गीता मेराचिन्तन अध्याय ७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथ सप्तमोऽध्यायः
संबंध---- श्रीभगवान ने अभी तक त्वम् पदार्थ शोधन के अन्तर्गत पूर्व अध्यायों में कई बार सबको अपने में देखने की बात कही है । अर्जुन ने पांचवें अध्याय में संन्यायोग और कर्मयोग में से किसी एक को निश्चित करके कहने को कहा था, जिससे श्रीभगवान ने सांख्य और योग का विस्तार, योगभ्रष्ट की स्थिति, का वर्णन करते हुए पुनः समत्वभावापन्न योगी को ही श्रेष्ठतम कहा, तथापि मद्गतेनान्तरात्मना ६/४७ के द्वारा अन्तःकरण चतुष्टय का विलय करके श्रद्धापूर्वक आत्मभाव में स्थित होने की बात कही ।आत्मभाव मे स्थित होने पर वह योगी अपने आपको सर्वात्मा के रूप में कैसे देखे ? यह एक बहुत बड़ा विज्ञान है । अतः पूर्व में कहे गये त्वम् पदार्थ के ज्ञान का तत् पदार्थ के रूप में विज्ञान का अर्थात ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष न रहे, ऐसे ज्ञान और विज्ञान का प्रतिपादन किया जाता है......
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्र मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।७/१।।
शब्दार्थ---- श्रीभगवान बोले― मुझमें आसक्त मन वाले होकर तथा मेरा आश्रय लेकर योग का अनुसंधान करो । फिर जिस प्रकार संशय रहित योग अर्थात अभिन्न रूप से जानोगे वह सुनो ।
तात्पर्यार्थ---- जीव का सहज स्वभाव है कि कुछ भी करे कृत का अहंभाव होता ही है फिर भले वह आत्मभाव या एकत्व का ज्ञान ही क्यों न हो ? यह अहंभाव मानव के चरम लक्ष्य तक पहुंचने नहीं देता, इसीलिए परमात्मा का आश्रय अवश्य लेना चाहिए । उसकी भक्ति अर्थात उसके प्रति अशेष समर्पण अवश्य करना चाहिए । तभी वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा, इसीलिये श्रीभगवान कहते हैं कि पहली बात तो ये कि तुम्हारा मन इतना मुझमें आसक्ता हो जाये कि जहाँ कहीं जाये वहाँ मुझसे अतिरिक्त अन्य कुछ दिखे ही नहीं ।खाते, सोते, जागते, बात करते आदि हर समय हर परिस्थिति में मुझसे अतिरिक्त देखे ही नहीं । मन के द्वारा मेरा आश्रय अर्थात शरण ग्रहण करके फिर योग अर्थात मुझ समभावस्थ, सबका सूत्रात्मा की अभिन्न भाव से उपासना करे । ऐसी उपासना करके जिस संशय रहित ज्ञान को जानेगा वह मुझसे सुन । यहाँ श्रीभगवान का संशय रहित ज्ञान कहने आ तात्पर्य है कि जिस एक विज्ञान से सर्वविज्ञान हो जाता है, जिसके जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता, ऐसा जो ज्ञान है उसको समग्र अर्थात अशेष रूप से जैसे जानेगा वैसे सुनो । ध्यान रहे कि जब तक पूर्ण रूप से ब्राह्मीभाव में प्रतिष्ठा नहीं होती तब तक संशय रहता ही है । इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व अध्याय में कहे गये योग का अनुसंधान करते हुए जिस प्रकार ब्राह्मीतत्त्व में प्रतिष्ठित होगा वह सुन ।।१।।
संबंध---- पूर्व श्लोक में जिस ज्ञान को सुनने के लिए कहा उसी का स्पष्टीकरण.....
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।७/२।।
शब्दार्थ--- इस ज्ञान को तेरे लिए यहाँ पर अशेष रूप से विज्ञान के सहित कहूंगा, जिसे जानकर तुझे पर कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ पर द्वैताचार्य ने भी माना है कि मद्विषयक जो प्रकृति के संसर्ग रहित जो स्वरूप ज्ञान है वही विज्ञान है अर्थात मत् प्रत्यय आत्मबोधक है अर्थात आत्मा का जो प्रकृति के संसर्ग से रहित ज्ञान है, जो स्व-स्वरूप का ज्ञान है वही विज्ञान है । इसी विज्ञान को अशेष रूप से अर्थात जिसके कहने के पश्चात कुछ भी कहना शेष नहीं बचेगा उसी विज्ञान के सहित कहूंगा । इसका तात्पर्य यह है कि आत्मस्वरूप का परोक्ष रूप से जानना ही ज्ञान है और अपरोक्ष विज्ञान अर्थात परोक्ष और अपरोक्ष दोनो प्रकार का ज्ञान कहूंग । इसी अपरोक्ष विज्ञान को आचार्य शंकर अनुभव अर्थ करते हैं अर्थात जो परमात्म विषयक ज्ञान है, वह कोई सुनी सुनाई बात नहीं कह रहा हूँ, उसे जीवन में उतारने के बाद उसका जो अनुभव है, अनुभूति है, उसी अनुभूति को मैं अशेष रूप से अर्थात् बिना कुछ छिपाये जस का तस तुमसे कहूंगा । जिसको जान लेने मात्र से/अनुभूति कर लेने मात्र से कुछ भी जानना शेष नहीं रहता । ऐसा तात्पर्य है ।।२।।
संबंध---- यह ज्ञान कोई सामान्य ज्ञान नहीं है, कदाचित् किसी एकाध को प्राप्त होता है का उद्घोष.....
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ।।७/३।।
शब्दार्थ---- हजारों मनुष्यों में कोई एक ज्ञान की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है, उनमें भी कोई एक सिद्ध होता है और उन सिद्धों में भी कोई एक मुझे तत्त्व से जानता है ।
तात्पर्यार्थ---- मनुष्य-- मनुष्य का अर्थ द्वैताचार्य करते हैं कि जो शास्त्र का अधिकारी है वही मनुष्य है । शंका होती है कि शास्त्र का अधिकारी हो यहां पर भी शास्त्र का अर्थ वेदाधिकार तात्पर्य से लिया जा सकता है जो वर्णाधिकार से जातीयता में भी विभक्त होता है क्योंकि शास्त्र तो जैन बौद्ध कापालिक सभी के अपने अपने हैं, फिर शास्त्र मात्र कहने का क्या तात्पर्य हो सकता है ? तात्पर्य यही शास्त्र यानी वेद । तो वेदाधिकारी हो और क्रूर स्वभाव का हो, अजितेन्द्रिय हो, आततायी हो तो क्या उसे मनुष्य कहेंगे ? मात्र शास्त्राधिकारी त्रिवर्णीय ही यदि मोक्ष का अधिकारी है तो “.......पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।। ९/३२ का क्या होगा ? वेदों, उपनिषदों, इतिहास, पुराणों में जिन स्त्रियों, शूद्रों की मोक्ष प्राप्ति की बात आती है उसका क्या होगा ? जबकि भगवान रागद्वेषवियुक्तैस्तु २/६४, सुहृदं सर्वभूतानाम् ५/२९, सर्वभूतस्थमात्मानं ६/२९, सर्वभूतस्थितं यो मां ६/६१" इत्यादि कहते हैं इससे विरोध बैठता है । ऐसी स्थिति में वेदाधिकारी यानी त्रिवर्णीय ही मनुष्य का अर्थ कैसे लिया जा सकता है ? मनुष्य होकर भी श्रीभगवान की आज्ञा पालन करने वाला “सुहृदं सर्वभूतानाम्".अवश्य होना चाहिए । आचार्य शंकर ने मात्र शास्त्र की बात न करके मनुष्य में मनुष्यत्व होने की बात कही है----- दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रह हेतुकम् । मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष संश्रयः ।।
अर्थात आचार्य जी ने भी तीन विभाग किये और श्रीभगवान ने भी... १- सिद्धि के लिए प्रयत्नरत, २- सिद्धि प्राप्ति, ३- एवं तत्त्वज्ञ ।
श्रीभगवान की “सुहृदं सर्वभूतानाम्" आज्ञा का पालन करने वाला बिना साधन चतुष्टय के हो नहीं सकता । जिसमें साधन चतुष्टय है नहीं वह श्रीभगवान की आज्ञा का पालन कर ही नहीं सकता । अतः मनुष्य का अर्थ मनुष्यत्व हुआ, जो वेदाध्ययन, ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा परमात्मा को जानने की इच्छा वाले हैं “यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति ८/११" ऐसे “सुहृदं सर्वभूतानाम्" हजारों में कोई एकाध होते हैं । आजकल तो वह भी कहना कठिन है । उन हजारों प्रयत्नशीलों में से कोई एकाध सिद्धि प्राप्त करता है---- अर्थात वेदाध्यन, ब्रह्मचर्य आदि तप के द्वारा कोई विरला ही संशय-विपर्यय रहित परोक्ष आत्मैक्य भाव को दृढ़ कर पाता है ऐसा साधक योगी ही परोक्ष आत्मैक्य रूप सिद्धि को प्राप्त करता है । परोक्ष ज्ञान दृढ़ हो जाने पर भी परिच्छन्नता के भाव को समाप्त करने के लिए किसी महापुरुष का आश्रय लेकर--- अर्थात “यदक्षरं वेद विदो वदन्ति" ८/११ के पास जाकर तत्त्वमसि के उपदेश द्वारा परिच्छन्नता को समाप्त कर जीते जी जो तत्त्वतः जानकर आत्मैक्य रूप सिद्धि को प्राप्त करता है ऐसा उन परोक्ष सिद्धों मे से भी कोई एकाध ही होता है ।
यहाँ सहस्र का अर्थ हजार, दस हजार, लाख, दस लाख कुछ भी हो सकता है । यहाँ सहस्र शब्द प्रयत्नरत, प्रयत्न सिद्ध एवं तत्वज्ञ तीनों स्थानों पर सन्निहित कर लेना चाहिए । ऐसा तात्पर्य है । ७/३।
संबंध---- यहाँ तत्त्वज्ञानी की दुर्लभता बताकर अपनी अगले दो श्लोकों में अपनी अपरा और परा प्रकृति का वर्णन करते हैं.....
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनोबुद्धिरेव च ।
अहङ्कारं इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।७/४।।
शब्दार्थ----- भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश मन, बुद्धि एवं अहंकार इस प्रकार मेरी आठ भेदों वाली प्रकृति है ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ भूमि आदि पंचमहाभूतों के साथ उनकी सूक्ष्म पंच तन्मात्राएँ- क्रमशः गंध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द भी लेना आवश्य है क्योंकि कारण के बिना कार्य संभव नाम है । गंधादि कारण और भूमि अदि कार्य हैं । फिर मन और मन का कारण संकल्प (विकल्पात्मक अहंकार)एवं जिससे पंच तंमात्राओं का अनुभव एवं ग्रहण करेगा वे पंच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पंच कर्मेन्द्रियाँ,क्योंकि “इन्द्रियाणि दशैकं च" १३/५ स्वयं श्रीभगवान ने कहा है । फिर बुद्धि और उसका कारण समष्टि महत्तत्व, अहंकार और उसका कारणमूल प्रकृति अविद्या । इस प्रकार स्थूल सूक्ष्म २६तत्त्वों के समूह को आठ भेदों से कहा गया मेरी ही प्रकृति जान ।।४।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।७/५।।
शब्दार्थ---- हे महाबाहो ! इस प्रकार पूर्वोक्त मेरी अष्टधा प्रकृति को अपरा करके जान एवं अन्य अर्थात जिसने संपूर्ण जगत को धारण किया है उस जीवभूता को मेरी परा प्रकृति जान ।
तात्पर्यार्थ---- पूर्वोक्त श्लोक में अहंकार का अर्थ मूल प्रकृति अविद्या लिया गया है, जड़ प्रकृति के साथ जड़त्व की मूल अविद्या है, (इसी जड़ता से भिन्न चैतन्यता दिखाने के लिए “अन्य” का प्रयोग किया गया है) इसीलिये चैतन्य जीव के साथ विद्या का ग्रहण करना चाहिए । यहां ध्यान देने की बात ये है कि संपूर्ण जगत को धारण करने वाले को जीव को जीवरूपां न कहकर जीवभूतां कहा गया है । जिसका अर्थ है वह न जीव है न जीव रूप है बल्कि वह जीव भूत है अर्थात उसने सृष्टि के निमित्त जीवत्व को स्वीकार किया है । इसीलिए श्रीभगवान ने “अहमात्मा गुडाकेश" १०/१० “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि" १३/२ कहा है । अतः ब्राह्मीभाव से जीवभाव को स्वीकार करके फिर जिस साधन से अपने ब्राह्मी भाव को प्राप्त होगा वह शुद्ध विद्या अर्थात ब्रह्मविद्य को भी जीव के साथ ग्रहण करना चाहिए ऐसा तात्पर्य है ।।६।।
विशेष---- ७/४-५ इन दो श्लोकों में पंचीकरण का वर्णन है । इस पंचीकरण में तत्त्वों की संख्या पर विचार करते हैं---
कश्मीरी शैवागम पराप्रवेशिका में वर्णित तत्त्व--- १- शिव, २- शक्ति, ३- सदाशिव, ४-ईश्वर, ५- शुद्ध विद्या, ६- माया, ७-कला, ८-विद्या, ९- राग, १०- काल ११- नियति, १२- पुरुष, १३- प्रकृति, १४- बुद्धि, १५- अहंकार, १६- मन, १७- श्रोत्र, १८- त्वक् १९- चक्षु, २०- जिह्वा, २१- घ्राण, २२- वाक्, २३- पाणि, २४- पाद, २५- पायु, २६- उपस्थ, २७- शब्द, २८- स्पर्श, २९- रूप, ३०- रस, ३१- गंध, ३२- आकाश, ३३- वायु, ३४- अग्नि, ३५- जल, ३६- भूमि हैं । इनका विशेष वर्णन और लक्षण पराप्रवेशिका में देखना चाहिए ।
सांख्यदर्शन में पंच महाभूत, पंच तंमात्राएं, अन्तःकरण चतुष्टय, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियां, इस प्रकार २४ तत्त्व माने जाते हैं । और कुछ लोग पुरुष को मिलकर २५ तत्त्व भी मानते हैं । देखिए संख्य दर्शन ।
गीता ७/४ अष्टधा प्रकृति के अन्तर्गत २६तत्त्व एवं ७/५ के जीव और शुद्ध विद्या का सम्मिश्रण कर लिया जाये तो २८तत्त्व हैं ।
आचार्य शंकर ने पंचीकरण में में जो वर्णन किया वह देखते हैं---। ब्रह्म से अव्यक्त अर्थात तीनो गुणों की साम्यावस्था वाली मूल प्रकृति/अविद्या/माया उत्पन्न होती है । इस अविद्या में अहं भाव का स्फुरण होते ही तीनो गुण नौ भागों में विभक्त होते हैं----
१- तीन गुण-- सत्व, रज, तम ।
२- इनका लक्षण-- प्रकाश, प्रवृत्ति, मोह ।
३- इनका परिणाम-- ज्ञान, कर्म, द्रव्य ।
यह सब सत्वादि के क्रम से समझना चाहिए ।
गुणों का वैशम्य ही जीव को अलग अलग स्वभाव और व्यवहार सुनिश्चित करता है, इसीलिये “प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति" ३/३३ कहा । यह अविद्या मूल प्रकृति स्वयं तो कुछ कर नहीं सकती है, अतः जिसका आश्रय लेती है उसी का विषय करती है । अतः उसने ब्रह्म का ही आश्रय लेकर अर्थात् यहाँ यह समझना चाहिए कि प्रकृति के आश्रय लेने से जिसमें अहं का स्फुरण हुआ वही विराट् कहलाया, फिर विराट् के आश्रित होकर अविद्या ने गुणों का इस प्रकार विभाग किया....
