को यहाँ “अध्यात्म" कहा गया है ।
२-अहं ब्रह्मास्मि (बृ.उ.,य. वे.)---- तत्त्वमसि का जब भली भांति अपरोक्ष होकर अनुभूति बनती है तब वह “अहं ब्रह्मामि" के रूप में ही अनूभत होती है ।
३- प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐत.उ.,ऋ.वे.)---- जब उस तत् और त्वं पदार्थ का उत्कृष्ट ज्ञान एकत्व को प्राप्त करता है तब वही प्रकृष्ट ब्रह्म का ज्ञान “प्रज्ञानं ब्रह्म" के रूप में अनुभूत होता है ।
४- अयमात्मा ब्रह्म (मा. उ.,अथ.वे.)---- जब इस शरीर में दिखने वाली आत्मा का यह ज्ञान हो जाता है कि यह वही आत्मा है जो तद्ब्रह्म करके कहा गया है, तत् नाम से कहा गया है जो “सः" अर्थात वही “अयम्" यह "आत्मा" है इस प्रकार “सोऽयमात्मा" भिन्न नहीं ।
इस प्रकार यहाँ श्रुतियों के प्रधान चारों वेदों से चारों महावाक्यों का उपदेश यहां पर तद्ब्रह्म और अध्यात्म के विवरण के रूप में दिया गया है । श्रुतियों ने जीवात्मैक्य को ही मोक्ष कहा है । अभेद दर्शन ही श्रुति का लक्ष्य है क्योंकि भगवान ने स्वयं कहा है--- “वेदैश्चसर्वैरहमेव वेद्यो" संपूर्ण वेदों के द्वारा एक मात्र मैं ही जानने योग्य हूँ । “वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्" अर्थात वेदान्त की रचना करने वाला मैं स्वयं हूँ और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ । इसी बात समझने के लिए “ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।" १३/४ इत्यादि का भी आगे वर्णन किया है । अतः वही श्रीभगवान यहाँ अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं जिन्होंने स्वयं एकत्व का प्रतिपान करने वाले वेदान्त की रचना की है । अतः वे किसी भी प्रकार अपने ही एकत्व का खंडन नहीं कर सकते, एकत्व ही जिसका लक्ष्य है । वही यहां श्रुति वचनों से प्रतिपान करने में प्रवृत्ति होने से परब्रह्म का स्वभाव ही यहां अध्यात्म नाम से कहा गया है । प्रकृति और प्राण सहित चतुर्दश इन्द्रियों का समूह नहीं ।
संपूर्ण प्राणियों के उत्पत्ति हेतु त्याग--- यहाँ पर पूर्वपक्ष प्रणियों के उत्पत्ति का हेतु स्त्री-पुरुष के संसर्ग से उत्पन्न होने वाले प्राणियों का हेतु वीर्य त्याग को ही त्याग माना है । तथापि यह बात स्वयं श्रीभगवान के बचनों के विरुद्ध होने से युक्ति संगत नहीं । अतः यह त्याग और कर्म दोनो के अन्तर्गत नहीं आता है । देखिए---- अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।।३/१४ ।। यहाँ पर प्राणियों के उत्पत्ति का भी हेतु वर्षा को माना गया है । वर्षा कि भी हेतु यज्ञ और यज्ञ का हेतु वैदिक कर्म माना गया है, क्योंकि यह सब कुछ वेदों में ही स्थित है “तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।" ३/१५ अतः यहाँ जिसे कर्म कहा गया है वह वैदिक कर्म ही यज्ञ है । यज्ञ में “इन्द्राय नमः इदं न मम" इस प्रकार स्वार्थपरता का त्याग कर निष्कामभाव से किया जाने वाला इन्द्रादि देवताओं के प्रति किया जाने वाला यज्ञ ही वर्षा का हेतु बनता है । देवता प्रसन्न होते हैं वर्षा होती है “परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।' " ३/११ इस प्रकार परस्पर उन्नति अर्थात प्राणियों की वृद्धि होती है । यहाँ “विसर्गः" से यज्ञ आदि वैदिक कर्मफल का त्याग और “कर्म" से वैदिक कर्म ही विवक्षित है । ऐसा तात्पर्य है ।।३।।
संबंध---- अब अर्जुन के अगले तीन प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं.....
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।४।।
शब्दार्थ---- नष्ट होने वाले पदार्थ अधिभूत हैं । पुरुष अधिदैत है यहाँ पर जो समस्त देहधारियों में श्रेष्ठ जो मनुष्य शरीर है उसमें अधिज्ञय मैं ही हूँ ।
तात्पर्यार्थ---- जितने भी नाशवान पदार्थ हैं वे सभी अधिभूत हैं । नाशवान पृथ्वी आदि पंचमहाभूत, गन्ध आदि पंचतंमात्राएं, उपासना से प्राप्त होने वाले लोक आदि सब नाशवान हैं, अतः ये सब अधिभूत हैं । पुरुष अधिदैव है--- पुरुष कहते हैं जिसने संपूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है वह हिरण्यगर्भ, जो पुरियों में शयन करे वह पुरुष, स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर ये पूरियां हैं इनमें शयन अर्थात विश्राम करने वाला जीवात्मा ही पुरुष है । “द्वामिमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।" १५/१६ इन्हीं दोनो को कहा गया है । यह पुरुष ही चतुर्दश इन्द्रियों को शक्ति प्रदान करता है अतः अधिदैवत नाम से कहा गया है । इन्द्रियादि अन्य क्रियाएं नहीं ।
यहाँ एक विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि “अत्र देहभृतां वर देहे अधियज्ञः अहम्" यद्यपि परमात्मा सर्वव्यापक और सर्वत्र समान भाव में स्थित है, फिर भी संपूर्ण देहधारियों में श्रेष्ठ जो मनुष्य शरीर है यहां पर अर्थात इसी मानव शरीर में जाना जाने वाला अधियज्ञ मैं स्वयं हूँ । इसका तात्पर्य यह है कि श्रीभगवान को इसी शरीर में प्राप्त किया जा सकता है, अतः आलस्य प्रमाद को छोड़कर हमें हमारा परम लक्ष्य स्वरूप स्थिति प्राप्त करना ही चाहिए । “यज्ञो वै विष्णुः" तो प्रसिद्ध ही है । “वासुदेवः सर्वम्" ७/१९, “मया ततमिदं सर्वम्" ९/४, “अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।" ९/२५, “येन सर्वमिदं ततम्" १८/४६, “हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति" १८/६१ आदि से वह वासुदेव नामक परमात्मा ही अधियज्ञ है, क्योंकि वही सर्वाधार है । अन्य देवताओं के रूप में भी वही यज्ञ का भोक्ता एवं फलदाता है “भर्ता भोक्ता" १३/२२ वही बाहर भीतर व्याप्त होने से सब कुछ उससे अभिन्न है । सब कुछ अभिन्न होने के कारण मैं भी वासुदेव ही हूँ अन्य नहीं, ऐसी “अहं ब्रह्मास्मि" की अनुभूति करता हुआ दृढतापूर्वक मुमुक्षु समग्र भाव में स्थित हो जाये ऐसा तात्पर्य है ।।४।।
संबंध---- अब अर्जुन के सातवें प्रश्न का उत्तर देते हैं.....
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ।।८/५।।
शब्दार्थ---- मृत्यु के समय जो मेरा ही स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है वह मुझको ही प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है ।
तात्पर्यार्थ---- अन्तकाल अर्थात मृत्यु के उपस्थित होने पर सर्वात्मा कृष्ण का― यहां पर माम् से तात्पर्य यह है कि वह ब्रह्म जो व्यापक निर्गुण निराकार सर्वात्मा है वही स्वभावतः अध्यात्म है, वही अधिभूत, अधिदैवत एवं अधियज्ञ है, अतः सबके मूल में जो मेरा निर्गुण निराकार सच्चिदानन्द स्वरूप है उस मूल स्वरूप का जो अन्तकाल में भी स्मरण करता हुआ― क्योंकि शरीर के असमर्थ होने से और कोई स्मरण से भिन्न साधन हो नहीं सकता है अतः जब तक मूर्छा को प्राप्त न हो जाये मेरे स्व-स्वरूप का चिन्तन करते हुए शरीर छोड़ने वाला मेरे भाव अर्थात मुझ सच्चिदानन्दस्वरूप से अभिन्नता को प्राप्त होता अर्थात मुक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं है ।
यहाँ पर “भद्भावम्" में से “मत्" प्रत्यय का अर्थ “माम्" करता है जिसका अर्थ होता है मेरा या मेरे--- “यथा माम् अनुधत्ते तथा विधाकारो भवति इत्यर्थः" अर्थात वह उस समय जैसा मेरा ध्यान करति है वह वैसा ही आकार वाला बन जाता है । यहां पर “माम्" भिन्नता दर्शाता है जो १८/२१ के अनुसार राजस है और गीता के सात्विक भाव एकत्व से भिन्न है । यहाँ भी अर्जुन ने सातवें प्रश्न के रूप में “अन्तकाल में समाहित चित्त होकर किसे जानना चाहिए ।" यह प्रश्न किया था जिसका सामान्य भाव पहले “प्रयाणकालेऽपि च मां विदुर्युक्तचेतसः ।" ७/३० कहा था और वही यहां पर सातवां प्रश्न बना जिसके अनुसार माम् को जानने का अर्थ स्वरूपतः अभिन्न भाव से जानना होता है । यहाँ पर “मद्भावं" का “मत्" प्रत्यय को जैसा का तैसा रखने पर आत्म प्रत्यय बनता है जो “माम्" से अभिन्न है । अतः यहाँ भिन्नभावापन्न मत् प्रत्यय को “माम्" प्रत्यय के रूप में स्वीकार्य नहीं है । दूसरी बात विचारणीय यह है कि जब “माम्" प्रत्यय पहले दिया जा चुका है तो दुबारा आवश्यकता किस बात की है ? यह पुनरुक्ति दोष होगा इस प्रकार गीता के मूलभाव का दोनो प्रकार से हनन होगा । इसलिए भी स्वीकार्य नहीं है । माम् के साथ मत् प्रत्यय ही अभिन्नभाव से स्वीकार्य एवं युक्ति संगत है । यही अभिन्नभाव मोक्ष का हेतु है । अर्थात जो अभिन्नभाव से जो मेरा चिन्तन करेगा वह मुझ मोक्षस्वरूप मोक्ष को ही प्राप्त होगा इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है । ऐसा तात्पर्य है ।।५।।
संबंध---- अभिन्नोपासक की स्थिति बताकर अब भिन्न भिन्न उसकों की गति बता रहे हैं…
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।८/६।।
शब्दार्थ---- अवथा जिस जिस भाव का स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, हे कौन्तेय ! वह सदा उस उस भाव से भावित होता अर्थात प्राप्त होता है ।
तात्पर्यार्थ---- श्रीभगवान ने यहां कर्म प्रधान बात नहीं कहा है कि अमुक अमुक दान देने से, अमुक अमुक कर्म करने से अमुक अमुक की प्राप्ति होती है । यहाँ यह भी नहीं कहा कि अमुक अमुक तीर्थ में मरने से मुक्ति होती है । श्रीभगवान कहते हैं कि अन्तकाल में जिस जिस भाव का चिन्तन करोगे उसी उसी भाव वाला शरीर प्राप्त करोगे । व्यक्ति जीवन भर जो करता है अन्तकाल में वही याद आता है । यह ढ़कोसला है कि आखिरी समय में भजन कर लूंगा । अपनी पूर्व अनेक जन्मों की वासना सहित इस जन्म की जीवन भर की जैसी वासना होगी वैसा ही अन्तकाल में बिना किये ही स्वतः चिन्तन होता है । आजकल लोग कुत्ता पालते हैं आपकी वासना अन्तकाल में वहीं अटक गई तो कुत्ता बनने से कोई रोक नहीं सकता । मांस में अन्त समय वासना गई तो गिद्ध बनने से कोई रोक नहीं सकता । मदिरा में वासना हुई तो मलमूत्र की नाली का कीड़ा बनने से कोई रोक नहीं सकता । जिस जिस देवी देवता भूत प्रेत का स्मरण करके शरीर छोड़ता है वह उसी को प्राप्त होता है, क्योंकि वे सबके सुहृद हैं “सुहृदं सर्वभूतानाम्" ५/२९, “यो यो यां यां तनुं भक्तः" ७/२१ जो जो जिस जिस का चिन्तन करता है उसकी श्रद्धा उसी में होती है अतः उसी का स्मरण कर उसी को प्राप्त होता है ।
