गीता मेराचिन्तन अध्याय १४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ चतुर्दशोऽध्यायः
संबंध---- पूर्व अध्याय में संपूर्ण प्रणियों की उत्पत्ति का हेतु प्रकृति और उसमें स्थित पुरुष को माना है । वस्तुतः वह पुरुष अनात्मा प्रकृति से भिन्न अहं पदवाच्य स्वभाव से ही मुक्त पुरुष है तथापि वह बंधन को प्राप्त हुआ जिसका कारण प्रकृति के गुणों की संगति अर्थात उन गुणों में रम जाना या आसक्त हो जाना है कारणं गुणसङ्गोऽस्य १३/२१ । वे गुण क्या हैं ? वे बंधन कैसे करते हैं ? उनसे छूटने का उपाय क्या है यह वहां पर नहीं बताया । मात्र यह बताया कि ज्ञाननेत्र से अनात्मा और आत्मा का विवेक हो जाने से पुरुष परमतत्त्व को प्राप्त कर लेता है अर्थात मुक्त हो जाता है । अतः अब गुणों और उनसे होने वाले बंधन एवं मोक्ष का वर्णन करते हुए प्रथम दो श्लोक से ज्ञान की स्तुति करते हैं…...
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ।।१४/१।।
शब्दार्थ---- पुनः परमतत्त्व को कहूंगा जो समस्त ज्ञानों का सर्वोत्तम ज्ञान है । जिसे जानकर सभी मुनिजन परा सिद्धि अर्थात मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ।
तात्पर्यार्थ---- यहां कहते हैं भूयः प्रवक्ष्यामि अर्थात पुनः कहूँगा । पुनः वही कहा जाता है जो पहले कहा जा चुका है लेकिन पहले कहने की जो शैली है वह दूसरी बार में बदल जाती है । यहाँ आया है परं शब्द पुरुषः परः १३/२२ में आया था । इसका मतलब यह हुआ कि उसी पुरुष के विषय में कहेंगे जो असंग है, किन्तु असंग है यह कहना बनता नहीं है क्योंकि वह वाणी का विषय नहीं है इसलिए जो वाणी का विषय है और सभी प्रकार के यानी शास्त्रीय ज्ञान, यज्ञ, दान, तप का ज्ञान, व्यवहार आदि का ज्ञान ये सभी श्रेष्ठ हैं, इन सबसे जो श्रेष्ठ ज्ञान उस सर्वश्रेष्ट ज्ञान को कहूंगा । यह ज्ञान सर्वश्रेष्ठ क्यों है ? इस पर कहते हैं यही वह ज्ञान है जिसको जानकर सभी मुनिजन परमतत्त्व अर्थात संसार चक्र यानी जन्म मरण से छूट गये हैं अर्थात मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ।
यहाँ मुनि शब्द पर ध्यान देना आवश्यक है क्योंकि यह ज्ञान केवल जानने मात्र से कल्याण नही करता है, सुनने मात्र से कल्याण नहीं करता है वरन् मनन भी करना पड़ता है मननान्मुनिः । माण्डूक्यकारिका के आगम प्रकरण में आया है--- अमात्रोऽनन्तमात्रश्च द्वैतस्योपशमः शिवः । ओंङ्कारो विदितो येन स मुनिर्नेतरो जनः ।।१९।। अर्थात ओंकार की चतुर्थ मात्रा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह परमतत्त्व जिसे अयमात्मा ब्रह्म (माण्डू.उ.२) अर्थात यही जो संपूर्ण प्राणियों में दिखने वाली आत्मा है यही ब्रह्म है ऐसा कहा था वही आत्मा ओंकार की चतुर्थ मात्रा है । वह मात्रा कैसी है ? कहते हैं वह तो अमात्रा है । यही कृष्ण ने कहा था कि मैं अब वह ज्ञान कहूंगा जिसे जानकर तू मोक्ष को प्राप्त हो जायेगा और वह है अनादिमत्परं ब्रह्म १३/१२ वह प्रत्यागात्मा ही है । कोई पूछे कि वह आत्मा कैसी है तो कहते हैं-- न सत्तन्नासदुच्यते १३/१२ यह भी कोई बात हुई ? कि उसे जानकर तो मोक्ष हो जायेगा और स्वरूप पूछा तो कह दिया वह न सत है और न असत । यही श्रुति भी कहती है कि वह चौथी मात्रा है लेकिन वह मात्रा अमात्रा है । मात्रा एक मान यानी पैमाने का नाम है जिसकी अपनी एक सीमा होती है किन्तु वह अमात्र अर्थात असीम है । अनन्त मात्रा वाला है मतलब वह देशकाल परिच्छेद रहित अखंड अनन्त एक रस है । यह मात्रा ऐसी है जहाँ द्वैत का उपशम यानी भलीभांति नाश हो जाता है और वह कल्याण स्वरूप है । इस प्रकार जो ओंकार को जान लेता है वही मुनि है दूसरे लोग नहीं । यहाँ पर आचार्य शंकर अपने भाष्य में कहते हैं-- ओंङ्कारो यथा व्याख्यातो विदितो येन स परमार्थतत्त्वस्य महामुनिः । नेतरो जनः न शास्त्रविदपीत्यर्थः अर्थात इस प्रकार उपरोक्त रूप से ओंकार को जो जानता है वही परमार्थ तत्त्व का मनन करने वाला महामुनि है । दूसरे लोग शास्त्रज्ञानी होकर भी मुनि नहीं हैं । दूसरे अर्थ में मुनि का अर्थ ब्रह्मज्ञानी भी होता है । यहाँ यही भगवान श्रीकृष्ण मुनि शब्द से कहना चाहते हैं कि जिस ज्ञान को पुनः मैं कह रहा हूँ इस ज्ञान का मनन करके ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करके तब परां सिद्धिमितो गताः अर्थात आत्मस्वरूप परमतत्त्व को प्राप्त हुए । अतः मुमुक्षु को भी भलीभाँति इसका मनन करना चाहिए, ऐसा तात्पर्य है ।
भावार्थ--- ओंकार की चतुर्थ मात्रा और आत्मा का अभेद दर्शन जिस प्रकार यहां कराया गया है उसी प्रकार यहाँ भगवान इस पुनः कहे हुए ज्ञान का मनन करने वाले का त्वम् पदार्थ का वाच्यार्थ जीव का त्यागकर लक्ष्यार्थ आत्मा और तत् पदार्थ का वाच्यार्थ ईश्वर त्यागकर लक्ष्यार्थ ब्रह्म के साथ अभिन्नत्व की प्राप्ति कराना ही लक्ष्य है । जो आगे कहा जाना है । ऐसा भावार्थ है ।।१।।
संबंध---- इस क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ ज्ञान का आश्रय लेने वाला कभी उत्पन्न नहीं होता….
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।।१४/२।।
शब्दार्थ---- इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे साधर्म्य को प्राप्त होता है । वह सर्ग के प्रारंभ में भी उत्पन्न नहीं होता और प्रलयकाल में व्यथित नहीं होता ।
तात्पर्यार्थ---- इस ज्ञान यानी जो पीछे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान कहा और अब जिसे कहने जा रहा हूँ उसी का आश्रय लेकर-- यहां उपाश्रित्य कहा गया है जिसका अर्थ होता आत्यन्तिक समीप का आश्रय लेकर यही उपासना का भी अर्थ होता है । पूर्व श्लोक में मुनि शब्द आया था जिसका अर्थ होता है मनन करने वाला किन्तु इस ज्ञान का मात्र मनन करने से काम चलने वाला नहीं है अतः कहा उपाश्रित्य अर्थात मनन करके उसके सामीप्य का आश्रय लो अर्थात निदिध्यासन करो उस पर आरूढ़ होओ । यहां एक शंका बनती है कि पहले कहा कि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ४/१६ एवं ९/१ अर्थात जिस ज्ञान को जानकर तू जन्म मरण रूप अशुभ से मुक्त हो जायेगा, वहां तो श्रवण मात्र से मुक्ति कहा और यहां ज्ञान का आत्यंतिक आश्रय लेने की बात कह रहे हैं इसमें स्पष्ट विरोध दिखता है ? नहीं, विरोध नहीं है क्योंकि यह नियम है कि व्यक्ति को जिस जिस विषय का ज्ञान होता है वही वही वह करता है । जब ज्ञान ही नहीं होगा तो करेगा क्या ? उपरोक्त कथन करके अर्थात तत् तत् विषयक ज्ञान देकर पुनः अगले प्रकरण में उपासना की भी बात कहते आये हैं जैसे अध्याय चार में जानने की बात तो अध्याय छः में उपासना की बात, अध्याय सात श्लोक दो जानने की बात तो आठ में उपासना, इसी प्रकार अध्याय नौ में जानने की बात तो अब यहाँ उपासना की बात । इतने अन्तर के बाद उपासना की बात कहने का कारण यह है कि एक विशेष प्रसंग की समाप्ति पश्चात उसकी प्राप्ति का विशेष उपाय यानी बलपूर्वक उपासना द्वारा चित्तशुद्धि करके ही प्राप्त किया जा सकता है इस भाव में कहा गया है, यह विशेष उपदेश है, किन्तु जहाँ जहाँ जानने मात्र से मोक्ष की बात कही गई है वहां वहां के ही अध्यायों में उपासना भी सामान्य रूप से कही गई है । इसका अर्थ यह हुआ पहले जो करना चाहते हो उसकी जानकारी प्राप्त करो और फिर उस कार्य को करो ।
इस प्रकार कहे गये ज्ञान का निदिध्यासन करके मेरी साधर्म्यता को प्राप्त होगा । यहां ध्यान रखना चाहिए कि साधर्म्य का अर्थ यहां पर पूर्णता होगा । सारूप्यता, सालोक्यता आदि नहीं । क्योंकि शिव, विष्णु देवी आदि के अगर साकार रूप एवं लोक को मानकर उन्हीं के अनुसार सारूप्यता आदि गुण होने चाहिए, लेकिन ये सब गुण उनमें होना संभव नहीं है क्योंकि जो सृष्टि प्रलय आदि कार्य हैं वह कौन करने का अधिकार रखेगा ? क्योंकि सभी समान गुण धर्म वाले हैं । वह एक ही होगा जबकि यहाँ साधर्म्य के कारण सभी स्वतंत्र हैं कोई परतंत्र नहीं है । इस स्वतंत्रता में कभी तो कलह होगी ही । दूसरी बात जब लोक और रूप होगा तो देशकाल परिच्छिन्नता भी होगी इससे ईश्वर के ही नाश का भय उपस्थित हो जायेगा तो फिर उस उस लोक के निवासियों का क्या होगा । महाप्रलय आदि में तो उन उन लोकों के नाश का प्रसंग तो आता ही है और जब नाश होगा तो उत्पन्न भी होगा भले उन्हीं लोकों में उत्पन्न हों । उत्पन्न होंगे तो दासत्व की व्यथा भी होगी । जबकि यहाँ सर्ग के आदि में भी उत्पन्न नहीं होता ऐसा स्पष्ट कहा गया है अपि जो कहा गया है वह इस बात का साक्षी है कि जब सृष्टि के आदि में ही उत्पन्न नहीं होगा तो बीच में उत्पन्न कैसे हो सकता है ?