सत्वगुण के सत्वांश से अर्थात सत्वगुण की प्रधानता से आत्मा, सत्वगुण की प्रधानता में रजोगुण अंश से ईश्वर, सत्वगुण की प्रधानता से तमोगुण अंश जीव की उत्पत्ति होती है ।
रजोगुण की प्रधानता से सत्वांश अन्तःकरण, रजोगुण की प्रधानता से रजः अंश से प्राण, रजोगुण की प्रधानता से तमोगुणांश इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है ।
तमोगुण की प्रधानता से सत्वांश देह, तमोगुण प्रधान रजःअंश से पंचमहाभूत, तमोगुण प्रधान तमोगुणांश से वृक्ष, पत्थर आदि की उत्पत्ति होती है ।
इसप्रकार अविद्या अर्थात अव्यक्त मूल प्रकृति जब गुणों का नौ प्रकार का विभाजन करके प्रकट होती तब सृष्टि का क्रम प्रारंभ होता है ऐसा समझना चाहिये ।
“त्रैगुण्यविषया वेदा" के अनुसार यही वैदिक त्रिगुणात्मक सृष्टि का क्रम है । इसीलिये इस त्रिगुणात्मक कार्य को समझाने के “गुणा गुणेषु वर्तन्ते" ३/२८ इत्यादि समझाते आये हैं । “निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन" २/४५ जो कहा था वहां पर यही तात्पर्य था कि काम्य कर्म भी प्राकृत और बांधने वाले हैं अतः तुम मेरी इस अष्टधा अपरा प्रकृति पर विचार करके “निस्त्रैगुण्यो भव" अर्थात तीनों गुणों से ऊपर उठ जाने का आदेश दिया ।
हम इन तत्त्वों को पुनः एक साथ देखते हैं..... ब्रह्म से मूल प्रकृति अविद्या या माया क्योंकि स्वयं श्रीभगवान भी आगे प्रकृति के स्थान पर माया कहते हैं “दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया"७/१४ । तो ब्रह्म से अविद्या और अविद्या का कार्य अहंकार , उस अविद्या से समष्टि महत्त्व एवं महतत्त्व का कार्य बुद्धि, समष्टि महतत्त्व से से संपूर्ण सृष्टि का मूल संकल्प और उसका कार्य मन उत्पन्न हुआ । (संकल्प प्रधान होने से ही मन को ही अहंकार का कार्य माना गया है) । उसी संकल्प से पंचतंमात्राएं उत्पन्न हुईं । उन तंमात्राओं को सूक्ष्म-स्थूल रूप से अनुभव एवं ग्रहण करने के लिए पंचज्ञानेन्द्रियां एवं पंचकर्मेन्द्रियां उत्पन्न हुईं । पंचतन्मात्राओं से पंचमहाभूत उत्पन्न हुए । इस प्रकार उनतीस तत्त्व होते हैं । इनका पुनः पुनः विभाग कैसे होता है पंचीकरण में देखें ।
तथापि... भिन्न भिन्न मतों को समन्वय भाव से समझकर त्रिगुणोपरि समभाव को प्राप्त होना ही लक्ष्य है । प्रत्येक सामान्य व्यक्ति इतना चिंतन नहीं कर सकता । अतः सामान्यतः व्यक्ति अपने संकल्प को अपने आप विलय करे । संकल्प का विलय होते ही सब कुछ स्वतः विलय को प्राप्त हो जायेगा । इसीलिये कहा “आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्" ६/२५ । संकल्प ही नहीं होगा तो बुद्धि अमन हो जायेगी और स्वतः स्थिर हो जायेगी, बुद्धि स्थिर होते ही शुद्ध विद्या स्वतः ही प्रकट हो जायेगी और आगे का मार्ग प्रशस्त करेगी । पहले इतना तो करो ।
👉ध्यान रहे अद्वैत परमार्थ है व्यवहार नहीं । "मायामात्रमिदं द्वैतं अद्वैतं परमार्थतः" अतः अभी जब तक खाने पीने और सुख दुख मान अपमान आदि का माया के द्वारा अनुभव होता है तब तक ईश्वर के चरणों में अपने आप को सर्वांग अर्थात मन बुद्धि सहित समर्पित करना देना ही भक्ति है, अपना आराध्य से भिन्न अस्तित्व न मानना ही भक्ति है अलग से कोई भक्ति नहीं । वासुदेवः सर्वं सर्वं वासुदेवः का लक्ष्य ही भक्ति है और यही अद्वैत की चरम सीमा क्या है ? और कैसे पहुंचना है ? कैसे आत्मैक्य होना है ? यह सब आपका आत्मसमर्पण ही सुनिश्चित करेगा । जब आप आत्मसमर्पण कर देंगे तो फिर "ददामि बुद्धियोगं तं" १०/१०,नाशयाम्यस्थ भावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता" १०/११ भी उनकी प्रतिज्ञा पालन करने की जिम्मेवारी हो जाती है । मित्थ्या "अहं ब्रह्मास्मि" का अहंकार किताबें पढ़कर और अनुभव हीनों से सुनकर न पालें । अपने आराध्य पर भरोसा रखना ही लक्ष्य प्राप्ति का पहला चरण है । ७/५।।
संबंध----दोनो प्रकृति के कार्य कहते हैं....
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ।।७/६
शब्दार्थ---- यह दोनो प्रकार की प्रकृति ही संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का हेतु है, एवं मैं ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति तथा प्रलय हूँ ।
तात्पर्यार्थ---- भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि पूर्व में जो हमने अपरा और परा दो प्रकार की प्रकृति कहा वह ही ब्रह्मा से लेकर स्तंब पर्यंत जो कुछ भी जड़ चेतन जगत है उसी से उत्पन्न होता है । चूंकि प्रकृति मुझसे उत्पन्न हुई है और उससे संपूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है, अतः सबकी उत्पत्ति का मूल अर्थात निमित्त कारण मैं ही हूँ । इसलिये सभी का उपादान कारण मैं ही हूँ । उपादन को ऐसे समझें--- जैसे मिट्टी है, उससे बहस प्रकार के घड़े बने तो मिट्टी जिस समय घड़े की उपाधि लेकर दिख रहे हैं उस समय भी मिट्टी, और जब घड़ा रूप उपाधि नष्ट हो गई उस समय भी मिट्टी ही है अर्थात जो स्वयं कार्य भी , कारण भी, वही उपादन कारण कहा गया है । अतः मैं ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति और विनाश अर्थात निमित्त और उपादन कारण हूँ ऐसा जान ।
भावार्थ---- छठे अध्याय तक “त्वम्" पदार्थ का शोधन हुआ, अब “त्वम्" पदार्थ की “तत्" पदार्थ के साथ एकीभूत होकर “तत्" पदार्थ के रूप में कैसे स्थित होना यह बता रहे हैं--- पहले तो पूर्व में कहे अष्टधा अपरा और उससे भिन्न परा प्रकृति को मिलकर संपूर्ण जगत को धारण करने वाला ज्ञान (यहाँ पर पंचीकरण के ज्ञान का स्पष्ट संकेत है) । इस प्रकार जब तू जान लेगा कि सृष्टि से पहले “एकमेवाद्वितीयं" के अतिरिक्त कुछ नहीं था तदैक्षत, एकोऽहं । बहुस्यां प्रजायेयेति" ऐसा स्फुरण ही उसकी तीनो गुणों की साम्यावस्था मूल प्रकृति उत्पन्न हुई जिससे “अहं" का स्फुरण हुआ । फिर उसने अपने तीनों गुणों को नौ भागों में विभक्त किया, जिससे यह संपूर्ण जगत उत्पन्न हुआ (तीनो गुणों के नौ विभाग ७/५के विशेष भावार्थ में देखना चाहिए ) । चूंकि उस ब्रह्म से पहले कुछ था नहीं और उसकी इच्छा मात्र से प्रकट हुआ अतः यह जगत उससे भिन्न नहीं है, स्वयं मैं भी । तो जिसने सृष्टि के आदि में संकल्प किया “तत्"--- वही मैं हूँ । संपूर्ण जगत का निमित्त उपादन कारण हूँ । मुझसे भिन्न कुछ नहीं है । क्योंकि “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि" १३/२ अर्थात क्षेत्रज्ञ तो वही है जो सृष्टि के आदि में “एकमेवाद्वितीयं" था । वही “बहुस्यां प्रजायेय" का संकल्प करने वाला ही है अन्य नहीं तो जब पहले कोई अन्य था नहीं तो अन्य क्षेत्रज्ञ हो कैसे सकता है ? अतः मैं वही “तत्" अर्थात सृष्टि संकल्प से पहले वाला और संकल्प के बाद इस रूप वाला मैं ही हूँ, इस प्रकार “त्वं" अर्थात विशुद्ध अकल्मष आत्मा का “तत्" अर्थात जो सृष्टि के आदि वाला है, के साथ एकत्व भावेन सबका निमित्त और उपादन करण अर्थात जन्म का हेतु और उनका विनाश भी मैं ही हूँ ऐसा जान ।।६।।
संबंध---- संपूर्ण जगत का आधार मैं कैसे हूँ यह बता रहे हैं....
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।७/७।।
शब्दार्थ---- हे धनञ्जय ! मुझसे पर अन्य कुछ भी नहीं है, यह सब मुझमें वैसे ही पिरोया है जैसे मणियां धागे में पिरोयी होती हैं ।
तात्पर्यार्थ---- द्विविध प्रकृति का वर्णन करके पूर्व श्लोक में संपूर्ण प्राणियों को धारण करने वाला सबका निमित्त उपादन कारण बताया । इस पर अगर कोई शंका करे कि “जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्" ७/५ अर्थात संपूर्ण जगत को धारण करनेवाला जीव है । “येन सर्वमिदं ततम्" २/१७ जो आत्मा इस संपूर्ण जगत में व्याप्त है । आपके इन वाक्यों के अनुसार आप ही संपूर्ण जगत के निमित्त उपादान कारण कैसे हो सकते हैं ? स्वयं आपने अपने से भिन्न अन्य के होने की बात स्वीकार की है, इसका निवारण करते हुए श्रीभगवान कहते हैं--- नहीं, मुझसे भिन्न अन्य कुछ है ही नहीं । न मुझसे भिन्न, न मेरे समान और न ही मुझसे अधिक ही “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" अर्जुन के शब्दों में “न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव" ११/४३। “न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते" श्वेता.उ. ६/८ अर्थात उसके समान और उससे अधिक कुछ नहीं दिखता है । अतः यदि कोई उस परमात्मा से भिन्न अन्य कोई भी सत्ता स्वीकार करता है तो वह श्रीभगवान के कथन “मत्तः परतरं नान्यत्" का ही खंडन करने का दोष अपने ही सिर पर लेता है । अतः उससे भिन्न कुछ है ही नहीं ।
तो फिर शंका होती है कि जब सब वह परमात्मा ही है तो दिखता क्यों नहीं है ? तो इसका उत्तर दिया “सूत्रे मणिगणा इव" धागे में मणियों के समूह पिरोये जाते हैं, मणियाँ दिखती हैं धागा नहीं । क्या कोई माला धागा न दिखने पर भी बिना धागा के होती है ? इसी प्रकार संपूर्ण चराचर जगत मणि समूह है और इनका जो आधार है वही सूत्र है । इसीलिये उस परमात्मा को सूत्रात्मा भी कहते हैं । शरीर में प्राण न दिखने पर भी प्राण की अनुभूति सभी को होती ही है । जल की शीतलता न दिखने पर भी होती है । इत्यादि आगे भी आयेगा । तो जैसे सभी चैतन्य शरीर प्राण रूप सूत्र में परोये हैं वैसै जड़ शरीर में भी, जल इत्यादि में रसादि रूप सूत्र में पिरोये हैं, भले न दिखे पर अनुभूति तो सभी को होती ही है । किन्तु रसादि के अभाव में इनके अभाव का भी अनुभव होगा । वैसे ही पृथ्वी से निम्न सप्त एवं पृथ्वी से ऊर्ध्व सप्त इस प्रकार चतुर्दश भुवनों का स्वामी मैं हूँ और मैं ही उन सबका सूत्रात्मा हूँ । हे धनञ्जय ! मुझसे अतिरिक्त कुछ नहीं है ऐसा जान ।
पुनः शंका हो सकती है कि वह सबका सूत्रात्मा है तो जान लिया लेकिन “सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म" “वासुदेवः सर्वम्" के अनुसार फिर भी विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो शरीरादि दिखाई दे रहे हैं वह तो उससे भिन्न ही सिद्ध हुआ । शरीर एक हो गया और प्राण एक हो गया । माला में सूत्र एक हो गया मणियाँ अलग एक हो गई । यह जो भिन्नत्व है यह तो पक्का द्वैत सिद्ध करता है । फिर “मत्तः परतरं नान्यत्" कैसे माना जाये ? इस शंका का समाधान यह है कि मणियाँ सोने की हैं और धागा भी सोने का है । सोने के धागे में सोने की मणियाँ पिरोई गई हैं । सोने का धागा और सोने की मणि से धागा और मणि उपाधि हटाकर दोनो स्थानों पर बचा हुआ सोना ही रहता है और सोना सोने से सदैव अभिन्न है जिस समय उपाधि युक्त है उस समय भी और उपाधि हटने पर भी । जिस समय तरंग, फेन दिख रहा है उस समय भी वह जल से अभिन्न ही है भिन्न नहीं । अतः मूल में जो “प्रोत" शब्द आया है उसमें “ओत" अन्वय कर लेने पर “ओतप्रोत" हो जायेगा अर्थात बाहर भी वही और भीतर भी वही होगा । उससे भिन्न और कुछ है ही नहीं । “वह" कौन ? “मत्तः" अर्थात मैं जो परब्रह्मस्वरूप परमात्मा सबका सूत्रात्मा हूँ । उसी “मयि" अर्थात उसी मुझ सूत्रात्मा में सभी ओतप्रोत हैं । मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है । मुमुक्षु इस प्रकार “त्वं" पदार्थ का "तत्" पदार्थ में विलय करके “तत्" पदार्थ के रूप में स्वयं को देखे । ऐसा तात्पर्य है ।
भावार्थ---- संपूर्ण चराचर जगत चूंकि परमात्मा से ही उत्पन्न हुआ है और उसी में चेष्टा करता है “अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्ते" १०/८ “यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्" १८/४६ अतः वह परमात्मा रूप ही है । साथ ही सूत्रात्मा (सूत्रे) से यह भी समझ लेना चाहिए कि जो आगे कहेंगे--- “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत" १३/२ इसमें सूत्रात्मा की क्षेत्रज्ञ अर्थात प्रत्येक जड़ चेतन के उस सूक्ष्म अंश को भी समझ लेना चाहिए जिसके बिना उस वस्तु का अस्तित्व ही न रहे । जैसे शरीर से प्राण, पृथ्वी आदि से गंधादि निकाल देने पर इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है इसी प्रकार आगे का आने वाला वर्णन भी यहीं समझ लेना चाहिए ।।७/७।।
संबंध---- “मत्तः परतरं" अपनी व्यपकता बताकर सभी जड़ चेतन में वह सूत्रात्मा रूप से कैसे स्थित है ? यह बता रहे हैं.....