अतः यहाँ कर्म प्रधान नहीं है, तीर्थ प्रधान नहीं है, क्योंकि यमुनातट निवासी जड़भरत मृग का चिन्तन करते हुए शरीर को छोड़ने के कारण ही मृग शरीर को प्राप्त होते हैं । अतः यहां सब कुछ मानसिक चिन्तन प्रधान है, जैसा चिन्तन करके शरीर छोड़ेगा वैसा ही अगला शरीर धारण करेगा । अतः जीवन भर अपनी वासना सच्चिदानन्द परब्रह्म में ही करनी चाहिए । ताकि पूर्व के अनेक जन्मों के दुष्ट संस्कार कमजोर पड़ें और अन्त में वासुदेवः सर्वम् का ही स्मरण रहे । ताकि उस सर्वात्मा से अभिन्न होकर जन्म मरण के चक्र से मुक्त हुआ जा सके । ऐसा तात्पर्य है ।।६।।
संबंध---- मन कभी भी एक पल या विपल ऐसा नहीं जाता कि जब बिना चिन्तन किये रहता हो इसलिये जब चिंतन ही करना है तो प्रतिक्षण मेरा ही चिन्तन कर इस बात की आज्ञा देते हुए अर्जुन के सातवें प्रश्न का उपसंहार करते हैं…
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यसिसंशयम् ।।८/७।।
शब्दार्थ----- इसलिए तू सर्वकाल में मेरा पुनः पुनः स्मरण कर, मुझमें अर्पित मन बुद्धि वाला तू निश्चय ही मुझको प्राप्त होगा ।
तात्पर्यार्थ---- तस्मात्--इसलिये-- किसलिए ? जिस लिए कोई भी प्राणी पल प्रतिपल बिना चिन्तन के नहीं रह सकता है और उसी चिन्तन के अनुसार उसका जन्म सुनिश्चित होता है । तो फिर जब चिन्तन ही करना है तो मेरा ही चिंतन कर और युद्ध भी कर । यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि श्रीभगवान अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहते हैं “तस्माद्युध्यस्व, युद्ध्यस्व, युद्ध्य, तस्मात्वमुत्तिष्ठ" इत्यादि शब्दों के द्वारा क्षत्रिय धर्म के पालन की बात बारंबार करते हैं । इतना ही नहीं आदर्श भी वर्ण व्यवस्थानुसार जनक इक्ष्वाकु आदि राजाओं को ही बता चुके हैं किसी ऋषि, मुनि या ब्राह्मण आदि को नहीं । यहां वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था के रूप में स्वधर्म पर ही बहुत बल दिया गया है ।
कुछ लोग कहते हैं कि अर्जुन गृहस्थ थे और उनको प्रणव का उपदेश कृष्ण ने दिया अतः गृहस्थ भी जप कर सकता है । जहाँ शास्त्र व्यवस्था हो वही शास्त्र व्यवस्था से समझना चाहिए मन के अनुसार नहीं । यहां कृष्ण के अनुसार ही समझना होगा--- यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः । यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ।।८/११।। अर्थात परम तत्त्व को जानने वाले वेदवित् कहा है जो परम वीरतरागी होते थे, वही उसे प्राप्त करते थे । उनके लिए संसार हाथ में रखे आंवले के समान होता था । प्रणव परमतत्त्व है उसे रसिक सहन नहीं कर सकता, तोड़फोड अवश्य होगा । इसका जप वही कर सकता है जो अपने घर में आग लगाकर सबको मार डाले और स्वयं भी आत्महत्या कर ले । इसीलिये संन्यासियों को पिंडदान विरजा कराकर लोकैषणा, वित्तैषणा एवं पुत्रैषणा नामक तीनों ऐषणाओं से मुक्त होना होता है । आज के विरक्तों में विकृति का कारण यही है वैराग्य का न होना, तितिक्षा का न होना । अतः संग्रह, परिग्रह सहित तीनो ऐषणाओं का कुत्ते के बमन करके पुनः खाने के समान ऐषणाओं से युक्त होकर आश्रम, धन (कंचन कामिनी आदि) एवं शिष्य बढ़ाने के रूप में पुत्रैषणा तीनों से युक्त होकर समाज को भी विकृत करने जैसा परिणाम सामने प्रत्यक्ष है । अतः कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार के तप रूप ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ब्रह्मचारी भी जिस पद को प्राप्त करता है उसी पद को संक्षेप में कहूंगा । यह जो पद है इसी पद को वासुदेवः सर्वम् कहा जाता है और वह मैं ही हूँ क्योंकि मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७।।
अतः यहाँ पर कहा “सर्वेषु कालेषु" अर्थात् प्रत्येक क्षण प्रतिक्षण मेरा पुनः पुनः स्मरण कर “अनुस्मर" और जो लौकिक वर्ण धर्मानुसार जो धर्म है उसके अनुसार युद्ध भी कर । यहां सर्वेषु कालेषु में जैसे “वासुदेवः सर्वम्" में ध्याता, ध्यान और ध्येय तीनों ही वासुदेव ही होते हैं वैसे ही “सर्वेषु कालेषु" में भी पवित्र-अपवित्र, स्वस्थ-अस्वस्थ, जीवन-मरण, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि जितनी भी अवस्थाएं हो सकती हैं उन सभी अवस्थाओं में फिर चाहे पूजा घर में हो या शौचालय में । न जन्म का सूतक, न मृत्यु का शोक, प्रतिपल मेरा स्मरण और वर्ण एवं आश्रम के धर्मानुसार कर्तव्य का पालन कर क्योंकि कर्तव्य पालन भी वासुदेवः सर्वम् से भिन्न नहीं है अतः वह भी करते हुए मुझमें मन, बुद्धि अर्पित वाला तू-- यहां विशेष बात यह है कि प्रस्तुत श्लोक के पूर्वार्ध में “माम्" प्रत्यय आया है जो उपदेश कर्ता सगुण साकार का वाचक है, जबकि उत्तरार्ध में मयि और माम् ये दो प्रत्यय आये हैं जिसके अनुसार मयि शब्द आत्म प्रत्यय है अर्थात आत्मा से अभिन्न जो मैं हूं, क्योंकि सृष्टि के पूर्व में मैं अकेला ही था--- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आस्तीत् अर्थात संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति से पहले सबका स्वामी मैं ही था, फिर “तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्" सृष्टिकर्ता करके उसमें प्रवेश कर गया । अतः जिसे मैं करके जाना जा रहा है, आत्म रूप से मैं ही हूँ । मुझसे भिन्न और कोई आत्मा नहीं है यह “मयि” से तात्पर्य है । ऐसे आत्म रूप मुझमें मन, बुद्धि अर्पित हो जाने से इनकी सत्ता समाप्त हो जाने के बाद जो अकेला मैं बचता हूँ उसी माम् अर्थात अहं मम से परे मुझ परमतत्त्व को प्राप्त करता है इसमें किसी भी प्रकार का कोई संशय नहीं है ।
👇इस प्रकार यहाँ एक मयि और दो माम् का भिन्न भिन्न अर्थ होने से साक्षात एकत्व का प्रतिपान स्पष्ट है अन्यथा माम् और मयि का एक जैसा अर्थ करने पर पुनरुक्ति दोष से ग्रस्त होकर गीता के मूल लक्ष्य का हनन करेगा । ऐसा तात्पर्य है ।
भावार्थ---- श्लोक के पूर्वार्ध में माम् का अर्थ सगुण साकार कृष्ण है जिस सगुण साकार का चिंतन सर्वकालिक---
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन्श्वसन् ।।५/८।।, प्रलपन्विसृजन्ग्रह्णन्नुन्मिषन्निषन्नपि ।।५/९।। इस प्रकार चिंतन करना चाहिए और लक्ष्य में उत्तरार्ध के मयि के अनुसार आत्मा से व्यापक अभिन्न सर्वाधार, स्वप्रकाश रूप, चिन्मय आदि ब्रह्म के लक्षण हैं उनका होना चाहिए । इस प्रकार साकार कृष्ण की उपासना का उपसंहार आत्मैक्यभाव में करते हुए साक्षात् मोक्षस्वरूप मुझ कृष्ण को ही प्राप्त होता है । इसमें किसी भी प्रकार का कोई संशय नहीं है । ऐसा भावार्थ है ।।७।।
संबंध--- प्रश्न यह है कि सर्वकाल स्मरण भी करना है और युद्ध भी करना है यह दोनो कार्य कैसे संभव हो सकता है ? इस पर कहते हैं....
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।८/८।।
शब्दार्थ---- हे पार्थ ! जो अभ्यासयोग से युक्त होकर चित्त के द्वारा अन्य कुछ भी चिन्तन न करता हुआ बारंबार मेरा चिन्तन करता है वह परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है ।
तात्पर्यार्थ---- छठे अध्याय में कहा था “अभ्यासयोगेन तु कौन्तेय" ६/३५ अर्थात वहां जिस अभ्यास की बात कही थी वही अभ्यासयोगयुक्तेन यहां समझना चाहिए । इसके लिए आवश्यक है मन का संयत अर्थात एकाग्र होना, क्योंकि असंयत चित्त के लिए योग अत्यन्त दुर्लभ है “असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।६/३६ ।। अतः अभ्यास करने के लिए एकाग्र होना आवश्यक है । अभ्यास हो जाने पर युद्धादि वर्ण, आश्रम के अनुसार शरीर काम करेगा और मन परमेश्वर का चिन्तन करेगा । चिन्तन कैसा करे ? इसके लिए कहते हैं चित्त अनन्यगामी होना चाहिए । अनन्यगामी का तात्पर्य है कि मन से परमपुरुष को छोड़कर अन्य किसी अनात्म पदार्थ का चिन्तन न करे । जीवभाव भी अनात्म पदार्थ है । अतः जीवभाव से भी रहित होकर अनन्यभाव से मेरा अनुचिन्तन अर्थात् पुनः पुनः, सतत, निरंतर चिन्तन करे । जहाँ जहाँ चंचल मन जाये वहां वहां पर उस परमपुरुष के चिन्तन रूप अनुशासन करके अपने आधीन करे ६/२६ । इस प्रकार जब बारंबार चिन्तन करता है तब मुझ दिव्य परमपुरुष को प्राप्त करता है ।
दिव्य परमपुरुष से यहाँ श्रुति प्रतिपादित आदित्य मंडल स्थित पुरुष को आचार्य शंकर सहित विद्वानों ने माना है । यह अनुभव का विषय है । इसके लिए आचार्यचरण का निर्णय ही प्रधान संशय रहित मान्य है । सूर्य के सामने जुगुनू की तरह आचार्य रूप सूर्य के सामने जुगुनू की तरह मैं कुछ भी कह पाने में असमर्थ हूँ । तथापि आचार्यचरण का भाव कुछ ऐसा समझ में आता है कि सूर्य मंडल सभी मंडलों में प्रधान मंडल है । जैसा राजा की विजय में ही प्रजा की विजय भी संन्निहित होती है वैसे ही वैसे ही सूर्य मंडल में स्थित पुरुष कहने का तात्पर्य है कि जो आत्मा सभी मंडलों या लोकों में व्याप्त है ऐसा वह जो पुरुष है अनन्यगामी चित्तवाला उसी व्यापक आत्मा को प्राप्त होता है ।
भावार्थ---- यहाँ अभ्यास का अर्थ यह समझना चाहिए कि मरणकाल में कोई अभ्यास हो नहीं सकता । अतः बाल्य, कौमार, यौवन, एवं प्रौढ़ावस्था में भी सतत अभ्याय करना चाहिए ताकि वृद्धावस्था में मन अनासक्त होकर मृत्युकाल में ही एकाग्र होकर व्यापक परमात्मा का चिन्तन करते हुए शरीर त्यागकर दिव्य परम पुरुष को प्राप्त कर सके है । ऐसा तात्पर्य है ।।८।।
संबंध---- वह दिव्य परमपुरुष कैसा है ? इस पर आठ लक्षणों से द्वारा उसका वर्णन करते हैं....
कविंपुराणमनुसासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्यधातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णः तमसः परस्तात् ।।८/९।।
शब्दार्थ---- जो सर्वज्ञ, अनादि, सबका शासक, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, सबको धारण करने वाला, सूर्य के सामान चैतन्य प्रकाश अर्थात् ज्ञानस्वरूप अज्ञान से परे, अचिन्त्य रूप परमात्मा है उसका चिन्तन करता है ।
तात्पर्यार्थ---- पूर्व श्लोक में जिस दिव्य परमपुरुष को प्राप्त करने की बात कही गई है वह कैसा है ? उसका लक्षण क्या है ? यहां पर इसका प्रकाश किया जा रहा है....