अब नदी समुद्र के साधर्म्य को प्राप्त कर ले तो वह नदी होगी या समुद्र ? अगर नदी रही तो कैसा साधर्म्य ? और अगर साधर्म्य हो गया तो कैसी नदी ? अतः यहां स्पष्ट है कि देशकाल अपरिछिन्न अखंड नित्य निर्विकल्प ब्रह्म के साथ साधर्म्य एकत्व का प्रतिपादन करता है । भगवान ने कहा था ज्ञानीत्वात्मैव मे ७/१८ अब यहाँ कहा ज्ञानी मेरा आत्मा है, इस पर आप कहो कि यहां भेद है इसीलिये मेरा कहा यदि अभेद होता तो मैं कहते, तो क्या यह प्रश्न कर सकता हूँ कि क्या आत्मा भी स्व से भिन्न होता है ? आत्मा स्व से भिन्न नहीं होता है किन्तु समझाना तो भिन्न भाव से ही पड़ता है, जैसे किसी कारण से मुझे दुःख प्राप्त होता है तो कहता हूँ कि मेरी आत्मा आज बहुत दुःखी है जबकि दुःख मुझे है और कहता हूँ कि मेरी आत्मा दुःखी है इस प्रकार मेरी और मेरा यहाँ एक ही है, अभेद है भिन्न नहीं । इसी प्रकार यहाँ साधर्म्य का अर्थ अभिन्नता की प्राप्ति ही है । भिन्न भाव में साधर्म्य वाले जय विजय का देखिए क्या हाल हुआ । श्रीकृष्ण के सुदामा नामक सखा जो शंखचूड के नाम से पृथ्वी पर प्रसिद्ध हैं उनकी भी गति देखिए, उनकी व्यथा देखिए । यहाँ कहते कि जो मेरी साधर्म्यता अर्थात अभिन्नता को प्राप्त हो गया है वह सृष्टि के प्रारंभ काल में भी उत्पन्न नहीं होता । जब संपूर्ण पुण्यात्मा कोई ब्रह्मा के रूप में, तो कोई भृगु, वशिष्ठ आदि ऋषियों के रूप में अवतरित होते उस समय भी उत्पन्न नहीं होता । उत्पन्न मानस सृष्टि का सूचक है । तो फिर जब पापों के समूह की वृद्धि हो जाती है तब आगे चलकर जन्म कैसे ले सकता है यही यहां अपि शब्द से कहा गया है । जन्म मैथुनी सृष्टि का सूचक है । वह प्रलय में भी व्यथित नहीं होता अर्थात व्यथा तो उसको होगी जिसका कोई न कोई अवयव है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवी, गणेश भी समय-समय पर व्यथित देखे जाते हैं किन्तु ब्रह्म के साथ अभिन्नता को प्राप्त हुआ मुमुक्षु कभी व्यथित नहीं होता । अगर वह उस प्रलयकाल में शरीर का त्याग नहीं कर सका है प्रारब्धवश, और अभिन्न भाव को उस समय तक प्राप्त हो गया है तो भी वह संपूर्ण सृष्टि के नष्ट हो जाने पर व्यथित नहीं होता । काकभुशुण्डिजी को जब वशिष्ठ जी मिलते हैं तो अपने सत्ताइस कल्प से जीवित होने की बात कहते हैं जबकि वह वशिष्ठ का आठवा जन्म होता है । यही इसका तात्पर्य है ।
भावार्थ---- इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि साधर्म्य का अर्थ अभिन्न भाव है आत्मैक्यता का प्रतिपादक है । इस परमसिद्धि को प्राप्त कर लेने पर संपूर्ण व्यथाओं से रहित होकर जन्म का उल्लंघन कर जाता है आर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । ऐसा भावार्थ है ।।२।।
संबंध---- ज्ञान की स्तुति अर्थात महिमा कहकर अब दो श्लोकों में सृष्टि क्रम का वर्णन करते हैं….
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्भूतानां ततो भवति भारत ।।१४/३।।
शब्दार्थ---- हे भारत ! महद्ब्रह्म मेरी योनि है मैं उसी म़े गर्भाधान करता हूँ । उसके पश्चात चार प्रकार सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- यहां महत् और ब्रह्म दो शब्द मिलाकर महद्ब्रह्म कहा गया है, महत् यानी बुद्धि, ब्रह्म यानी चैतन्य प्रकाश । बुद्धि यद्यपि जड़ है तो भी चैतन्य प्रकाश से चैतन्यभाव को प्राप्त होती है । संसार में बुद्धि ही सबसे बड़ी मानी जाती है आत्मा की महानता तो कोई विरला ही जानता है । इस दृष्टि से से बुद्धि को महान कहा गया है और जड़ होकर भी चैतन्यभावापन्न है इसलिए महद्ब्रह्म कहा गया है । यह तो बुद्धि है, यही आत्मा की योनि अर्थात संपूर्ण प्राणियों के उत्पत्ति का स्थान है, जिससे सभी कार्य चाहे सृष्टि का हो, पालन का हो, या संहार का हो, सभी कार्य संपादित होते और यही जीव का कारण शरीर भी है । इसमें जो गर्भ स्थापन की बात कही गई है वह चैतन्य प्रकाश की अध्यक्षता में जो अहं का स्फुरण है यह स्फुरण ही गर्भ है । इस अहंकार के उत्पन्न होते ही सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो जाता है और फिर स्थूल शरीरों का अपने अपने कर्मों के अनुसार जन्म हो जाता है ।
शंका होती है कि यह तो सृष्टि का प्रारंभ है यहाँ अपने अपने कर्म कहाँ से आ गये और अध्यक्षता वाली बात तो बिल्कुल समझ में इसलिये नहीं आती है कि स्पष्ट श्रीकृष्ण कहते हैं कि गर्भं दधाम्यहम् क्रियापद का प्रयोग किया गया है अतः व्याख्यान में विरोधाभास दिख रहा है ।
इस शंका के समाधान के लिए अध्याय नौ में भगवान कहते हैं कि कल्प के क्षय यानी नष्ट होने पर--प्रलय को प्राप्त होने सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते और कल्प के प्रारंभ में पुनः सृजन करता हूं ९/७ इतना ही नहीं विसृजामि पुनः पुनः ९/८ अर्थात इसी प्रकार बारंबार सृजन करता हूँ । यहां पर प्रकृति को प्राप्त होना क्या है ? यही कि अपने अपने कर्म बीज को लेकर प्रलय काल में ब्रह्मा जी में संपूर्ण जीवों का लय हो जाता है और ब्रह्मा जी सो जाते यह ब्रह्मा की रात्रि ही प्रलय है और सर्ग ही दिन है । जैसा कि यहाँ भी पूर्व श्लोक में सर्ग और प्रलय यानी ब्रह्मा के दिन और रात्रि की बात कही गई है । किन्तु आगे कहा--- मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ९/१० अर्थात यह सृजन और संहार मैं नहीं करता हूँ, मेरी अध्यक्षता अर्थात मेरे प्रकाश में प्रकृति ही चराचर प्राणियों की अनेक प्रकार की परिवर्तनशील उत्पत्ति करती है । चूंकि आत्मा निर्विकार है जबकि सृष्टि आदि कार्य विकार है, आत्मा अक्रिय है जबकि प्रकृति क्रियाशील है । अतः इसी न्याय से यहां भी मैं महद्ब्रह्म रूप योनि में गर्भ स्थापना करता हूँ का अर्थ यह हुआ कि निष्क्रिय आत्मप्रकाश बुद्धि पर पड़ा, बुद्धि चैतन्यभाव को प्राप्त हुई और चैतन्यभाव प्राप्त होते ही जो अहं का फुरण हुआ वही स्फुरण ही गर्भ है और अलग से कोई सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह मैथुन द्वारा गर्भाधान नहीं होता है ।
यहाँ पर सभी अर्थ व्यष्टि रूप से है । समष्टि में भी महत् का अर्थ होता है कि जो तीनो गुणों की साम्यावस्था है वह प्रकृति सबसे महान है क्योंकि उसी के गुणवैषम्य से संपूर्ण सृष्टि होती है और ब्रह्म का अर्थ विस्तार यानी वृद्धि भी होता है अतः वह महद्ब्रह्म है । उसमें जो चैतन्य ब्रह्म का प्रकाश पड़ रहा है वही चिदाभास है, यह चिदाभास ही गर्भ है । और जिसमें चैतन्य प्रकाश पड़ रहा है वह योनि अर्थात संपूर्ण चतुर्विध प्राणियों का उत्पत्ति स्थान । इसी चिदाभास में अहं का जो स्फुरण होता है यही अगले श्लोक में कहा जाने वाला संसार का बीज हिरण्यगर्भ है जिससे अंडज, पिंडज, श्वेदज और जरायुज प्राणी उत्पन्न होते है । यह जो अहं का स्फुरण है उसी को श्रुति कहती है--- उसने इच्छा की कि मैं एक हूँ बहुत हो जाऊं और वह बहुत हो गया । उसने जगत की सृष्टि की और उसमें प्रवेश कर गया । यह प्रवेश करना क्रिया पद है । इच्छा करना भी क्रिया पद है यह अध्यारोप मात्र है । अपवाद यह है कि आत्मा अक्रिय और इच्छा रहित है वह कुछ करती नहीं है उसकी अध्यक्षता यानी चैतन्य प्रकाश मे सब कुछ हो रहा है । ऐसा समझना चाहिए ।
टिप्पणी---- यहाँ ब्रह्म का अर्थ आत्मा किया गया है क्योंकि श्रुति भी कहती आत्मैवेदं अर्थात यह सब आत्मा ही है । अयमात्मा ब्रह्म । यही आत्या जिसे कृष्ण कहते हैं कि अहमात्मा १०/२० एवं क्क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि १३/२ कहा है वही आत्मा यहाँ समझना चाहिए ।।३।
संबंध---- सबका बीज ब्रह्म ही है इसका कथन….
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्ममद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।१४/४।।
शब्दार्थ---- हे कौन्तेय ! जिससे सभी योनियों के प्राणी उत्पन्न होते हैं उसी महद्ब्रह्म रूप योनि में बीज प्रदान करने वाला पिता मैं हूँ ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ मूर्तयः का अर्थ प्राणियों की आकृति से है । ब्रह्मा से लेकर स्तंब पर्यंत सबकी आकृति भिन्न है, भाषा भी एक प्रकार की आकृति है वह भी भिन्न है । दो सगे भाइयों की आकृति में भी भेद है । संसार में किसी की आकृति या स्वभाव में एक जैसी स्थित नहीं है, कोई न कोई भिन्नता होगी ही । यही प्रकृति का नियम है । पू्र्वोक्त श्लोक में बीज का भाव बता चुका हूँ । साथ ही गर्भ क्या है यह भी बता चुका हूँ । यह आत्मा ही सबकी उत्पत्ति का कारण होने से पिता है जबकि सबकी उत्पत्ति सबको धारण करने वाली होने से प्रकृति माता कही गई है ।
महद्ब्रह्म की भी यद्यपि व्याख्या पू्र्व श्लोक में हो चुकी है तथापि इतना और समझना चाहिए कि ब्रह्म का अर्थ आनन्दगिरि जी बृंहण(ता) करते हैं, जिसका सामान्य भाव शब्दकोश के अनुसार होता है-- १- पोषक अर्थात उत्पन्न प्राणियों का पालन-पोषण करने वाला, २- पुष्टि यानी जिससे प्राणी पुष्ट होते यानी पलते हैं, ३- पुष्ट करने की क्रिया या भाव यह कार्य भी प्रकृति का ही है, ४- एक प्रकार की मिठाई यहाँ मिठाई से रस या आसक्ति अथवा राग समझना चाहिए यह भी प्रकृति में ही है [{यह राग ही मानव जीवन का परम शत्रु है}] । ये सभी कार्य अन्न आदि के रूप में प्रकृति ही करती है यह सभी जानते हैं । अन्नं वै ब्रह्म भी श्रुति प्रसिद्ध ही है, यद्यपि संहार कार्य भी अन्नादि के रूप में प्रकृति ही करती है तथापि यह प्रसंग वृद्धि अर्थात सृष्टि क्रम का वर्णन करता है अतः वृद्धि विषय तक ही चर्चा करना उचित है । यहाँ सारांश यह है कि महत् यानी प्रकृति मायोपाधिक ब्रह्म से संयुक्त अर्थात अभिन्न होने के कारण उसके ही वृद्धि आदि गुणों से संबद्ध होकर भी ब्रह्म कही गई । ऐसा तात्पर्य है ।।४।।
संबंध---- अब प्रस्तुत श्लोक से श्लोक अठारह तक चौदह श्लोकों में प्रकृति के गुण, उनसे बन्धन एवं गति का वर्णन होगा । पहले तीनोँ गुणों का एक साथ विवरण….
सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ।।१४/५।।
शब्दार्थ---- हे महाबहो ! सत्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण इस प्रकार के ये तीनो गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं । जो अविनाशी आत्मा को बांधते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- ये तीनों गुण मूल प्रकृति में समान होते हैं किन्तु जब इनमें हलचल होती है तो वैषम्य भाव को प्राप्त होकर अनन्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि करती है । अगर हम शरीर पर विचार करें तो पायेंगे कि जितना स्थूल कार्य है वह तमोगुण प्रधान है जैसे शरीर का स्थूल भाग हड्डी मांस आदि, क्योंकि तमोगुण का लक्षण जड़ता है । सूक्ष्म शरीर में ही जो प्रवृत्ति बनती है वह रजोगुण का कार्य है । जब तक रजोगुण नहीं होता तब तक हम किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकते अतः सूक्ष्म इन्द्रियादि को रजोगुण प्रधान समझना चाहिए । हम सुख का भी अनुभव करते हैं और दुःख का भी यह वृत्ति जहाँ से हो रहा है वह सत्वगुण का कार्य है । इन्हीं के माध्यम से हम संसार में रस यानी राग का आश्रय लेकर कर बंधन को प्राप्त हो जाते हैं और सदसद्योनिजन्मसु १३/२१ नाना प्रकार की योनियों में चक्कर काटने लगते हैं ।
यद्यपि ये सभी गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं तथापि जो अव्यय शरीर वाला आत्मा है उसको ये अपने रस में बांध लेते हैं, डुबो देते हैं । यहाँ ध्यान देने योग्य यह कि देहिनम् एवं अव्ययं कहा गया है । अब प्रश्न यह उठता है कि जो अव्यय है अर्थात अक्षय है, जिसका कभी क्षरण यानी नाश होता ही नहीं है तो वह विभिन्न देव, तिर्यगादि योनियों में बारंबार ऊपर उठना, नीचे गिरना, एक शरीर छोड़ दूसरा ग्रहण करना रूप जो क्षरण यानी नाश हो रहा है यह कैसे हो रहा है ? दूसरी बात यह कि जब पहले आत्मा को अक्षय, अव्यय, स्थाणुवत्, अचल कह चुके हैं, निर्विकार कह चुके हैं तो यह जन्म मरण रूप विकार को प्राप्त होना युक्तिसंगत नहीं लग रहा है । इसका उत्तर यह है कि वह कभी न बंधा था न बंधा है, न बंधेगा और बंध सकता भी नहीं है तथापि यह प्रकृति के कार्य को स्वयं ही कर्ता मान बैठा कर्ताहमिति मन्यते ३/२७ । जब कोई अन्य चोरी करता है और उसकी की गई चोरी की जिम्मेदारी आप ले लेंगे तो सजा भी आपको ही मिलेगी । इसी प्रकार प्रकृति के कार्य को स्वयं को कर्ता मानने की भूल की सजा तो मिलना ही चाहिए । यह यदि प्रकृति के गुणों का संग छोड़ दे तो वह परम पुरुष तो है ही पुरुषः परः १३/२२ । यह तो हो गया अव्यय का भाव । अब अब देहिनम् पर विचार करते हैं । देहिनम् का अर्थ होता है देह वाला । वह देह नहीं है किन्तु देह वाला है । यही शब्द आत्मा के असंग होने का प्रमाण है । जैसे कोई घर वाला है, वह घर वाला तो है किन्तु वह स्वयं तो घर नहीं है । जब चाहता है तब वह घर सहित सर्वत्याग पूर्वक सर्वकर्मसन्न्यासी बनकर मोक्ष आदि का अनुसरण कर लेता है । वहीं दूसरे लोग घर-द्वार को ही सर्वस्व मानकर जीवन भर उसी घर में आसक्त होकर उसी के संरक्षण में लगे रहकर मर जाते हैं और घर तो यहीं रह जाता है लेकिन उनकी गृहासक्ति के कारण जीते जी दुःखी और मरकर किस किस दुर्गति को प्राप्त करेंगे भगवान जानें । यही हाल हमारा है । हम शरीर वाले तो हैं किन्तु शरीर के साथ हमारा तादात्म्य हो गया है । तादात्म्य दो प्रकार से होता है । एक तो इस कार्यकरण संघात यानी इन्द्रिय सहित शरीर को ही मैं यह ही हूँ ऐसा मान लेना, यही अक्षय दुःख का विशेष कारण है एवं मैं यह शरीर नहीं हो सकता हूँ, मैं तो शुद्ध, बुद्ध मुक्तस्वरूप, अखंडानन्दैकरस, नित्य, अव्यय शाश्वत, सबका प्रकाशक, चिन्मय सर्वात्मा हूँ । अथवा भगवान ने बड़ी कृपा की यह शरीर मुझे देकर अब मैं इसमें रहकर अपने पूर्वकृत सुकृत-दुष्कृत अर्थात पुण्य और पापों का भोग करते हुए परमात्मा का भजन करके परमात्मा को प्राप्त करूंगा । यह बहुत उत्तम साधन भगवान ने दिया है । यह शरीर अन्त में जाना ही है जहाँ कल जाना है आज ही चला जाये अथवा रहे हमें तो अपने प्रभु से संबंध है शरीर से क्या लेना देना । ऐसा जो भाव है यही भाव देहाभिमान को नष्ट कर देगा । इस देहाभिमान के रहते अव्यय परमतत्त्व को प्राप्त नहीं किया जा सकता है ऐसा अध्याय बाहर श्लोक पांच में भगवान कह चुके हैं । अतः देहिनम् से देहाभिमान नष्ट हो चुका है जिनका वे देह में रहते हुए भी अव्यय अर्थात अविनाशी असंग एवं शुद्ध, बुद्ध, मक्तस्वभाव हैं यह बात स्वयं भगवान कह रहे हैं । अतः यहाँ यहां आत्मा बद्ध नहीं है बल्कि बद्ध के समान दिख रहा है ऐसा समझना चाहिए ।
टिप्पणी---- यहाँ थोड़ा तीनो गुणों को स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी की इस दृष्टि से भी समझा जा सकता है-- हमारी सुषुप्ति अवस्था में हमें कुछ भी भान नहीं होता है यहाँ तक हमारे होने न होने का भी ज्ञान नहीं होता है इसे ही प्रकृति की तीनो गुणों की साम्यावस्था यानी मूल प्रकृति समझ लें । फिर शरीर में हलचल हुई आंखें खुल गई यानी हम जग गये किन्तु अभी जगने के बाद भी हमें कोई किसी प्रकार का ज्ञान नहीं है यही महत् यानी बुद्धि का स्फुरण है, फिर इसी बुद्धि में मैं कौन हूँ यह भाव उदित होता है तभी मैं शिवाश्रम हूँ ऐसा अपने को जानता है । अतः यह स्फुरण ही अहंकार अर्थात विराट है । इसी अहंकार से जो हिलने, चलने आदि की वृत्ति बनी वह वृत्ति ही आकाश है, फिर जिससे हिलने या चलने की क्रिया हुई, यही वायु की उत्पत्ति है, फिर जो चलने आदि की शक्ति यानी तेज है यही अग्नि की उत्पत्ति है, पुनः हमें जो हमें किसी कार्य में जो रस आया यह रस ही जल की और क्रिया द्वारा जो कार्य संपादित करना है वह स्थूल कार्य पृथ्वी की उत्पत्ति समझना चाहिए । इसके पश्चात संपूर्ण सूक्ष्म इन्द्रियों की सक्रियता ही देव तिर्यगादि की उत्पति समझना चाहिए । हमने जो पहले अस्थि, मांस आदि की बात तमोगुण प्रधान कही वह आकाश आदि का स्थूल भाग नदियां, पर्वतदि, तथा रोम यानी बाल वृक्षादि, समझना चाहिए । शेष सत्व और रज को जैसा पहले कहा वैसा ही समझना चाहिए ।
सूचना---- स्वामी अखंडानंदजी ने इतनी लंबी व्याख्या नहीं की है तथापि उनके संक्षिप्त संकेत की व्याख्या मुझ शिवाश्रम नामक कार्यकरण संघात द्वारा हुई है अतः इसमें जो दोष बनता है वह मेरा है और निर्दोष भाग पूज्यपाद स्वामी जी का ।।५।।
संबंध---- अब तीनो गुणों को अगल अलग लक्षण कहेंगे जिसमें पहले सत्वगुण का लक्षण….
तत्र सत्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।।१४/६।।
शब्दार्थ---- हे निष्पाप ! उन तीनो में सत्वगुण निर्मल होने से प्रकाशक एवं कल्मष रहित है, जो सुख और ज्ञान के साथ बांध देता है ।
तात्पर्यार्थ---- पूर्व श्लोक में जिन तीनो गुणों का आत्मा के बंधन का हेतु एक साथ बताया गया है उनमें कहाँ और किन गुणों से बंधता है अलग अलग कहते हुए सत्वगुण को निर्मल यानी जो मल अर्थात आगे राजस और तामस गुणों में कहे जायेंंगे वे सत्व गुण में एक भी नहीं होते हैं, इसी निर्मलता-- निर्विकारता के कारण प्रकाशक अर्थात जो जैसी वस्तु है, वैसी की वैसी ही दिखना यही प्रकाशकत्व है । जो जैसी वस्तु है वैसी की वैसी दिखना ही अनामय है । आमय माने रोग होता है और जिसमें रोग न हो वह अनामय है अर्थात विकृति रहित । जो जैसी वस्तु है वैसी की वैसी ही जब दिखेगी तो उसमें विकल्प नहीं होगा यह विकल्प ही दुःख का हेतु है अतः यह दुःख नामक रोग नहीं होगा । अब शंका होती है कि जब दुःख नहीं होगा तो सुख होगा यह तो बहुत अच्छी बात है । इस पर कहते हैं कि सुख तो है लेकिन सुख के साथ बांध देता है । फिर और सुख और सुख…., बस और और करने में दुःख बुलाना नहीं पड़ता है वह स्वतः ही अतिथि बनकर आ जाता है । और दीजिए हे प्रभू और और पुनि और । 'शिवा' और ही और में होता औरहिं और ।। इतना ही नहीं यह ज्ञान से भी बांध देता है । यहाँ शंका हो सकती है कि ज्ञान तो मोक्ष का भी हेतु है तो वह बंधन कैसे कर सकता है ? इसका उत्तर यह है कि ज्ञान दो प्रकार होता है एक वह ज्ञान जो स्वरूपभूत है और दूसरा ज्ञान जो अन्तःकरण की एक वृत्ति है जिससे यह वेद पढ़ लिया, अब उपनिषद, दर्शन, मीमांसा आदि पढ़ना है । जीवन भर इसी में लगे रहे ज्योतिषादि में त्रिकालज्ञ बनने में लगे रहे । इस प्रकार सत्वगुण सुख और ज्ञान अन्तःकरण की वृत्ति होने के कारण क्षेत्र के अन्तर्गत होने से बन्धन का कारण है, क्योंकि सुख से आसक्ति और ज्ञान से ज्ञानी होने का अहंकार उत्पन्न होता है यही बंधन का कारण है, जबकि आत्मा नित्यमुक्त एवं निर्विकार है ।
शंका--- भगवान पहले अर्जुन को त्रिगुणातीत होने के लिए नित्य सत्त्वस्थ २/४५ होने की बात कहते हैं और यहां बन्धन का कारण भी सत्त्वस्थ को बता रहे हैं यहाँ विरोध दिख रहा है ।
समाधान---- वहां सत्त्वस्थ के साथ नित्य भी कहा है जबकि यहाँ स्वयं ही सुख और ज्ञान से बंधने की बात कहकर इस सत्त्वगुण को अन्तःकरण की वृत्ति बता रहे हैं । वहां के नित्य सत्त्वस्थ का भाव यह है कि जो संपूर्ण भिन्न भिन्न आकृति, स्वभाव वाले प्राणियों में एक ही अव्यय परमात्मा को देखता है उस ज्ञान को सात्विक ज्ञान जानना चाहिए ।।१८/२०।। इस प्रकार यहाँ कोई विरोध नहीं है ।।
भावार्थ---- मुमुक्षु को सुख यानी अधिक सुविधाओं से भी बचना चाहिए और एक सीमा तक स्वाध्याय करने के बाद पुस्तकें रख देना चाहिए एवं अपने लक्ष्य परमप्रकाशक आत्मतत्त्व की ओर केन्द्रित हो जाना चाहिए । ऐसा भावार्थ है ।।६।।
संबंध---- रजोगुण का लक्षण…..
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ।।१४/७।।
शब्दार्थ---- हे कौन्तेय ! रजोगुण आसक्ति स्वरूप है जो विषयों की संगति से उत्पन्न तृष्णा से होती है ।
तात्पर्यार्थ---- हम पहले विषयों का संग करते हैं जिससे उसके गुण और दोष का ज्ञान प्राप्त होता है क्योंकि जिस विषय को न हमने देखा और न ही सुना हो उसकी इच्छा हम कर भी कैसे सकते हैं, अतः विषयों-विषयी का संग ही तृष्णा का और तृष्णा आसक्ति का मूल कारण है । जो विषय वस्तु प्राप्त नहीं है उसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा ही तृष्णा है और जो प्राप्त वस्तु है उसके प्रति हमारी अधिक प्रीति होना, उसके बिना अपने को विक्षेप होना, क्षोभ होना यही आसक्ति है । जहाँ सत्वगुण सौम्य है वहीं रजोगुण विक्षेप से परिपूर्ण है । इसी रजोगुण के कारण अन्तःकरण की वृत्तिरूप सत्त्वगुण की स्थिति ध्यान, आत्मनिष्ठा का भी त्याकरके बड़े बड़े धुरंधर वीतरागी भी आश्रम, गोशाला आदि के चक्कर में पड़ जाते । कुल मिलाकर प्रवृत्ति ही जिसका एकमात्र लक्षण है जिसके कारण मानव विक्षेप को प्राप्त होता है वह रजोगुण है ।।७।।
संबंध---- तमोगुण का लक्षण….
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निध्नाति भारत ।।१४/८।।
तात्पर्यार्थ---- हे भारत ! संपूर्ण शरीधारियों को मोहित करने वाला अज्ञान से उत्पन्न तमोगुण है । वह प्रमाद, आलस्य, निद्रा से बांध देता है ।
तात्पर्यार्थ---- मोहित करना अर्थात मूढभाव को प्राप्त होकर कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध न होना । प्रमाद अर्थात जो आज और अभी ही करना चाहिए उसे कर लेंगे, करना ही तो है, कल कर लेंगे आदि विषादी दीर्घसूत्री च १८/२८ यह प्रमाद का लक्षण है । आलस्य यानी अपने कर्त्तव्य कर्म में प्रवृत्ति का न होना । निद्रा यानी जो अनावश्यक निद्रा है आलस्य में पड़े हैं काम से बचने के लिए ऐसा जो स्वास्थ्य और मन को प्रभावित करे वह निद्रा तामसी निद्रा है । युक्ताहारविहारस्य…..। युक्त स्वप्नावबोधस्य…..।। ६/१७ का भी ध्यान रखना चाहिए । ये सब अज्ञान से उत्पन्न होते हैं । पहले सत्त्वगुण में जो कुछ भी कहा ठीक उसके उल्टा यहां समझना चाहिए इसीलिये, वहां जो ज्ञान कहा उसके ठीक यहां उल्टा अज्ञान कहा । वहां सुख कहा और यहां दुःख नहीं कहा तो दुःख का अध्याहार कर लेना चाहिए क्योंकि प्रमादी, आलसी, अधिक सोने वाला रोगी होगा तो भी दुःख होगा आलस्य प्रमाद के कारण परिवारजनों एवं समाज से भी तिरस्कृत होगा तो भी दुःख होना ही है अतः दुःख का अध्याहार कर लेना चाहिए । यही इसका तात्पर्य है ।
टिप्पणी---- श्लोक छः में देहिनम् शब्द नहीं आया है जबकि सात एवं आठ में आया है अतः श्लोक छः में देहिनम् का अध्याहार करके चारों जगह देहिनम् १४/५ की ही व्याख्या समझना चाहिए ।।८।।
संबंध---- तीनों गुणों के बंधन करने से पूर्व का लक्षण…..