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।।७/८।।
शब्दार्थ---- हे कौन्तेय ! जल में रस, चन्द्र सूर्य में प्रभा सभी वेदों में प्रणव, आकाश में शब्द, मनुष्य का पौरुष मैं हूँ ।
तात्पर्यार्थ---- परमात्मा सूत्रात्मा कैसे हैं इसका वर्णन करते हुए कहते हैं--- जल में रस मैं हूँ । यहाँ जल का अर्थ एक मात्र पानी नहीं है, क्योंकि हम भोजन करते हैं, फल खाते हैं, तो वहां भी तो रस है । जल का अर्थ है जिसका स्पर्श हमें शीतलता प्रदान करे और ग्रहण करने से तृप्ति प्रदान करे । ऐसी तृप्ति और स्पर्श शब्द से भी होता है । इसका अर्थ है कि जो द्रवीभूत करने की शक्ति है वह रस है और वह मैं हूँ । चंद्र सूर्य का प्रकाश मैं हूँ । "यदादित्यगतं तेजो...., यच्चन्द्रमसि..." १५/१२ ।
सृष्टि के आरंभ में शब्द ब्रह्म की सर्वप्रथम उत्पत्ति ॐ के रूप में होती है जिससे त्रिपदा गायत्री और त्रिपदा गायत्री से वेदत्रयी की उत्पत्ति होती है अर्थात वेदों का मूल ॐ साक्षात् मुझ परब्रह्म परमात्मा से उत्पन्न होने के कारण संपूर्ण वेदों का सूत्रात्मा प्रणव मैं ही हूँ । सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम होने वाले शब्द से आकाश की उत्पत्ति होती है अतः आकाश का मूल शब्द मैं ही हूँ ।
मनुष्यों का पुरुषार्थ मैं हूँ । यहाँ पर कुछ विद्वानों ने पौरुष का अर्थ किया कि जिससे स्त्री-पुरुष मिलकर जो संतान उत्पत्ति का हेतु है वही पौरुष है । इस पर द्वैताचार्य मौन हैं । आचार्य शंकर ने “मनुष्य का पौरुष मुझ ईश्वर में पिरोया है" ऐसा अर्थ किया जो “सूत्रे मणिगणा इव" के अनुसार गंभीरतापूर्वक सब कह देते हैं, जिसे जो समझना है वह समझे । यहाँ मूल में “पौरुषं" शब्द आया है । अपने यहाँ चार पुरुषार्थ माने गए हैं---धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष । किसी भी मोक्षार्थी का एक ही लक्ष्य होता है मोक्ष सिद्धि, क्योंकि मानव जीवन का यही चरम लक्ष्य है । अतः यहाँ धर्म और अर्थ नामक सिद्धि मोक्ष सिद्धि का बाधक होने से पौरुष का अर्थ बनता नहीं । अगर शंका हो कि मोक्षार्थी ऋषियों-मुनियों ने संतान उत्पत्ति के निमित्त जिस काम का उपभोग किया वही पुरुषार्थ यहाँ हो सकता है तो यह भी उचित प्रतीत नहीं होता (यहाँ पर किसी की टीका पर दोष देखना न समझकर यह समझना चाहिए कि शायद मेरा अधिकार इस बात को समझने में कम पड़ा रहा हो इसलिए मैं नहीं समझ सका तथापि हमारी जो समझ है उससे भिन्न लिख नहीं सकता), क्योंकि “धर्माविरुद्धो कामोऽस्मि" ७/११ आगे कहेंगे, जिससे पुनरुक्ति दोष प्रतीत होता है । अतः मेरी दृष्टि में यह अर्थ भी युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता है । इस प्रकार पूर्व के तीन पुरुषार्थ यहाँ युक्तिसंगत नहीं हैं । अब बचता है चौथा पुरुषार्थ मोक्ष । मोक्ष साक्षात् ब्रह्म है । मोक्ष और ब्रह्म में भेद नहीं किया जा सकता है । उस साक्षात् मानव जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के निमित्त अनवरत किया जाने वाला प्रयत्न ही पुरुषार्थ है, वह पुरुषार्थ और कोई नहीं मैं स्वयं मोक्ष का सूत्रात्मा सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा ही हूँ । अर्थात् व्यापक अभिन्नभाव ही पुरुषार्थ है और वह परमात्मा कृष्ण ही हैं । ऐसा भाव है ।।७/८।।
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।।७/९।।
शब्दार्थ----- पृथ्वी में पवित्र गंध, अग्नि में तेज हूँ । संपूर्ण प्राणियों का जीवन और तपस्वी का तप हूँ ।
तात्पर्यार्थ----- पृथ्वी में पवित्र गंध कहने का तात्पर्य है कि जो सहज, स्वाभाविक एवं सामान्य गंध है । अधिक सुगंध और दुर्गंध नैमित्तिक होते हैं, अतः अपवित्र है । अग्नि का तेज मैं हूँ । इस पर द्वैताचार्य मौन हैं । आचार्य शंकर ने अर्थ किया “प्रकाश" यच्चाग्नौ १५/१२ शंका होती है कि चंद्र सूर्य के प्रकाश के लिए “प्रभा" पीछे कह चुके हैं फिर यहाँ प्रभा न देकर एक ही अर्थ में भिन्न शब्द क्यों दिया ? तो तो इसका उत्तर यह है कि प्रभा का अर्थ केवल प्रकाश है, किन्तु यहां “तेज शब्द दिया गया है । अग्नि का तेज प्रकाश भी करता है “यच्चाग्नौ" १५/१२ और पचाता (जलाता) भी है इसलिए तेज कहा । यह तो स्वयं श्रीभगवान कह रहे हैं-- “अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापान समायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।। १५/१४ ।। वे परमात्मा ही वैश्वानर अग्नि रूप से संपूर्ण प्रणियों के द्वारा खाये गये अन्न को पचाते हैं । मृतक शारीरादि को पचाते हैं इतना ही नहीं प्रलयाग्नि रूप से प्रलयकाल उपस्थित होने पर संपूर्ण लोकों को ही पचा जाते हैं । इत्यादि । अतः यहाँ तेज का अर्थ प्रकाश और दाहिका शक्ति दोनो का ही ग्रहण है ।
संपूर्ण प्राणियों का जीवन मैं हूँ । जीवन कहते हैं जीवनी शक्ति अर्थात प्राण को । प्राण का निर्माण अन्न से होता है “अन्नं वै प्राणः" । अन्न साक्षात् ब्रह्म है “अन्नं वै ब्रह्म" इस प्रकार वह ब्रह्म ही संपूर्ण प्राणियों का प्राण अर्थात जीवनी शक्ति है । तपस्वियों का कृच्छ्र चान्द्रायण आदि व्रत, इन्द्रिय निग्रह, द्वन्द्वों को सहन करना आदि जो तप है वह तप मैं ही हूँ । इस प्रकार तत् भावापन्न मुमुक्षु अभिन्नता का अनुभव करे ऐसा तात्पर्य है ।। ७/९।।
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।।७/१०।।
शब्दार्थ---- हे पार्थ ! संपूर्ण प्राणियों का सनातन बीज, बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज मैं मुझे ही जान ।
तात्पर्यार्थ---- हे पार्थ ! संपूर्ण प्राणियों का सनातन बीज मैं हूँ, यहाँ सनातन कहने का तात्पर्य है कि जो नित्य है, कभी समाप्त न होने वाला अव्यय है “बीजमव्ययम्" ९/१८ इसी को “यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन" १०/३९ परमात्मा ही नित्य अव्यय है परमात्मा से ही सबकी उत्पत्ति होती है । अतः परमात्मा ही संपूर्ण प्रणियों का बीज है । बुद्धिमानों की बुद्धि हूँ कहने का अर्थ है कि बुद्धि तो जड़ होती है किन्तु जिस प्रकाश के संयोग से बुद्धि आत्मा का प्रकाश करती है उस सात्विक प्रकाश से युक्त जो बुद्धि है वह बुद्धि मैं हूँ । तेजस्वियों का तेज हूँ कहने का तात्पर्य है कि जिसके सम्मुख आते ही, देखते ही दुरात्मा भी गलत कार्य करने से रुक जाये, उसे गलत कार्य की हिम्मत न पड़े ऐसा जो सात्विक तेज है वह मैं हूँ ।।७/१०।।
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।७/११।।
शब्दार्थ---- हे भरतश्रेष्ठ ! काम राग से रहित जो बलवानों का बल है वह मैं हूँ, धर्म के अविरुद्ध काम मैं हूँ ।
तात्पर्यार्थ----- जो प्राप्त नहीं है उसकी इच्छा करना काम है, जो प्राप्त है उसमें आसक्त होना राग है । ऐसे काम और राग से रहित जो बल है वह मैं हूँ । जो “निर्योगक्षेम आत्मवान्" २/४५ कहा गया था उसकी पुष्टि होती है । अर्थात जब योगक्षेम से रहित होकर मात्र आत्मभाव में स्थित होकर जिस बल से शरीरादि की स्थिरता होगी वह आत्मबल मैं हूँ ।
यहां पर दूसरा भाव यह भी बनता है, कि जिस समय निर्योगक्षेम आत्मवान् होकर स्वधर्मानुसार जिस बल से युद्ध करेगा वह बल मैं ही हूँ, क्योंकि श्रीभगवान आगे कहेंगे “पाण्डवानां धनञ्जयः" १०/३७ श्रीभगवान काम, राग से रहित हैं, वे स्वयं को अर्जुन भी बता रहे हैं, अतः वे काम राग वाले हो ही नहीं सकते । ऐसा जो काम राग रहित होकर जिस बल से युद्ध में (संसार में नाना प्रकार के द्वन्द्व युद्ध ही हैं । इन द्वन्द्वों पर जिस बल से) विजय प्राप्त करेगा वह बल मैं ही हूँ ।
यहां पर शंका हो सकती है कि युद्ध बिना इच्छा के हो नहीं सकता । अतः युद्धेच्छा भी तो काम ही है....; तो इस पर कहते हैं नहीं, जिसे आप काम कह रहे हैं वह धर्म से अविरुद्ध होने के कारण कोई सांसारिक काम नहीं है, बल्कि यह काम साक्षात् मैं हूँ ।
धर्म के अविरुद्ध काम क्या है ? कहते हैं--- ब्राह्मणादि वर्ण, ब्रह्मचर्यादि आश्रम के अनुसार मानव मात्र इन्हीं दो स्थानों में ही कहीं न कहीं होगा । उस वर्ण आश्रम के अनुसार जो प्राणों को भी संकट में डालकर भी जो स्वाभाविक, सहज और स्वधर्म का पालन किया जाता है--- ब्रह्मचारी का स्वाध्याय भिक्षा आदि, गृहस्थ का पंचमहायज्ञ, मात्र संतानोत्पत्ति के निमित्त स्त्री संसर्ग आदि, वानप्रस्थ का पंचाग्नि, कृच्छ चान्द्रायण आदि भिक्षा पूर्वक, संन्यासी का सर्वकर्म संन्यास पूर्वक भिक्षादि की इच्छा जो शास्त्र विहित है, ब्राह्मणादि का नित्यनैमित्तिक कर्म आदि में प्रवृत्ति की की इच्छा ये सभी सहज, स्वाभाविक, और स्वधर्म है “श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः" ३/३५, १८/४७ “सहजं कर्म" १८/४८, कर्म नहीं हैं क्योंकि स्वकर्म से ही सिद्धि प्राप्त होती है “स्वकर्मनिरतः सिद्धिं।" अतः जिस कर्म या कामना से जिसके द्वारा कर्म में अपनी मर्यादा में स्थित होकर प्रवृत्त होता है “यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्" १८/४६ एवं जिस प्रवृत्ति की कामना से मुझ चिन्मय सच्चिदानन्दघनस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति रूप मानव मात्र को सिद्धि प्राप्त होती है “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः" १८/४६ हे भरतश्रेष्ठ ! वह काम काम नहीं है बल्कि वह तो साक्षात् मैं ही हूँ । ऐसा भाव है ।।७/११
संबंध---- “मत्तः परतरं" से उपक्रम करके "रसोऽहमप्सु" से "कामोऽस्मि" तक जिसका वर्णन किया ये सभी सात्विक भाव बताकर राजस तामस ये भी सभी मुझसे हैं किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ, इस बात का कथन....
ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ।।७/१२।।
शब्दार्थ---- जो भी सात्विक, राजस तामस भाव वाले हैं वे मुझसे हैं, मैं उनमें नहीं हूँ, वे ही मुझमें स्थित हैं ऐसा जान ।
तात्पर्यार्थ---- पूर्व में श्लोक ८-११ तक चार श्लोकों में जो अपनी विभूतियां बताया वे सात्विक अंश से बताया । तथापि “मत्तः परतरं नान्यत्" ७/७, “वासुदेवः सर्वम्" ७/१९, “सदसच्चाहमर्जुन" ९/१९ के अनुसार ब्रह्म ही सब कुछ है । वही सबका निमित्त उपादान कराण है “प्रभवः प्रलयस्तथा" ७/६ इसलिये राजस और तामस गुणों से जो जो जड़ चेतन जगत है वह भी मुझे ही जान । इस प्रकार सात्विक, राजस, तामस तीनों गुणों से जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है वह सब मुझसे ही उतपन्न जान । किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ वे ही मुझमें में हैं “सत्तन्नासदुच्यते"१३/१२ । कहने का भाव यह है कि ये संपूर्ण जगत मेरे आधीन है किन्तु मैं उनके आधीन नहीं हूँ । मैं परम स्वतंत्र हूँ । ऐसा भाव है ।। ७/१२।।
संबंध---- इस बात को मोहग्रस्त नहीं जानते हैं का कथन....
त्रिभिगुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ।।७/१३।।
शब्दार्थ---- यह जगत तीनों गुणों का विकार है, मोहग्रस्त मनुष्य जगत् से परे मुझ अव्यय को नहीं जानता ।
तात्पर्यार्थ---- श्रीभगवान मानो खेद प्रकट कर रहे हैं कि यह संपूर्ण जगत सत, रज एवं तम का विकार मात्र है, वस्तुतः है ही नहीं फिर भी कोई तो “सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञान सङ्गेन चानघ" १४/६, तो कोई राग द्वेष और तृष्णा के कारण रजोगुण से बंध जाता है १४/७, तो कोई आलस्य, प्रमाद के आधीन होकर १४/८ अपने को नष्ट कर देता है । वह मुझ सर्वात्मा को अर्थात तीनों गुणों के विकारों से रहित मुझसे अभिन्न अव्यय आत्मा को नहीं जानता जो साक्षात् मैं ही हूँ ।।७/१३।।
संबंध---- वह मुझ सर्वात्मा को क्यों नहीं जानता ? कहते हैं....
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।७/१४।।
शब्दार्थ---- क्योंकि त्रिगुणात्मिका मेरी दैवी माया दुर्लंघ्य है । जो मेरा चिन्तन करते हैं वे ही माया को पार करते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ माया को दैवी कहा गया है । जो देव (ईश्वर) संबंधित है वह दैवी और जो जीव संबंधित है वह अविद्या, माया के ये दो भेद दर्शाने के लिए ही दैवी कहा गया है । जैसे अविद्या नाना प्रकार के भ्रम उत्पन्न करती है, वैसे ही दैवी माया जगत रूप भ्रम उत्पन्न करती है । यही कारण है कि यह त्रिगुणात्मिका होने के कारण नाना प्रकार के सात्विक राजस तामस उत्पन्न करने के कारण अत्यंत दुर्लंघ्य है । इस माया से पार होने का एक मात्र मार्ग है “मामेव ये प्रपद्यन्ते" जो मेरी शरण ग्रहण करता है । यहाँ पर आचार्यों ने विभिन्न रूपों में प्रपद्यन्ते को अलंकृत किया है । द्वैताचार्य ने सीधे सगुण परमेश्वर की शरणागति से “प्रपद्यन्ते" अलंकृत किया है । हो भी सकता है तथापि अगले श्लोक में “माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः" कहा है । अर्थात् आत्मा और परमात्मा विषयक जो ज्ञान है वह माया के द्वारा हरण कर लिया गया है, अतः वे आसुरी भाव को प्राप्त हैं ऐसा कहा है । अतः सगुण साकार से संबद्ध “प्रपद्यन्ते" का अर्थ सटीक नहीं लगता है । यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि आसुर भाव कहा है जिसे इस प्रकार समझना चाहिए--- सत्वगुणभावापन्न देवता, रजोगुण भावापन्न असुर एवं तमोगुण भावापन्न राक्षस होते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि अगर अर्थ सगुण की शरणागति लिया जाता है तो आत्मा और परमात्मा में भेद स्वीकार करना पड़ेगा जिसे “पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् । वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसं ।।" १८/२१ यह शरणागति राजसी होगी, जबकि गीता का लक्ष्य है नित्यसत्व में प्रतिष्ठा “नित्य सत्वस्थो" २/४५,.और सत्व का अर्थ किया “सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ।।" १८/२० ।। इस आधार पर साकार की भेद दृष्टि के तात्पर्यार्थ में युक्तिसंगत नहीं दिखता है ।
फिर युक्तिसंगत क्या अर्थ होगा ? इस पर विचार करते हैं । आचार्य शंकरान्द जी “प्रपद्यन्ते" का अर्थ करते हैं जानना । श्रवण मनन के द्वारा मुझको ही अर्थात मुझ चिन्मय सर्वात्मा को जानना और जानकर फिर “प्रपद्यन्ते" का अर्थ किया “निदिध्यासन", अर्थात निदिध्यासन के द्वारा एकमेव आत्म भाव में ही, “एकमेवाद्वितीयं" में स्थित होना ही त्रिगुणात्मिका माया को पार करने का एकमेव साधन है दूसरा नहीं । अर्थात “तत्" पदार्थ का ही “त्वम्" पदार्थ में विलय करके तद्भावापन्न होकर माया को पार किया जा सकता है, ऐसा तात्पर्य है ।
आचार्य शंकर ने “मामेव" का अर्थ किया (अर्थात गीता के प्रवक्ता श्रीकृष्ण) मैं ही सर्वात्मा मायापति हूँ अतः “मामेव प्रपद्यन्ते" मेरी ही शरण ग्रहण करने पर मुमुक्षु माया को पार कर जाता है । यहाँ पर “त्वम्" पदार्थ का “तत्" पदार्थ में विलय किया गया है । हमको यही अर्थ ठीक लगता है, क्योंकि आगे अध्याय १२ भक्तियोग आयेगा जहाँ पर अनन्यता को प्राप्त करने के विभिन्न साधनों का वर्णन किया गया है । उसी का बीज यहाँ पर “त्वं" का “तत्" में विलय के रूप में दिखता है । जिसे हम इस रूप में समझ सकते हैं--- “तत्" का त्वं" में विलय के लिए चित्तशुद्धि हेतु श्रवण मनन निदिध्यासन एवं साधन चतुष्ट रूप नाना प्रकार के क्लेश सहना पड़ेगा ही । बड़ा क्लेश है “क्लेशोऽधिकतरं तेषां अव्यक्तासक्त चेतसाम्"१२/५, फिर जो यह कृत्य है, इस कृत्य से उत्पन्न हुआ जो ज्ञान है उसका यदि कहीं अहंकार उत्पन्न होगा, जो बड़े बड़े तत्त्वदर्शियों को भी हो जाता है तो और अधिक समस्या हो जायेगी ।
यहाँ पर जो "मामेव" कहा है इसी का "ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः" अर्थात जीव परमात्मा का अंश है, यह वस्तुतः जीव है ही नहीं क्योंकि श्रीभगवान कहते हैं "जीवभूतः" अर्थात यह माया का आश्रय लेकर जीवभूत अर्थात जीवभाव को स्वीकार किया है, जबकि यह सनातन अर्थात नित्य परमात्मा का अंश होने से जीवभाव को स्वीकार करने पर भी परमात्मा से अभिन्न नित्य अर्थात सनातन है । यह जो परमात्मा के गुण धर्म हैं उनका अंश होने के कारण उन्हीं के गुण धर्म से अभिन्न है । जिस समय यह ईश्वर भाव से जीवभाव स्वीकार करता है उस समय अपनी माया के दैवी अंश का त्याकर अविद्या के अंश को स्वीकार करता है । अविद्या के नाश से जीव-ब्रह्म "एकमेवाद्वितीयं" अर्थात एक होकर भी द्वीतीय की अपेक्षा रखने वाले एक से भी भिन्न संख्या रहित अद्वितीय हो जाता है ।
जीव अज्ञान के कारण ही त्रिगुणात्मक जगत को धारण करता है “ययेदं धार्यते जगत्" ७/६, "येन सर्वमिदं तत् २/१७, मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति" १५/७ अर्थात मन सहित छहों इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति की ओर आकर्षित हो गया है । जब इस प्रकृति के आकर्षण का त्याग करके मुझ सर्वात्मा की शरण में आ जायेगा । जब मुमुक्षु समझ लेगा कि “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि" १३/२ अर्थात क्षेत्रज्ञ एक मात्र परमात्मा है । अतः उनसे भिन्न क्षेत्रज्ञ मैं कैसे हो सकता हूँ ? इस प्रकार भिन्न क्षेत्र को जिसे “मैं" करके जानता है । उस सीमित क्षेत्रज्ञ का समर्पण व्यापक क्षेत्रज्ञ में कर देगा । यह समर्पण ही “प्रपद्यन्ते" अर्थात शरणागति है । इस समय श्रवण, मनन, निदिध्यासन, साधन चतुष्ट का क्लेश सहन नहीं करना पड़ेगा, क्योंकि जब सीमित अहंता का व्यापक अहंता के साथ एकत्व हो गया तो उस व्यापक अहंता का स्वरूप क्या है ? कैसा है ? यह जानने की क्या आवश्यकता है ? वह जैसा है और जो है वह वैसा ही, वही हो गया यही माया को पार करना है ।
जैसे हजारों घड़ो के जल में स्थित सूर्य का प्रतिबिम्ब भी सूर्य है तथापि घड़े वाले सूर्य को अपने और मूल सूर्य के विषय में जानने के लिए मात्र घड़ा और उसके जल से मोह छोड़ना होगा, मोह नष्ट होते ही घड़ा फूटा पानी बह गया तो सूर्य को आकाश के सूर्य के साथ वहीं एकत्व हो गया । अलग से न जानना पड़ा और न कहीं जाना पड़ा । इसी प्रकार हमें शरीर रूप घड़ा और संसारासक्ति रूप पानी का मोह त्यागकर अपनी सत्ता को उस सत्ता में विलय कर देना ही अर्थात “त्वम्" पदार्थ का “तत्" पदार्थ में विलय कर देना ही “प्रपद्यन्ते" अर्थात शरणागति है । इस प्रकार “ब्रह्मात्मैक्य" द्वारा ही दुस्तर माया को मुमुक्षु पार कर जाता है अन्य कोई मार्ग नहीं है ।।
भावार्थ--- त्वम् पदार्थ का तत् पदार्थ में विलय ही "मामेव ये प्रपद्यन्ते" का भाव है और यही माया से पार होने का एक मात्र साधन है ।।७/१४
संबंध---- नराधम मूढ़ मेरी शरण ग्रहण नहीं करते, इसका कथन....