१- कवि--- यहां पर कोई साकार उपासक कवि का अर्थ "“कवीनामुशना कविः" १०/३७ विभूति रूप की भी सतर्क संगति लगा सकता है क्योंकि भेदवादियों के लिए कुछ भी असंभव नहीं है, तथापि इन बालबुद्धि से हमारा कोई मतलब भी नहीं है । पूर्व श्लोक में “परमं पुरुषं दिव्यम्" ८/८ से जिस सूर्य मंडल स्थित पुरुष अर्थात सर्वलोक में व्याप्त आत्मा का वर्णन किया गया है उसको ही यहाँ कवि अर्थात सर्वज्ञ के नाम से कहा गया है, क्योंकि अनन्त ब्रह्माण्ड में जो आत्मरूप अर्थात चैतन्य रूप से व्याप्त होगा वही वही सर्वज्ञ है, वही संपूर्ण प्राणियों का लेखाजोखा कर सकने में समर्थ है । अतः वह सर्वज्ञ है ।
२- पुराण अर्थात अनादि---- सर्वज्ञ तो बहुत सनकादिक ऋषि हुए हैं, किन्तु इनका आदि होने से अन्त भी होगा । जिसका आदि अन्त हो वह दिव्य परमपुरुष हो नहीं सकता है । जो अनादि है वही अनन्त है । यहाँ पुराण से अनादि के साथ अनन्त उपलक्षण भी है, ऐसा समझना चाहिए ।
३- सबका शासक---- इस पर आशंका हो सकती है कि प्रकृति भी तो अनादि है उसे ही क्यों न मान लिया जाये ? इसका उत्तर यह है कि पहली बात यह है कि प्रकृति अनादि होकर भी अन्तवाली दिखी जाती है, चूंकि संपूर्ण प्रकृति तद्रूप है अतः प्रकृति के नाशवान दिखने पर भी नाश न होकर अपनी मूल भाव को प्राप्त हो जाती है है इसे अनादि शान्त भी कहते हैं अर्थात वह जड़ रूपता को प्राप्त हो जाती है, अतः अनादि से प्रकृति अर्थ संभव नहीं है, क्योंकि वह शासन करने वाला है और चैतन्य ही शासन कर सकता है अतः अनादि दिव्य परमपुरुष का ही लक्षण है । वह शासन किस प्रकार करता है ? इसको इस प्रकार समझें--- इन्द्रियां भी स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए दिखने पर भी उन पर मन ही शासन करता है मन के बिना इन्द्रियों की अपनी कोई सत्ता नहीं है । मन पर बुद्धि, बुद्धि पर सीमित अहंता और सीमित अहंता पर व्यापक अहंता अनुशासन करती है । इस प्रकार व्यापक अहंता ही गुरु, आचार्य, राजा आदि शासकों के रूप में प्रकट होकर अनुशासन करती है । उन पर वेद शासन करते हैं । वेद भी जिनकी श्वास है वही चैतन्य दिव्य परमपुरुष सबका शासक है ।
४- सूक्ष्मातिसूक्ष्म--- अणु-परमाणुवादी भी सूक्ष्म परमाणु को सृष्टि का हेतु मानते हैं, तो क्या वह परमाणु जैसा ही सूक्ष्म है ? इसका समाधान करते हैं कि वह परमाणु का भी परमाणु है उससे सूक्ष्म और कुछ नहीं है ।
५- अचिन्त्य रूप---- कहते हैं ठीक हैं ठीक है लेकिन सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर भी उसको कहा तो जा सकता है, चिन्तन किया जा सकता है ? कहते हैं नहीं वह वाणी का भी विषय तब होगा जब पहले, तब वह चिन्तन का विषय बने । वह तो मन का भी विषय नहीं है “यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" वाणी सहित मन भी जहाँ से लौट आते हैं वहां से तो उसकी सीमा प्रारंभ होती है । अतः वह अचिन्त्य है ।
६- सबका धारण करने वाला--- इतना सूक्ष्म और अचिन्त्य है तो वह करता क्या है ? वह संपूर्ण लोकों अर्थात संपूर्ण प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों को धारण करता है । वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने के कारण ही सबमें व्याप्त है, सबमें व्याप्त होने के कारण ही संपूर्ण प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों का कब कितना हिस्सा देना है वह जानता है । इससे ही संपूर्ण लोक उसके द्वारा धारित होने से धारण करने वाला है ।
७- तम से परे--- वह इतना व्यापक होने पर भी सबके देखने या अनुभव में क्यों नहीं आता ? क्या वह अंधकार अर्थात अज्ञान रूप है ? कहते हैं नहीं वह अज्ञाान से परे है, अज्ञान उसको छू भी नहीं सकता है, अर्थात वह ज्ञान स्वरूप है ।
८- आदित्यवर्ण---- तो ज्ञान का लक्षण क्या है ? इस पर कहते हैं सूर्य के समान, जैसे सूर्य संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता तभी प्राणी अपने अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं तथापि वे यह नहीं जानते कि हमारी प्रवृत्ति सूर्य के प्रकाश के कारण है, वैसे ही सर्वत्र चैतन्य प्रकाश दिखने पर भी सीमित अहंता के कारण व्यापक अहंता रूप प्रकाश समझ में नहीं आता, तथापि सब कुछ उसी चैतन्य प्रकाश से प्रकाशित है अर्थात ज्ञान रूप से प्रकाशित है । शंका होती है कि आदित्यवर्णः का अर्थ चैतन्य प्रकाश अर्थात ज्ञान ही क्यों किया ? इसका अर्थ सूर्य के रंग वाला भी तो हो सकता है ? इस पर यह समझना चाहिए कि सूर्य अग्नि पिंड है और अग्नि बाहर भीतर एक होती है । सूर्य बाहर और भीतर एक समान है इसी समानता को दर्शाने के आदित्यवर्ण कहा है । वर्ण यानी रंग जिस प्रकार बाहर भीतर एक होता है वैसे ही सूर्य भी बाहर भीतर एक समान है, इसी समानता को लेकर उस चैतन्य प्रकाश अर्थात ज्ञान की तुलना बाहर भीतर की समानता प्रतिपादन हेतु आदित्यवर्ण कहा गया है ।
इस प्रकार जो सर्वज्ञ, अनादि, सबका शासक, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, अचिन्त्य, धाता, अज्ञान से परे, ज्ञान रूप इन आठ लक्षणों वाला जो दिव्य परमपुरुष है उसका अनुचिन्तन अर्थात बारंबार, सतत, निरंतर, तैलधारावत् मुमुक्षु चिन्तन करता है । ऐसा तात्पर्य है ।।८/९।।
संबंध--- अन्तकाल के चिन्तन एवं गति का वर्णन....
प्रयाणकाले मनसाचलेन, भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।८/१०।।
शब्दार्थ---- जो योगी योगबल के द्वारा महाप्रस्थान के समय मन को भक्ति पूर्वक भृकुटी के मध्य में भलीभाँति स्थिर करता है ।
तात्पर्यार्थ---- योगी आजीवन योग का अभ्यास करते हुए जब महाप्रयाण का समय सन्निकट आ जाता है उस समय का अनुमान करके योगबल के द्वारा अर्थात अभी तक जो उसने अष्टांग योग से सिद्ध हुआ प्राणायाम द्वारा जो अपने प्राणों को अपने आधीन कर चुका है, उन आधीन किये हुए प्राणों का योग का आश्रय लेकर भक्तिपूर्वक जीते हुए मन के द्वारा भ्रकुटि के मध्य में अचल अर्थात् स्थिर करके-- अचल यानी अन्य किसी विषयों की ओर आकर्षित न होकर चंचला रहित स्थिर मन के द्वारा उपासना करता है । यहाँ मूल में “तम् पुरुषम्" आया है जिसका अर्थ है “परमं पुरुषं दिव्यं" ८/८, एवं “कविं...." आदि आठ लक्षणों वाला ८/९, जिस पुरुष को कहा गया है उसी पुरुष को वह प्राप्त होता है ।
यहां द्रष्टव्य है कि कुछ अनुवादक यहाँ भी शरीर छोड़कर उस पुरुष अर्थात परब्रह्म की प्राप्ति की बात करते हैं जो उपस्थित प्रकरण के विरुद्ध है, क्योंकि यह योगी अभी भले ही पंचभूतों का भेदन करके स्थित हो तथापि आज्ञा चक्र में स्थित होने से महत्तत्व एवं अहं का भेदन नहीं कर सका है जिसका वर्णन ८/१२ आयेगा । अतः यहाँ उसी पुरुष को प्राप्त होने का अर्थ तद्रूपता को प्राप्त होना है न कि शरीर छोड़कर मोक्ष को प्राप्त होना ।।१०।।
संबंध---- यहाँ पर थोड़ा विषयांतर ये हुआ कि आप जिस पुरुष की बात कर रहे हैं वह पुरुष कौन है ? और कैसे जाने ? यह मात्र आप ही कह रहे हैं या और भी किसी ने कहा, या प्राप्त किया है ? इस पर कहते हैं कि यह मैं ही नहीं कह रहा हूँ.....
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति, विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ।।८/११।।
शब्दार्थ---- जिस अक्षर को वेद तत्त्व के ज्ञाता कहते हैं, जिसमें वितरागी यति प्रवेश कर जाते हैं, जिसके लिए मुमुक्षु ब्रह्मचर्य का आजीवन पालन करते हैं, उसी पद को तेरे लिए संक्षेप में भलीभाँति कहूंगा ।
तात्पर्यार्थ---- वेदवेत्ता जिस अक्षर का कथन करते हैं वीतरागी अर्थात जिसकी आसक्ति अशेष रूप से नष्ट हो गयी है ऐसे सर्वकर्म संन्यासी जिसमें प्रवेश कर जाते हैं और जिसके लिए मुमुक्षु आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । यहाँ विचारणीय बात यह है कि उपासना का प्रकरण चल रहा है इस बीच आशंका हो जाती है कि वह अक्षर पुरुष कौन है जिसे “अक्षरं ब्रह्म परमं" ८/४ कहा, “परमं पुरुषं दिव्यं" ८/८ एवं "कविं....." ८/९ आदि लक्षणों वाला कहा कहा गया है । क्योंकि उपासना में उसका चिन्तन जब तक पकड़ में न आये तब तक उसको हम कैसे ध्यान करेंगे ? दूसरी बात हम उसे जाने कैसे ? यहाँ पर दूसरे प्रश्न कआ उत्तर पहले समझ लेते हैं-- उनिषद प्रतिपाद्य– तत्त्वमसि (सा.वे.), अहं ब्रह्मास्मि (यजु.वे.), अयमात्मा ब्रह्म (अथ.वे.) एवं प्रज्ञानं ब्रह्म (ऋग्वेद) इनके द्वारा जिस पुरुष को अक्षर पुरुष करके जिसका वर्णन किया गया है, उसी को जानने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है, असुरराज विरोचन और देवराज इन्द्र का ब्रह्मचर्य पालन श्रुति प्रसिद्ध है, जिसमें देवराज इन्द्र ही ब्रह्मविद्या की प्राप्ति में धैर्य और विचारपूर्वक सफल हो सके । चूंकि कथन वाणी द्वारा होता है, मनन मन के द्वारा होता है और निदिध्यासन ब्रह्म के सर्वथा पास रहने वाली बुद्धि के द्वारा होता है ।
इसलिये अक्षर का कथन ब्रह्मचर्य द्वारा श्रवण के बाद ही मन बुद्धि द्वारा मनन निदिध्यासन करके यति उसमें प्रवेश करेगा । अतः कथन में जो तटस्थ रूप में होगा उसी कथन के द्वारा लक्ष्यार्थ पूर्वोक्त पुरुष को प्राप्त हुआ जा सकता है । ऐसा जो तटस्थ अक्षर है वह है ॐ.... ओमित्येतदक्षरं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोंकार एव । यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योंकार एव ।। मा.उ.१।।
अर्थात जिसका व्याख्यान किया गया, किया जा रहा है और किया जायेगा अर्थात जो देखने सुनने समझने एवं कहने में त्रिकाल में भी आता है, आ रहा है और आयेगा वह सब ओंकार ही है भिन्न नहीं । यहां एव पद निश्चयात्मक है । जो कहने सुनने और समझने में नहीं आ रहा है अर्थात जो त्रिकाल से भी परे है वह भी ओंकार ही है । ऐसा ‘एव’ से श्रुति निश्चय करके कहती है । यहां इतना समझना चाहिए कि जितना कहने सुनने और समझने में आ रहा है वह अपर ब्रह्म है और जो कहने सुनने और समझने में नहीं आ रहा है वह परब्रह्म है। यह दोनो ही लक्षण श्रुति के अनुसार ॐ में ही हैं । इसी को श्रुति कहती है…
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् ।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छसि तस्य तत् ।।
अर्थात यह अक्षर ॐ ही ब्रह्म अर्थात अपर ब्रह्म है, यह अक्षर ॐ ही परम अर्थात परब्रह्म है इस अक्षर ॐ को जान लेने मात्र से जिसकी जैसी अपर ब्रह्म या परब्रह्म की इच्छा होती है उसको उसी रूपता को प्राप्त होता है....