सत्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्माणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ।।१४/९।।
शब्दार्थ---- सत्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म में लगाकर भलीभाँति विजय पाता है जबकि तमोगुण ज्ञान को ढककर प्रमादी बनाकर विजयी होता है ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ सत्त्वगुण सुख से सीधे नहीं बांधता है उसमें आसक्ति के कारण बंधता है १४/६ । रजोगुण कर्म से नहीं बांधता बल्कि कर्म में आसक्ति के कारण बंधता है १४/७ । तमोगुण का स्वभाव ही वैसा है अतः संग की बात नहीं आती वह सत्वगुण में कही गई निर्मलता, प्रकाश, सुख, ज्ञान आदि को ढक लेता है । यही तीनो गुणों की देही पर विजय का पहला चरण है । विषयी जीव भलीभाँति विषयों के आधीन रहता है इसलिये सञ्जयति अर्थात सम्यक प्रकार से वह विषयी हो जाता है छूटने का कोई विकल्प नहीं होता है ।।९।।
संबंध---- कब कौन गुण प्रधान होता है इसका कथन….
रजस्तमश्चाभिभूयः सत्वं भवति भारत ।
रजः सत्वं तमश्चैव तमः सत्वं रजस्तथा ।।१४/१०।।
शब्दार्थ---- रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सतोगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण एवं सतोगुण और रजोगुण को दबाकर तमो गुण वृद्धि करता है ।
तात्पर्यार्थ---- जब जो एक गुण प्रधान होता तब वह दूसरे को दबाकर ही वृद्धि को प्राप्त होता है । इसके कई कारण होते हैं, पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप, वर्तमान की संगति के फलस्वरूप, खानपान के फल स्वरूप । जब जो गुण प्रधान होता है तब वह इससे पहले तीनो श्लोकों में कहे गये उन उन गुणों के कार्य का संपादन करता है ।।१०।।
संबंध---- सत्त्वादि गुणों की वृद्धि पर होने वाले वाले तीन श्लोकों में अलग अलग लक्षण….
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ।।१४/११।।
शब्दार्थ---- इस शरीर के सभी द्वारों जब प्रकाश और ज्ञान उत्पन्न हो, जाये तब सत्त्वगुण बढ़ा है ऐसा जानना चाहिए ।
तात्पर्यार्थ---- जिस समय सभी इन्द्रियों में प्रकाश हो जाये अर्थात सभी इन्द्रियां अपने अपने विषयों का ठीक ठीक वस्तु निश्चय करने में समर्थ ह़ो जैसे आंखों से मात्र वही देखना जो शास्त्रीय, वैदिक और मर्यादित अर्थात सदाचार संपन्न हो, जैसे तीर्थ, संत आदि दर्शन, कान भी मात्र सदाचार संपन्न वाणी का ही श्रवण करें जैसे श्रुति, शास्त्र एवं महापुरुषों के वचन, वाणी भी वेदमंत्र का उच्चारण हरि कीर्तन आदि ही पसंद करे । इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रियां अपने अपने कार्य का वस्तु निश्चय करने में समर्थ एवं प्रसन्न हों यही इन्द्रियों का प्रकाश यानी तेज है । यहाँ जो ज्ञान कहा गया है उससे उसका अर्थ यद्यपि विवेक है तथापि यहां सत्त्वगुण के सुख और ज्ञान से बंधन की बात चल रही है अतः यहाँ अन्तःकरण चतुष्टय के अनतर्गत आने वाला सदसद् विवेक वाला विवेक यहाँ नहीं कहा जा सकता है । यहाँ कभी मन में वैराग्य की वृत्ति जाग्रत होगी लेकिन उस वृत्ति में भी देव आदि लोक की कामना से, ऐश्वर्य की कामना का होना, पूजा-पाठ आदि कर्मकांड में प्रवृत्त होना । शास्त्रीय, वैदिक, ज्योतिष आदि के लौकिक ज्ञान का ज्ञानी होने की कामना इत्यादि अहंवृत्ति और सुखवृत्ति उत्पन्न करने वाली जो वृत्ति है वह सतोगुण के बढ़ने पर होती है ऐसा समझना चाहिए ।।११।।
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ।।१४/१२।।
शब्दार्थ---- हे भरतश्रेष्ठ ! रजोगुण के बढने पर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, और स्पृहा अर्थात चिंतित होना ये सभी उत्कृष्ट रूप से बढ जाते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- लोभ यानी जीवन निर्वाह के लिए जितना आवश्यक है उतना हमारे पास है उतने से संतुष्ट न होना, दूसरे के धन की भी इच्छा करना इत्यादि लोभ है । प्रवृत्ति यानी निरंतर प्रयत्नशील रहना, यहां चूंंकि आत्मा के बंधन के साधन कहे जा रहे हैं अतः निरंतर प्रयत्नशील रहने का अर्थ है कि उसके पास इतना अधिक धन है तो क्या हुआ, मैं एक न एक दिन उससे अधिक धनवान बनूंगा, इस प्रकार उसके अन्दर राग द्वेष पूर्वक उस-उस कर्म के लिए प्रयत्नशील रहने की जो प्रवृत्ति है यही बंधन का हेतु राजसगुण है । यही राजस कर्म की जो प्रवृत्ति है ऐसे कर्म के आरंभ यानी प्रारंभ करने पर अशान्ति ही होती है । कर्मणामशमः अर्थात ऐसे राग द्वेष पूर्ण कर्म के करने में ही इन्द्रियाँ अशम अशान्त अर्थात अनियंत्रित हो जाती हैं और फिर अनियंत्रित इन्द्रियों के कारण ही कर्मासक्ति होती । ऐसे व्यक्ति कभी शान्ति को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि उसमें राग पूर्वक दूसरे से आगे बढ़ने की कामना के कारण स्पृहा अर्थात स्पर्धा हो जाती है । स्पर्धा उस इच्छा का नाम है जहाँ दूसरे की उन्नति से व्यक्ति में जलन होने लगती है और हर परिस्थिति में उसको नीचा दिखाने और उससे स्वयं के आगे बढने की होड़ लग जाती है । ये सभी लक्षण जब दिखें तो समझना चाहिए कि रजोगुण बढ गया है ।
भावार्थ---- यहाँ रजोगुण के कारण जिनका निषेध करने का संकेत किया गया है वहीं सत्वगुण के बढ़ने पर वही गुण आचरणीय है । जैसे यहां प्रवृत्ति का निषेध है तो सत्वगुण में यही प्रवृत्ति रागादि से रहित होने पर आचरणीय है १४/२२, यहाँ कर्म का आरंभ दोषपूर्ण है तो सत्वगुण के बढ़ने पर आसक्ति रहित चित्तशुद्धि के निमित्त किया जाने वाला निष्काम कर्म विहित है । यहां के कर्म में आशन्ति है तो सत्वगुण के कर्म में शान्ति है । स्पृहा यहाँ का त्याज्य है जबकि सात्विक स्पृहा अर्थात बिना किसी को नीचा दिखाने की कामना के आत्मोन्नति की इच्छा से आगे बढने की इच्छा आचरणीय है जैसे अमुक महात्मा साधना करके जब इतना आगे बढ़ गये तो मैं क्यों नहीं बढ़ सकता हूँ ? ऐसी साध्य की कामना से अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्रवण, मनन, निदिध्यासन में लगा जायेगा, ऐसा जो प्रारंभिक भाव है वही मुमुक्षु को प्रकाश अर्थात नित्यानित्य विवेकपूर्वक ऊपर उठाकर निस्त्रैगुण्य कर देगा और वह लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा । ऐसा भावार्थ है ।।१२।।
संबंध---- तीनों गुणों के बढे हुए लक्षण कहकर अब उन बढे हुए गुणों के समय शरीर त्याग होने पर गति का वर्णन दो श्लोक में….
यदा सत्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपतिपद्यते ।।१४/१४।।
शब्दार्थ---- जिस समय सतोगुण बढा हो उस समय शरीर का त्याग करने वाला देहधारी कर्मों का उत्तम ज्ञान रखने वाले निर्मल लोकों को प्राप्त होता है ।
तात्पर्यार्थ---- गांव की कहावत है--- अन्ते मती स गती अर्थात मृत्युकाल में जैसी बुद्धि होगी वैसी ही गति होती । कृष्ण कहते हैं--- जिस जिस का स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है उसी प्रकार की गति प्राप्त करता है ८/६ वही यहां स्पष्ट करते हैं कि आपने जीवन भर क्या किया कोई मतलब नहीं, आपके शरीर में मृत्यु के समय कौन सा गुण बढा हुआ है उसी के अनुसार गति होगी । इसीलिये जब शरीर को धारण करने वाले प्राणी का मरते समय सत्त्वगुण बढता तो उत्तम चिंतन करेगा और उसी के अनुसार जो कर्म शास्त्र के उत्तम ज्ञाता के लोक हैं अर्थात उनकी गति जिन निर्मल लोकों में होती है वही गति उसकी होगी ।
भावार्थ--- यहां यह ध्यान देना आवश्यक है कि गीता अध्याय आठ के अनुसार ब्रह्मलोक में दो प्राकार के प्रणियों की गति होती है । एक वे जो ब्रह्मलोक जाकर वहीं से क्रम मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं । वे अव्यत अक्षर उपासक होते हैं । दूसरे वे जो ब्रह्मलोक जाकर पुनः जन्म लेते हैं । भुवः, स्वः,महः जनः तपः सत्यम् ये सभी लोक ब्रह्म लोक के अन्तर्गत ही आते हैं । इन लोकों को ही निर्मल लोक कहा जाता है । ये मरने वाला प्राणी पूर्व जन्म के किसी पुण्य कर्म के प्रभाव में आकर अन्तिम समय में सत्वगुण की वृद्धि के बढ जाने के कारण शुद्ध सात्विक भाव मन में बन गया और उसी का चिंतन करता हुआ शरीर का त्याग करता है जिनका अनुष्ठान आजीवन यज्ञ, दान, तप आदि कर्मों के मर्मज्ञ करते हैं उनको जो गति होती है वही गति इसकी भी होती है । किन्तु कालान्तर में इसका जन्म भी होता है । यहां जन्म का यद्यपि प्रसंग नहीं है मात्र गति का ही है तो भी जो सात्विक सुख के बंधन की बात कही और आगे भी ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था १४/१८ आदि कहेंगे उसके अनुसार यहाँ अक्षरोपासना वाले की क्रम मुक्ति वाला ब्रह्मलोक न समझकर कर्मशास्त्र के पण्डितों का लोक समझना चाहिए । ये सभी निर्मल लोक हैं । इन लोकों से वापस जन्म लेने वाला प्राणी पुनः शुद्ध सात्विक गुणों का आश्रय लेकर परमगति को प्राप्त कर लेते । यह भाव समझना चाहिए ।।१४।।
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ।।१४/१५।।
शब्दार्थ---- रजोगुण के बढने पर कर्म का संग करने वालों के यहां उत्पन्न होते हैं और तमोगुण के बढ़ने पर मूढयोनि को प्राप्त होते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- रजोगुण के बढने से मरने पर मनुष्य की योनि प्राप्त होती है । गीता में कर्म का अर्थ शास्त्रीय कर्म ही है यह कभी नहीं भूलना चाहिए । तीनो लोकों में मृत्युलोक ही ऐसा लोक है जहाँ पर मात्र मनुष्य को ही कर्म करने का अधिकार है । अतः रजोगुणी जो कर्मासक्त हैं जो यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्मों में सकाम लगे रहते हैं उन स्वर्गादि कामना वालों के यहाँ जन्म लेते हैं । तमोगुण के बढने पर जब शरीर का त्याग करता है तब पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि योनि लेते हैं ।
टिप्पणी----कर्मों का उदय इस प्रकार देखा जाता है कि ये प्रत्यक्ष घटानाएं देखी गई हैं जीवन भर व्यक्ति सदाचार संपन्न रहा किन्तु जीवन के कुछ अन्तिभाग में चोरी की वृत्ति बन गई । अब ऐसा व्यक्ति मरकर कहां जायेगा ? स्वाभाविक है कि वह जिनके घर जन्मजात चोरी लूट होती है ऐसे कोल, भीलों के यहाँ जन्म होगा । जीवन भर जिन परिवारों में सात्विक और शास्त्रीय कर्म देखे गए, मांस का मन से भी स्पर्श नहीं, मरते समय मांस खाने को मांगते देखे गये हैं । ऐसा लोगों को मरकर गिद्ध आदि जन्म से मांस के अधिकारी के रूप में जन्म लेना ही है । कुछ लोग जीवन भर दूसरों को पीड़ा देने और कुकर्म करने के अतिरिक्त दूसरा काम नहीं करते वे जीवन के अन्तिम काल में उत्कृष्ट सर्वकर्मसन्न्यासी हो जाते हैं । यही अन्तिम समय में पूर्वकृत पुण्यापुण्य, संगति और आसपास एवं पारिवारिक वातारण के माध्यय से गुणों का प्राकट्य ऊंच-नीच गति देता है । साथ ही यह भी मन में बैठाकर रखना आवश्यक है कि कर्म कभी बंधन नहीं देता है उसकी आसक्ति ही बंधन देती है । आसक्ति न हो तो वही कर्म चित्तशुद्धि करके मोक्ष का अधिकारी बना देता है ।।१४/१५।।
संबंध--- उपरोक्त तीनो गुणों से मरने वाले प्राणी की गति कहकर अब तीनो की उत्पत्ति के पश्चात उनका लक्षण क्या होगा उसको कहते हैं….
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्विकम् निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ।।१४/१६।।
शब्दार्थ---- सात्विक गुण का फल शुभ एवं निर्मल होता है, रजोगुण का दुःख एवं तमोगुण का फल अज्ञान होता है ।
तात्पर्यार्थ---- सात्विक गुण को लेकर जन्म लेने वाले प्राणी का प्रत्येक कर्म शुभ यानी समाज का और अपना भी जिसमें कल्याण हो ऐसे ही कर्म करते हैं । वह श्रुति शास्त्र का चिंतन, यज्ञ, दान, तप, एवं वस्तु तत्त्व का निश्चय यानी आत्म ज्ञान की प्राप्ति में ही उसका जीवन व्यतीत होता है । ऐसी पुण्यात्माओं के लिए ही शास्त्र कहता है--- स्वर्गस्थितानामिह जीव लोके चत्वारि चिह्न्नानि वसन्ति देहे । दान प्रसङ्गो मधुरा च वाणी देवार्चन ब्राह्मण तर्पणं च ।। अर्थात दान मे स्वाभाविक रुचि अर्थात दानशीलता, वाणी और कर्म में विनम्रता अर्थात अहंकार रहित, यज्ञादि द्वारा देवताओं की उपासना, और ब्राह्मण अर्थात ब्राह्मण का लक्ष्यार्थ परमार्थपथ के तत्त्वदर्शी पुरुषों की सेवा ये चार लक्षण सात्विक पुरुषों में स्वभाव से होते हैं इन्हें स्वर्ग से आया हुआ अर्थात स्वर्ग का देवता कहते हैं जो यहाँ पर भूसुर यानी पृथ्वी के देवता के नाम से जाने जाते हैं । कर्मों के फल में निर्मलता का मतलब विक्षेप आदि से रहित ।
राजसी कर्मों का फल दुःख है स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुःखदायी । अर्थात राजसी सकामी स्वर्गादि अल्प कालिक सुख की कामना वाले बारंबार दुःखी ही रहते हैं । तमस का फल अज्ञान होता है जिसका विवरण पीछे दे चुका हूँ और अध्याय अठारह में पुनः दिया जायेगा ।।१६।।
संबंध---- पुनः तीनो गुणों का फल बता रहे हैं….
सत्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ।।१४/१७।।
शब्दार्थ---- सत्त्वगुण से ज्ञान की और रजोगुण से लोभ की, तमोगुण से प्रमाद, मोह, और अज्ञान की भी उत्पत्ति होती है ।
तात्पर्यार्थ----- हमने ज्ञान का अर्थ वस्तु निश्चय यानी वस्तु जैसी है वह सर्वद्वारेषु देहेस्मिन्प्रकाश १४/११ इत्यादि में कर दिया है इसी प्रकार लोभ और प्रमादादि का भी वर्णन पीछे देख लेना चाहिए । इन तीनो गुणों का विस्तृत विवेचन पुनः अठारहवें अध्याय में होगा ।।१७।।
संबंध---- तीनो गुणों की वृद्धि से होने वाली मृत्यु का कथन श्लोक १४-१५ में हो चुका है और अब जिनका जीवन ही उन गुणों से ओतप्रोत है उनकी गति का वर्णन करते हैं….
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ।।१४/१८।।
शब्दार्थ---- सतोगुण में स्थित को ऊर्ध्व गति होती है, रजोगुणी की स्थिति मध्य और तमोगुणी की गति निम्न प्राप्त होती है ।
तात्पर्यार्थ---- सत्वगुणी का जीवन शुभ कर्मपरायण होता है । शिव, विष्णु आदि देवताओं की आराधना में भी लगे रहते हैं, श्रवण, मनन, निदिध्यासन में भी लगे रहे लेकिन परमतत्त्व को प्राप्त नहीं कर सके वे ऊपर के स्वर्ग, शिव, विष्णु आदि लोकों में देवस्वरूप को प्राप्त करते हैं, किन्तु रजोगुण में पाप और पुण्य दोनो होते हैं, ये सकाम कर्मी हैं, अतः वे पुनः मध्यलोक यानी पृथ्वी पर कर्म प्रधान मनुष्य बनते हैं । तमोगुण में कई विभाग करने होंगे । १- तमोगुण प्रधान कोल, किरात, म्लेच्छ आदि हिंसा प्रधान मानव जाति ये भी अधोगति है । २- पशु, पक्षी आदि चर प्राणी ये भी अधोगति है । ३- वृक्ष, घास, धान्य आदि ये भी अधोगति है यद्यपि ये सभी मध्यलोक पृथ्वी पर ही हैं तथापि अधोगति अर्थात नीचे गिरना है । ४- पक्षी ये आकाश और पृथ्वी दोनो का आश्रय लेने वाले तिर्यग हैं और अधः का अर्थ मध्यलोग से नीचे यानी पाताल में रहने वाले, इन्हें जमीन में बिल, कन्दरा, वृक्ष को खोडर में रहने वाले चूहे, सर्पादि समझ सकते हैं । और भी विभाग हो सकते हैं तथापि विस्तार की आश्यकता नहीं है ।।१८।।
संबंध---- दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।७/१४। ये गुणों वाली जो माया है अत्यंत दुर्लंघ्य है, इसका पार पाना कठिन है । पुरुष प्रकृति में बैठ गया है और उसके गुणों से उत्पन्न सुख दुःख का भोग करने लगा । जो असंग था वह अब प्रकृति से उत्पन्न गुणों की संगति के कारण ऊंच नीच योनियों में भ्रमण करने लगा १३/२२ । श्लोक पांच में प्रकृति से उत्पन्न गुणों ने शुद्ध आत्मा को अशुद्ध, बुद्ध यानी ज्ञान स्वरूप आत्मा को अबुद्ध यानी अज्ञानी बनाकर मुक्तात्मा को बंदी बना लिया है । फिर बंदी होने के कारण, गुण, क्रिया, उत्थान, पतन कैसे उन प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा होता है इसका विस्तृत विवेचन श्लोक पांच से अठारह तक चौदह श्लोकों में किया गया । अब अगले दो श्लोकों में वह किस प्रकार स्वयं को मुक्त और ब्राह्मी भाव में देखेगा इसका वर्णन करते हैं…..
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ।।१४/१९।।
शब्दार्थ---- जब मुमुक्षु गुणों से अतिरिक्त कोई दूसरा कर्ता नहीं देखता स्वयं को गुणों से पर अर्थात भिन्न जानता है तब वह मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है ।
तात्पर्यार्थ---- द्रष्टा यानी देखने वाला मुमुक्षु अनुपश्यति अर्थात भलीभाँति अनुभव कर लेता है कि गुणों से अतिरिक्त और कोई दूसरा कर्ता नहीं है । सभी गुण ही गुणों में व्यवहार या वर्ताव कर रहे हैं गुणागुणेषु वर्तन्ते ३/२८ मैं कुछ नहीं करता हूँ । गुण यानी प्रकृति से उत्पन्न शरीर, इन्द्रियां और अन्तःकरण चतुष्टय यानी मन, बुद्धि, अहंकार एवं चित्त ये चारो सब मिलकर परस्पर प्रकृति के गुण हैं और वही सब कर रहे हैं मैं कुछ नहीं करता । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते ५/९ अर्थात प्रकृति के गुण इन्द्रियां इन्द्रियों के विषय मे वर्ताव कर रही हैं मैं तो इनसे भिन्न एवं अकर्ता हूँ, इस प्रकार जब ईश्वर की अनुग्रह से, श्रुति, शास्त्र, आचार्य एवं आत्मकृपा से-- यहाँ आत्मकृपा इसलिए कहा कि पहले ही भगवान कह चुके हैं इदं ज्ञानमुपाश्रित्य १४/२ अतः ये ज्ञान की उपासना या शरण ही आत्मकृपा है इन चारों की कृपा प्राप्त होने पर स्वयं को गुणों से परे पुरुषः परः १३/२२ अर्थात असंग पुरुष जान लेता है । इस प्रकार स्वयं को असंग पुरुष जानते ही क्षेत्रज्ञ मेरे भाव अर्थात ब्राह्मी भाव यानी अभिन्नता को प्राप्त हो जाता है । यहाँ कृष्ण कह रहे हैं इसका अर्थ साढे तीन हाथ के शरीर वाला कृष्ण नहीं बल्कि ब्यापक ब्रह्म ही यहाँ कृष्ण है । ऐसा तात्पर्य है ।।१९।।
संबंध---- इस प्रकार त्रिगुणातीत का अनुभव करके ब्राह्मी भाव को कैसे प्राप्त होता है यह बता रहे हैं…..
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ।।१४/२०।।
शब्दार्थ---- जब शरीरधारी यानी जीव अपने को तीनो गुणों के उत्पत्ति के बीज तीनो गुणों से भिन्न अपने को जान लेता है तब वह जन्म, मृत्यु, बुढापा के दुःखों से मुक्त होकर अमृत को प्राप्त करता है ।
तात्पर्यार्थ---- यहां स्पष्ट रूप से जीव को तीनो गुणों से अतीत यानी दूर कहा गया है मतलब यह हुआ कि प्रकृति और पुरुष का कोई दूर दूर तक संबंध ही नहीं है किन्तु वह अपने को एक आकृति विशेष के रूप में माया के के गुणों की आधीनता स्वीकार करके परिच्छिन्न देखने लगा । यह परिच्छिन्नभाव जब तीनों गुणों का ठीक ठीक आचार्य आदि के प्रसाद से विश्लेषण कर लेता है तब अनुभव करता है कि मैं जिसे मैं मान बैठा था उसका तो मुझसे दूर दूर तक संबंध नहीं है । ऐसा अनुभव करके प्रकृति और उसके कार्य गुणोपलक्षित शरीर और इन्द्रियां उनसे संबधित शब्दादि पांचों विषयों से संबंध तोड़ लेता है । ऐसा करते ही जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा के दुःख से मुक्त होकर अमृत अर्थात जीते जी मोक्षस्वरूप हो जाता है । जन्मादि के दुःख से मुक्त होने का मतलब है कि जब मोक्षस्वरूप हो गया तो विदेह कैवल्य के पश्चात जन्मादि होगा ही नहीं तो दुःख भी स्वाभाविक नहीं होगा । अमृत का अर्थ मोक्षस्वरूप इसलिये कि जब पूर्वोक्त के अनुसार त्रिगुणातीत का अनुभव होते ही ब्राह्मीभाव को प्राप्त हो जायेगा तो यही यहाँ पर अमृत के रूप में कहा है अतः ब्राह्मीभाव और अमृत एक ही है । ऐसा समझना चाहिए ।।२०।।
संबंध---- पूर्वोक्त श्लोक में देह में रहता हुआ तीनों गुणों का अतिक्रमण करने वाला मोक्षस्वरूप हो जाता है यह सुनकर अर्जुन को उसकी पहचान समझने की इच्छा हुई और…..
अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैत्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ।।१४/२१।।
शब्दार्थ---- हे प्रभो ! त्रिगुणातीत के लक्षण कैसे होते हैं ? उसका आचरण कैसा होता है और वह किस प्रकार तीनों गुणों को पार करता है ?
तात्पर्यार्थ---- अध्याय दो में सिद्ध के लक्षण अर्जुन पूछ चुके हैं और भगवान उत्तर भी दे चुके हैं । अब शैली भेद से फिर सिद्ध का वर्णन हुआ तो उसी भेद से पुनः अर्जुन प्रश्न करता है । यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि एक ही बात बार बार अन्यान्य शैली से क्यों करना ? बल्कि प्रश्न यह है कि किसका अधिकार कैसा है और उसके मस्तिष्क द्वारा किस शैली को स्वीकार किया जायेगा ? इसी दृष्टि से भगवान जिस प्रकार चार प्रकार के भक्त बताये हैं उसी प्रकार अध्याय बारह में चार प्रकार के साधन भी बताया और अध्याय तेरह में उसी तत्त्व का वर्णन अधिकार भेद से करते हुए उसके भी अधिकारी अलग अलग ही बताए हैं । अतः सबकी समझ में बात आ जाये इसलिये शैली भेद का आश्रय लिया जाता है । उसी न्याय से यहाँ सिद्व का वर्णन किया तो अर्जुन उसके विषय में उसी न्याय से जिज्ञासु होकर प्रश्न भी करता है कि--- हे प्रभो ! जो तीनो गुणों को पार कर चुका है उसका लक्षण क्या होता है ? और उसका आचरण कैसा होता है ? यानी चलना, फिरना बोलना इत्यादि व्यवहार कैसा होता है और वह त्रिगुणातीत होता कैसे है ?
संबंध---- भगवान पांच श्लोकों में उत्तर देंगे, जिसमें पहले श्लोक में स्वसंवेद्य अन्तरंग एवं दूसरे में बाह्य लक्षणों का कथन…..
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ।।१४/२२।।
शब्दार्थ---- हे पाण्डव ! प्रकाश एवं प्रवृत्ति और मोह के भी भलीभाँति प्रवृत्त यानी बढ जाने पर न तो उनके प्राप्त होने और न ही निवृत्त होने की इच्छा करता है ।
तात्पर्यार्थ---- पूर्व में कहे गये इन्द्रिय एवं उनसे संबधित प्रकाश यानी वस्तु निश्चय और वस्तु के प्राप्त हो जाने पर उनमें भलीप्रकार कभी प्रवृत्ति नहीं होती अर्थात भली प्रकार प्रवृत्ति का मतलब सत्वगुण संबंधित कर्म जैसे ध्यान अच्छा लगाता है और किसी दिन ध्यान नहीं लगा तो विचलित हो जाना यह जो सत्वगुण के प्रति आसक्ति है इस आसक्ति के कारण ध्यान नहीं लगा यह सोचकर दुःखी होना और फिर उसमें प्रवृत्त होना यह राजसी गुण है । इसी राजसी गुण के कारण क्रोध आना जिससे मूढता का छा जाना यही तमोगुण का मोह है । इस मोह के आने पर अपना विवेक खो देता है और विपरीत निर्णय ले लेता है जैसे कि संभवतः मधुसूदन सरस्वती या किसी महापुरुष के विषय की ये घटना सुनी थी कि वे कृष्ण का अनुष्ठान करते थे दर्शन न होने के कारण उपासना विमुख होकर गंगा के किनारे भ्रमण कर रहे थे जहाँ किसी वाममार्गी के निर्देश से प्रेत की आराधना करते हैं । प्रेत सिद्ध होने पर पर वह आता है और पीछे खड़ा होकर वर मांगने को कहता है किन्तु उन महापुरुष ने सामने आने की बात कही, तो प्रेत ने कहा कि मेरी सामने आने की सामर्थ्य नहीं है क्योंकि तुमने कृष्ण का अनुष्ठान किया है जिसका तेज इतना प्रबल है कि सामने आते ही मैं भस्म हो जाऊंगा । उक्त महापुरुष ने कहा कि जब आप सामने नहीं आ सकते तो मैं तुमसे कुछ नहीं मांग सकता और पुनः काशी जाकर अनुष्ठान किया और कृष्ण का दर्शन हो गया । तो अब देखिए कार्य तो सात्विक है किन्तु उसमें आसक्ति के कारण प्रवृत्ति बनी राजस हो गया और फिर तामस होकर कहाँ ले गया ? तीनो गुण परस्पर कभी भी मुमुक्षु में उपस्थित हो सकते हैं । बहुत लोग जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सर्वकर्मसन्न्यासी होकर परिब्रजन करते हैं और बुढापे में विवाह कर लेते हैं, बहुत लोग जीवन भर लोगों को परेशान करना, दूसरे की संपत्ति लूटना आदि पता नहीं क्या क्या कुकर्म करते हैं और जीवन के अन्तिम समय में एक उत्कृष्ट मुमुक्षु बनकर मोक्ष का साधन अपना कर उत्तम गति प्राप्त करते हैं इत्यादि यह गुणों का उदय होना व्यवहार में भी देखा जाता है । तमोगुण ऐसा उदय हो जाता है कि साधक बिना किसी कारण या प्रयोजन के आत्महत्या भी कर लेता है । यही जो पूर्व में प्रकाश यानी सत्वगुण, प्रवृत्ति यानी रजोगुण और मोह यानी तमोगुण का परिचय कराया और उन उन गुणों से मृत्यु एवं गति का वर्णन किया उसका कारण यही है कि यदि मुमुक्षु की दृष्टि में ऐसा कोई परिवर्तन दिखता है तो उन पर दोषारोपण न करके उसके पूर्व के अनेक जन्मों के किये गये कर्मफल का उदय समझना चाहिए और यदि अपने में ऐसा परिवर्तन कभी दिखे तो सात्विक-- ध्यान, पूजा, भजन, श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि सत्त्विक होने पर भी, है तो अन्तःकरण की एक वृत्ति ही, इसी प्रकार रजोगुण संबंधित वेदपाठ, कर्मकांड, स्वाध्याय आदि सब रजोगुणी है और वस्तु निश्चय न करने की मूढता छा जाना यानी मोह भी तमोगुण ही है ऐसा ये अन्तःकरण की वृतिरूप हैं । इन सभी भाव में स्थाणुरचलोऽयं २/२४ यानी ठूंठ की तरह स्थिर रहना यही त्रिगुणातीत का स्वसंवेद्य आन्तरिक लक्षण है इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता ।
अतः तीनों गुणों की ये प्रवृत्तियां हैं मुमुक्षु सात्त्विक गुण संबंधित अन्तःकरण के साधन है ऐसा जानकर इनके आने पर प्रसन्न नहीं होना चाहिए यानी आसक्त नहीं होता और न ही दुःख देने वाले गुणों के उत्पन्न होने पर द्वेष ही करता । एवं तमोगुण की वृद्धि होने पर उनसे छुटकारा पाने की भी इच्छा नहीं रखता । इन सभी वृत्तियों के उदय होने पर वह दृष्टा भाव से मात्र उन्हें देखता रहता है उन्हें देखना मतलब वे अन्तःकरण यानी प्रकृति के धर्म हैं मेरे नहीं ऐसा विचार कर आपने आपमें मस्त रहता है ऐसा भाव है ।
सारांश---- अनुकूल और प्रतिकूल उसके लिए कोई महत्त्व नहीं रखते ।।२२।।
उदावसीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणावर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ।।१४/२३।।
शब्दार्थ---- उदासीन के समान स्थित जो गुणों से विचलित नहीं होता । गुण ही व्यवहार कर रहे इस प्रकार जो स्थित रहता हुआ विचलित नहीं होता ।
तात्पर्यार्थ---- यद्यपि ये लक्षण भी स्वसंवेद्य ही हैं तो भी कुछ अंश में बाहर प्रकट हो ही जाते हैं । जैसे ओंकारेश्वर में जब नागर घाट नहीं बना था किन्तु शुरुआत हो गई थी । उस समय विज्ञानशाला में एक जनसामान्य दृष्टि से एक पागल रहता था । गंदे फटे पुराने कपड़ों में, इधर उधर से चीथड़े बीनकर लपेटे रहता था । एक बार मैं ओंकारेश्वर दर्शन को निकला तो देखा कि वह पागल पत्थरों में गिर गया । वृद्ध था शरीर संभलता नहीं था । हमने दौड़कर उठाने का प्रयत्न किया तो उसने दूर से ही डांट दिया और छूने नहीं दिया । हमने उसको कहा आप गिर गये चोट आ गई तो मुझे उठाने क्यों नहीं देते ? उसने कहा--- आत्मा कभी गिरता भी नहीं, उठता भी नहीं और शरीर को कोई गिरने से रोक भी नहीं सकता और उठा भी नहीं सकता है । चोट शरीर को लगी है मुझे नहीं । तुम जाओ मैं स्वयं उठ जाता हूँ । मैं जिसे हमेशा पागल समझता था, पागल समझने वालों में मैं अकेला नहीं लगभग पूरा समाज था उसके माध्यम से यह आत्मतत्त्व का उपदेश मुझे अचंभित कर गया । तो ऐसे सर्वकर्मसंन्यासी के लिए कोई मर जाये कोई मतलब नहीं, जीवित रहे कोई मतलब है, कोई किसी से संबंध ही नहीं । बिल्कुल नदी के तट पर स्थित सूखा ठूंठ । नदी सूख जाये मतलब नहीं, बहुत बड़ी बाढ आ जाये मतलब नहीं, उसे बहा ले जाये मतलब नहीं, छोड़ जाये मतलब नहीं यही होता है तटस्थ । यही है उदासीन के समान स्थित होना । हमेशा जब तटस्थ की बात आये तो बिना बताये समझ लेना चाहिए कि नदी तट पर स्थित सूखा ठूंठ, जिसका पत्ते, शाखा आदि से कोई न संबंध और न होगा । इसीलिये तो मुमुक्षु ब्रह्मविद्या की प्राप्ति के लिए सूखी समिधा यानी लकड़ी लेकर जाता है । जिसका अर्थ है कि इन सूखी लकड़ियों में जैसे पानी का लेश भी नहीं है वैसे ही पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत हमारे अन्दर भोगों के प्रति रस यानी आसक्ति नहीं है । जैसे इन सूखी लकड़ियों में हरे होने या पत्ते निकलने की संभावना भी नहीं हो सकती है वैसे ही हमारे अन्दर भविष्य में अब किसी भी प्रकार लौकिक, पारलौकिक, सुने गये और जो नहीं सुने गये हैं उनकी कामना की मेरे अन्दर संभावना न है, न होगी, और हो सकती भी नहीं । इसीलिए आत्मा का लक्षण स्थाणुरचलोऽयं २/२४ अर्थात ठूंठ के समान अचल बताया गया है वही यहाँ उदासीन की भांति स्वरूपस्थ तीनों गुणों पर विजय पाने वाला गुणावर्तन्त इत्येव कहा है कि गुण इस प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं मैं नहीं गुणागुणेषु वर्तन्ते ३/२८ इस शरीर सहित अन्तःकरण चतुष्टय तक सब तो प्रकृति के गुण हैं और उनके विषय भी अतः वही सब करने वाले हैं मैं तो ठूंठ की तरह स्थिर, एकरस, और अपरिवर्तनीय चैतन्य प्रकाश हूँ जबकि ये अस्थिर रस, परिवर्तनशील और जड़ एवं अंधकारमय हैं । मैं सत्स्वरूप हूँ, ये असत हैं, मैं सत्ता हूँ, इनकी कोई सत्ता नहीं । मैं आधार हूँ ये आधेय हैं इत्यादि भाव संपन्न नित्य ब्राह्मीभाव अर्थात वासुदेवः सर्वम्, सर्वंखल्वमिदं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि जैसे श्रुति के लक्ष्यार्थ भाव में स्थित होने के कारण कभी विचलित नहीं होता । इस प्रकार अर्जुन के प्रथम प्रश्न त्रिगुणातीत का लक्षण क्या होता है का उत्तर हो गया ।।२३।।
संबंध---- अब दो श्लोकों में दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हैं….
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिंदात्मसंस्तुतिः ।।१४/२४।।
शब्दार्थ---- सुख-दुःख में सम, स्वस्थ यानी स्वसंवेद्य आत्मभाव में स्थित, ढेला, पत्थर, स्वर्ण में सम, प्रिय-अप्रिय में बराबर, अपनी निंदा-स्तुति में धैर्यवान ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ यद्यपि धीर शब्द निंदा स्तुति के साथ दिया गया है तथापि सम और तुल्य शब्द अन्यत्र होने के उपरान्त भी सभी द्वन्दों के साथ अध्याहार कर लेना चाहिए । अर्थ अधिक बलवान होगा । सुख और दुःख में धैर्यपूर्वक समान भाव में रहना । सुख की अभिलाषा ही मानव जीवन को पता नहीं कहाँ से कहाँ ले जाकर डाल देती है । बड़े बड़े वीतरागी भी सुख के चक्कर में जीवन भर सुविधाएं खोजते खोजते अपना लक्ष्य ही भूल जाते हैं । अतः यहां धैर्यपूर्वक यह विचार करना चाहिए कि कुछ भी करो अन्त में यह प्रकृति का नियम है कि जो आया है वह जायेगा ही आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व २/१४ सुख हो या दुःख, जन्म हो या मृत्यु जो आया है वह जायेगा ही । हम आज सुख को सहन नहीं कर सके तो कल दुःख भी सहन नहीं होगा । दुःख संसार का प्रसिद्ध क्लेश है, लोग इसी दुःख से प्रभावित होकर ही पता नहीं क्या क्या कुकर्म सुख प्राप्ति के लिए करते हैं यहां तक लूटमार और आत्महत्या तक । किन्तु यह भी तो जायेगा इस बात का भी धैर्यपूर्वक विचार करना चाहिए । इस प्रकार धैर्य पूर्वक सुख के जाने के भय से सुख में राग न होकर उपरामता होना चाहिए और दुःख के भी समयानुसार जाने का विचार करके धैर्यपूर्वक उसे सहन करना यही सुख-दुःख में समत्त्व है ।
ढेला, पत्थर और सोना में धैर्यपूर्वक सम भाव का मतलब यह है कि मायामित्रमिंदं द्वैतं अद्वैतं परमार्थतः अर्थात परमार्थ स्वसंवेद्य है, किन्तु अन्दर से आसक्ति न रखकर मिट्टी, पत्थर और सोना पृथ्वी से उत्पन्न होने से पृथ्वी रूप ही हैं ऐसा भाव मन में रखते हुए बाहर के व्यवहार में मिट्टी का व्यवहार मिट्टी के साथ और पत्थर स्थानीय पत्थर का एवं स्वर्ण स्थानीय व्यवहार स्वर्ण मे ही करेगा । अतः धैर्यपूर्वक बिना प्रमाद किये व्यवहार में जो जैसा है उसके साथ उसी पात्रता के अनूकूल व्यवहार करता है इसी को कृष्ण कहते हैं पात्रे च १७/२० । प्रिय-अप्रिय यानी जो आज अनूकूल है वही कल प्रतिकूल भी होगा अतः आसक्ति या राग न नहीं, जो आज प्रतिकूल है कल अनूकूल भी हो सकता है अतः द्वेष भी नहीं यह भी यदि धैर्य नहीं होगा तो राग द्वेष से बचना कठिन है । अपनी निंदा यानी हमारे दोषों का वर्णन करने वाले के प्रति भी सौम्य यानी शान्त भाव होना द्वेष न करना, स्तुति यानी हमारे गुणों का बखान करने वाला उसमें भी प्रसन्न नहीं होना क्योंकि प्रकृति परिवर्तनशील है, जो आज हमारी निंदा-स्तुति कर रहे हैं वही कल उसका विपरीत भी करेंगे, अतः यहाँ भी धैर्यपूर्वक पूर्वक दोनो को परिवर्तनशील समझकर सम भाव में स्थित रहना । अब धीर को थोड़ा अलग से समझ लेते हैं । आत्मा और अनात्मा के विचार में अधिक परिश्रम होने पर भी हमें कुछ फलानुभूति का न होना हमारे मन को विचलित कर सकता है अतः हमें धैर्यपूर्वक पूर्वक तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ४/३९ अर्थात हम अपना स्वस्थानीय कर्तव्य कर रहे हैं और भगवान ने कहा है कि वह समय के अनुसार स्वयं ही सिद्ध हो जायेगा तो होगा ही ऐसा दृढविश्वास रखना ही धैर्य है । हमने स्वस्थः को अन्त में जानबूझकर रखा है । स्वस्थ यानी उपरोक्त प्रकृति के गुण आने जाने वाले हैं ऐसा विचार कर वह स्वावलंबी होता है किसी का आश्रय नहीं लेता और धैर्यपूर्वक प्रारब्ध पर निर्भर रहता है यहाँ तक न कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ३/१८ ईश्वर का भी आश्रय नहीं लेता । दूसरे पक्ष में उपरोक्त प्राकृतिक गुणों का अनुसंधान करके एक मात्र स्वसंवेद्य, नित्यानन्दैकरस आत्मस्वरूप स्व स्थ अर्थात स्व-भाव में स्थित रहता है ।।२४।।
मानापायोस्तुल्योस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ।।१४/२५।।
शब्दार्थ---- मान-अपमान में तुल्य, शत्रु-मित्र में तुल्य, संपूर्ण कर्मों का त्याग करने वाला उसे गुणातीत कहते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- मान-अपमान यानी आदर और अनादर । निंदा-स्तुति तो वाणी का विषय है जब वाणी से किया जायेगा तभी प्रभाव होता है लेकिन आदर अनादर यानी सम्मान और अपमान ये तो दूर से शरीर की क्रिया मात्र से दिख जाते हैं इनमें भी धैर्यपूर्वक सम रहना, भले व्यवहार में भिन्नता दिखती हो तदापि यह अन्दर का विषय अन्दर से उसका न कोई शत्रु है न मित्र । न किसी पर अनुग्रह न शाप, क्योंकि यह भी प्रकृति और शरीर तक ही है । सभी कर्मों का परित्याग यानी सर्वकर्मसंन्यासी । न वर्ण धर्म, न आश्रम धर्म, न जाति धर्म, सर्वधर्मान्परित्यज्य १८/६६, न किसी प्रकार का संकल्प सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी ६/४। क्योंकि सभी कर्म दोषों से परिपूर्ण यानी प्रकृति के गुण हैं सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ।१८/४८ इस प्रकार सभी कर्मों का आरंभ अर्थ उसके संकल्प का ही त्याग करने वाला, मामेकं शरणं ब्रज २८/६६ अर्थात एक मात्र आत्मा की शरण ग्रहण करने यानी आत्मभाव में स्थित रहनेवाला त्रिगुणातीत कहा गया है ।
भावार्थ---- अर्जुन ने दूसरे प्रश्न में त्रिगुणातीत का आचरण पूछा था उसके उत्तर में सिद्ध के ये स्वाभिक समदुःखसुखः से यहाँ तक आठ लक्षण बता दिये जो योगारूढ़ हो चुके हैं योगारूढ़स्तदोच्यते ६/४ । यही लक्षण जो योगारूढ़ के हैं उनका योगारूढ़ होने के इच्छुक यानी मुमुक्षु को आचरण करना चाहिए । ऐसा तात्पर्य है ।।२५।।
संबंध---- अर्जुन के तीसरे प्रश्न का उत्तर कि तीनो गुणों को पार कैसे करता है ?....
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।१४/२६।।
शब्दार्थ---- जो मेरी अव्यभिचारी भक्तियोग से सेवा करता है वह तीनो गुणों को पार करके ब्रह्म होने के योग्य होता है ।
तात्पर्यार्थ---- वस्तुतः मंद बुद्धि साधकों के लिए ज्ञान की कोई व्यवस्था ही नहीं है, जो ज्ञान के माध्यम से सर्वात्मा का अहं ब्रह्मास्मि के रूप में चिंतन करते हैं वे तद्रूप ही हैं । हम साधारण प्राणी हैं । अजितेन्द्रिय हैं । ब्राह्मण आदि जाति वाले, ज्ञानी और सम्मानित व्यक्ति हैं इत्यादि देहाभिमान कभी सुख से जीने नहीं देता । बारंबार अहंकार के गड्ढे में डालकर नाश कर ही देता है । कहते हैं एक कोई सज्जन गृहस्थी छोड़कर ज्ञानयोगी महात्मा बन गये । उन्हें अहं ब्रह्मास्मि के अतिरिक्त कुछ दिखता ही नहीं था और न ही ब्रह्म से नीचे बात करते । एक बार किसी संत के सामने इसी अहंकार का प्रदर्शन कर दिया । महात्मा ने बहुत समझाया ईश्वर के समग्र भाव को लेकिन समझने को तैयार नहीं । महात्मा ने आकाश की ओर देखा और कहा कि हे भगवान तेरी माया बड़ी दुस्तर है तू ही जान । ऐसा कहकर चले गए । ब्रह्मज्ञानी जी विचरण करते करते संयोग से वहां पहुंच गये जहाँ उनकी ससुराल थी । पहचान लिये गये और उन्हें पकड़कर उनकी पत्नी के साथ एकान्त कमरे में बन्द कर दिये गये और बंदूकधारियों का पहरा लगा दिया गया । अब समयानुसार उनके दो बच्चे हो चुके थे । अब पहरा ढीला हो चुका था । अतः बाहर भी घूमने लगे । संयोग से वही महात्मा फिर मिल गये और पूछा ज्ञानी जी क्या समाचार है ? वे बोले कि समाचार क्या है….? माया बड़ी प्रबल है वास्तव में जब तक शरीराध्यास और ज्ञान का मिथ्या अहंकार है, तब तक कोई जीव ब्रह्म नहीं हो सकता । हमारे महाराजश्री कहा करते थे इसी सीमित अहंता को महादेव को दिन में कम से कम सौ बार प्रणाम करके अर्पित करना चाहिए ।
यही बात भगवान ने भी अध्याय बारह श्लोक पांच में बताते हैं कि देहाभिमान के रहते अव्यक्त में भले मन आसक्त हो लेकिन उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती । देहाभिमान चाहे जाति को लेकर हो, वर्ण या आश्रम को लेकर हो या मान-आपमान को लेकर हो अथवा सर्दी-गर्मी आदि को लेकर हो यह सब शरीराध्यास ही है । इस शरीराध्यास के निवारण के लिए ही मय्येव मन आधत्स्व १२/८ से लेकर शान्तिरनन्तरम् १२/११ तक अधिकार भेद से चार साधन बताकर सिद्धों का वर्णन करके उनके उन स्वाभाविक अक्षयधर्म का पालन करने वाले को ही अपना अत्यन्त प्रिय भक्त कहा । ऐसे प्रिय भक्त के लिए ही देहाभिमान के लिए क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन करते हुए क्षेत्र से उत्पन्न गुणों सें बंधने आदि से गुणों और स्वभाव से ही मुक्त क्षेत्रज्ञ १३/२ का वर्णन करते हुए आत्मा को जीते जी मोक्षस्वरूप कहकर त्रिगुणातीत सिद्ध का लक्षण कहकर अब वह उन गुणों को कैसे सहज ही पार कर जाये इसका वर्णन करते हैं….
यहां च पूर्व में अर्जुन को दिये गए उत्तर से जोड़ने के लिए है । जो मेरी अव्यभिचारिणी भक्तियोग के द्वारा-- यहां पहले व्यभिचार समझ लेना चाहिए कि अपने पति के होते हुए किसी पड़ोसी से किसी वस्तु की कामना करना यह पति पर अविश्वास और व्यभिचार है । जो पति को महत्त्व न देते हुए मात्र धन को और सौंदर्य को ही महत्त्व देती है वह व्यभिचार है, किन्तु पति ही जिसका हार, सिंगार है, पति ही जिसका जीवन है वह अव्यभिचार है । इसी प्रकार यहां व्यभिचार का अर्थ है कि प्रकृति से उत्पन्न किसी भी गुण और कार्य में महत्त्व बुद्धि रखना यही व्यभिचार है । रामचरित मानस में श्रीराम जी कहते हैं-- मोर दास कहाइ नर आसा । करइ तो कहहु कहा विश्वासा ।। मेरा सेवक कहलाता हो और आशा संसार की रखता हो भला आप ही कहो उस पर क्या विश्वास ? क्योंकि यही व्यभिचार है । मन में जितनी भी कामनाएं और संकल्प हो सकते हैं वे बिल्कुल जड़ सहित नष्ट हो जायें २/५५ तब यही अव्यभिचारी भक्ति योग अर्थात ईश्वर और जीव, साधक, साधन और साध्य का योग अर्थात मिलन करा देती एकत्व करा देती है । ऐसी अव्यभिचारिणी भक्ति जब योग हो जाती है तभी समत्वं योग उच्यते २/४८ की मुमुक्षु में प्रतिष्ठा होती है । यहां सेवते शब्द आया जिसका दो प्रकार से संबंध बनता है पहला यह कि जिस प्रकार अध्याय बारह में सिद्धों के लक्षणों का अनुगमन करने को कहा उसी प्रकार यहां पर उक्त त्रिगुणातीत सिद्ध के लक्षणों का सेवन यानी अनुष्ठान करने की बात कहते क्योंकि इसके बिना वह मेरी(ईश्वर की) प्रियता प्राप्त नहीं कर सकता है । अतः जो मेरी अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा अर्थात मेरी भक्ति समत्व भाव का आश्रय लेकर करता हुआ उपरोक्त सिद्धों के लक्षणों का भी अनुष्ठान करता है वही तीनो गुणों को पार करके ब्रह्म होने के योग्य अर्थात आत्मैक्यता प्राप्ति के योग्य होता है ।
दूसरे पक्ष में जो अव्यभिचारी एवं समत्व भाव में स्थित होकर मेरा सेवन अर्थात मेरा ध्यान, चिंतन आदि करता है मुझसे अतिरिक्त कुछ नहीं देखता अर्थात ध्याता, ध्यान और धेय में भेद समाप्त हो जाता है तब वह तीनो गुणों को पार करके ब्रह्म अर्थात मोक्ष पाने के योग्य होता है । यहाँ इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस समय मोक्ष प्राप्ति की योग्यता अर्थात तद्विषयक ज्ञान हो जाता तच्छण अर्थात उसी समय मोक्ष प्राप्त हो जाता है उसमें विलंब नहीं होता तथापि प्रारब्ध अभी शेष होने के कारण अभी शरीर है ढाल पर बिना ईंधन के बंद इंजन से चलने वाली गाड़ी की तरह । अतः उसे मोक्षस्वरूप कहा गया है और शरीर छूटने पर विदेह कैवल्य यानी स्वसंवेद्य सर्वात्मभाव को प्राप्त हो जाता है ।
भावार्थ---- वास्तविक भक्ति का प्रारंभ तो ज्ञानयोग यानी तत् त्वं के शोधन के बाद ही प्रारंभ होती है जिसे ज्ञानोत्तर भक्ति कहते हैं । ज्ञान में अहंकार की अधिक संभावना होती है क्योंकि वह एकांग निर्गुण निराकार को ही महत्व देता है । यह अहंकार कभी भी पतन को प्राप्त करा सकता है और अहंकार देहाभिमान के बिना कभी हो नहीं सकता । इसमें बहुत बाधाएं हैं, इसमें मन को एक जगह बंदी बनाकर रखने का कोई भी साधन नहीं है, अतः बहुत बाधाएं हैं । तुलसीदास जी कहते हैं--- ज्ञान अगम प्रत्यूह अनेका । साधन कठिन न मन कहुँ टेका । भक्ति स्वतंत्र सकल गुनखानी । बिनु सतसंग न पावइ प्रानी ।। यह सतसंग ही है जो आत्मबोध कराता है । इसके बिना तो न भक्ति और न ही ज्ञान, दोनो नहीं टिक सकते । यह ज्ञानोत्तर भक्ति ही परा भक्ति है । बिना परा भक्ति के सर्वांग परमतत्त्व परमेश्वर को जानना असंभव है । जब तक सगुण और निर्गुण दोनो की अनुभूति न हो जाए तब तक वह द्वैत में ही स्थित है क्योंकि वह परमेश्वर को एकांग देख रहा है । वासुदेवः सर्वं, सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि इन श्रुति वाक्यों के अर्थ के स्थान पर इनके द्वारा संकेत किये गये लक्ष्य को देखने पर ही उसके सर्वांगीणता का बोध होता है । उसके सगुण और निर्गुण स्वरूप का बोध होता है । जैसे यह शरीर हमारा साधन है और इस शरीर के माध्यम से ही हम अपने सूक्ष्म साध्य का अन्वेषण करते हैं वैसे ही मायोपाधिक सगुण ब्रह्म साधन है और हम इसकी उपेक्षा करके सगुण ब्रह्म के लक्ष्य निरुपाधिक निर्गुण निराकार की प्राप्ति नहीं कर सकते । यह पराभक्ति ही हमें हमारे सत्तारूप को प्राप्त करा देगी इसलिये जब तक शरीर है तब तक अहंकार का स्फुरण यानी उदय होने की संभावना बनी ही रहेगी एवं परा भक्ति के द्वारा अहंकार से रहित होकर ही हम ब्रह्म यानी मोक्ष की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं । अतः मुमुक्षु को पराभक्ति का आश्रय अवश्य जब तक शरीर है तब तक लेना चाहिए । ऐसा भाव है ।।२६।।
संबंध---- आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन….
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखैस्यैकान्तिकस्य च ।।१४/२७।।
शब्दार्थ---- क्योंकि ब्रह्म, शाश्वत धर्म, और एकान्तिक सुख मुझ अविनाशी एवं अक्षय में प्रतिष्ठित हैं ।
तात्पर्यार्थ---- सगुण ब्रह्म की दृष्टि से ब्रह्म का अर्थ वेद होगा और वेद मुझ अविनाशी एवं अक्षय परमात्मा में ही प्रतिष्ठित हैं । यहाँ अमृतस्य च अव्यय ऐसा अर्थ होगा, क्योंकि ब्रह्मणः जिसे यहाँ कहा गया है वह क्षरणशील है ,जैसे वेद, प्रकृति ये भी ब्रह्म कहे गये हैं किन्तु क्षरणशील होने से अव्यय नहीं हो सकते किन्तु परमात्मा से अभिन्न होने के कारण अमृत अर्थात अविनाशी अवश्य हैं ईश्वर अंश जीव अविनाशी, कूटस्थोऽक्षर उच्यते १५/१६ , कर्मब्रह्मोद्भवं विद्धि अर्थात कर्मों की उत्पत्ति वेदा से जानो अनादि माया इत्यादि । वेद मुझमें प्रतिष्ठित होने से शाश्वत आर्थात नित्य हैं अतः उनकी प्रतिष्ठा मुझमें हैं ब्रह्माक्षरसमुद्भवं ३/१५ अर्थात वेद अक्षर ब्रह्म से उत्पन्न जानो । वेदों द्वारा प्रतिपादित धर्म की भी मैं ही प्रतिष्ठा हूँ, अर्थात मुझमें ही प्रतिष्ठित हैं । यहां शाश्वत और धर्म के बीच च होने से दोनो को अलग अलग समझना चाहिए है इसी दृष्टिकोण से यह अर्थ कहा तथापि कुछ विद्वान शाश्वतधर्म ऐसा अर्थ करते हैं और कहते हैं कि इसका अर्थ हमारा वैदिक धर्म ईसाई, बौद्ध, मुस्लिम, सिक्ख आदि की तरह न तो आदि वाला है और न ही किसी मनुष्य द्वारा चलाया गया है । वह मुझसे ईश्वर से ही प्रारंभ हुआ है अतः यह अनादि और मेरे द्वारा चलाये जाने से मेरा ही स्वरूप है ऐसा अर्थ समझना चाहिए । ऐकान्तिक सुख का अर्थ एकान्त देश में धारणा ध्यान समाधि द्वारा जो एकान्त में अनुभूति का आनन्द प्राप्त होता वह आनन्द मैं हूँ । इस प्रकार उक्त सभी उस अविनाशी एवं अव्यय परमात्मा में प्रतिष्ठित होने से उससे अभिन्न हैं ऐसा समझना चाहिए ।
दूसरा भाव यह है कि ब्रह्म यानी प्रकृति की प्रतिष्ठा मुझ अविनाशी अव्यय ब्रह्म में है । मुझसे भिन्न उसकी कोई सत्ता है नहीं, अतः वह मुझसे अभिन्न है । चूंकि प्रकृति अनादि है इसलिए यह संसार और इसके धर्म भी अनादि हैं और ये भी मुझ में प्रतिष्ठित हैं । सुषुप्ति अवस्था में संसारातीत जब वह प्रकृति अर्थात अज्ञान में मेरे साथ एकान्तिक भाव को प्राप्त होता है उस समय उसको जो वह ऐकान्तिक सुख प्राप्त होता है वह भी मुझमें प्रतिष्ठित है अर्थात मुझसे अभिन्न है । क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि १३/२ में जो अपि से जो प्रकृति भी मैं हूँ यह जो भाव बनता है उसके अनुसार ऐसा यहाँ भी अर्थ बनता है ।
यहाँ तीसरा और मेरा प्रिय अर्थ जो बनता है वह यह है । प्रकृति माने आत्मा जिसे परा प्रकृति ७/५ कहा गया है वह आत्मा मुझ अविनाशी अव्यय ब्रह्म में प्रतिष्ठित है, इस आत्मा में जो शाश्वतता यानी नित्यता है, और इसका जो धारण करने का जो धर्म है जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत ।।७/५।। वह मुझमें ही प्रतिष्ठित है । यह आत्मा जब संपूर्ण चित्तवृत्तियों का अन्त यानी नाश करके एक मात्र एकमात्र मुझ अविनाशी अव्यय भाव में स्थित होकर आनन्दित होता है वह ऐकान्तिक आनन्द भी मुझ अविनाशी ब्रह्म मे प्रतिष्ठित है । इस प्रकार यहां आत्मा और परमात्मा की एकता है भगवान के ही शब्दों में स्वयं सिद्ध है । मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ मुझसे अतिरिक्त अर्थात भिन्न कुछ भी नहीं है करके जो एक अद्वितीय तत्त्व का प्रतिपादन किया था उसी एकमेवाद्वीतीयम् की यहां पर पुनः पुष्टि कर रहे हैं ।
कोई शंका करे कि कृष्ण तो यहाँ अर्जुन को साढ़े तीन हाथ के शरीर से उपदेश कर रहे हैं फिर ब्रह्म आदि उनमें कैसे प्रतिष्ठित हो सकता है ? इसका समाधान इस प्रकार भी कर सकते हैं उपदेश कर्ता कृष्ण त्वं पदार्थ का लक्ष्य आत्मा और जो अपना ऐश्वर्य रूप जिसमें दिखाया था उस ईश्वर रूप तत् पदार्थ का लक्ष्यार्थ ब्रह्म अर्थात जिसे क्षेत्रज्ञ १३/१ कहा वह त्वं पदार्थ और क्षेत्रज्ञ १३/२ कहा था वह तत् पदार्थ यह दोनो मायोपाधिक हैं, सविकल्प हैं, सविकल्प निर्विकल्प से अभिन्न होता है अतः मेरे निर्विकल्प स्वरूप में इन दोनों की प्रतिष्ठा है मुझसे कुछ भी भिन्न नहीं है । यह यही जो शाश्वत अर्थात नित्य भाव है वह भी मुझमें ही है जो पीछे प्रकृति एवं उसके धर्म यानी गुण या विकार कहे वे भी मुझसे अभिन्न हैं और प्रकृति पुरुष का विवेचन करके जो एकमेवाद्वीतीयम् का ऐकान्तिक भाव पुरुषः परः १३/२२ है वह भाव भी मैं ही हूँ ।
विशेष---- यहाँ जो इस श्लोक के कई भाव दिये गये हैं उसका एक ही कारण है कि हम किसी भी दृष्टिकोण को अपनाएं लेकिन किसी भी दशा में द्वैत सिद्ध ही नहीं होता है । इसी भाव को ध्यान में रखकर चतुर्दिक विचार किया गया है । मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ अर्थात एकमेवाद्वीतीयम् ही अभी तक गीता का लक्ष्य सिद्ध हुआ ।
अध्याय तेरह और चौदह की बड़ी विशेष बात यह है कि महेश्वर, परमात्मा, और ईश्वर का अर्थ कहीं भी जिसे हम मायोपाधिक ब्रह्म यानी ईश्वर के रूप में कहीं नहीं आया है । वहां जीव को ही इन नामों से संबंधित किया गया है जो तत् और त्वम् पदार्थ के शोधन के बाद असंग पुरुष या आत्मा के रूप में कहा गया है । इसी असंग आत्मा के निरुपाधिक होने पर पुरुषः परः १३/२२ जिसे आगे पुरुषोत्तम १५/१८ कहा जायेगा । यहाँ पर जो ब्रह्म १३/३०.शब्द आता है वह भी आत्मा की उत्कृष्ट स्थिति के लिए आता है जब संपूर्ण प्राणियों की पृथक्ता के भाव को एक आत्मा में देखता है और उस में ही संपूर्ण सृष्टि का विस्तार देखा है तब ब्रह्म का संपादन करता है १३/३० यहां यहाँ ब्रह्म का संपादन करने का अर्थ है कि अपने निर्विशेष ब्रह्म नाम से कहे जाने वाले भाव के रूप में स्वयं को स्थापित कर लेता है । अनादिमत्परं ब्रह्म १३/१२ में भी अनादि प्रत्यागात्मा को ब्रह्म नाम से कहा गया है । अतः यहां पर महेश्वर, परमात्मा और ईश्वर त्वम् पदार्थ का वाचक जीव और लक्ष्यार्थ आत्मा का नाम है, {प्रकृति संगी होकर जीव और प्रकृति से भिन्नता का अनुभव होने पर आत्मा} और तत् पदार्थ का लक्ष्यार्थ ब्रह्म आत्मा का मूल स्वरूप । यही क्षेत्रज्ञ १३/२ कहा गया है ।
जबकि अध्याय चौदह में ब्रह्म पूर्णभाव वाला निर्विशेष ब्रह्म कहीं नहीं है, मम योनिर्महद्ब्रह्म १४/३, तासां ब्रह्म महद्योनिः १४/४ प्रकृति के लिए कहा गया है जो सदैव अपूर्ण और विकार से परिपूर्ण है । ब्रह्मभूयाय कल्पते १४/२६ ब्रह्म रूप की कल्पना करता है, यानी ब्रह्म है नहीं कल्पना करता है जैसे पहले ब्रह्म संपद्यते तदा १३/३० वैसे ही यहाँ ब्रह्मभूयाय कल्पते १४/२६ कहा गया है । अतः यहाँ भी आत्मा यानी क्षेत्रज्ञ के अपने मूल निर्विशेष भाव की योग्यता आत्मा का भाव बताया गया है अर्थात आत्मा में अपने निर्विशेष स्वरूप में स्थित होने की योग्यता प्राप्त हो जाती है । अतः यहां का ब्रह्म, निर्विशेष पूर्ण ब्रह्म नहीं है । ऐसा समझना चाहिए ।।२७।।
जिसे कोई नहीं जानता किन्तु जो सबको जानता है वह जैसा है, और जहाँ है वैसा ही उसको वहीं पर नमस्कार है ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
🌹श्रीकृष्णार्पणमस्तु🌹
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