न मां दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ।।७/१५।।
शब्दार्थ---- पापात्मा मूढ़ नराधम मेरी शरण ग्रहण नहीं करते, क्योंकि माया के द्वारा इनका ज्ञान हरण कर लिया गया है, ये आसुरी भाव के आश्रित आसुरी भाव वाले हैं ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ दुष्कृतिनो से तात्पर्य है जो भी जन्म-मृत्यु के हेतु कर्म हैं, फिर वे स्वर्गादि प्राप्त कराने वाले शास्त्रीय कर्म ही क्यों न हों वे सभी दुष्कृत हैं, इसका स्पष्टीकरण अगले श्लोक में “सुकृतिनो" से होगा । चोरी, डकैती, बलात्कार आदि जो भी असामाजिक एवं पाप कर्म करने वाले पापात्मा हैं वे नराधम हैं । अर्थात वे दिखते तो मनुष्य हैं लेकिन वे पशुओं से भी गिरे हुए हैं अतः वे नराधम हैं । जिनका ज्ञान--- अर्थात त्रिगुण रहित आत्मा-परमात्मा का विवेचन करने वाला श्रुति-शास्त्र संमत ज्ञान हरण कर लिया गया है, परमतत्त्व को श्रुति-शास्त्र द्वारा जानकर भी मात्र प्राणों के पोषण में लगे हैं एवं इन इन्द्रिय-प्राण पोषण करने वाले का आश्रय लेकर जो उन्हीं के भाव को प्राप्त हो गया है अर्थात इन्द्रियाराम हो गया है । ये सभी नराधम हैं । ये कभी मेरी शरण ग्रहण नहीं कर सकते ।
शंका हो सकती है कि “अपि चेत्सु दुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।९/३०।। अर्थात दुराचारी भी भगवान का भजन करने वाला साधु हो जाता है, ऐसा कहा है । इस पर कहते हैं कि पापात्मा कभी मेरी शरण में नहीं आ सकता, क्योकि “मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः” ।।९/१३।। ऐसे राक्षस और असुर ही हैं, मेरी मोहिनी प्रकृति के द्वारा खींच लिये गये हैं “बलादाकृष्य मोहाय" वे “विचेतसः" हो गये हैं, बिना चित्त वाले अर्थात मूर्छित हो गये हैं, बेहोश हैं, कोमा में चले गए हैं, वे कभी भी मेरी शरण ग्रहण नहीं कर सकते । तथापि “अपि चेत्" ९/३०ऐसा मान लिया जाये कि वह कदाचित् मेरी शरण में आ जाये तो वह निश्चित ही साधु है, धर्मात्मा है । और भलीभाँति मुझ सर्वात्मा में स्थित है ।
भावार्थ---- पाप करने वाला, मूढ़ अर्थात विवेकशून्य/विपरीत बुद्धि वाला, आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को श्रुति-शास्त्र से जानकर भी इन्द्रियाराम, और उन तीनों की संगति करने वाला ये चार प्रकार के लोग भगवान की शरण ग्रहण नहीं करते । अध्याय १६ का यह श्लोक बीज है ।।७/१५।।
संबंध---- फिर आपको कौन भजता है ? इस पर कहते हैं---
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।७/१६ ।।
शब्दार्थ---- हे अर्जुन ! चार प्रकार के भक्त मुझे भजते हैं वे, पुण्यकर्मा हैं-- आर्त जिज्ञासु, अर्थार्थी एवं ज्ञानी ।
तात्पर्यार्थ---- पूर्व श्लोक के दृष्कृतिनः अर्थात् अशास्त्रीय कर्मा के विरुद्ध जो सुकृतिनः है अर्थात् यज्ञ, दान, तप इत्यादि विभिन्न शास्त्रीय कर्मों को वेद और शास्त्र की मर्यादा का संरक्षण करते हुए कृच्छ्र चान्द्रायण आदि तप सहित संपूर्ण पूर्व और इस जन्म के पुण्यकर्मों के फलस्वरूप जब विवेक उत्पन्न होता है तब चार प्रकार से लोग मेरा भजन या चिंतन करते हैं । श्लोक क्रम में आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी एवं ज्ञानी है, विद्वानों ने व्याख्या भी वैसे ही की है तथापि “चैलाजिनकुशोत्तरम्" ६/११ का क्रम जैसे उल्टा अर्थात कुश, चर्म और वस्त्र है वैसे ही अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी क्रम कर लेना चाहिए । इनमें चूंकि पुण्य का प्रभाव है अतः आने वाली हर समस्या अपने आराध्य के सामने रखते हैं । संसार में सुख का केंद्र धन है इसके लिए संसार का आश्रय न लेकर ध्रुव की तरह भगवान का आश्रय लेने वाला अर्थार्थी है । चारों तरफ जीवन में अंधेरा छा गया हो जब संसार का कोई आश्रय न दिखे तब द्रौपदी, उत्तरा की तरह भगवान की शरण लेने वाला आर्त है, जब धन नष्ट हो गया हो, संसार का आश्रय समाप्त हो गया हो, संसार की अस्थिरता का ज्ञान होकर संसार से वैराग्य हो गया हो तब परमात्मा को जानने की इच्छा से गुरु श्रुति और शास्त्र द्वारा श्रवण, मनन, निदिध्यासन करने वाला जिज्ञासु भक्त है । ये तीनों प्रकार के भक्त तीनों में समाविष्ट भी हो सकते हैं एवं भिन्न भी । ये तीनो ही सकाम कहे गये हैं । ये सगुणोपासक हैं तथापि इनमें अर्थार्थी और आर्त मात्र सांसारिक कामनाओं से ग्रस्त हैं “भौगैश्वर्यप्रसक्तानां तयाऽपहृतचेतसाम्" २/४४ अतः इन्हें आसुरी भाव के अन्तर्गत समझना चाहिए “कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः" ७/२०, “आशापाश शतैर्बद्धाः" १६/१२ । जिज्ञासु यद्यपि सकाम है तथापि उसके भी दो भाग कर लेना चाहिए--- एक परमेश्वर की शरण में इसलिये गया है कि सांसारिक कामनाओं की पूर्ति होगी, भगवान के सहारे जीवन निर्वाह हो जायेगा, यह तो आसुरु संपत्ति वाला है, किन्तु जो उपसना तो साकार की करता है लेकिन लक्ष्य परमतत्त्व अभिन्नभाव की प्राप्ति पर है तो वह कामना कामना नहीं होती है, जैसे मां भी स्त्री होती है और पत्नी भी लेकिन मां के प्रति कभी स्त्रीभाव नहीं हो सकता है वैसे ही परम लक्ष्य की प्राप्ति की कामना कामना नहीं हो सकती । यही दैवी संपत्ति है । ज्ञानी जो स्वरूपतः तत्त्व में प्रतिष्ठित है “ते ब्रह्म विदुः" ७/२९, वे ब्रह्म को भलीभाँति जानते हैं अर्थात प्राप्त होते हैं । ऐसा तात्पर्य है ।।७/१६।।
संबंध---- ज्ञानी भक्त की महिमा....
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्महं स च मे प्रियः ।।७/१७।।
शब्दार्थ---- उन चारों में ज्ञानी एकनिष्ठ नित्ययुक्त होने से श्रेष्ठ है, क्योंकि मैं ज्ञानी के लिए अत्यंत प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है ।
तात्पर्यार्थ---- उन चारों में ज्ञानी ही अधिक प्रिय क्यों है ? यह बता रहे हैं--- पहली बात यह कि वह मुझमें नित्युक्त है अर्थात उसकी जो सतत ब्रह्माकार वृत्ति है वह सभी प्रकार के विकारों से रहित मुझ सनातन ब्रह्म में स्थिर हो गई है । वह एकभक्ति अर्थात मुझ एक सच्चिदानन्दघनस्वरूप वासुदेव के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, वह स्वयं भी नहीं है । उसके लिए “वासुदेवः सर्वम्" के अतिरिक्त कुछ और न होने से उसे मैं बहुत प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है । अगर शंका हो कि कितना अधिक प्रिय है तो कहते हैं “अत्यर्थः" अर्थ ये कहना कठिन है जितना कहा जायेगा उससे भी कहीं अधिक प्रिय है, अतः कह पाना संभव नहीं है, ऐसा तात्पर्य है ।।१७।।
संबंध---- शंका हो सकती है कि ज्ञानी अधिक प्रिय है, कितना अधिक प्रिय हो सकता है ? अन्य तीनों के साथ भेदभाव क्यों ? इसका समाधान करते हैं....
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्ततमा मामेवानुत्तमां गतिम् ।।७/१८
शब्दार्थ---- सभी भक्त उदार है, किन्तु ज्ञानी मेरी आत्मा ही है, क्योंकि जिससे उत्तम और कोई गति नहीं है, ऐसे मुझमें दृढ़तापूर्वक स्थित है ।
तात्पर्यार्थ---- सभी उदार होते हुए भी अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु ये सभी तो अन्तवाला फल चाहने के कारण अल्प बुद्धि वाले हैं “अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्" ७/२३ इसीलिये “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" ४/११ जिसकी जो कामना होती है पूर्ण करके स्वतंत्र हो जाता हूँ, किन्तु ज्ञानी तो बस “एक भक्तिः" ७/१७ मात्र एकनिष्ठ, मुझसे अतिरिक्त कुछ चाहता ही नहीं । इसीलिये वह मेरा आत्मा ही है, ऐसा मेरा मत है । आत्मा किसी भी प्राणी को कितना प्रिय हो सकता है ? इसका उदाहण महाराज श्री दिया करते थे---
एक बंदरिया थी उसका एक बच्चा था । बर्षा के कारण बाढ़ अधिक आ गई तो पास के मंदिर पर बच्चा लेकर चढ़ गई । बाढ़ और अधिक आ गई मंदिर डूब गया मात्र गुर्ज बचा । तो उसने बच्चे को सिर पर रख लिया । बाढ़ और अधिक हुई और बंदरिया के गले तक पानी पहुंच गया तो उसने बच्चे को नीचे कर दिया और स्वयं उसके ऊपर खड़ी हो गई । तो कहने का मतलब यह कि प्राणी को संसार की हर वस्तु प्रिय हो सकती है लेकिन प्राणों से अधिक प्रिय कुछ नहीं है । यही उपदेश छान्दयोग्योपनिषद में याज्ञवल्क्य जी ने गार्गी को दिया था कि आत्मा से बढ़कर प्रिय कुछ नहीं होता ।
आत्मा स्वभिन्न नहीं होता बल्कि वह स्वयं होता है । अर्थात श्रीभगवान ज्ञानी और स्वयं सच्चिदानन्दघन ब्रह्म इन दो रूपों में होते हैं । तो जब भगवान के विषय में ठीक से नहीं कहा जा सकता तो ज्ञानी के विषय में कैसे कहा जा सकता है ? पूर्व श्लोक में “अत्यर्थः" का यही भाव था ।
शंका होती है कि वह ज्ञानी आपका स्वरूप कैसे हो गया ? इस पर कहते हैं मैं अनुत्तम हूँ, मुझसे उत्तम और कुछ नहीं है ऐसे मुझसे उत्तम गति जिसके लिए अन्य नहीं है, ऐसी मुझ अनुत्तम गति में वह “युक्ततमा" अर्थात समाहित चित्त हो गया है । वह अब मुझसे भिन्न नहीं रहा, अभिन्न होकर “आस्थितः" अर्थात दृढ़तापूर्वक स्थित हो गया है, अर्थात सीमित अहंता व्यापक अहंता में समाहित हो गई है । व्यापक-व्याप्य भाव समाप्त हो गया है । त्वम् का तत् में विलय हो गया है, अतः वह स्वयं मैं ही हूँ भिन्न नहीं । मैं ही “वासुदेवः सर्वम्" हूँ । मैं ही ज्ञानी रूप में दिख रहा हूँ । मुझसे अभिन्न होने के कारण ही “ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम्" से ऐसा तात्पर्य है ।।१८।।
संबंध---- ज्ञानी की दुर्लभता का कथन.....
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।७/१९।।
शब्दार्थ---- ज्ञान के लिए बहुत जन्मों के प्रयत्न स्वरूप ज्ञानी वासुदेव ही सब कुछ है ऐसा जानने वाला महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ बहुत जन्मों के अन्त में कहने का तात्पर्य है कि जिस समय “वासुदेवः सर्वम्" अर्थात वासुदेव ही सब कुछ है ऐसा देखता है वह उसका अन्तिम जन्म होता है । इसका मतलब है कि पहले के ज्ञान के लिए किये गये सतत अनेक जन्मों के जिन प्रयत्नों के फलस्वरूप यह अन्तिम जन्म मिला उन जन्मों की गणना करना कठिन है । उन अनेक जन्मों की निरंतरता के कारण इस अन्तिम जन्म में मुझे तत्त्व से जान पाया है । यहाँ पर “मां प्रपद्यते" में “माम्" का अर्थ सर्वात्मा ब्रह्म और प्रपद्यते का अर्थ है भलीभाँति जानना । अर्थात इस अन्तिम जन्म में मुझे भलीभाँति तत्त्वतः जानता है । वह कैसे जानता है ? इस पर कहते हैं “वासुदेवः सर्वम्" जो कुछ भी है साक्षात् वासुदेव ही है । “वासुदेवः सर्वम्"--- “सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म" का अनुवाद है । “इदं" एवं “सर्वम्" ये बाहर और भीतर सर्वत्र समझ लेना चाहिए । तत्त्वतः जानने का अर्थ है सीमित अहंता को व्यापक अहंता के रूप में जानना ।
हमारी समस्या तब बढ़ जाती है जब हम श्रुति-शास्त्र के अनुभवों की अनदेखी करने लगते हैं । अब कहा “वासुदेवः सर्वम्" तो आपने सबको वासुदेव मान लिया, अपने को नहीं । यह तो भगवान ने कहा नहीं कि आपको छोड़कर बाकी सब मैं हूँ....! अगर नहीं कहा तो तो सबको वासुदेव मान लिया अपने को क्यों नहीं माना ? फिर वासुदेवः सर्वम् कैसे हुआ ? इसके अतिरिक्त देखिये--- “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" ७/७ यहाँ पर कहा मुझसे भिन्न अन्य नहीं है लेकिन यह भी संभव था कि मुझको छोड़कर अन्य कुछ भी श्रीभगवान से भिन्न नहीं है, इसीलिये कहा “किञ्चित्" अर्थात कुछ भी ऐसा नहीं है जो मुझसे भिन्न हो, इस जगत का निमित्त उपादन कारण मैं हूँ और आप भी जगत से भिन्न न होने के कारण मुझसे भिन्न नहीं हो, द्विविधा प्रकृति मुझसे अभिन्न है इसलिये आप भी मुझसे भिन्न नहीं हो ।
आप जीवन धारण करते हो ? तो “जीवनं सर्वभूतेषु" अर्थात प्राणियों के जीवन का मूलभूत गुण प्राण मैं हूँ । प्राणों का मूल अन्न मैं हूँ “अन्नं वै प्राणः" । अन्न का मूल ब्रह्म मैं हूँ “अन्नं वै ब्रह्म" । अन्न से ही जीवन धारित होता है और वह अन्न मैं हूँ तो तुम मुझसे भिन्न कैसे हो गये ? इस शरीर को धारण करने वाली आत्मा मैं हूँ “अहमात्मा" १०/२० “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि" १३/२ तुम जो अपने को जानने वाला मानते हो वह कोई और नहीं मैं स्वयं वासुदेव हूँ ऐसा जानो ।
इस पर एक द्वैतवादी मित्र ने कहा कि इस शरीर में जानने वाले दो हैं । एक जीव और दूसरा आत्मा । जीव मात्र मन, बुद्धि, शरीर सहित संसार को जानता है और ईश्वर इस संसार सहित जीव को भी जानता है । अब इनसे पूछा जाये कि जीव अगर मात्र बुद्धि शरीर सहित संसार को ही यदि जानता है तो उसने कैसे जाना कि कोई ईश्वर है ? और अगर वह जानता है कि कोई ईश्वर है उसे प्राप्त करना चाहिए तो अनजान वस्तु के लिए मन में कल्पना भी नहीं हो सकती है तो प्राप्ति की बात कैसे की जा सकती है ? इसका मतलब जिसे आप जीव कह रहे हैं वह ईश्वर को भी जानता है, जानता है तो किस रूप में जानता है ? यदि जीव ईश्वर को जानता है तो ईश्वर व्याप्य और जीव व्यापक होगा और यदि ईश्वर जीव को जानता है तो जीव व्याप्य और ईश्वर व्यापक होगा । दोनो व्याप्त व्यापक हो नहीं सकते अतः आप कैसे कह सकते हैं कि ईश्वर ही जीव को जानता है जीव नहीं । आपकी ही बात से आपकी बात की हानि हो रही है । फिर श्रुति-शास्त्र सिद्धांत को चोट पहुंचे तो क्या आश्चर्य ?