एतादावलम्बनं ब्रह्म एतदावलम्बनं परम् ।
एतदावलम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ।।
इसीलिए श्रुति कहती है “सर्वं ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म" मा.उ.२ चूंकि सब कुछ ब्रह्म ही है अतः “यह"करके जिसे जाना जाता है वह आत्मा भी ब्रह्म ही है भिन्न नहीं । अर्थात यह आत्मा और अपर एवं परब्रह्म ओंकार ही है भिन्न नहीं । इसे तुलसीदास जी कहते हैं... अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी । अगुन यानी निर्गुण अर्थात परब्रह्म और सगुण यानी अपरब्रह्म इन दोनो के बीच नाम ही साक्षी है अर्थात जैसा चिन्तन होगा उसी के अनुसार पर या अपरब्रह्म का साक्षात्कार नाम के चिंतन से ही हो जाता है । दोनो की प्राप्ति का प्रधान साधन नाम ही है । अतः यहाँ जिसे अक्षर नाम से कहा गया है जिसे वेदतत्त्व के मर्मज्ञ अक्षर कहते हैं, जिसके लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके गुरुकुल में नाना प्रकार के क्लेश सहन रूप तप करना पड़ता है और जिस पद में वीतरागी अर्थात सर्वकर्म संन्यासी प्रवेश कर जाते हैं वह ॐ ही है, क्योंकि आगे स्वयं श्रीभगवान “ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म" कहेंगे । इसी में “ईशावास्यमिदं सर्वम्" और “वासुदेवः सर्वम्" ७/१९ ओतप्रोत है । इसी ॐ पद के विषय में यद्यपि श्रुति बहुत विस्तार पूर्वक कहती है तथापि उस विस्तार का सार रूप जो संक्षेप में संग्रह किया है उसको भलीभाँति कहूँगा । गुरु की यही महिमा है कि शिष्य शास्त्र रूप महा भयंकर जंगल में भटक न जायें अतः सबका सार संक्षेप में कहकर शिष्य का उद्धार कर देते हैं और वही यहां भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति करते हैं । यहां “प्रवक्ष्ये" शब्द मूल में है अतः “प्र" उपसर्ग पूर्वक कहने का तात्पर्य है कि कहूंगा तो संक्षेप से लेकिन विधिवत कहूंगा, अर्थात कुछ भी कहना शेष नहीं रहेगा यानी इसके सुनने के बाद कुछ भी सुनना शेष नहीं रहेगा ।
भावार्थ---- सगुण-निराकार की उपासना का प्रकरण है । अतः यहाँ अक्षर ॐ को ही कहा गया है जिसका लक्ष्य निराकार परब्रह्म है । उपासना साकार की होती है निराकार स्थिति एवं लक्ष्य है । ऐसा तात्पर्य है ।।११।।
संबंध---- यहाँ विषयान्तर अक्षर ब्रह्म को लेकर उसे समझने के निमित्त से हुआ था । अब पुनः “प्रयाणकाले" ८/१० के छूटे विषय पर आते हैं...
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थातो योगधारणाम् ।।८/१२।।
शब्दार्थ---- सभी इन्द्रियों पर संयम करके अर्थात अवरुद्ध करके एवं मन को हृदय में अवरुद्ध करके अपने प्राणोत्सर्ग के लिए प्राणों के मूर्धा अर्थात् सहस्रसार में भलीभाँति स्थित करके योगधारणा करते हुए.....।।
तात्पर्यार्थ---- दोनो नासा का विषय गंध, दोनो नेत्रों का विषय रूप, दोनो कानों का विषय शब्द, मुख का विषय वाणी और रस एवं त्याग ही जिनका विषय है वे गुदा और लिंग । इस प्रकार नव द्वारों को अवरुद्ध करने का तात्पर्य है संपूर्ण सृष्टि का कारण ग्रहण और त्याग है । अतः पंचविषयों पर भलीभांति विजय प्राप्त करके मन को हृदय मे स्थित अर्थात एकाग्र करके ८/१० में कहे गये योगबल का आश्रय लेकर प्राणों को मूर्धा अर्थात सहस्रसार में भलीभांति स्थित करके-- यहां ध्यान देने की बात यह है कि गंधादि पंच विषयों को वर्जित किया गया है, इन पंच विषयों पर विजय पाकर मन को हृदय में रोकने का अर्थ है कि पंचविषयों पर विजय पा चुका अतः अब जिस परम पुरुष का वास हृदय स्थानीय श्रुतियों-स्मृतियों में प्रतिपादित है उस पुरुष अर्थात् सर्वात्मा में मन को एकाग्र स्थित करे अर्थात् अब आत्मा से भिन्न कुछ भी चिन्तन न करे “किञ्चिदपि न चिन्तयेत्" ६/२५, इस प्रकार एकाग्र चित्त हुआ मन जो अब आत्म रूप हो चुका है उस “आत्मनः" अर्थात आत्मरूप मन के द्वारा प्राणों को धीरे धीरे खींचकर सहस्रसार में भलीभांति स्थित होकर योग की धारणा करते हुए....।
यहां ध्यान देने की बात यह है कि योगकी परिभाषा “समत्वंयोग उच्यते" २/४८ कही गई है अर्थात किसी भी प्रकार का अन्य अन्य चिन्तन न करते हुए स्वयं की आत्मरूप से सबमें समान रूप से देखता हुआ― तत्त्वमसि की अनुभूति अहं ब्रह्मास्मि, अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म, सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म, वासुदेवः सर्वम् आदि श्रुति स्मृति प्रतिपादित आत्मैक्य रूपता की धारणा करते हुए.......।।१२।।
ओमित्येतदक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।।८/१३।।
शब्दार्थ---- ॐ इस इस एकाक्षर ब्रह्म का बारंबार उच्चारण पूर्वक स्मरण करता हुआ जो शरीर का त्याग करता है वह परम गति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ।
तात्पर्यार्थ--- ॐ का उच्चारण और स्मरण यद्यपि अपर ब्रह्म अर्थात सगुण ब्रह्म का प्रतिपान करता है तथापि इसका लक्ष्य निर्गुण निराकर है (८/११ की व्याख्या समझना चाहिए) । इसलिये यहां जो ॐ के स्मरण की बात कही गई है, वह आत्मरूप निर्गुण निराकार का स्मरण करना है । ऐसे रूप का स्मरण करता हुआ ॐ के बारंबार उच्चारण पूर्वक यहां ॐ का उच्चारण श्रुतिप्रतिपादित त्रिमात्त्रात्मक ही होगा तथापि लय अन्तिम मात्रा मकार में ही होगा । उच्चारण आरोह अवरोह क्रम से घंटा नाद जैसा होगा । जैसे किसी बड़े घंटे को बजाया, उसकी आवाज बहुत तेज होकर क्रमशः कुछ समय बाद विलीन हो जाती है, विलीन होते होते फिर घंटा बजा देते हैं, इसी प्रकार ॐ का उच्चारण जोर से जिसे हम बाहर भी सुन सकें और अंदर भ्रमर की जैसी गुंजार बन जाये ऐसी आवाज का विलय होते होते पुनः उच्चारण । इस क्रम से उच्चारण की निरंतरता और उसका श्रवण और उसके परब्रह्म स्वरूप का स्मरण करता हुआ जो शरीर छोड़ता है वह परमगति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है । ऐसा तात्पर्य है ।।१३।।
संबंध---- इस प्रकार परब्रह्म के उपासक की गति का वर्णन करके अब जो क्लेशों की प्रधानता के कारण अष्टांगयोग नहीं कर सकते हैं, किन्तु सद्यः मुक्ति की इच्छा रखते हैं उनका वर्णन करते हैं…
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ।।८/१४।।
संबंध---- हे पार्थ ! अनन्य चित्त वाला होकर जो मेरा नित्य स्मरण करता है उस नित्य योगी के लिए मैं सुलभ हूँ ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ दिये गये “नित्ययुक्त" पद को पहले समझते हैं-- “तेषां ज्ञानी नित्ययुक्तः" ७/१७, एवं “ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्" ७/१८ और इसी भक्त के लिए कहा “वासुदेवः सर्वम्" ७/१९ करके जानने वाला महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है “स महात्मा सुदुर्लभः" ७/१९।। इसके अनुसार यह किसी भेदवादी राजिसक तामसिक भक्त का प्रसंग नहीं है । श्रुतिप्रतिपादित एकत्वपरक परा भक्ति का प्रसंग है, क्योंकि यहाँ “अनन्यचेताः" कहा गया है । जबकि भेदवादी भक्तों में यह मेरे आराध्य हैं और यह मैं हूँ, मैं भक्त हूँ ये मेरे भगवान हैं, प्रभु मुझ पर कृपा करे ताकि मैं उनकी भक्ति करता रहूं और कुछ मुझे नहीं चाहिए । इस न चाहने में भी चाह छिपी है । अतः यहाँ अन्य अन्य भाव है, जबकि ज्ञानी भक्त और भगवान दोनो भिन्न हैं ही नहीं तो कौन भक्त और कौन भगवान ? फिर न चाहने की चाह कहाँ ? क्योंकि वह अनन्यचेताः हो चुका है, इसी लिए भगवान ने “अनन्यचेताः एवं नित्युक्तः" कहा है । जो स्वयं भगवान का आत्मा अर्थात स्वयं भगवान हो वह कैसा भगवान जो न चाहने की भी चाह रखे ?
जिसका चित्त वासुदेवमय हो गया है वह अपने सहित सर्वत्र वासुदेव को ही देखता है, “जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहिं । प्रेम गली अति सांकरी तामे दो न समाय ।।" वासुदेव से अभिन्न चित्त मुझ आत्मस्वरूप का जो नित्य निरंतर अर्थात जीवन पर्यंत जो स्मरण अर्थात स्वरूप चिन्तन करता है ऐसे मुझसे नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ । यहाँ सुलभ कहने का अर्थ है कि अष्टांगयोग संबंधित नाना प्रकार के क्लेशों के बिना ही मात्र स्वरूप स्मरण करने मात्र से सहज ही मैं आत्मरूप से प्राप्त हो जाता हूँ । ऐसा तात्पर्य है ।।१४।।
संबंध---- ऐसा मेरा अनन्य भक्त सिद्धि को प्राप्त करता है इसका कथन....
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गतिम् ।।८/१५।।
शब्दार्थ--- मुझको प्राप्त करके अनित्य पुनर्जन्म रूप दुःखालय को प्राप्त न होकर महात्मा लोग परम गति को प्राप्त करते हैं ।
तात्पर्यार्थ----वस्तुतः संपूर्ण दुःखों की जड़ तो बारंबार जन्म लेना ही है । इस दुःख के घर से यदि मुक्ति पानी है तो संसार के संपूर्ण भोगों की ओर से मुख मोड़ना ही होगा । सीमित राग द्वेष से परिपूर्ण जीव रूप अहंता को, तटस्थ राग द्वेष रहित आत्मभाव में स्थित होकर सबके सुहृत् कृष्ण रूप व्यापक अहंता के साथ एकीभूत होकर ब्रह्मभाव को प्राप्त करना ही होगा । ऐसे साक्षात् कृष्ण रूप कृष्ण रूप ब्रह्म को प्राप्त होने वाले महात्मा लोग आत्मरूपता को भलीभाँति सिद्ध होकर योगिजन दुर्लभ परमगति को प्राप्त करते हैं । प्राप्त करना वह होता है जो स्व से भिन्न हो किन्तु यह प्राप्त करना व्यावहारिक कथन है । जैसे घड़े का आकाश घड़ा फूटते ही आकाश रूपता को प्राप्त होता है लेकिन क्या घड़े का आकाश कहीं आकाश ढूंढने गया ? जहाँ का तहां विलय को प्राप्त हो गया यही प्राप्त करना है । ऐसे ही महात्मा का स्व से स्व में विलय ही प्राप्त करना है ।।१५।।
संबंध--- उपरोक्त के मूल में जो महात्मा शब्द आया है वह आत्मभाव की विशालता अर्थात व्यापक आत्मभाव को प्राप्त हुआ एवं माम् से आत्म प्रत्यय व्यापक अहंता । इससे यह भाव भी स्पष्ट होता है कि स्व से भिन्न और कोई सत्ता सिद्ध ही नहीं होती । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार करते हैं....
आब्रह्मभुवानांल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ।।८/१६।।
शब्दार्थ---- हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक से लेकर जितने भी लोक हैं उनको प्राप्त होकर पुनर्जन्म प्राप्त होता है किन्तु हे कौन्तेय ! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता ।
तात्पर्यार्थ---- आइए सर्वप्रथम आगम शास्त्र के मर्मज्ञ एवं अपने काल के अद्वितीय साधक एवं विद्वान अभिनवगुप्त जी का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं--- आपने माना कि आज तक के जितने भी भाष्यकार एवं टीकाकार हुए हैं सभी ने एक स्वर से “आब्रह्मभुवानांल्लोकाः" का अर्थ ब्रह्मलोक सहित जितने लोक हैं । तथापि आप अपनी प्रतिभा के धनी ने यह माना है कि अगर हम इसका अर्थ ब्रह्मलोक करते हैं तो विष्णु लोक ब्रह्म लोक से ऊपर स्थित है तो वहां जाने वाले का पुनर्जन्म नहीं होना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है । मैं भी आपकी इस बात से सहमत हूँ, किन्तु विष्णु लोक ही क्यों ? शिवभक्तों का शिव लोक, देवी भक्तों का देवी लोक यानी मणिद्वीप सर्वोपरि है और उन सभी का अपना अपना तर्क है, किन्तु यह द्वैत भाव होता ही ऐसे तर्क वाला है और द्वैत भय से निर्मूल नहीं होता है-- “तुलसिदास यह दशाहीन संशय निर्मूल न जाहीं ।" द्वैत संशय रहित हो ही नहीं सकता है । अतः “आब्रह्म" का अर्थ आपने किया– जहाँ तक ब्रह्म पद है वहां तक छोड़कर जितने लोक हैं उन सभी लोकों को प्राप्त करने वाले का पुनर्जन्म होता है । यद्यपि ‘जहाँ तक’ शब्द ब्रह्मलोक को ससीम करता है जो अनित्यता का स्पष्ट प्रमाण है तथापि आपने अभिनव गुप्त जी ने यही माना है । [(वह ब्रह्म पद “माम्" अर्थात आत्म रूप है, तात्पर्य यह है कि जो भी “स्व" से भिन्न पद या लोक हैं वहां से पुनर्जन्म होता ही है ।)] ।
अब सार्वजनिक मत-- आब्रह्मभुवानांल्लोकाः यहां पर आ शब्द को अभिविधि या मर्यादा माना गया है अर्थात संपूर्ण लोकों में जहाँ भी प्राणी रहते हैं उनकी ब्रह्म लोक मर्यादा अर्थात् सीमा है । वहां तक जितने भुवन हैं अथवा ब्रह्म लोक से लेकर नीचे जितने भुवन हैं, भुवन चौदह माने गये हैं-- भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्यम् ये सात ऊर्ध्व भुवन एवं अतल, वितल, सुतल, महातल, तलातल, रसातल और पाताल ये सात निम्न लोक माने गये हैं जहाँ प्राणी रहते हैं । इन चौदह भुवनों को ही स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताललोक कहा जाता है, इसीलिए भुवन और लोक दोनो शब्द प्रयुक्त हैं ऐसा मेरा मानना है ।
दूसरी बात ध्यान देना चाहिए कि ब्रह्म लोक दो प्रकार के प्राणी जाते हैं एक तो फलेच्छु पुण्यकर्मा, जो लोग हैं तो वैदिक किन्तु वे ईश्वर या मोक्ष को नहीं मानते वे स्वर्गादि को ही सर्वोपर मानते हैं, जिसे भोगदृष्टि से प्राप्ति के निमित्त अश्वमेध, राजसूय आदि वैदिक कर्मकांड के द्वारा पुण्यलोक स्वर्गादि को प्राप्त करते हैं, ये पूर्वमीमांसक जैमिनीय मत वाले हैं, इसी प्रकार पातञ्जलि संबंधित अष्टांगयोगी, सांख्य, जैन, बौद्ध, चार्वाक, नैयायिक आदि । अर्थात जो वेद को न मानने वाले हैं एवं वेद को मनने पर भी ईश्वर और मोक्ष को न मानने के कारण वेदों के तात्पर्य को सम्यक् प्रकार से न जानने वाले भोगैश्वर्य प्रधान पुण्यकर्मा पुण्य क्षीण होते ही नीचे गिरा दिये जाते हैं अर्थात पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं ।
इससे विरुद्ध जो निष्काम कर्मी हैं, जिनके नये पाप-पुण्य बने ही नहीं हैं और पुराने भोग द्वारा नष्ट हो गये हैं, अतः शरीर को धारण करने की सामग्री पाप-पुण्य शेष हुआ नहीं और ब्रह्म तत्त्व का शरीर रहते अपरोक्ष भी नहीं हुआ, ऐसे निष्काम भक्त ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर क्रम मुक्ति को प्राप्त करते हैं । किन्तु हे कौन्तेय ! जो मेरे भक्त हैं, अनन्यचेता हैं, मुझसे नित्युक्त हैं वे मुझ आत्मरूप को प्राप्त होकर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते अर्थात सद्यः मुक्ति, शरीर रहते ही यहीं मुक्त हो जाते हैं । वे किसी लोक में नहीं जाते ।
वस्तुतः जो पुण्य कर्म स्वर्गादि प्राप्त कराने वाले हैं वे जन्म रूप बंधन को प्राप्त कराने वाले होने से आसुरी और जो बंधन रहित अर्थात मोक्ष कराने वाली जो नैष्कर्म्यता है वह दैवी संपत्ति है ऐसा समझकर रखना चाहिए । “दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।" १६/५।।
वस्तुतः विचार करने पर “स्व" से भिन्न कोई सत्ता सिद्ध ही नहीं होती । स्व स्वतः ही प्राप्त है तथापि विडंबना ये है कि घनी रात्रि है और हमें प्रकाशिका {Torch} की आवश्यकता है । वह प्रकाशिका हाथ में है और उसी के प्रकाश से उसी को ढूंढ रहे हैं, मिले तो कैसे ? अब कोई आकर हाथ पकड़कर बता दे कि जिस प्रकाशिका को आप ढूंढ रहे हो वही प्रकाशिका यह तुमहारे हाथ में ही है । अब इसे खोया कहा जायेगा ? या मिलना कहा जायेगा ? क्या कहा जायेगा ? यह स्थिति हम सबकी है, हम प्राप्त की प्राप्ति करने के लिए अनन्त जन्मों को नष्ट कर चुके हैं और आज भी वही कर रहे हैं । जबकि श्रुति और शास्त्र डंके की चोट पर बारंबार करते हैं कि जिसे तुम बाहर ढूंढ रहे हो वह कोई तुमसे भिन्न बाहर नहीं है, स्व से भिन्न नहीं है, फिर भी हम मानने को तैयार नहीं हैं । तैयार भी हों तो कैसे ? हम तो विषयों की मूर्छा में हैं और मूर्छित व्यक्ति को कितना भी शोर मचाओ सुनाई ही नहीं देता । वह यह तो जानता है कि मैं हूँ लेकिन हम नहीं जानता कि वह देवदत्त मैं ही हूँ । यही माया की विडंबना है ।।१६।।
संबंध---- ब्रह्मलोक तक के समस्त लोकों का नाश काल परिच्छिन्नता बता रहे हैं…..
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ।।८/१७।।
शब्दार्थ---- जो तत्त्वदर्शी सहस्रयुगपर्यन्त ब्रह्मा जी का एक दिन और सहस्रयुगपर्यन्त रात्रि जानते हैं वे ही दिन-रात्रि को जानते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- यत् अर्थात जो तत्त्वदर्शी योगीजन सहस्रयुगपर्यन्त अर्थात मानवी युग के अनुसार एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा जी का एक दिन और और एक हजार चतुर्युगी की रात्रि जानते हैं, वे ही रात्रि दिन के जानने वाले हैं ।
यहाँ तात्पर्यार्थ यह है कि दो हजार चतुर्युगी की एक अहोरात्रि, अहोरात्रि से पक्ष, मास, अयन और वर्ष की गणना करते हुए ब्रह्मा जी की आयु सौ वर्ष की हो गई, जिसका अर्थ यह हुआ कि ब्रह्मा जी काल परिच्छिन्न होने के कारण अनित्य हैं और ब्रह्मा जी के अनित्य होने से उनका लोक भी देश काल परिच्छिन्न होने से स्वतः अनित्य हो गया । अतः जो योगीजन काल के इस रहस्य को जानते हैं वे देश, काल परिच्छिन्न की कामना न करते हुए देश काल अपरिच्छिन्न स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित होकर अविनाशी पद को प्राप्त करते हैं ऐसा तात्पर्य है ।
व्यक्तिगत चिंतन---- भगवती गीता के कथनानुसार देश काल का मर्म ब्रह्मा जी तक ही कहा गया है तथापि हमने बचपन में कुछ अन्य शास्त्र देखे थे स्मरण नहीं हैं के अनुसार जब ब्रह्मा जी के सौ वर्ष पूर्ण होते हैं तब विष्णु का एक दिन और इतनी ही रात्रि होती है, इस प्रकार अहोरात्रि, पक्ष, मास, अयन, और वर्ष की गणना से विष्णु की आयु सौ वर्ष की कही गई है । विष्णु की सौ वर्ष की आयु भागवान रुद्र का एक दिन और इतनी ही रात्रि, इस प्रकार अहोरात्रि, पक्ष, मास, अयन और वर्ष की गणना से भगवान शंकर की आयु सौ वर्ष की शास्त्रों ने कहा है । अर्थात् इन त्रिदेवों के भी देश काल परिच्छिन्न होने से तत्त्वदर्शियों की दृष्टि में नाश होता है, जबकि स्व-स्वरूप देश काल अपरिच्छिन्न होने के कारण नित्य, शाश्वत, त्रिगुणोपरि है और वह स्व-स्वरूप त्रिगुणोपरि कृष्ण हैं । विष्णु सत्वगुणावतार हैं, ब्रह्मा रजोगुणावतार हैं, भगवान रुद्र तमोगुणावतार हैं । ये तीनो एक एक गुण को लेकर अवतरित होते हैं । अवतार के दो भेद हैं एक गुणावतार जो ये त्रिदेव हैं और कलावातार श्रीराम और श्रीकृष्ण आदि हैं । गुणों का हमेशा नाश या क्षय होता है, इसी प्रकार कलाएं भी हमेशा क्षय को प्राप्त होती हैं । “सदसच्चाहमर्जुन" ९/१९ एवं “न सत्तन्नासदुच्यते" १३/१२ ।। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस समय साढ़े तीन हाथ का कृष्ण सोलह कलाओं से युक्त दिख रहा है उस समय भी वह सोलहों कलाओं का अतिक्रमण करके स्व-स्वरूप रूप सत्रहवीं कला है स्थित है ।
इसी लिए श्रीभगवान कहते हैं “त्रैगुण्यविषया विषया वेदा" २/४५, वेद तीनों गुणों का विषय हैं क्योंकि वे तीनो गुणावतार तक ही वर्णन करते हैं और जब त्रिगुणोपरि पर कहना होता है तो “नेति नेति" कहने लगते हैं । अतः इन तीनो गुणों से ऊपर उठने को कहते हैं “निस्त्रैगुण्यो भव" २/४५, ब्रह्मा से लेकर रुद्र पर्यंत जो कुछ भी है वह त्रिगुणात्मक है उन सब से ऊपर उठ जा । इसके लिए सर्व प्रथम कार्य है “निर्द्वन्द्वः" २/४५, रजोगणोत्पन्न जो विक्षेप हैं सर्व प्रथम उन विक्षेपों का चित्तशुद्धि द्वारा नाश कर । विक्षेप के नाश होने पर ही “निर्द्वन्द्वः" २/४५, अर्थात निर्द्वन्द्व हो सकेगा । निर्द्वन्द्वता ही सत्वगुण का प्रमाण है, अतः “नित्यसत्वस्थः" २/४५, निर्द्वन्द्व होने पर ही रजोगुण की अपेक्षा जो नित्य सत्त्वभाव है उसमें स्थित हो सकेगा । नित्यसत्त्वस्थ हो जाने पर सभी प्राणियों में और सभी परिस्थितियों में समभाव रूप योग को प्राप्त होगा “समत्त्वं योग उच्तयते" २/४८ । समभाव में स्थित होते ही “सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ।।१८/२०।। अर्थात अलग अलग संपूर्ण प्राणियों में दिखने पर भी एक अव्यय आत्मा का दर्शन होने लगता है, यही नित्यसत्वस्थ भाव है । ऐसा नित्यसत्वस्थ भाव दृढ़ हो जाने पर उसे कुछ भी प्राप्त करना न शेष रह जाता है और न ही जो शरीरादि प्राप्त है उसकी रक्षा करना ही शेष रह जाता है, चाहे रहे या नष्ट हो जाये, क्योंकि वह अब एक शरीर एवं प्राणों वाला न होकर सभी शरीरों और प्राणों वाला है, ब्रह्मलोक पर्यन्त वही संपूर्ण भोगों को भोग रहा है अतः अब वह “निर्योगक्षेम" २/४५ हो चुका है किसी भी योगक्षेम की कामना नित्यसत्वस्थ होते ही समाप्त हो गई है । अब वह “आत्मवान्" २/४५ हो चुका है । आत्मवान् होते ही तमोगुणोत्पन्न संपूर्ण आवरण नष्ट हो जाते हैं ।आत्मवान् अर्थात जो नित्य, शाश्वत, संपूर्ण कल्मष रहित, देश काल अपरिच्छिन्न, सबका आत्मा, त्रिगुणों पर शासन करने वाला त्रिगुणोपरि हो जाता है । जो इस प्रकार देश, काल की महिमा को जानता है वह देश, काल का अतिक्रमण कर जाता है ऐसा तात्पर्य है ।।१७।।
संबंध---- इस प्रकार ब्रह्मलोक पर्यन्त सब कुछ नाशवान है अतः सकाम कर्मियों को दुख ही मिलता है....
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके ।।८/१८।।
शब्दार्थ---ब्रह्मा का दिन आने पर संपूर्ण प्राणी प्रकट हो जाते हैं एवं रात्रि आने पर उस अव्यक्त संज्ञा वाले ब्रह्मा में विलीन हो जाते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- जैसे जाग्रत स्वप्न का दिखने वाला संपूर्ण जगत सुषुप्तावस्था में जीव के अन्दर ही विलीन हो जाता है, इसी प्रकार ब्रह्मा जी जब सुषुप्तावस्था में अर्थात सोये हुए हैं वह अवस्था संपूर्ण प्राणियों के लिए अव्यक्त है क्योंकि सभी उनकी सुषुप्ति में विलीन हैं, जब दिन आता है तब ब्रह्मा जी सुषुप्तावस्था से जाग्रत अवस्था में आते हैं । उनके जाग्रत होते ही जितने स्थावर जंगम प्राणी अपने अपने अन्दर जिस जिस प्रकार कर्म बीज लेकर ब्रह्मा जी में लय को प्राप्त हुए थे उन्हीं कर्म बीजों के अनुसार उन उन शरीरों को लेकर उत्पन्न होते हैं, पुनः रात्रि आने पर संपूर्ण प्राणी उन्हीं ब्रह्मा जी में लीन हो जाते हैं ।
भावार्थ--- यहाँ बारंबार जन्म-मृत्यु का वर्णन किया गया है । संपूर्ण दुःखों की जड़ तो जन्म है यदि जन्म न होता तो मृत्यु कहाँ से होती ? संपूर्ण दुःख जन्म और मृत्यु के बीच ही होते हैं यही भाव जन्म-मृत्यु के बारंबार होने से यहाँ दर्शाया गया है । इसका स्पष्टीकरण भी आगे करेंगे--- इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिर्दुःखदोषानुदर्शनम् ।।१३/८, अर्थात यह प्रकरण वैराग्य उत्पन्न करने के निमत्त जन्म मृत्यु रूप दोष दर्शन हेतु है ।।८/१८।।
संबंध---- यह जन्म मृत्यु रूप क्रम कब तक चलेगा ? इस पर कहते हैं....
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवन्यहरागमे ।।८/१९।।
शब्दार्थ---- हे पार्थ ! इस प्रकार ब्रह्मा जी का दिन आने पर वही ये संपूर्ण प्राणी परवश होकर बारंबार उत्पन्न और लय को प्राप्त होते रहते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ ‘भूत्वा’ शब्द दो बार आया है जो पूर्व श्लोक के साथ संबंध स्थापित करता है, अर्थात जिन प्राणियों का पूर्व कल्प में सृष्टि और विलय होता है, वही स्थावर जंगम प्राणी अपने कर्मों के पर वश होकर--- यहां पूर्व जन्म की परवशता मानी गई है क्योंकि यदि हम नई सृष्टि और नये जीव मानते हैं तो नई सृष्टि में प्राणियों के जो सुख दुःख होंगे वे समान ही होना चाहिए । सभी को राजा, प्रजा या भिखारी होना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है । प्रणियों के कर्मों की भिन्नता, स्वभाव की भिन्नता, सुखदुःखादि की भिन्नता इस बात का साक्षी है कि प्राणी अपने अपने कर्म बीजों के सहित कल्पान्त प्रलय को प्राप्त होकर पुनः कल्पादि में सृजन को प्राप्त होता है । वह एक क्षण भी कर्मों की परवशता के कारण स्थिर नहीं होता “कार्यते ह्यवशः कर्म" ३/५ उन्हीं कर्मों के अनुसार उनकी प्रकृति होती है “प्रकृतिं यान्ति भूतानि" ३/३३ । एवं इसी सृजन और विसृजन को “प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।" ९/८ कहा है ठीक यहाँ की भूत्वा भूत्वा पुनरावृत्ति का पुनः पुनः करके आवर्तन किया गया है ।
इस प्रकार समस्त प्राणी सतत प्रवाहित धारावत् नित्य निरंतर कर्मों के आधीन बारंबार जन्म मरण रूप असह्य दुःख को प्राप्त करता है । मानो श्रीभगवान जीवों के कर्मों के प्रति आसक्ति को लेकर खेद प्रकट कर रहे हैं कि जब तक कर्मों के प्रति अनासक्ति नहीं हो जाती तब तक बारंबार जन्म मरण को प्राप्त होता रहता है । अतः मानव को प्रयत्नपूर्वक परतत्त्व वेदान्तवेद्य की शरण लेकर शीघ्र अपना कल्याण करना चाहिए । ऐसा तात्पर्य है ।।१९।।
संबंध--- इस प्रकार कर्माधीन सुख दुःख भोक्ता जीव को ब्रह्मलोक तक की प्राप्ति की नश्वरता दिखाकर अब अव्यक्त की नित्यता का प्रतिपान करते हैं....
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ।।८/२०।।
अन्वय---- तु तस्मात् अव्यक्तात् अन्यः परः भावः सनातनः यः अव्यक्तः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु विनश्यति न ।
अन्वय करना पड़ा, क्योंकि श्लोक थोड़ा कठिन लगा ।
शब्दार्थ---- क्योंकि उस अव्यक्त ब्रह्मा से अन्य अर्थात जो दूसरा पर अर्थात सर्वश्रेष्ठ भाव वाला नित्य अव्यक्त परमात्मा है वह संपूर्ण प्राणियों के नाश होने पर भी नाश को प्राप्त नहीं होता ।
तात्पर्यार्थ---- अव्यक्त शब्द पिछले श्लोक में ब्रह्मा जी के लिए आया है । जो अविद्या के कार्य से युक्त अव्यक्त से भी जो अव्यक्त श्रेष्ठ है अर्थात जिसे मन वाणी आदि किसी भी प्रमाण से व्यक्त नहीं किया जा सकता है, जो स्व-संवेद्य है-- स्व-संवेद्य अर्थात आत्म रूप है ऐसा जो सर्वश्रेष्ठ भाव रूप नित्य अर्थात देश काल अबाधित है वह अव्यक्त जो आत्यंतिक प्रलय में भी संपूर्ण लोकों सहित प्रणियों के नष्ट होने पर भी नाश को प्राप्त नहीं होता ।
यहां इस प्रकार समझते हैं-- “द्वामिमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एवं च क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।१५/१६।। उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः... ।"१५/१७, क्षर पुरुष यानी अविद्या ग्रस्त जीव भाव का नाश होता है जो जड़ चेतन के संपर्क से होता है । ऐसे प्राणी बारंबार जन्म मृत्यु को प्राप्त होते हैं, किन्तु जिस समय यही जीव अविद्या ग्रस्त जड़भाव से स्वयं को अलग करके निर्विकार रूप में स्थित होता है तब वही जीव कूटस्थ कहलाता है । जिसे अक्षर पुरुष कहते हैं । इस सर्वश्रेष्ठ अव्यक्त स्व-संवेद्य अक्षर भाव का संपूर्ण प्राणियों के नाश हो जाने पर भी नाश नहीं होता । यह मन बुद्धि आदि किसी भी प्रमाण से प्रमाणित न होने के कारण ही अव्यक्त है । “अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तः" अगले श्लोक में भी कहेंगे, और “उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः" को यहां “पुरुषः स परः पार्थ" ८/२२ कहेंगे ।
भावार्थ---- अव्यक्त जो स्वसंवेद्य आत्मतत्त्व है उसका संपूर्ण प्राणियों के नाश होने पर भी नाश नहीं होता है । ऐसा तात्पर्य है ।।८/२०।।
संबंध---- स्व-संवेद्य अक्षर पुरुष को प्राप्त कर लेने पर पुनर्जन्म न होने का कथना....
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।८/२१।।
शब्दार्थ---- जिसे पूर्व में अव्यक्त अर्थात स्व-संवेद्य कहा गया है उसी को अव्यक्त अक्षर एवं परम गति जान, जिसको प्राप्त होकर पुनर्जन्म अर्थात दुःख रूप संसार को पुनः प्राप्त नहीं होता, वही मेरा परमधाम है ।
तात्पर्यार्थ---- पूर्व श्लोक में जिसे स्वसंवेद्य अव्यक्त कहा गया है वही यहां अव्यक्त अक्षर कहा गया है । ध्यान देने की बात यह है कि योगी जिसे “ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म" जान करके “याति परां गतिम्" अर्थात अर्थात परं गति को प्राप्त करता है, उसी पद को यहां “अव्यक्तोऽक्षर" चिन्तन करके “आहुः परमां गतिम्" अर्थात स्वसंवेद्य आत्मतत्त्व को जानकर परम गति को प्राप्त करता है अर्थात जिस पद की ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म से व्याख्या की गई है उसी पद की यहाँ पूर्व श्लोक में अव्यक्त और यहाँ अव्यक्त अक्षर के नाम से व्याख्या की गई है । इस स्वसंवेद्य को जानकर परमगति को प्राप्त कर लेता है । यही वह परमगति है जिसको प्राप्त होकर पुनः संसार में नहीं आता वही मेरा परमधाम है ।
यहाँ पर परमधाम का अर्थ शंकरान्द जी ने प्रकाश रूप किया है, आनन्दगिरि जी ने धाम का अर्थ अभिन्नभाव माना है । यहाँ कोई यह न कह दे कि ये अद्वैतवादी तो खींचातानी करते ही हैं, धाम का अर्थ प्रकाश या अभिन्न कैसे हो सकता है ? इस पर हम स्वामी रामानुजाचार्य जी का ही उदाहरण दे रहे हैं, यद्यपि यह उनके भाष्य के लक्ष्य जीव भाव भिन्नता के साथ मेल नहीं खाता तथापि उनका ही भाष्य यहाँ देकर धाम के अर्थ प्रकाश/ज्ञान रूप में पुष्टि करके भ्रम का निवारण करता हूँ--- “प्रकाशवाची धामशब्दः, प्रकाशः स च ज्ञानं अभिप्रेतं प्रकृतिसंसृष्टात् परिच्छिन्नज्ञानरूपाद् आत्मनः अपरिच्छिन्नज्ञानरूपतया मुक्तस्वरूपं परं धाम" अर्थात यहाँ धाम शब्द प्रकाश का नाम है, और प्रकाश का तात्पर्य ज्ञान से है, प्रकृति से परिच्छिन्न ज्ञान वाले आत्मा से अपरिच्छिन्न होने के कारण मुक्तस्वरूप (मुक्तात्मा) परम धाम है । इतने पर भी यदि कोई धाम का अर्थ देश परिच्छिन्न मानता है तो काल परिच्छिन्न स्वतः हो जायेगा और वह द्वैतावादियों का धाम नाशवान वाला होकर उनके विष्णु या कृष्ण भी नाश के भय को प्राप्त होंगे, यह परिच्छिन्नता अविवेक की चरम सीमा होगी और यदि इस भाष्य के अनुसार प्रकृति से परिछिन्न ज्ञान से परिपूर्ण आत्मा जिसे स्वयं भी स्वयं रामानुजाचार्य जी ८/२० के अव्यक्त का अर्थ स्वसंवेद्य मानते हैं और यहां भी अपरिच्छिन्न बता रहे हैं तो जीव और ब्रह्म भिन्न कैसे सिद्ध होगा ? अतः शांकरी मत के अनुसार केवलाद्वैत को आंख बंद करके स्वीकार कर लेना चाहिए ।
तात्पर्य यह है कि धाम कोई देश, काल परिच्छिन्न नहीं बल्कि बल्कि स्वसंवेद्य आत्मस्वरूप प्रकाश अर्थात ज्ञानस्वरूप चैतन्य की स्वाभाविक स्थिति का नाम है । यहां पर “मम" शब्द परमधाम से अभिन्न सूचित करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि जो मेरी स्थिति है उसको प्राप्त हुआ वह अव्यत, मैं और मेरी स्थिति सभी अभिन्नता को प्राप्त हो जाते हैं । इस अभिन्नभावापन्न स्थिति में स्थित होकर पुनः जन्म मृत्यु को प्राप्त नहीं होता । यहां के “मम" को अक्षरं ब्रह्म परमम् ८/३, अधियज्ञोऽहम् ८/४, मामेव, मद्भावम् ८/५, माम्, मयि ८/७, परमं पुरुषं दिव्यम् ८/८, कविं पुराण आदि आठ लक्षणों वाला ८/९, मामुपेत्य ८/१५-१६ इत्यादि के साथ संबद्ध कर लेना चाहिए ।।२१।।
संबंध---- उपरोक्त स्वसंवेद्य अक्षर पुरुष किस साधन से प्राप्त किया जा सकता है ? इसका कथन.....
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ।।८/२२।।
शब्दार्थ---- हे पार्थ ! जिसके अन्तःस्थान में संपूर्ण प्राणी स्थित हैं जिससे संपूर्ण जगत प्रकाशित हो रहा है वह परम पुरुष एक मात्र अनन्य भक्ति से प्राप्त होता है ।
तात्पर्यार्थ---- इस श्लोक के उत्तरार्ध को “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" ७/७ से संबद्ध कर लेना चाहिए ।
“पुरुषः स परः" यहाँ सः से पूर्वोक्त अव्यक्त एवं अक्षर से जिसे कहा गया है उसी को यहाँ परम पुरुष समझना चाहिए । शरीर एक पुर है एक ब्रह्मांड रूप पुर है । जो ब्रह्मांड रूपी पुर में शयन करे, विश्राम करे, स्थित हो उसे पुरुष कहते हैं । संपूर्ण प्राणी उसी में अभिन्न रूप से स्थित हैं । जैसे किसी प्राणी का शरीर है तो शरीर की सत्ता उसके शरीर के अन्दर स्थित होने से है, तथापि वह अन्दर तो दिखता नहीं है, बाहर जो चैतन्यभावापन्न जड़ शरीर दिख रहा है उसी से वह अन्दर में स्थित जाना जाता है, क्योंकि प्राण जब अन्दर से उत्क्रमण कर जाते हैं तब जड़ शरीर क्रिया हीन हो जाता है । अतः यह सिद्ध होता है कि जिस चैतन्य सत्ता द्वारा यह जड़ शरीर व्याप्त अर्थात क्रियावान हो रहा है, उसी में यह जड़ शरीर ओतप्रोत है तथापि चैतन्य सत्ता शरीर से अभिन्न होकर भी शरीर से परे है । एक आत्मा शरीर को माना यह शरीर रूप आत्मा जिससे प्रकाशित हो रहा है वह शरीर की अपेक्षा से पर होने के कारण पर आत्मा कहा जाता है ।
इसी प्रकार “येन सर्वमिदं ततम्" जिस परम प्रकाश अर्थात चैतन्य सत्ता से और जिस सत्ता में संपूर्ण प्राणी प्रकाशमान अर्थात क्रियमाण एवं सत्तावन हो रहे हैं तथापि वह इन सबसे परे है । अतः मायाकल्पित आत्मा से परे होने के कारण ही उसे परम् आत्मा अर्थात परमात्मा कहते हैं । संपूर्ण शरीर रूप पुरों में विश्राम करने के कारण वह पुरुष है, माया कल्पित पुरुष से परे होने के कारण ही उसे पर पुरुष कहते हैं । (पुरुष की व्याख्या अ. १३/२२ में आयेगी) वही परमपुरुष अर्थात अव्यक्त स्वसंवेद्य अक्षर पुरुष जिस साधन से प्राप्त किया जाता है उसका प्रथम साधन है “अनन्य" अर्थात जहाँ मैं और यह करके जो अन्य अन्य भाव है वह समाप्त होकर एक मात्र स्वसंवेद्य आत्मनिष्ठा ही शेष बचे यही अनन्य भाव है यह अनन्य आत्मनिष्ठा ही भक्ति कहलाती है । आचार्य शंकर ने भक्ति का अर्थ निरंतर आत्मानुसंधान ही माना है । स्वरूप का ज्ञान और उसका अनुसंधान ही भक्ति है ।
भावार्थ---- यही स्वसंवेद्य चैतन्य प्रकाश संपूर्ण चराचर जगत में व्याप्त है, इसी से संपूर्ण जगत प्रकाशित अर्थात क्रियमाण हो रहे हैं “यतः प्रवृत्तिर्भूतानाम्" १८/४६ अपने अपने कार्य में प्रवृत्त हो रहे हैं यह जान लेना ही ज्ञान है, फिर इसका निरंतर अहं इदं से रहित स्वसंवेद्य आत्मतत्त्व का अनुसंधान करना अनन्य भक्ति है । जिसके द्वारा वासुदेवः सर्वम् एवं सर्वं वासुदेवः की स्थिति प्राप्त होगी यही अनन्य भक्ति का तात्पर्य है ।८/२२।।
संबंध---- अध्याय ७/२९-३० में जो तद्ब्रह्म विदुः आया था उसकी व्याख्या ८/३-१३ तक योगनिष्ठा के अन्तर्गत कर दी । जो योग साधना नहीं कर सकते उनके लिए उसी परमतत्त्व का वर्णन अधियज्ञ के रूप में श्लोक १४-२२ तक कर दिया । ये व्याख्या चार प्रकार के भक्तों में ज्ञानी भक्त के अन्तर्गत समझाना चाहिए । अब सकार उपासक “साधिभूताधिदैवं माम्" ७/३० की व्याख्या जिज्ञासु जो सकार अर्थात प्रतीकोपासक हैं उन्हें अधिदैव के अन्तर्गत समझते हुए जो कर्मी हैं उनको अधिभूत के अन्तर्गत समझना चाहिए । इसमें किसको मुक्ति मिलती है किसको नहीं ? इसके लिए समय का और मार्ग की प्रस्तावना करते हैं....
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ।।८/२३।।
शब्दार्थ---- हे भरतश्रेष्ठ ! योगीजन जिस काल में मृत्यु को प्राप्त होकर संसार में वापस नहीं आते एवं जिस काल में पुनः संसार को प्राप्त होता है उस काल को कहूंगा ।
तात्पर्यार्थ---- जो निर्गुण निराकार की उपासना करके अन्त में उसी तत्त्व में स्थित होकर योग द्वारा शरीर छोड़कर विदेह मुक्ति को प्राप्त करते हैं वे एवं जिन्होंने स्वसंवेद्य आत्मा एवं परमात्मा का इस शरीर के रहते ही अभेद संपादन कर लिया है वे सद्योमुक्ति को प्राप्त करते हैं इसका प्रतिपान करके अब जो सर्वकर्म संन्यासी हैं--- मूल में आये योगिनः का अर्थ सर्वकर्म संन्यासियों को एवं कर्मयोगियों को भी समझना चाहिए “कर्मयोगेन योगिनाम्" ३/३। इनमें योगी तो परमतत्त्व को जानने की इच्छा से, यद्यपि ये श्रुत्याचार्य प्रासद से आत्मतत्त्व का परोक्ष ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं तथापि अपरोक्ष नहीं हो सका है ऐसे परोक्ष ज्ञानी ओंकार की प्रतीकोपासना करने के कारण--चूंकि संपूर्ण कामनाओं पर विजय पा चुके हैं अतः वे विदेह या सद्योमुक्ति के अधिकारी न होकर क्रममुक्ति के अधिकारी हैं वे जिस काल में शरीर को छोड़कर पुनः संसार को प्राप्त नहीं होते एवं जो कर्मयोगी हैं वे ब्रह्म और मोक्ष को तो नहीं जानते लेकिन इष्टापूर्त अर्थात कुआं, बावड़ी, तालाब बनवाना, वृक्षादि लगाना, अन्नक्षेत्र आदि कर्मों को कामना रहित कर्तव्यत्वेन करते हैं ऐसे पुण्य कर्मी पुण्यभोग के निमित्त ब्रह्मलोक प्राप्त करके पुनः पुण्यक्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं “क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति" ९/११ । ऐसे उस काल अर्थात समय को कहूंगा । यहाँ काल से दिन, मास आदि समय एवं आगे कहे जाने वाले अर्चि एवं धूम्र मार्ग को समझना चाहिए । ऐसा तात्पर्य है ।।२३।।
संबंध---- पहले प्रतीकोपासक के ब्रह्मलोक से वापस न आने का वर्णन....
अग्निर्ज्योरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।।८/२४।।
शब्दार्थ----अग्नि के अभिमानी देवता, काल के अभिमानी देवता, दिन के अभिमानी देवता, छः मास उत्तरायण के अभिमानी देवता को ब्रह्मज्ञानी शरीर को छोड़कर क्रमशः प्राप्त होता है ।
तात्पर्यार्थ---- औपनिषदीय काल निर्णय में अग्नि एवं ज्योति दोनो ही अर्चि नाम से कहे गये हैं, अतः अग्नि ज्योति से अर्चि के अभिमानी देवता लेना चाहिए तथापि आचार्य शंकर ने अर्चि एवं ज्योति दोनो का कालाभिमानी देवता अर्थ किया है । अतः अग्निर्ज्योति का कालाभिमानी देवता, दिन के अभिमानी देवता, शुक्लपक्ष के अभिमानी देवता एवं छः महीने उत्तरायण के अभिमानी देवता को ब्रह्मवेत्ता--- यहाँ ब्रह्मवेत्ता परोक्ष ज्ञानी जो “ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म" करके प्रतीकोपासक है के लिए कहा गया है, क्योंकि अपरोक्ष ज्ञानी सद्योमुक्त अर्थात शरीर रहते ही मुक्त हो जाता है । ऐसा ब्रह्मवेत्ता उपरोक्त क्रम से तत्तत् देवता को प्राप्त होते हुए ब्रह्म अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है । ऐसा तात्पर्य है ।
टिप्पणी---- यहाँ मात्र उत्तरायण तक ही वर्णन है अतः इतना ही विवरण दिया । जिनको इतने से संतोष न हो वे. छान्द. उ. ४/१५/५, ५/१०/१-२, वृह.उ. ६/२/१५, कौषी.ब्रा.उ. १/३ एवं ब्र.सू. ४/३/२-३ देखना चाहिए ।।२४।।
हमारी जिज्ञासाएं एवं समाधान---- हमारी पहली जिज्ञासा ये थी कि----
१- जब अग्नि और ज्योति दोनो के अभिमानी देवता काल ही हैं तो अग्नि और ज्योति को अलग अलग कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? क्योंकि एक ही देवता को वह कार्य करना है जो अलग अलग दो कहने से होगा अतः अलग अलग कथन की आवश्यता नहीं थी ।
२- दूसरी जिज्ञासा यह थी कि--- जब उत्तरायण के देवता अग्नि हैं तो अलग से छः महीने के अभिमानी देवता कहने की आवश्यकता क्यों हुई ? क्योंकि उत्तरायण कह देने मात्र से छः महीने उसी में समाहित हो जाते हैं । अतः पुनरुक्ति दोष दिखता है । सबसे बड़ी बात पहले अग्नि को अलग कहा फिर अग्नि को ही उत्तरायण का देवता अलग कहा यहाँ अग्नि की ही द्विरुक्ति हो गई, उत्तरायण का अभिमानी और छः महीने उत्तरायण का अभिमानी देवता द्विरुक्ति यहाँ भी हो गई । अगर अग्नि के प्रसंग में द्विरुक्ति का परिहार यह कहकर किया जाये कि अग्नि का अभिमानी काल है इसलिये काल दृष्टि से उत्तरायण का भी अभिमानी कह दिया तो फिर सभी में अग्नि को ही अभिमानी देवता मान लेना चाहिए क्योंकि दिन पक्ष मास सभी तो काल ही हैं ? तो फिर सब अलग अलग गिनाने की क्या आवश्यकता थी ?
३- तीसरी जिज्ञासा यह थी कि तत् तत् काल के अभिमानी देवता तो कहे गए हैं किन्तु उनके नाम क्या हैं ?
[{आजकल समस्या यह है कि व्यक्ति स्वतंत्र विचार न कर पाता है और न ही करने देता है । यदि कोई जिज्ञासा वश प्रश्न करे तो वह आचार्य में दोष निकाल रहा है, स्वच्छन्दी अर्थात् स्वेच्छाचारी है, वह अश्रद्धालु है, जब इतने ही ज्ञानी हो तो पढ़ने की क्या आवश्यता है ? इत्यादि कहकर मुंह बंद कर दिया जाता है । यही मुंह बंद करना समाज के लिए घात सिद्ध होता है जो आज हम भलीभाँति देख सकते हैं । शब्दों को जैसा का तैसा तोते की तरह रट लिया और आचर्य, प्रवचनकार बनकर सिद्ध हो गये । अविवेक प्रधान समाज सिद्ध मानने लगा पूजा करने लगा और ऐसी स्थिति में कोई भी प्रश्न उनकी विद्वात्ता पर प्रश्न चिह्न लगा लेता है जिसके बचाव का एक ही मार्ग है स्वेच्छाचार, श्रद्धाहीनता का आरोप लगाकर लोगों के सम्माननीय और पूजनीय बने रहो । अपना स्वार्थ सिद्ध हो समाज जाये गड्ढे में । }]
समाधान मिला स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी के “गीता रसरत्नाकर" से वही निवेदित कर रहा हूँ भाव और शब्दार्थ वही है तथापि लेखन शैली हमारी अपनी है आइए अवलोकन करके उपरोक्त जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करें…..
इस श्लोक में प्रतीकोपासना ॐ को निर्विवाद रूप से सभी ने माना है जिसका आधार “ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म" ८/१३ है । आइए देखिए कि यह स्पष्ट ॐ का उल्लेख न होने पर पर भी ॐ क्यों लिया गया है एवं अन्य समाधान---
अग्निः --- अग्नि वाणी का अधिष्ठातृ देवता है । अतः अग्नि द्वारा संकेत वाणी का है, अर्थात वाणी द्वारा ॐॐॐ का जप निरंतर करो यह अग्नि से तात्पर्य है न कि अग्नि के अभिमानी देवता से । यहाँ ध्यान देना पड़ेगा कि ॐ वेदों का प्राण है, सारतत्त्व है और वेद मंत्रों के उच्चारण के अपने नियम भी होते हैं । वेद मंत्र तीन प्रकार से उच्चारित होते हैं-- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित, किन्तु ॐ का जप सदैव प्लुत में ही होता है इसकी मात्राएं सुनिश्चित नहीं हैं, यह मात्राओं के लिए स्वतंत्र है । इसके उच्चारण का आदि होता है अन्त नहीं । इसे अगर हमें लिखना है तो यदि ॐ इस प्रकार से लिखें तो ठीक है और यदि अक्षर में लिखें तो यह ओम् लिखना उचित नहीं है, हमेशा प्लुत में लिखना और प्लुत में ही बोलना चाहिए । अतः प्लुत उच्चारण पू्र्वक इतना जोर से उच्चारण करे कि स्वयं भी सुन सके ।
ज्योतिः -- निद्रा की अधिष्ठात्री देवता है । अर्थात जप करते करते जो तंद्रा जैसी एकाग्रावस्था होती है उसकी अधिष्ठात्री देवता का उसी स्थिति में आराध्य के रूप का दर्शन होता है, अतः यहाँ रूप का दर्शन करे ।
अहः अर्थात दिन--- दिन का अर्थ प्रकाश से है प्रकाश अर्थात् ज्ञान स्वरूप । जो रूप को देखता है उस रूप को अपने प्रकाशात्मा में एक हो जाना ऐक्य भाव को प्राप्त कर लेना । स्वसंवेद्य चैतन्यभाव में में स्थित हो जाना ।
शुक्लः --- अर्थात सभी कल्मषों का इस समय नाश हो जाता है वह शुक्लवर्ण अर्थात शुद्ध सत्वस्थ होता है ऐसी स्थिति में ही किसी भी प्रकार का मोह नहीं होता “एषा ब्राह्मी स्थितः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति" २/७२ । इस प्रकार जब वासनाओं से रहित होगा तब…
उत्तरायण--- अर्थात् ऊर्ध्व गति वाला होगा ऊर्ध्व गति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करेगा । षण्मासा उत्तरायण कहने का तात्पर्य है कि मात्र संभलने के लिए आधी ही जिंदगी दिन ही मिलता है आधी जिंदगी तो नींद में बर्बाद हो जाती है ।
इस प्रकार जप, ध्यान, चिन्तन पूर्वक वासनाओं से मुक्त अन्तःकरण ब्रह्मविद् होकर अर्थात ब्रह्म को परोक्ष भी जानकर अपनी निरंतरता के कारण मोक्ष को प्राप्त हो जाता है, पुनः संसार का उसे दर्शन भी नहीं होता ।।२४।।
संबंध--- कर्मयोगी की पुनरावृत्ति का वर्णन...
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।।८/२५।।
शब्दार्थ---- अंधकार के अभिमानी देवता, रात्रि के अभिमानी देवता, कृष्णपक्ष के अभिमानी देवता, छः महीने दक्षिणायन के अभिमानी देवता को शरीर छोड़कर कर्मयोगी चंद्रज्योति को प्राप्त करता है ।
तात्पर्यार्थ----- यहाँ अन्धकार को इस प्रकार समझना चाहिए कि जैसे दिन में चंद्रमा होता है तथापि सूर्य के तेज से निस्तेज हुआ दिखता नहीं है, अतः सूर्य के प्रकाश की अपेक्षा चंद्रमा सामान्य प्रकाश वाला है, इसीलिए दिन में न दिखकर रात्रि में दिखता है । इसी प्रकार दिन में भी रात्रि है किन्तु दिन के प्रभाव से नहीं दिखती तथापि दिन ढलते ही रात्रि सामान्य प्रकाश में उपस्थित हो जाती है । अगर सामान्य प्रकाश भी न हो तो रात्रि में चलना आदि क्रिया कैसे संभव हो सकती है ? दिन की अपेक्षा अन्धाकर और सूर्य की अपेक्षा चंद्रमा सामान्य प्रकाश के रूप में ग्राह्य है । अतः धूम का अभिमानी देवता, रात्रि, कृष्णपक्ष एवं छः महीने उत्तरायण के अभिमानी देवता को कर्मोयोगी मृत्यु होने पर प्राप्त होकर चंद्रज्योति को प्राप्त होता है । चंद्रज्योति को प्राप्त होने का तात्पर्य है चंद्रलोक में अपने कर्मों के पुण्य का चंद्रज्योति रूप में भोग करता हुआ पुष्टि को प्राप्त करता है “पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।"१५/१३ । इस प्रकार भोग समाप्त होने पर पुनः संसार चक्र को प्राप्त होता है । ऐसा तात्पर्य है ।
टिप्पणी---- छान्द. उ. ५/४०/३-४, वृह.उ. ६/२/१६ देख लेना चाहिए ।
भावर्थ---उपरोक्त दोनो श्लोकों में वर्णित अर्चि और धूम्रमार्ग को इस प्रकार समझना चाहिए अर्चि अर्थात देवमार्ग, ज्ञानमार्ग, सर्वकर्मसंन्यास । धूम यानी यानी पितृमार्ग, अज्ञान, कर्ममार्ग ।
इस प्रकार किस मार्ग से मोक्ष प्राप्त करेगा और किस मार्ग से जन्म मृत्यु रूप असार संसार के दुःखद चक्र में पड़कर दुःखी होता है यह दिखाकर संसार और उसके भोगों से वैराग्य की ओर प्रेरित करने के लिए इन अर्चि एवं धूम्र मार्ग का वर्णन किया गया है ।।२५।।
स्वामी अखंडानंदजी----
धूमः --- राग द्वेष रूपी जलन से बना विकार रूप धुंवा । रात्रि-- अंधकारमय, अज्ञान से परिपूर्ण जीवन । कृष्णः --- काली धुंधहरठ अर्थात आले में प्रतिदिन दीपक रखने से कोयले का बना हुआ लटकता बड़ा सा पिंड़ । जो लोग दीपक जलाते हैं या थे वे जानते हैं । अतः जीवन दक्षिणायन बन जाता है ।
यहां दक्षिणायन का अर्थ अखंडानंदजी पापमय जीवन करते हैं । इस प्रकार राग द्वेष से बनी जलन के द्वारा उठे विकार रूप धुंवे से जीवन अंधकारमय होकर पूरा का पूरा हृदय देश ही काला हो जाता है । संपूर्ण जीवन संसार सुधारने में ही लग गया यही दक्षिणायन का तात्पर्य है ।
चान्द्रमसम्--- मन का अधिष्ठातृ देवता चंद्रमा है । अतः चंद्रमा का उपलक्षण मन लिया गया है । मन से ऊपर ऐसे काले व्यक्ति के लिए संभव नहीं है जो मन में आयेगा उसे पाने के लिए ज्योतिः अर्थात आशा यानी वासना होगी । इस प्रकार मन के आधीन होकर संसार में पुनः पुनः वापस होना पड़ेगा मुक्ति नहीं मिल सकती ।।२५।।
संबंध---- तेइसवें श्लोक में जिन दो मार्गों की प्रस्तावना की गई थी उनका दो श्लोकों में वर्णन करके अब उप संहार करते हैं....
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ।।८/२६।।
संबंध---- क्योंकि शुक्ल और कृष्ण ये दो ही गतियाँ संसार में शाश्वत मानी गई हैं । एक में जाकर संसार में वापस नहीं आता एवं अन्य में पुनः वापस आता है ।
तात्पर्यार्थ---- यहां शुक्ल और कृष्ण कहते हुए जगत शब्द का प्रयोग किया गया है । जिसमें एक के मोक्ष का और दूसरे के पुण्य भोग का वर्णन किया गया है । तथापि अध्याय १६/१९-२० में एक तीसरे मार्ग का भी वर्णन किया गया है, जिसकी कोई गति ही नहीं होती सिवाय जन्मने और मरने के । उनका वर्णन यहां न देने का कारण है जो आत्मकल्याण न कर सके वह मनुष्य जैसा दिखता है लेकिन वह मनुष्य ही नहीं है, ऐसे लोगों के लिए सामान्य बुद्धिमान मनुष्य भी समय नष्ट नहीं करते तो श्रुति शास्त्र भी समय क्यों नष्ट करे ?
यहाँ शुक्ल के साथ अनावृत्ति की संगति दी गई है शुक्ल का अर्थ सत्वगुण अर्थात ज्ञान है । जिसका ज्ञान आवृत्त अर्थात अविद्या से ढका नहीं है वह अनावृत्त ज्ञान वाला, परमतत्त्व स्वसंवेद्य ही जिसकी एक मात्र गति है ऐसा “एकया" अर्थात ऐसा एक मात्र लक्ष्य वाला जो योगी है, वही देवमार्गी है । देवमार्गी का तात्पर्य है अध्याय १६/१-३ तक वर्णित सोलह लक्षणों वाली दैवी संपदा से युक्त । ऐसी दैवी संपत्ति से संपन्न परोक्ष ब्रह्म ज्ञान से संपन्न क्रम मुक्ति को प्राप्त करता है फिर अपरोक्ष ज्ञानी के विदेह या सद्योमुक्ति के विषय में क्या कहा जाये ?
कृष्ण अर्थात धूम्रमार्ग के साथ “आवर्तते" दिया है किन्तु इसी बात को कहने के लिए ८/२३ में “आवृत्तिम्" दिया गया है अतः आवर्तते को आवृत्तिं का अनुवाद मान लेने से अर्थ बनता है जिसका ज्ञान अविद्या से आवृत अर्थात ढककर धूमिल हो गया है, क्षीण हो गया है, सत् और असत् का विवेक नहीं है वह ईश्वर, मोक्ष आदि के विषय में ठीक से नहीं जानता किन्तु कर्तव्यत्वेन इष्टापूर्त अर्थात कुंआ, बावड़ी, तालाब आदि बनवाता है, वृक्षारोपण के द्वारा जंगलों की वृद्धि करके पर्यावरण एवं वन्यजीवों का संरक्षण करता है, इत्यादि इससे उसकी वृत्ति अन्य अन्य बनी रहती है । इसी वृत्ति को यहाँ “अन्यया" कहा गया है । ऐसे व्यक्ति संसार में बारंबार कभी ऊपर कभी नीचे आवागमन अर्थात जन्म मृत्यु रूप संसार को प्राप्त होते हैं । ऐसा तात्पर्य है ।।२६।।
भावार्थ---- शुक्ल अर्थात निर्विकार शुद्ध सत्त्वस्थ जीवन । कृष्ण अर्थात राग द्वेषमय राजसी और तामसी जीवन । यही संसार के प्राणियों के लिए दो मार्ग हैं । चयन किसका करना है मनुष्य इसके लिए स्वतंत्र है ।।२६।।
संबंध---- इस प्रकार जन्म मृत्यु के कारण को बताकर अब सावधान करते हैं....
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योग युक्तो भवार्जुन ।।८/२७।।
शब्दार्थ--- हे पार्थ ! इन दोनो मार्गों को जानकर योगी कभी भी मोहित नहीं होता, इसलिये हे अर्जुन ! हर काल में योगयुक्त होओ ।
तात्पर्यार्थ---- अर्चि एवं धूम्रमार्ग को जानकर-- यहां “जानन्" से विधिवत तत्त्वतः जानकर अर्थात जानने वाला योगी अर्थात सर्वकर्मसंन्यासी कश्चन अर्थात कभी भी, कहीं भी, किसी भी देश, काल परिस्थिति में कर्मों से उत्पन्न फलभोग की ओर मोहित अर्थात आकर्षित नहीं होता, आसक्त नहीं होता । वह योगी ज्ञानमार्ग का ही अवलंबन करता है, कर्ममार्ग का नहीं । इसलिए प्रत्येक क्षण प्रत्येक काल में समत्व रूप से युक्त हो जाओ । “समत्त्वं योग उच्तयते" २/४८ । तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।" ८/७ की पुनरावृत्ति यहाँ के उत्तरार्ध को समझना चाहिए अतः विस्तृत व्याख्या भी वहीं देखना चाहिए । यहां योगयुक्त का अर्थ समाहित चित्त अर्थात सावधान में भी लिया गया है ।।२७।।
संबंध--- योगी की स्तुति…
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ।।८/२८।।
शब्दार्थ---- वेदाध्ययन, यज्ञ, तप और दान से भी जो पुण्यफल कहे गये हैं उनके इस रहस्य को जानकर योगी उनका अतिक्रमण कर सनातन परब्रह्म पद को प्राप्त करता है ।
तात्पर्यार्थ---- वेदाध्ययन से तात्पर्य अंगों सहित विधिवत अध्ययन करना, यज्ञ से तात्पर्य है राजसूय, अवश्वमेध, सोम आदि यज्ञ, एवं पंचमहायज्ञ, अग्निहोत्रादि नित्यनैमित्तिक कर्म, चान्द्रायण, कृच्छ्र चान्द्रायण, पंचाग्नि आदि तप, दान से षोडस अलंकारों से अलंकृत कन्यादान, भूदान, आवश्यकतानुसार, समयानुसार निरपेक्ष भाव से तत् तत् वस्तुओं का त्याग । इन सबका जो श्रुति शास्त्र द्वारा फल कहा गया है उन सभी के फलभोग का रहस्य क्या है ? इस रहस्य को जानकर अर्थात वह जान लेता है कि उपरोक्त पुण्यकर्मों का फल नाशवान और जन्म मृत्यु रूप चक्र में डालने वाला है ऐसा जानकर उपरोक्त कर्मों का अतिक्रमण कर जाता है अर्थात पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक तक के भोगों की कामना से उपरत अर्थात विरक्त होकर सर्वकर्मसंन्यास पूर्वक समत्वभाव में स्थित हुआ योगी जो सनातन, नित्य, शाश्वत स्वसंवेद्य परमपद है उसको प्राप्त करता है । ऐसा तात्पर्य है ।
इस प्रकार सर्वकर्मसंन्यास संपन्न योगी की स्तुति पूर्वक अष्टम अध्याय का उपसंहार हुआ ।।२८।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्ष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नाम अष्टमोऽध्यायः ।।
हरिः ॐतत्सत् ! हरिः ॐतत्सत् !! हरिः ॐतत्सत् !!!
🌹श्रीकृष्णार्पणमस्तु🌹
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