अतः आप जीव को ही व्याप्य कहेंगे ये स्वाभाविक है । अब विचार करो कि व्याप्य का अस्तित्व क्या है ? घड़ा है, जिस समय घड़ा दिख रहा है उस समय भी वह मिट्टी ही है क्योंकि घड़ा बनने से पहले भी मिट्टी ही थी और घड़ा बनने के बाद भी वह मिट्टी ही है । अगर आप घड़ा और मिट्टी अलग मानते हो तो हम कहते हैं घड़े से मिट्टी अलग करके फेंक दो और घड़ा ले जाओ । तो घड़ा बचेगा ? नहीं न ? इसी प्रकार जीव व्याप्य है ईश्वर व्यापक है, ईश्वर से भिन्न कोई जीव नहीं है क्योंकि व्याप्य व्यापक से भिन्न नहीं हो सकता । जीव प्रकाश्य है ईश्वर प्रकाशक है । जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ज्ञान गुन धामू ।। सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ।। सब कर परम प्रकाशक कहने का भाव यह है कि जो द्विविधा प्रकृति भगवान ने बताया उसमें अपरा अर्थ जड़ का प्रकाशक परा अर्थात जीव है और और इन दोनों का प्रकाशक ब्रह्म है जैसा कि “अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा । ७/६ ।
भगवान कहते हैं “जीवभूतां" ७/५ वह जीव है नहीं जीव भाव को प्राप्त हुआ है, उसने जीवत्व रूप उपाधि को स्वयं स्वीकार करके व्यापक अहंता का त्याग करके सीमित अहंता को स्वयं स्वीकार करके स्वयं को बांध लिया है । जब मुक्त होना चाहेगा तब सीमित अहंता को व्यापक अहंता में हवन करके, “त्वम्" पदार्थ का “तत्" पदार्थ में लय करके “अहमात्मा" १०/२० के रूप में अपने आपको देखेगा । वह स्वयं सबका एक मात्र क्षेत्रज्ञ होगा । वह “वासुदेवः सर्वम्" के रूप में अपने आपको देखेगा । अर्थात वह मुझसे अभिन्न अपने को सर्वत्र मुझ व्यापक सर्वात्मा के रूप में जानेगा । वासुदेवः सर्वम् का यही भाव है ।
इस प्रकार जिनकी सीमित अहंता व्यापक अहंता से अभिन्न हो गई है वही महात्मा है और ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है ।।१९।।
संबंध---- शंका बनती है कि ऐसे जन्म-मृत्यु रूप संसार सागर को पार करने वाले उस परम तत्त्व को अभिन्न रूप से क्यों नहीं भजते ? इस पर कहते हैं....
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।।७/२०।।
शब्दार्थ---- उन उन कामनाओं के द्वारा आत्मा-अनात्मा का विवेक करने वाले ज्ञान का अपहरण कर लिये जाने के कारण ही अन्याय देवताओं की शरण लेते हैं । उन उन अपने स्वाभाविक किये गए नियमों में स्थित हो जाते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- इस प्रकार ज्ञानी भक्त की महिमा का गान करके अब अर्थार्थी, आर्त एवं जिज्ञासु जो सकाम भाव से भजन करते हैं, उनके विषय में कहते हैं कि वे मेरी शरण ग्रहण क्यों नहीं करते ? क्योंकि इनका जो नीर-क्षीर की भाँति सदसद् निर्णय करने वाला जो विवेक है उसका कामनाओं ने अपहरण कर लिया है । किसी को धन चाहिए, किसी को मान बड़ाई, पुत्र पौत्रादि चाहिए, तो किसी को गौशाला, स्वर्गादि लोकों की कामना है । जैसी जैसी कामना होती है वैसे वैसे देवता की शरण ग्रहण करता है, जैसे जैसे देवता की शरण ग्रहण करता है वैसी वैसी उनकी बुद्धि उन उन नियमों करते स्वतः समाहित होकर स्थिर हो जाती है । पूर्व के “माययापहृतज्ञाना" ७/१५ के स्थान पर यहाँ “कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः" समझ लेना चाहिए ।।७/२०।।
संबंध---- आगे कहते हैं....
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।७/२१।।
शब्दार्थ---- जो जो जिस जिस शरीर (देवता) का भक्त श्रद्धा पूर्वक अर्चना करने की इच्छा करता है उस उस में उसकी श्रद्धा को अचल कर देता हूँ ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ पर तनुम् मूल शब्द है । इसका अर्थ एक मात्र देवता नहीं हो सकता है । तनुम् अर्थात शरीर अर्थात खंडभाव, सीमित भाव के अन्तर्गत समझना चाहिए । शैव का शिव, वैष्णव का विष्णु, शाक्त की देवी, गाणपत्य का गणपति, सौर का सूर्य इन सभी रजोगुण प्रधान कामनाओं की पूर्ति के लिए भक्ति पूर्वक उपासना करते हैं । अध्याय २/४१-४४ तक जिन कामनाओं का वर्णन आया है वे सभी कामनाएं “काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः" ३/३७अर्थात रजोगुण से उत्पन्न होती हैं । क्रोध शब्द तमोगुण का प्रतिनिधित्व करता है, अतः “तनुम्" से ब्रह्मराक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, यक्षिणी आदि को भी लेकर तमोगुण का रजोगुण के साथ अध्याहार कर लेना चाहिए । मंदिर आदि में मूर्ति पूजा को भी रजोगुण, विशेषतः तमोगुण के ही अन्तर्गत समझ लेना चाहिए, तथापि रजोगुणात्मक ही चर्चा करेंगे ।
हम विभिन्न कामनाओं के कारण शिव, विष्णवादि को भिन्न दृष्टि से देखते हैं, अतः वह देवता सीमित अहंता के अन्तर्गत हो जाता है । शास्त्रों में वर्णित उसके व्यापक स्वरूप पर हमारा ध्यान जाता ही नहीं है । बस सांसारिक कामना की प्राप्ति, उसके लोक की प्राप्ति ऐक मात्र लक्ष्य होता है । उदाहरण के लिए ब्राह्मण के लिए गायत्री अनिवार्य है, लेकिन वह गायत्री आदि को छोड़कर दुर्गा, काली, हनुमान, राम, कृष्ण आदि की आराधना में लग जाते हैं, क्यों ? अपनी कामनाओं के कारण । अगर गायत्री का वैदिक विचार करें कि मंत्र का देवता कौन है ? आप कहेंगे सूर्य । फिर प्रश्न उठता है सूर्य क्या है ? यह जो अग्निपिण्ड आकाश में दिख रहा है या कुछ और ? उत्तर की खोज करने पर श्रुति प्रतिपादित परमाद्वैत की प्राप्ति होती है, किन्तु वह अपना स्वधर्म से प्राप्त नित्य नैमित्तिक कर्म का त्याग करके अपनी कामनाओं के कारण शिव विष्णु दुर्गा आदि में रम गये क्योंकि--- “माययापहृतज्ञाना" ७/१५, “कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः" ७/२० यही मेरी माया है “मम माया दुरत्यया" ७/१४ ।
इतना ही नहीं स्वयं श्रीकृष्ण को भी “अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः" ७/२४ मुझ अव्यक्त को भी ये बुद्धिहीन लोग साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला, पत्थर की मूर्ति वाला, वृन्दावन वाला मान कर मेरा ही हनन कर देते हैं । ऐसे लोग “राक्षसीमासुरीं चैव" ९/१२ राक्षस और असुर ही हैं । “एव" ऐसे सकामी कर्मियों के लिए आया है जो रजोगुण संपन्न शिव विष्णवादि को भी अपनी कामनाओं के कारण खंडित करके हनन कर देते हैं, वे निश्चय ही शिव विष्णवादि की आराधना करने वाले रजोगुण प्रधान असुर और ब्रह्मराक्षस, यक्षिणी आदि की आराधना करने वाले तमोगुण प्रधान राक्षस ही हैं, यही सुनिश्चित किया है ।
ऐसे असुर राक्षस भावापन्न सकामी कर्मी जिस जिस कामना से जिस जिस देवता के प्रति समर्पित होकर श्रद्धा पूर्वक आराधना करने की इच्छा करता है, उस उस के प्रति मैं उन उन साधकों की बुद्धि को मैं स्थिर कर देता हूँ ।
यहाँ श्रीभगवान स्वयं ही उस उस देवता में बुद्धि स्थिर करने की बात कह रहे हैं, क्योंकि यह जगत उस एक मात्र ब्रह्म से उत्पन्न है जो इस सृष्टि से पूर्व में था । फिर बहुत होने की इच्छा करके बहुत हो जाता है फिर वह उसमें प्रवेश कर जाता है ऐसा श्रुति विदित है । यहाँ भी “अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा" ७/६ “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" ७/७ एवं “बीजं सर्वभूतानाम्" ७/१०कहा है । मैं ही संपूर्ण जगत के बीज और बीज में अंकुरित होने की शक्ति हूँ । इसी प्रकार तत्तत् देवता हैं और उनमें जो तत्तत् फल प्राप्त कराने की जो शक्ति है वह भी मैं ही हूँ । अर्थात वे जड़ प्रकाश्य और मैं चैतन्य प्रकाशक हूँ । मुझसे वे भिन्न नहीं हैं तथापि अल्पबुद्धि वाले “तद्भवत्यल्पमेधसाम्" ७/२३ हैं इसलिये इनमें कामनाओ के कारण भेद दृष्टि उत्पन्न हो गई है । इससे मुझे कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है, क्योंकि “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" ४/११ अतः उनकी श्रद्धा उनकी इच्छानुसार ही तत्तत् देवता में स्थिर कर देता हूँ ।।७/२२।।
संबंध---- मेरी प्रदान की हुई श्रद्धा द्वारा....
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ।।७/२२
शब्दार्थ---- वह उसी श्रद्धा से युक्त होकर उन उन देवताओं की आराधना करते हैं एवं फिर मेरे द्वारा ही जो कामनाओं का फल निश्चित किया गया है उसे प्राप्त करते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- सबके मूल में श्रीभगवान ही हैं अतः श्रद्धा भी भगवत् प्रदत्त है, देवता भी वही, फलदाता भी वही, किन्तु कामनाओं के कारण भेद दृष्टि होने से उन उन कामनाओं की पूर्ति मैं ही करता हूँ तथापि वह फलदाता मैं ही हूँ इस बात को न जानकर उन उन देवताओं को फलदाता मानते हैं ।।२२।।
संबंध---- ऐसे भेदवादी अल्पबुद्धि हैं, इसका कथन.....
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्तः यान्ति मामपि ।।७/२३।।
शब्दार्थ---- अल्पबुद्धि वाले उन भेदोपासकों का फल भी अन्तवाला होता है । देवता की उपासना करने वाले देवता को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझको प्राप्त होते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- भेदवादियों को अल्पबुद्धि या कच्ची बुद्धि वाला श्रीभगवान कहते हैं । कच्ची बुद्धि यानी बच्चा, जैसे--- बच्चा अगर चाकलेट के लिए मचल गया तो वह चाकलेट ही लेगा, अन्य कुछ लेगा ही नहीं । ऐसे ही कामनाओं के आधीन रहने वाले भेदवादी हैं । जैसे आतंकवादी किसी का अपहरण कर ले तो वह अपहर्ता के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता । वैसे ही भेदवादी काम के आधीन हैं । उन्हें इस लोक का ऐश्वर्य चाहिए, स्वर्गादि परलोक चाहिए । सब कुछ “स्व" से भिन्न चाहिए तो मोक्ष कैसे होगा ? कहते हैं “सगुणोपासक मोक्ष न लेहीं" सगुणोपासक मोक्ष की कामना नहीं करता । जब मोक्ष की कामना नहीं करता तब “तिनकहुं राम भगति निज देहीं" यहाँ पर भक्ति भगवान दे रहे हैं । यह बात ठीक है लेकिन आप भक्ति जानते भी हैं या रट्टू तोता की तरह मात्र रट लिया है ? भक्ति का स्वरूप जानना है तो हठधर्मिता का पहले त्याग करना होगा बच्चों की चाकलेटी अर्थात भेदबुद्धि का त्याग करना होगा तब गीता में भक्ति क्या है का ज्ञान होगा । भगवान अपनी भक्ति दें वह भी भेदवादी ? यह कैसे संभव हो सकता है ? क्योंकि श्रीभगवान कहते हैं--- “दादामि बुद्धियोगं तम्" १०/१०, “ज्ञानदीपेन भास्वता" १०/११ अर्थात ज्ञानयोग देने की बात यहां कह रहे हैं और आगे कहते हैं “भक्तिं मयि परां कृत्वा" १८/६८ अगर एक जगह ज्ञान देने की बात कर रहे हैं जो अभेद दर्शन कराता है तो दूसरी तरफ अ. १२ में भक्ति जैसा भेद का वर्णन क्यों ? “भक्तिं मयि परां कृत्वा" क्यों ? क्या श्रीभगवान भांग के नशे में थे ? जो पहले अभेद और फिर भेद का वर्णन करके अपना ही खंडन कर रहे हैं ? इसका अर्थ है कि भगवान जो भक्ति स्वयं देते हैं उसका स्वरूप कुछ और ही है और हम समझ कुछ और रहे हैं । वस्तुतः भक्ति का जिसे ज्ञान और विज्ञान पता है वह भेदवादी नहीं हो सकता है । क्योंकि भेद अल्पफल वाला है, विष्टाद्वैत में भी दीर्घकाल के पश्चात भक्त का जन्म माना गया है, भले वह बहाना लीला का हो या अन्य । क्योंकि “क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति" ९/२१ इसीलिये श्रीभगवान भेदवादी को अल्पबुद्धि, कच्ची बुद्धि, चाकलेटी बच्चा बुद्धि कहते हैं और वह अपनी अपनी भावना के अनुसार उन उन देवताओं को प्राप्त करता है
किन्तु मेरा भक्त मुझको ही प्राप्त होता है यहाँ पर “मद्भक्त" का अर्थ आत्मा से अभिन्न सर्वात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप ही है न कि साढ़े तीन हाथ वाला का शरीर या कृष्ण नामधारी मूर्ति । भगवान पहले ही कह चुके हैं “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" ७/७ “वासुदेवः सर्वम्" ७/१९ और आगे “अहमात्मा" १०/२० “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि" १३/२ कहेंगे । ऐसा जो आत्मा से अभिन्न मुझे जानता है वह मुझको ही प्राप्त करता है ।
भावर्थ---- सगुणोपासक को जब परा भक्ति प्राप्त होती तब अभिन्नाभावापन्न होता है, अतः मोक्ष की कामना संभव ही नहीं है । वह मोक्ष लेगा क्या, मोक्ष की कामना के लिए पहले भिन्न भाव होना आवश्यक है । शंका उठती है कि फिर सगुणोपासक के मोक्ष न लेना का क्या तात्पर्य है ? तो इसका उत्तर यह है कि वह जानता है कि सगुणोपासना की भेदबुद्धि मोक्ष का बाधक है, किन्तु जब हमें स्वतः मोक्षस्वरूप सर्वात्मा ही प्राप्त हो रहा है तो फिर अलग से मोक्ष की कामना करके भेदबुद्धि क्यों करना ? अर्थात मोक्ष को आराध्य से भिन्न नहीं मानता और आराध्य को अपने से भिन्न नहीं मानता तो अलग से मोक्ष प्रश्न ही नहीं उठता । कहते हैं कि श्रीराम जी के पूछने पर हनुमान जी ने कहा--- शरीर दृष्टि से आप स्वामी मैं सेवक हूँ और आत्म दृष्टि से जो आप हो वही मैं हूँ । यही अभिन्नभाव है, और व्यवहार भी बाधक नहीं है यही स्वामी सेवका भाव है । इसी को कहते “मायामात्रमिदं द्वैतं अद्वैतं परमार्थतः" अर्थात जहाँ तक दृश्य जग जगत है वहाँ तक सब अनित्य “यद्दृश्यं तदनित्यम्" जो उपाधि रूप दृश्य है वह अनित्य है यही माया है, अद्वैत परमार्थ है व्यवहार नहीं । स्वामी सेवक भाव माया/व्यवहार में ही होता परमार्थ में नहीं । इसी को श्रीदक्षिणामूर्ति स्तोत्र में कहा--- विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसंबन्धतः" । जैसे मिट्टी और मिट्टी का घड़ा, इसमें कारण-कार्य भाव है । मूलतः मिट्टी ही घड़े का कारण है, बिना मिट्टी के घड़ा नहीं हो सकता, किन्तु जब जल भरना होगा तब कोई यह नहीं कहेगा कि मिट्टी में जल भर दो, फिर व्यवहार उसी मिट्टी का घड़े रूप में ही होगा जबकि दोनो स्थितियों में मिट्टी ही है, वैसे संसार में स्वामी सेवक भाव है परमार्थ में नहीं, परमार्थ तो एक अखंड सत्ता का नाम है, इसलिये अलग से मोक्ष हो कैसे सकता है ? इस रहस्य को पराभक्ति को प्राप्त कोई विरला ही जानता है । जो जानता है वह मोक्ष की कामना नहीं करता ।
ज्ञानी जब ज्ञान सिद्धि की चरमावस्था में होता है तब उसकी दृष्टि में बंधन ही नहीं होता तो मोक्ष कैसे होगा ? पहले बंधन होना चाहिए तब तो मोक्ष होगा । मोक्ष का वर्णन तो औषधि में शहद मिलाने के सामान है । इस बहाने संसार रूप रोग को दूर करने के लिए परब्रह्म रूप औषधि को मोक्षरूप शहद के कारण ग्रहण कर लेगा यह साधनावस्था है सिद्धावस्था नहीं है ।।२३।।
संबंध---- मुझ अव्यय को बुद्धिहीन नहीं जानते....
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजान्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।७/२४।।
शब्दार्थ---- बुद्धिहीन लोग मुझ सर्वश्रेष्ठ परमतत्त्व के भाव को न जानते हुए मुझ अव्यक्त को व्यक्त हुआ मानते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- यह श्लोक परमेश्वर के समग्र रूप का वर्णन करता है । तथापि कुछ द्वैतवादियों का मत संक्षेप में प्रस्तुत करता हूँ । एक द्वैतवादी के संप्रदाय में कहा गया है कि--- “मुझ सच्चिदानन्दघनस्वरूप कृष्ण को अल्पबुद्धि वाले लोग ही निर्गुण मानकर उपासना करते हैं, कृष्ण के साकार विग्रह की ही उपासना करना चाहिए । माना कि आपने अपने स्तर पर ठीक कहा--- लेकिन क्या आपने गीता के मूलभाव परमतत्त्व को समझने का प्रयत्न किया ? यदि आपने साकार विग्रह की आराधना करते हुए अव्यक्त एवं सर्वश्रेष्ठ अव्यय परमतत्त्व की आराधना का लक्ष्य रखा होता तो संभवतः आप गीता के भाव को समझ पाते लोग स्वभाव से ही ऊर्ध्व गति प्रिय होते हैं अधोगति प्रिय नहीं । अतः साकार विग्रह से अविग्रह परमतत्त्व की ओर ऊर्ध्व लक्ष्य रखा होता तो युक्तिसंगत होता, किन्तु ऊर्ध्व से अधः की ओर साकार विग्रह का लक्ष्य रखा, यह श्रुति-शास्त्र विरुद्ध है । आप श्रुति का हनन कर रहे हैं । अतः आपको बालबुद्धि से अतिरिक्त क्या मानें ?
दूसरे द्वैताचार्य करते हैं--- श्रीभगवान सर्वेश्वर अव्यक्त हैं ऐसा अल्पबुद्धि वाले नहीं जानते, इसलिए श्रीकृष्ण की उपासना नहीं करते । आपकी बात ठीक है तथापि आवश्यक नहीं कि सभी साकार विग्रह की ही पूजा को सर्वेश्वर कृष्ण मानलें, क्योंकि परमतत्त्व “एकमेवाद्वितीयं" “अद्वैतं" है यह श्रुति डंके की चोट से कहती है । अतः यह आपकी बात भी श्रुति विरुद्ध ही प्रतीत हो रही है जो संप्रदाय की हठधर्मिता है, इससे श्रुति-शास्त्र को चोट पहुंचती है, किन्तु कृष्ण की प्रतिमा को सर्वेश्वर के रूप में आराधना करना श्रुति संमत है । अतः यह मत भी बच्चों की बुद्धि ही है ।
व्यक्तिगत विचार---- श्रीभगवान कहते हैं-- मुझ अव्यक्त को बुद्धिहीन लोग “व्यक्तिमापन्नं" अर्थात साधारण मनुष्यों की तरह उत्पन्न हुआ मानते हैं । यहाँ उत्पन्न होने के साथ मरने वाले का भी अध्याहार कर लेना चाहिए, क्योंकि जन्म लेने वाले की मृत्यु अटल है । भाव यह है कि बुद्धिहीन लोग मुझ अव्यक्त को भी जन्मने और मरने वाला मानते हैं । सबसे पहला शब्द श्रीभगवान ने कहा “अव्यक्तं" जिसे मन से, वाणी से, बुद्धि से अर्थात किसी भी प्रमाण से व्यक्त नहीं किया जा सकता है वह अव्यक्त है “यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सः" । अतः अपना स्वरूप पहले ही बता रहे हैं कि मैं क्या हूँ ? कैसा हूँ ? मैं अनुत्तम हूँ अर्थात नास्ति उत्तमः उत्कृष्टो यस्मात् स अनुत्तमः" अर्थात जिस उत्तम से उत्कृष्ट और कुछ न हो वह अनुत्तम अर्थात सर्वश्रेष्ठ मैं हूँ । ऐसे मुझ सर्वश्रेष्ठ अव्यय अर्थात जिसका व्यय न हो, जो नित्य, सर्वदेशीय, सर्वगत अर्थात् व्यापक है वह अव्यय है, क्योंकि व्यय अर्थात क्षीण या नष्ट होने के देश, काल की आवश्यकता होती है, जबकि वह देश, काल रहित है, अखंड एवं व्यापक है इसलिये अव्यय है । अतः मैं जो परम तत्त्व हूँ उसको बुद्धिहीन लोग नहीं जानते और कहते हैं कि मैं साधारण मनुष्यों की भांति जन्मने मरने वाला मनुष्य ही हूँ ।
भावार्थ---- मैं जिस समय कृष्ण आदि रूप में दिख रहा हूँ उस समय भी अव्यक्त, अनुत्तम, अव्यय एवं परमतत्त्व हूँ । इससे भिन्न कुछ नहीं । यहाँ पर पहले ध्यान देने की बात यह है कि पहले अव्यक्त कहा, फिर अज्ञानियों, बुद्धिहीनों, जैन, बौद्ध, मीमांसक, नैय्यायिक आदि जो अवतारों को ही नहीं मानते, वे सभी स्वयं को पंडित मानते हैं, उन सभी को बुद्धिहीन कहते हुए फिर अपने परमतत्त्व का वर्णन करते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि जिस समय कृष्ण शरीर रूप से दिख रहे हैं उस समय भी अव्यक्त परमात्मा ही हैं । अतः सर्वेश्वर कृष्ण ही हैं, इस प्रकार कृष्ण की साकार विग्रह की उपासना भेदबुद्धि को जन्म देती है । ऐसे भेदवादियों के द्वारा उस परमतत्त्व को पहले शरीर माना और फिर उस शरीर को ही यही कृष्ण है ऐसा एकीकृत कर दिया अर्थात एकदेशीय करके मंदिर आदि की कल्पना कर दिया और उसी पूजा को ही वे कृष्ण पूजा या उपासना मानने लगे । यह संकुचित एकदेशीय भाव है जो श्लोक के मूलभाव से उल्टा और श्रुति-शास्त्र विरुद्ध है, क्योंकि श्रुति-शास्त्र सकल से निष्कल अर्थात साकार से निराकार की ओर ले जाते हैं निराकार से साकार की ओर नहीं । अतः यह भी बुद्धिहीनता का परिचय है, किन्तु कृष्ण ही सर्वेश्वर परमतत्त्व है ऐसा मानकर कृष्ण की उपासना करने से परमतत्त्व अद्वैत में प्रतिष्ठित करता है । ऐसा न जानने वाला बुद्धिहीन है, अर्थात सगुण-निर्गुण दोनो प्रकार से परमात्मा को जानकर अर्थात पहले सगुण क्या है ? यह समझना चाहिए, फिर निर्गुण क्या है यह समझना चाहिए फिर सगुण का आश्रय लेकर निर्गुण की उपासना करके एकीभूत हो जाना ही त्वं पदार्थ का तत् पदार्थ में विलय होना है, यही पराभक्ति है, यही ज्ञान और विज्ञान है यही अद्वैत है ऐसी उपासना से ही परमात्मा के समग्र रूप को जानकर उसकी समग्र उपासना है । जो ऐसा नहीं करते वे बुद्धिहीन हैं ।।२४।।
संबंध---- इस रहस्य को मूढ़ लोग नहीं जानते, इसका कथन....
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ।।७/२५।।
शब्दार्थ---- मैं योगमाया के द्वारा भलीभाँति ढका हुआ होने के कारण जगत में जगत में सभी के प्रकाश में नहीं आता । मूढ़ लोग मुझ अज एवं अव्यय को नहीं जानते ।
तात्पर्यार्थ---- श्रीभगवान जब प्रकट होते हैं तब “प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया" अर्थात तीनों गुणों को अपने आधीन करके अपनी माया के द्वारा प्रकट होने की बात कर चुके हैं । यहाँ पर श्रीभगवान ने दो बातें कही हैं-- एक प्रकृति और दूसरी माया । प्रकृति अर्थात् तीनो गुणों के आधीन न होकर, तीनो गुणों को अपने आधीन करके अर्थात तीनो गुणों का आश्रय लेकर माया अर्थात जो सबको मोह में डाल दे उस माया के सहित प्रकट होते हैं उसी को यहाँ पर कहा योगमाया । यही योग तीनो गुणों का योग है । यदि तीनो गुणों का योग नहीं होगा तो सर्वसाधारण को शरीर रूप में कैसे दिखेगा ? सत्वगुण प्रधान गीता का उपदेश कैसे होगा ? रजोगुण प्रधान राजकार्य कैसे होगा ? द्वारका कैसे बसेगी ? बिना तमोगण के कंसादिकों का संहार कैसे होगा ? यही योग है । माया अर्थात मोहिनी शक्ति अगर नहीं होगी तो ब्रह्मा जी कैसे मोहित होकर गोपबालकों का गायों सहित हरण करेंगे ? रासलीला कैसे होगी ?
इस प्रकार अपने आपको को योगमाय से भलीभांति ढक लेते हैं, इसलिये अल्पमेधा, अल्पबुद्धि, एवं मूढ़ लोग अर्थात जिनमें सदसद् का विवेक नहीं है उनके प्रकाश में मैं नहीं आता । जैसे उल्लू सूर्य को नहीं देख सकता वैसे ही अज्ञानी मुझ अज अव्यय को नहीं देख सकता । जैसे जन्मान्ध सूर्य को नहीं देख सकता है वैसे ही मूढ़ लोग मुझे अज अव्यय को देख अर्थात जान नहीं सकते । यहाँ मूल में “अजमव्ययं" आया है अतः यहाँ अज का अर्थ यदि माया करना चाहे तो उसको पहले अव्यय के साथ संगति करनी होगी । यद्यपि माया भी अजा है अर्थात अजन्मा है तथापि यहाँ लिंगभेद का भी ज्ञान होना आवश्यक है मूल में पुल्लिंग अज है जो पुरुष का वाचक है और गीता के सर्वेश्वर पुरुष हैं १३/२२ एवं १५/१७ । दूसरी बात माया अजा होकर भी क्षरण को प्राप्त होती है जबकि यहाँ अज के साथ अव्यय पद है जिसका अर्थ है कभी क्षरण को प्राप्त न होना, अक्षुण, नित्य, एकरस आदि ।
भावार्थ---- श्रीभगवान ने परमतत्त्व को न जानने वाले जैन, बौद्ध, मिमांसक आदि एवं कृष्ण को जन्मने मरनेवालों को श्रीभगवान को एकदेशीय जीव-ईश्वर रूप में अथवा मूर्ति आदि रूप में खंडित करके भेद दृष्टि रखने वालों को “अल्पमेधसाम्" ७/२३ अर्थात कम बुद्धि वाले, “अल्पबुद्धयः" ७/२४ अर्थात बुद्धिहीन, “मूढः" ७/२५ अर्थात सदसद् का नीर-क्षीरवत् विवेक न कर पाने वालों को इन नामों से संबोधित किया है । अर्थात अवतारों को जन्मने मरने वाला, मनुष्य, एवं भेद दृष्टि रखने वाले शरीर अथवा मूर्ति को यही कृष्ण आदि हैं इस प्रकार सर्वात्मा अज अव्यय को एकदेशीय मानने वाले को कम बुद्धि, बुद्धिहीन, एवं मूढ कहते हुए गीता के प्रवक्ता भगवान श्रीकृष्ण गीता को एकेश्वर से अलंकृत करते हुए “एकमेवाद्वितीयं" सिद्ध करते हुए वेदान्त प्रतिपादित एक मात्र अद्वैत को को परिपुष्ट करते हैं । अतः हमें विकृत बुद्धि द्वैतवादियों से कोई मतलब नहीं ।।२५।।
संबंध---- श्रीभगवान कहते हैं कि भले ही उपरोक्त तीनो प्रकार के लोग मुझे नहीं जानते तथापि मैं उन सभी को जानता हूं, इसका कथन....
वेदाहं समतीतानि वर्तमानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।७/२६।।
संबंध---- हे अर्जुन ! संपूर्ण प्रणियों के भूत, भविष्य और वर्तमान को को मैं जानता हूँ किन्तु मुझे कोई नहीं जानता ।
तात्पर्यार्थ---- जो प्राणी अब से पहले भूतकाल में हो चुके हैं उनको मैं जानता हूँ, “बहूनि मे व्यतीतानि वर्तमानानि चार्जुन" ४/५, ईश्वर सर्वज्ञ इसलिये जानता है जीव अल्पज्ञ है इसलिए नहीं जानता है । भविष्य में भी होने वाले प्राणियों को जानता है, वर्तमान में तो जानता ही है । किन्तु मुझ सर्वेश्वर को मेरे ज्ञानीभक्त के अतिरिक्त कोई और कोई नहीं जानता ।
यहाँ पर कहा “मां तु वेद न कश्चन" वैसे सामान्य अर्थ तो “किन्तु मुझे कोई नहीं जानता" यही अर्थ दिखता है । यदि ऐसा अर्थ करेंगे तो अर्थ का अनर्थ हो जायेगा, क्योंकि मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" मुझसे अतिरिक्त कुछ अन्य है ही नहीं, किन्तु कहते हैं “ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम्" फिर भी ज्ञानी मेरा आत्मा है अतः मेरा भक्त मुझे आत्मरूप करके जानता है, अभिन्न रूप से जानता है । जो मुझमें समहित चित्त होकर “वासुदेवः सर्वम्" करके जानता है वही मुझे जानता है इसी बात को स्पष्ट करने के लिए “तु" कहा जो पूर्व के श्लोक में श्रीभगवान ने सबके प्रकाश में न आने अर्थात जो योगमाया द्वारा भलीभाँति भांति ढके हुए हैं उन सभी को ज्ञानी भक्त से भिन्नता दिखाने के लिए है । इन्हीं के लिए “कश्चन” कहा गया है ।
भावार्थ---- माया से ढका हुआ कोई भी प्राणी परमेश्वर को नहीं जानता है ऐसा तात्पर्य है ।।२६।।
संबंध---- ये लोग माया से किस प्रकार ढके हैं ? यह बता रहे हैं....
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप ।।७/२७।।
शब्दार्थ---- हे भारत इच्छा, द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्व के द्वारा हे परन्तप ! संपूर्ण प्राणी मोहित होकर जन्म(मृत्यु) को प्राप्त होते हैं ।
संबंध---- यहाँ पर इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्वों को ही संपूर्ण अनर्थ की जड़ माना गया है जो जन्म से ही मनुष्यों को प्राप्त होता है । इच्छा अनुकूल पदार्थ की प्राप्ति के लिए और द्वेष प्रतिकूल वस्तु की प्राप्ति में होता है । अनुकूल वस्तु से सुख और प्रतिकूल वस्तु से दुःख की प्राप्ति होती है । ऐसे जो भी सुख-दुःख रूपी द्वन्द्व उत्पन्न करने वाले साधन हैं सबको ले लेना चाहिए । इन्हीं द्वन्द्वों से मनुष्य जीवन भर मोहित जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता रहता है, ऐसा अनादि काल से चला आ रहा है ।।२७।।
संबंध---- द्वन्द्व ही मोह का कारण है यह बताकर अब द्वन्द्व रहित पुण्यकर्मा ही मेरा भजन करता है यह बता रहे हैं....
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रताः ।।७/२८।।
शब्दार्थ---- जिनके पाप नष्ट हो गए हैं वे पुण्य कर्मों के द्वारा द्वन्द्व मोह से भलीभाँति मुक्त होकर दृढ़तापूर्वक मेरा भजन करते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- तु शब्द पूर्व श्लोक से पक्षान्तर करने के लिए है । वहां कहा था कि इच्छा द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्वों से प्राणी मोहिता होता है जो परमात्मा की प्राप्ति का बाधक है, किन्तु जिनके पाप नष्ट हो गये हैं--- यहाँ पाप का अर्थ है वे सभी सकाम कर्म जो जन्म मरण के हेतु हैं, उनके नष्ट हो जाने पर पुण्य कर्म अर्थात निष्कामकर्म के द्वारा द्वन्द्व मोह अर्थात सुख दुःखादि द्वन्द्वों से मुक्त होकर--- यहाँ द्वन्दों को कई अर्थों में लिया जा सकता है--- सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मान-अपमान आदि के सहित “छिन्नद्वैधा" ५/२५ अर्थात वह द्वैत है अद्वैत है ऐसी द्विविधा अर्थात संशय विपर्यय का त्याग करके, क्योंकि “संशयात्मा विनश्यति" ४/४०, अतः ऐसे द्वन्दों का नाश करके दृढता पूर्वक मेरा यही एक मात्र व्रत है ऐसा निश्चय करके मुझ सर्वात्मा का चिन्तन करूंगा । “वासुदेवः सर्वम् सर्वं वासुदेवः" अर्थात मेरे सहित वासुदेव ही सब है, मेरे सहित सब कुछ वासुदेव है अर्थात मैं ही सर्वात्मा हूँ ऐसा ही चिन्तन करूंगा । यही मेरा दृढ निश्चय है, यही मेरा व्रत है ।
समीक्षा---- श्लोक ७/२७-२८ में द्वन्द्वों की बात कही गई है । ७/२७ में द्वन्द्व के मूल में इच्छा को ही माना गया है । अतः द्वन्द्वों पर विजय पाना हमारा पहला लक्ष्य “निर्द्वन्द्वो" २/४५ में ही पहला चरण निर्धारित कर दिया था जिसका यहाँ पर विस्तार किया गया है । आगे “निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते" ५/३, “द्वन्द्वैर्विमुक्तः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढा पदमव्ययं तत्" १५/७ अर्थात जो सुख दुःख नामक द्वन्द्व मुक्त है वह अव्यय पद को प्राप्त करता है । द्वन्दों से मुक्त होने का एक ही उपाय है--- “प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्" २/५५ मन में उत्पन्न होने वाली इच्छा का अशेष रूप से नाश होकर “आत्मन्येवात्मना तुष्टः" २/५५ स्वयं से स्वयं में सन्तुष्ट रहना । “सर्वसङ्कल्पसंन्यासी" ६/४ संपूर्ण संकल्प अर्थात इच्छा का त्याग करने वाला, “संकल्पप्रभावान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः" संपूर्ण कामनाओं के उठने वाले मानसिक संकल्प का भी अशेष रूप से त्यागकर “आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्" ६/२५ मन को आत्मा में स्थित करके कुछ भी चिन्तन न करे । श्रुति कहती है “उसने इच्छा की मैं एक हूँ बहुत हो जाऊं" और वह बहुत हो गया । समस्या जहाँ से उत्पन्न होती है समाधान भी वहीं से मिलता है । समस्या इच्छा से हुई तो समाधान भी इच्छा का उपसंहार ही होगा । कार्य रूप में दिखने वाला जगत, कारण इच्छा में विलीन हो जाता है । इच्छा अपने मूल आत्मभाव को प्राप्त हो जाती है यही आत्मसिद्धि का श्रेष्ठ साधन है । यहां “मां भजन्ते दृढव्रताः" से यही तात्पर्य है कि “माम्" प्रत्यय आत्मा का वचक है । अतः यहाँ मुझे आत्म रूप से दृढतापूर्वक भजते अर्थात मुझसे जानते हैं । स्व से अभिन्न यह सब मैं सर्वात्मा हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ ऐसा भावार्थ है ।।२८।।
संबंध---- मैं ही सर्वात्मा हूँ, ऐसा भजन क्यों करना चाहिए ? इस पर कहते हैं....
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्मतद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ।।७/२९।।
शब्दार्थ----- वृद्धावस्था एवं मृत्यु से मुक्त होने के लिए जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं वे उस ब्रह्म को संपूर्ण अध्यात्म एवं कर्मों सहित जानते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- इन दो श्लोकों को अष्टम अध्याय का बीज समझना चाहिए । यहाँ का ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म, अगले श्लोक अधिभूत, अधिदैव, अधिज्ञ एवं मुझे “मां विदुः से जिसे इस शरीर मां अर्थात मैं नाम से जाना जाता है उसका वर्णन करते हैं, यही सातों अर्जुन के अष्टम अध्याय के प्रश्न होंगे । जिनकी व्याख्या वहीं पर होगी । यहाँ संक्षिप्त विवरण....
आत्मा षड्विकारों से रहित है तथापि माया का आश्रय लेकर स्वयं माया के आधीन हो गया है । अतः मुझ सर्वात्मा का आश्रय लेकर-- यहाँ आश्रय लेने का तात्पर्य है आत्म तत्त्व संबंधित जो श्रुति, शास्त्र का श्रवण मनन निदिध्यासन करते हैं उस आत्म संबंधित मेरा श्रवण मनन निदिध्यासन द्वारा वे अध्यात्म अर्थात संपूर्ण जीवों एवं संपूर्ण कर्मों को-- यहाँ संपूर्ण जीव कहने का अभिप्राय यह है कि जीव एक है या अनेक है ? उसका स्वरूप क्या है ? संपूर्ण कर्मों से अभिप्राय यह है कि जितना जड़ जगत है अर्थात ब्रह्मा से लेकर स्तंब पर्यन्त जड़ चेतन जगत का स्वरूप क्या है उस सभी के सहित “तत्" नाम से कहे जाने वाले ब्रह्म को अशेष रूप से जान लेता है । यहां “माम्" जो आत्म प्रत्यय है, उस “माम्" प्रत्यय को जानने के लिए तीन विभाग किये--- पहला “तत्" नाम से कहा जाने वाला ब्रह्म, दूसरा जीव, तीसरा संपूर्ण जड़ पदार्थ । इन तीनो मे जड़ पदार्थ को इसी अध्याय ७/४ में अष्टधा प्रकृति, जीव को परा प्रकृति ७/५ कहकर स्वयं को सबका निमित्त उपादान कारण बता चुके हैं । इसी को “द्वामिमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।। १५/१६, "उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः...." १५/१७ इस प्रकार कहा विवरण वहीं पर ।
भावार्थ--- “माम्" प्रत्यय का श्रवण मनन करने पर उसको "तत्" करके जाना जाने वाला ब्रह्म, चूंकि मूल में ब्रह्म के साथ "तत्" पदार्थ पहले से दिया है, अतः अध्यात्म अर्थात जीव स्वतः “त्वम्" हो जाता है । जब "तत्" पदार्थ और “त्वम्" पदार्थ का सर्वात्म रूप से अभिन्नत्व का ज्ञान हो जाता है, अर्थात यह कार्य रूप जो जगत दिख रहा है वह मुझ कारण से अभिन्न है । अतः इस संपूर्ण जगत के सहित, जगत से परे सबका अधिष्ठान मैं ही हूँ ऐसा पूर्व श्लोक के दृढव्रत अर्थात दृढतापूर्वक जानकर जन्म मृत्यु रूप संसार को पार कर जाता है । ऐसा भावार्थ है ।।२९।।
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ।।७/३०।।
शब्दार्थ---- अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ सहित जो मुझे जानता है, वह तीनो रूपों में जानकर मृत्युकाल में भी युक्त चित्त वाले मुझको ही जानते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- अधिभूत अर्थात तमोगुण प्रधान स्थूल जगत या शरीर, अधिदैव अर्थात स्थूल जगत जिनसे ओतप्रोत प्रोत है वे रजोगुण प्रधान हिरण्यगर्भ या सूक्ष्म शरीर, अधियज्ञ अर्थात स्थूल सूक्ष्म जगत का कारण सत्वगुण प्रधान परमात्मा या कारण शरीर । इन तीनो स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर को जो जानकर युक्त चित्त अर्थात अभिन्नभाव से मृत्युकाल में भी--- यहां मृत्युकाल कहने से अभिप्राय यह है कि यही एक ऐसा समय होता है कि शरीर असह्य वेदना से पीड़ित होता है, मूर्छा को प्राप्त हो जाता है, ऐसी स्थिति में भी जिसका चित्त मुझसे युक्त जानता है अर्थात जो मुझे अभिन्न रूप से जानता है ।
भावार्थ----यहाँ अभिन्नभाव से जानता है में मृत्यु रहित पद प्राप्त कर लेता है ऐसा अंतर्भाव संन्निहित है क्योंकि “जरामरणमोक्षाय" ७/२९ पहले कह चुके हैं । वही अभिप्राय यहाँ है । ऐसा तात्पर्य है ।।३०।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
🌹श्रीकृष्णार्पणमस्तु🌹
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें