गीता मेराचिन्तन अध्याय ४


ॐश्रीपरमात्मने नमः
                     
   
अथ चतुर्थोऽध्यायः

              पूर्व अध्याय से संबंध---- तृतीय अध्याय में परमार्थ एवं लौकिक दोनो ही दृष्टि से ज्ञानयोग की शिक्षा देकर ‘एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये’ २/३९ से कर्मयोग की प्रस्तावना करके ‘स शान्तिमधिगच्छति’ २/६७ तक फल बताकर ‘एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्यविमुह्यति’ २/७२ कहा । अतः तृतीय अध्याय में कर्मों के प्रतिबन्धकत्व की आशंका पर ‘न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं....’ ३/४ से कर्म न करने की निंदा करते हुए कर्म की महत्ता समझाते हुए सबका प्रतिबन्धकत्व रूप काम को मार डालने ३/४३ की आज्ञा देकर आत्मरूप में स्थित होने की बात कहते हैं । इस पर अर्जुन के मन में श्रीभगवान को संतोष नहीं दिखा, अतः अर्जुन के मन की बात श्रीभगवान समझ गये कि कहीं ऐसा भी होता है कर्म का विनियोग ज्ञान अर्थात कर्मबन्धन की मुक्ति में हो ? ऐसा तो न कभी सुना और न देखा ही है इसी आशंका का समाधान करने के लिए चतुर्थ अध्याय का आरंभ किया जाता है......
श्रीभगवानुवाच
इमं विवश्वते योगं प्रोक्तवाहनमव्ययम् ।
विवश्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।४/१।।
                शब्दार्थ---- श्रीभगवान बोले― यह अव्यय योग मुझ अव्यय परमात्मा द्वारा ही पहले सूर्य को, सूर्य ने मनु, मनु ने इक्ष्वाकु को कहा ।
                तात्पर्यार्थ---- श्रीभगवान ने तृतीय अध्याय में कहा था जनकादयः ३/२० और क्षत्रियों का ही नाम गिनाया है । यहाँ अव्यय पद का योग और परमात्मा के साथ अव्यय कर लेना चाहिए, क्योंकि अव्यय से अव्यय की ही उत्पत्ति होगी अतः योग अव्यय अर्थात अविनिशी है, दूसरी बात अव्यय का साक्षात्कार भी अव्यय से ही संभव है अतः योग अव्यय है । यहाँ सूर्य से लेकर जनकादि राजाओं में ये परंपरा पहले भी थी जिसे मैने सूर्य को कहा था । ये राजा लोग भी क्षत्रिय ही थे जो ब्रह्मज्ञान की पराकाष्ठा को कर्ममार्ग से ही प्राप्त किया और एक तू भी राज ही है कि अपने कर्मों अर्थात कर्तव्य से पलायन कर रहा है । यहाँ पर पुनः क्षत्रिय राजाओं का उदाहरण देकर अर्जुन में स्वधर्म की ऊर्जा का संचार करना उचित लग रहा है ।।१।।

                       संबंध----अर्जुन पुनः शंका कर सकता है कि जब सूर्य को ज्ञान आपने दिया और वहीं से ये परंपरा क्षत्रियों को प्राप्त हुई है तो ऋषियों में यह योगमार्ग कहां से आया ? एवं वह ज्ञान जनकादि राजाओं के पश्चात कहां गया ? इस पर कहते हैं.....
एवं परंपरा प्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।४/२।।
                    शब्दार्थ---- इस प्रकार वही ज्ञान राजर्षियों ने प्राप्त किया, किन्तु काल के प्रभाव से यह ज्ञान नष्ट हो गया ।
                  तात्पर्यार्थ----भगवान कहते हैं कि अर्जुन ऐसा नहीं कि यह ज्ञान केवल राजाओं को ही मिला हमारा कहने का तात्पर्य है कि इस प्रकार राजाओं ने ज्ञान प्राप्त किया लेकिन तुम्हारी तरह कर्म से नहीं भागे । यह ज्ञान तो ऋषियों ने भी इसी सूर्य परंपरा से ही प्राप्त किया है, किन्तु राजा नहीं होते थे अतः अनाचार प्रजा में अधिक बढ़ गया, पृथ्वी पर उथल पुथल होने लगा । ऋषियों में भेदभाव द्वैत बढ़ गया, अतः सृष्टि संरक्षण हेतु सूर्य ने अपने पुत्र मनु को राजा बनाया ऋषियों को नियंत्रण करने के लिए ऋषित्व की आवश्यकता होती है जो योगबल से ही प्राप्त होती है । अतः इस योग का उपदेश मनु को दिया और मनु ने इसी योग के उपदेश से ऋषियों को नियंत्रण किया । 
              राजा तो थे ही साथ में ऋषियों को भी नियंत्रित किया इसलिये राजर्षि कहलाये और ऋषियों को भी योग का ज्ञान प्राप्त हुआ । दूसरी बात सूर्यदेव वेदों के अधिष्ठातृ देवता हैं, बिना उनकी कृपा के कोई भी वेदज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, जबकि ब्राह्मण जन्म से ही वेद के अधिकारी हैं, तो अगर सूर्यदेव उपदेश न करते तो उन्हें यह ज्ञान कैसे प्राप्त होता ? अतः सूर्य ने ही ब्राह्मणों को भी उपदेश किया, किन्तु तुम क्षत्रिय हो तुम्हें क्षत्रिय परंपरा का ज्ञान कराने के लिए क्षत्रियों का उदाहरण दिया ताकि अपने क्षत्रिय वंश की उज्जवल कीर्ति को स्वधर्म का त्याग कर धूमिल न करो । इस प्रकार काल के प्रभाव से योग के अधिकारियों के अभाव में योग लुप्त हो गया अर्थात तिरोहित हो गया, प्रत्यक्ष न होने से नष्टप्राय कहा जायेगा नष्ट नहीं, यही नष्टः का तात्पर्य है । हे परन्तप ! तुम परं तपस्वी हो इतने बड़े तपस्वी कि ऊर्वशी जैसी अप्सरा का त्याग करने वाले एवं इन्द्रिय रूपी शत्रु को तपाने वाले हो ।
                भावार्थ---- मेरा दृष्टिकोण अधिकारित्व की कमी के कारण परन्तप की उपयोगिता यहाँ समझ नहीं पा रहा है जबकि अगले श्लोक में इसकी संगति दिखती है ।।२।।

                संबंध---- श्रीभगवान परंपरा की रक्षा करने वाले हैं, चूंकि वह ज्ञान लुप्त हो गया था इसलिए परंपरा की रक्षा के लिए अर्जुन को उपदेश क्यों दे रहे हैं ? कारण सहित बताते हैं.......
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि में सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।४/३।।
               शब्दार्थ---- वही अनादि काल में कहा गया (ज्ञान) योग तुझे कहा, क्योंकि तू मेरा भक्त और सखा भी है, इसलिये यह ज्ञान गोपनीय होने पर भी तुमसे कहा ।
                तात्पर्यार्थ---- वही अनादि ज्ञान अर्जुन को क्यों दे रहे हैं ? इस आशंका पर श्रीभगवान ने पहला कारण बताया......., “भक्तोऽसि" तू मेरा भक्त है । आज सबसे बड़ी समस्या भक्त और भक्ति की है ये भेदभाव द्वैत की चरमसीमा है । अब आपको कोई राजा का भक्त कहे तो इसका अर्थ क्या हुआ ? आपमें राजभक्ति है का क्या अर्थ हुआ ? देशभक्त और देशभक्ति का क्या अर्थ हुआ ? अरे भाई ! यही जो स्थिति यहाँ है वही परमात्मा के प्रति समझो । जैसे राजा का भक्त होने का अर्थ है राजा के प्रति सब कुछ समर्पण करने वाला, समर्पण करने से राजभक्त तो हो गया लेकिन धन सहित सब कुछ देने पर भी यदि प्राणों पर आ बने तो राजा जिये या मरे और श्रीमान जी पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए, इसका अर्थ क्या हुआ ? यही न..., कि समर्पण तो था लेकिन समर्पित नहीं था । जो राजा के लिए सब कुछ दे दे वह राजा भक्त और जिस निष्ठा राजा के लिये प्राण भी दे दे वह राज भक्ति । इसी प्रकार देश के लिए जो धन और बुद्धि से सहयोग करे वह देशभक्त और देश के प्रति स्वयं को समर्पित कर देने की वृत्ति देश भक्ति । ये है कर्मयोग की पराकाष्ठा ।
            यह बात अगल है कि लोग भक्ति के नाम पर आजकल क्या क्या गुल खिला रहे हैं ? किसी से छिपा नहीं है । लोग ज्ञानयोग को भ्रामक और वेदान्तियों की कल्पना बताते हैं । तो ठीक है आप भक्त भी हो और आप में भक्ति भी है, तो जितने वेदान्त को काल्पनिक मानते हैं, मात्र उतने भक्तों बताओ 👉 कि किस शास्त्र या वेद में प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के अतिरिक्त कोई तीसरा भक्ति मार्ग लिखा है ?  गीता में ही श्रीभगवान ने दूसरे अध्याय में भी पहले ज्ञान और फिर कर्म का ही वर्णन किया है भक्ति का नहीं । इतना ही नहीं....लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा... । ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। ३/२ एवं साङ्ख्योगौ प्रथग्बालाः ५/३ में भी भक्ति मार्ग का अलग वर्णन क्यों नहीं किया ? स्पष्ट लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा अर्थात इस संसार में दो ही निष्ठाएं हैं ज्ञान और कर्म मार्ग, भेद से वर्णन तो भिन्न किन्तु लक्ष्य एक ही बताया है । जो आगे भक्तियोग अ. १२ में आयेगा उसका स्पष्ट तात्पर्यार्थ क्या है ? क्या इस बात को समझने का प्रयास किया ? समर्पण और समर्पित संसार के प्रति हो तो आसक्ति कहा जाता है और अभेद दृष्टि का ज्ञान रखकर आराध्य के प्रति समर्पण और समर्पित हो उसे भक्त और भक्ति कहा जाता है । संसार के प्रति प्रेम राग और आराध्य के प्रति प्रेम अनुराग कहा जाता है । यही है भक्त और भक्ति का रहस्य । इसीलिये श्रीभगवान भक्त कहने के साथ ही अर्जुन से इस ज्ञान को भी रहस्य कहते हैं । अर्थात रहस्य को रहस्य ही जानता है दूसरा नहीं इसीलिये अर्जुन को भक्त कहा क्योंकि जो संसार और संसार के कार्य ‘अहं मम’ को जानकर आराध्य के प्रति सर्वस्व अर्पण करके स्वयं अर्पित हो जाये वही भक्त है अन्य नहीं । इसीलिये भगवान ने अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी भक्त ही मुझे प्रिय है कहते हैं क्योंकि ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम् ७/१८ अर्थात भगवान अपना मत स्पष्ट करते हैं कि ज्ञानी भक्त तो मेरी आत्मा है, मेरा स्वरूप है, ऐसा मेरा मत है ।
              अपना आत्मा किसे प्रिय नहीं होगा इसी आधार पर अर्जुन को भक्त कहते हैं , क्योंकि अर्जुन ने तीन बातें पहले कही थी यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे, शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् २/७, अर्थात पहली बात कही मैं आपका शिष्य हूँ, अतः वह बात सुनिश्चित करके कहो जिससे मुझे श्रेय अर्थात परम कल्याण मोक्ष की प्राप्ति हो, क्योंकि मोक्ष से हटकर मनुष्य का और कोई कल्याण हो ही नहीं सकता । ऐसा मानकर किसी अपुत्र या जो शरणापन्न नहीं है तो उसे मोक्ष का साधन ब्रह्मविद्या जैसा गोपनीय रहस्य कैसे बताया जा सकता है ? इस पर अर्जुन पहले ही कह देता है त्वां शरणं प्रपन्नम् अर्थात मैं आपकी शरण में हूँ और शरणागत की रक्षा ब्रह्मविद्या देकर करना चाहिए क्योंकि जो जैसा शरणागत है वही उसका कार्य सिद्ध होना चाहिए । शरणागत हमेशा बाहर और भीतर से हुआ जाता है इसलिये उसकी भक्त और भक्ति का अन्तर करना भी कठिन होता है । इस प्रकार जब बाहर भीतर से पूर्ण समर्पण हो उसको ही ब्रह्मविद्या देना चाहिए । इसका वर्णन ४/३४ में चार पादों वाला ब्रह्मचारी और चार पादों वाली ब्रह्मविद्या के रूप में करूंगा । ये ही शिष्यता और शरणागति दो कारण अर्जुन को भक्त कहने के हो गये । अब अर्जुन को सखा क्यों कहा इस पर श्रीकृष्णार्जुन की पूर्व की बातें जो अर्जुन ११/४१ में सखेतिमत्वादि से कहेंगे, इसलिये यह याद दिलाया कि चाहे शिष्य और शरणागत समझकर मुझे मेरे कल्याण का मार्ग बताओ और चाहे सखा अर्थात मित्र समझकर “शाधि माम्" अर्थात मुझे होने वाले मेरे भ्रामक विचारों का उन्मूलन अर्थात नाश करके मेरा कल्याण करो क्योंकि जिसका मित्र स्वयं योगेश्वर हो वह इस संसार चक्र में कैसे भटक सकता है ? इन तीनों ही दृष्टियों से आपको मेरी रक्षा करनी ही चाहिये । इस लिए अर्जुन की वही तीनों बातें याद दिलाते हुए भक्त और सखा कहा और यही दृष्टि में रखकर रहस्यमय शिक्षा का प्रारंभ करते हुए पहले ज्ञानयोग फिर कर्मयोग कहा । इसी प्रकार यहाँ पहले भक्त कहा जो संसार की उपेक्षा करके अशेष संसार का मन से त्याग करके जो स्वयं से स्वयं को समर्पित होकर आत्मभाव अर्थात मैं ब्रह्म हूँ इस भाव में स्थित हो जाने वाला ही भक्त है । जब तू समर्पण कर ही चुका है तो आत्मभाव में स्थित होना ही है, इसलिये भी ब्रह्मविद्या मैने कही तथापि अभी तुम सर्वकर्म संन्यास के अधिकारी नहीं हो इसलिए सखा भाव से ही कर्मयोग का उपदेश किया । चूंकि ब्रह्मविद्या अति उत्तम और अत्यन्त गोपनीय है, हर किसी को दी नहीं जा सकती इसलिये भी अन्य को न देकर केवल तुम्हें ही शिष्य, शरणापन्न एवं सखा के नाते यह विद्या दी है ।
                भावार्थ---- ब्रह्मविद्या शरणागत एवं समर्पित शिष्य को ही देना चाहिए एवं भक्ति का रहस्य जब समझ में आ जाता है तब ज्ञानी भक्ति की उपेक्षा नहीं करते क्योंकि जैसे श्रीभगवान ने कर्म का विनियोग ज्ञान में किया है वैसे ही भक्ति का विनियोग भी कर्म पूर्वक ज्ञान में है । इस विषय में  अविवेकी से हमारा कोई संबंध नहीं ।।३।। 

               संबंध----  इस पर अर्जुन को आशंका होती है कि सृष्टि के आदि में उत्पन्न सूर्य को कल के पैदा हुए देवकीनंदन ने कैसे उपदेश किया होगा ? अतः अपनी आशंका को प्रकट करते हैं.......
      अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।४/४।।
             शब्दार्थ---- अर्जुन बोले― आपका जन्म तो अभी हुआ है और सूर्य का जन्म सृष्टि के आदि में तो मैं कैसे जानूं कि सृष्टि के आदि में सूर्य को अपने ही उपदेश किया था ?
              तात्पर्यार्थ---- स्पष्ट भाव ।।४।।

                संबंध----श्रीभगवान ने अर्जुन के प्रश्न का सखा भाव से उत्तर दिया......
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।४/५।।
                 शब्दार्थ---- श्रीभगवान बोले― हे अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत जन्म हो चुके हैं, हे परन्तप ! उन सभी जन्मों को मैं जानता हूँ किन्तु तुम नहीं जानते ।
                तात्पर्यार्थ---- जीव अल्पज्ञ एवं ब्रह्म सर्वज्ञ होता है । जीव राग द्वेष आदि आवरणों से बद्ध होता है और ब्रह्म मुक्त । बाह्य वृत्तियों से आवृत अर्जुन वृक्ष की तरह अविद्याग्रस्त जीवभाव में स्थित है । उससे कभी थोड़ा उठा भी शत्रु इन्द्रिय आदि को तपाने में लगा रहता है, किन्तु मैं स्वतंत्र सत्ता वाला हूँ मुझमें राग द्वेष का आवरण न होने से स्वतंत्र सर्वज्ञ हूँ । अल्पज्ञता के कारण जीव को अपने जन्मकर्म याद नहीं रहते इसीलिये तुम भूल गये और मेरी सर्वज्ञता के कारण मेरे सभी जन्म याद हैं ।।५।।

                  संबंध---- ठीक है ! लेकिन “कर्मणा जायते जन्तुर्कर्मणैव प्रविलीयते" के अनुसार जन्म लेने के लिए पुण्य-पाप दोनों का होना आवश्यक है । आपका तो कोई पुण्य-पाप होता नहीं तो जन्म कैसे लेते हो ? इस आशंका का उत्तर श्रीभगवान देते हैं.......
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।४/६।।
            शब्दार्थ---- मैं अज होकर भी संपूर्ण प्राणियों का शासक अर्थात ईश्वर और अव्यय अर्थात अविनाशी होकर भी अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर अपनी माया से प्रकट होता हूं ।
                तात्पर्यार्थ----  न जायते म्रियते वा कदाचित् २/२० में आत्मा को जिन षड्विकारों से रहित बताया था वही यहाँ अज और अव्यय से समझना चाहिए । वहाँ अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो कहकर जो निर्दिष्ट किया वही यहाँ अज और अव्यय से नित्य आदि स्वतः आ जाते हैं । यहाँ प्रकृति का अर्थ त्रिगुणात्मिका मोहिनी माया है जिसके अधीनस्थ संपूर्ण जगत का कार्य चल रहा है । यह इसी मोहिनी माया का ही कार्य है कि राम जी वन को जाते हैं तो संपूर्ण प्रजा पीछे से वैसे ही दौड़ती है जैसे गाय के पीछे बछड़ा दौड़ता है, पशु पक्षी बिलख जाते हैं, जंगल में कोल-किरात मोहित होकर उन्हें ही अपना स्वामी मान बैठते हैं इत्यादि । यह मोहिनी त्रिगुणात्मिका माया ही है कि गोपिकाएं भगवान श्रीकृष्ण की माखन चोरी आदि लीला से व्याकुल भी होती हैं और क्षण भर न मिलें तो पक्षविहीन पक्षी हो जाती हैं । ऐसी त्रिगुणात्मिका माया का आश्रय लेकर अर्थात स्वेच्छा से प्रकट होते हैं । उन्हें जन्म के हेतुभूत किसी कर्म एवं उनके फल पुण्य-पाप की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि जन्मादि तो विकार हैं और परमेश्वर निर्विकार है ।६।।

                 संबंध---- अब दो श्लोकों में अवतार का हेतु बताते हैं.....
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।४/७।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।४/८।।
            शब्दार्थ---- हे भारत ! जब जब धर्म का क्षय और अधर्म का उत्थान होता है तब तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ ।।७।।
                 साधुओं की भलीभांति रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर प्रकट होता हूँ ।।८।।
                  तात्पर्यार्थ---- यहाँ धर्म का अर्थ वर्ण आश्रम आदि में जब वैदिक मार्ग प्रतिष्ठित यज्ञादि सहित वर्णाश्रम आदि धर्म का व्यतिक्रम हो जाता है, यही धर्म की ग्लानि समझना चाहिए क्योंकि धर्म का व्यतिक्रम ही अधर्म का उत्थान है । धर्म के व्यतिक्रम होने पर जो अधर्म का उत्थान होता है तब मैं स्वयं प्रकट होता हूँ और तुम भरतवंशी हो और भरत जैसे धर्मात्मा के कुल में जन्म लेकर अधर्म कैसे देख सकते हो ? यह भाव है ।।७।।
                  आप प्रकट होकर कार्य क्या करते हो ? इस आशंका के लिए कहते हैं...., साधुजन जो वैदिक मार्ग का अनुसरण करने के लिए अपने प्राणों की भी चिन्ता नहीं करते ऐसे साधुजनों की रक्षार्थ और वैदिक मार्ग के नाशक और विरोधी दुराचारियों को मारकर पुनः वैदिक धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर प्रकट होता हूँ ।।८।।

                   संबंध---- अब शंका होती है कि इन कर्मों के फलस्वरूप पुण्य-पाप तो आपको लगता होगा ? इस पर कहते हैं......
जन्मकर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।४/९।।
            शब्दार्थ---- हे अर्जुन ! मेरे जन्मकर्म दिव्य हैं ऐसा जो तत्त्व से जानता है वह शरीर को त्याग मुझे ही प्राप्त होता है ।
             तात्पर्यार्थ----- यहाँ श्रीभगवान ने तत्त्वतः जानने की बात कही और ३/३० में अध्यात्म चेतसा कहा था । वह जो अध्यात्म चेतसा के द्वारा जाना जाने वाला जो अज, नित्य, शाश्वत, पुराण आदि संज्ञाओं वाला है वह आत्मा ‘मैं वासुदेव ही हूँ, ऐसा अभिन्न भाव से जो जानता है क्योंकि आगे वासुदेवः सर्वम् ७/१९ और मूढ़ोऽयं नाभिजानन्ति ७/२५ भी बताऊंगा अर्थात जो मुझ वासुदेव को ‘मैं ही आत्मा हूँ’ ऐसा अभिन्न भाव से जो जानता है वह जन्मकर्म के बन्धनों से सदैव के लिए मुक्त होकर मुझ वासुदेव को ही प्राप्त होता अर्थात मोक्ष को प्राप्त होता है । क्योंकि उसके लिए मेरे जन्मकर्म सभी दिव्य अर्थात मुझसे भिन्न नहीं हैं, यही कारण है कि मुझे पुण्य-पाप का स्पर्श संभव नहीं है क्योंकि मैं अविकारी हूँ ।।९।।

                संबंध---- जो ऐसे अभेद ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं उनकी गति का पुनः वर्णन करते हैं.......
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ।।४/१०।।
              शब्दार्थ---- जिनके राग, भय, क्रोध नष्ट होकर मुझमें मन वाले होकर मेरे भक्त मेरी बहुत उपासना करके जो पवित्र हो चुके हैं, ऐसे बहुत लोग मुझको प्राप्त हो चुके हैं ।
             तात्पर्यार्थ---- जिनके राग अर्थात शरीर सहित इस लोक से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त कही जाने वाली फलश्रुति के प्रति राग नहीं है, त्रिवध तापों का भय नहीं है, अपकार करने पर भी जिन्हें क्रोध नहीं आता, ऐसे जो ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं, ज्ञान से कैसे पवित्र हुए हैं ? यह बात आगे आयेगी । जिनका मन मुझमय अर्थात मुझसे अभिन्नता को प्राप्त होकर मेरी उपासना करके मुझ आत्मस्वरूप सच्चिदानन्दघन परमात्मा को ही प्राप्त हुए हैं ।।१०।।

                 संबंध----  आपके जन्मकर्म दिव्य हैं, संपूर्ण प्रजा आपमें स्थित है, आप समदर्शी हैं तो भी आप मोक्ष तो किसी किसी को ही देते हो यह विषमता क्यों ? इस पर कहते हैं......
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्माऽनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।४/११।।
           शब्दार्थ---- जो जिस प्रकार से मुझको भजते हैं मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ, क्योंकि सभी मनुष्य मेरा ही अनुसरण करते हैं ।
            तात्पर्यार्थ---- जो जैसा मेरा भजन करते हैं कहने का तात्पर्य है कि मेरे कोई एक प्रकार के भक्त तो हैं जिन्हें मैं आगे ७/१६ कहूंगा यहाँ इतना समझो जिस सांख्ययोग का मैने पीछे वर्णन किया वह ज्ञानी मेरा साक्षात् आत्मा ही है उसे बन्धन और मोक्ष दोनो ही लेना देना नहीं बनता, क्योंकि वह स्वयं उसके स्वरूप से भिन्न नहीं है, किन्तु जिस निष्काम कर्मयोगी की बात कही है उस कर्मयोगी के अन्दर मुझे जानने की उत्कृष्ट जिज्ञासा होती है अतः उसको दादामि बुद्धियोगं तम् १०/१०, नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता १०/११ ये आगे बताऊंगा । जो श्रुति शास्त्र का आश्रय लेकर सकाम कर्म करते हैं वह फल भी मैं ही देता हूँ । दुःख निवृत्ति के लिए आपने प्रार्थना की वह भी कर दिया अर्थात मैं कभी किसी से भेदभाव नहीं करता मेरा काम ही है भक्तों की कामना पूरी करना इसीलिये प्रपद्ये अर्थात शरणागत कहा । मैने अपने भक्तों को ही नहीं सर्वशः से अन्यदेवाराधकों को भी मैं ही फल देता हूँ क्योंकि मैं ही सर्वरूप हूँ और वे अविधिपूर्वक मेरी ही आराधना कर रहे हैं बात अध्याय ९में बताऊंगा ।।११।।

             संबंध----  तो फिर सभी के फलदाता आप ही हैं, ऐसा समझकर जिज्ञासा होती है कि आप की ही शरण लोग क्यों नहीं लेते ? इसपर कहते हैं......
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ।।४/१२।।
             शब्दार्थ---- शीघ्र सिद्धि की कामना वाले इस लोक में देवताओं की आराधना करते करते हैं, क्योंकि देवाराधन में शीघ्र सिद्धि मिल जाती है ।
           तात्पर्यार्थ---- भगवान अर्थात ज्ञानयोग का आश्रय चित्तशुद्धि की अपेक्षा रखता है, अतः यह कोई किसी के लिए कदाचित् ही संभव है मनुष्याणां सहस्रेषु ७/३ यह आगे बतायेंगे, किन्तु कर्मों की सिद्धि प्रत्यक्ष फलदायी है । अतः जिसमें कामना नहीं है वह श्रौत-स्मार्त कर्म निष्कामभाव से करता है, जिससे चित्त शुद्धि प्राप्त होकर ज्ञानमार्ग का श्रुति प्रशस्त फल मोक्ष प्राप्त होता है, किन्तु सकाम श्रौत-स्मार्त कर्म भी इच्छित फल देकर स्वयं तो निवृत्त हो जाते हैं किन्तु जन्ममृत्यु के चक्कर में डाल जाते हैं, यथापि मेरे स्वरूप की अनभिज्ञता के कारण शीघ्र सिद्धि के लोभ से लोग ऐसा करते हैं ।।१२।।

         संबंध---- शंका होती है कि ऐसी उपासना अलग अलग क्यों करते हैं ? इस पर कहते हैं......
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः ।
तस्यकर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।।४/१३।।
            शब्दार्थ----गुणकर्म के आधार पर चारों वर्णों की सृष्टि मेरे द्वारा ही की गई है, उनका कर्ता होने पर भी मैं अकर्ता और अव्यय हूँ ।
               तात्पर्यार्थ---- कर्ता होना राग द्वेष को दर्शाता है । राग उपस्थित की रक्षा को लेकर और द्वेष जो अन्य के पास तो है, किन्तु वह मेरे होनी चाहिए थी, उसके पास क्यों है ? इस वृृत्ति से द्वेष होता है । श्रीभगवान कहते हैं कि यह राग द्वेष मुझ में नहीं है इसलिए मैं अकर्ता और और अवयव रहित होने से क्षय का कोई कारण ही नहीं बनता, इसलिये अव्यय हूँ । जैसे आकाश में सब कुछ हो रहा है लेकिन आकाश को स्पर्श नहीं होता वैसे ही सब कुछ मेरे अन्दर ही हो रहा है, किन्तु मेरा स्पर्श भी नहीं होता तो व्यय कैसे हो अतः अव्यय हूँ । चारों वर्णों की सृष्टि उनके पूर्व कृत गुण कर्मों के आधार पर ही मैने है । अतः उसी का अनुसण करके वे वे मेरा ही अनुसरण कर रहे हैं । चारों वर्णों के गुण कर्म की चर्चा १८वें अध्याय में आयेगी । (कुछ लोगों ने पशु पक्षी वृक्षादि में भी चार वर्ण बताए हैं और वह सही भी है तथापि यहाँ उपदेशात्मक प्रसंगानुसार) चार वर्ण क्रियात्मक मनुष्य मात्र में हैं अतः मनुष्यों का ही सूचक है पशु पक्षी आदि का नहीं । यही अर्थ युक्ति युक्त है ।।१३।।

                संबंध---- भगवान कर्म में लिप्त क्यों नहीं होते यह बता रहे हैं.....
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।।४/१४।।

            शब्दार्थ---- न मुझसे कर्म लिप्त होते हैं और न ही मुझे कर्म फल की स्पृहा ही है, इस प्रकार जो जानता है वह कर्म से नहीं बंधता है ।
             तात्पर्यार्थ---- यदि कर्मफल की इच्छा होगी तो अहंकार भी कृत कर्मों का होगा । जब हमें कोई किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं तो उसका अहंकार भी नहीं । अहंकार रहित होकर ये सृष्टि आदि कर्म स्वतः होते रहते हैं । इसलिए “मैं न तो कुछ करता हूँ और न ही कर्म मुझे बांधते हैं” यस्य नाहङ्कृतोभावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।।१८/१७ में आगे बताऊंगा । ये सब बुद्धि के कार्य हैं, ऐसा जो जानता है अथवा गुणा गुणेषु वर्तन्ते ३/२८ के अनुसार जो जानति है वह भी कर्म में नहीं बंधता अर्थात वह भी मेरी तरह मुक्त ही होता है ।।१४।।

            संबंध---- इस प्रकार आपको जानने वाला मुक्त हो जाता है ऐसा और पहले भी कभी हुआ है ? इस पर कहते हैं.....
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
करु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।।४/१५।।
            शब्दार्थ---- इस प्रकार पूर्व काल में भी मुमुक्षुओं के द्वारा कर्म किये गए हैं, इस प्रकार जानकर अपने पूर्व के पूर्वजों के द्वारा किये गये कर्मों को तू भी कर ।
              तात्पर्यार्थ----यहाँ जिन पूर्वजों का उदाहरण दिया गया है वह अपने अपने कुल के पूर्वज समझ लेना चाहिए क्योंकि जनकादि मुमुक्षु भी कर्मी थे, अतः उन्हीं पूर्वजों के अनुसार अनुसरण करने की बात कर रहे हैं एवं ज्ञात्वा का अर्थ है ४/१३,१४ में कहे गये को समझकर । पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः से जनकादि भी मुमुक्षु थे पूर्वोक्त प्रकार से मुक्त हुए ।।१५।।

                संबंध---- ऐसी क्या विशेषता है  कर्मों की जो बांधते नहीं ? इस आशंका पर कर्मों की गंभीरता का प्रतिपादन करते हैं.....
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।४/१६।।

            शब्दार्थ---- कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? इस पर बड़े बड़े विद्वान मोहित हो जाते हैं, उसी कर्म को कहूंगा जिसे तू जाकर अशुभ कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा ।
             तात्पर्यार्थ---- कभी कभी कर्म-अकर्म क्या है यह न जानकर कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म का भ्रम हो जाता है जो संसार का बीज है, किन्तु जो कर्म अकर्म को स्वरूप से जानकर करने से वही कर्म जन्ममृत्यु के बन्धन से मुक्ति देते हैं । शंका बनती है कि कैसे कर्म अकर्म जानूं ? इस पर कहते हैं कि पहले ही कह दिया कि अपने पूर्वजों को प्रमाण मानकर करो क्योंकि वे भी मुमुक्षु और मुक्त थे । इसी बात को शास्त्र प्रमाण भी कहते हैं १६/२४  "तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते" ।।१६।।

                    संबंध---- कर्म के तीन भेद......
कर्मणो ह्यपि बोधव्यं बोधव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोधव्यं गहना कर्मणो गतिः ।।४/१७।।
               शब्दार्थ---- कर्म, अकर्म, विकर्म तीनो को जानना चाहिए, क्योंकि कर्मों की गति अत्यन्त गंभीर है ।
                  तात्पर्यार्थ---- शास्त्र प्रमाण से न किया जाने वाला कर्म न करने से लोक परलोक दोनो नष्ट होते हैं १६/२४, अतः शास्त्र प्रमाण पूर्वक शास्त्रों के निर्णय से यह समझो कि जो कर्म एक काल में शास्त्रीय कर्म होता है तो दूसरे काल में अकर्म और तीसरे काल में विकर्म अर्थात निषिद्ध कर्म हो जाता है । यही अकर्म और विकर्म में भी समझ लेना चाहिए क्योंकि कर्म की गति बहुत गंभीर है । अतः कर्मादि को स्वरूप से जानो ।।१७।।

                  संबंध---- कर्मों का स्वरूप बता रहे हैं......
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत ।।४/१८।।
           शब्दार्थ----जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है वही मनुष्यों में बुद्धिमान है, वही संपूर्ण कर्मों को संपूर्ण रूप से करने वाला युक्तपुरुष अर्थात ब्रह्मतादात्य या आत्मैक्य को प्राप्त है ।
                 तात्पर्यार्थ---- यह एक अत्यंत गंभीर विचार है । इस पर मैं स्वयं कोई टीका टिप्पणी करने का अधिकार नहीं रखता तथापि विषय को समझना भी आवश्यक है । प्रसंग चल रहा है कि जब कर्म बन्धन का कारण होता ही है तो भगवान कर्म में क्यों नहीं बंधते ? इस पर भगवान ने अपनी कर्मों से निर्लिप्तता बताया, जबकि कर्मलिप्तता ही बन्धन का हेतु है । कर्म के स्वरूप पर विचार हुआ तो श्रीभगवान ने कहा कि ठीक है...., कर्म, अकर्म को समझने में बड़े बड़े विद्वान धराशायी हो जाते हैं फिर भी कर्म के स्वरूप को कहूंगा जिसको जानकर मुमुक्षु अशुभ अर्थात कर्मबन्धन के फलस्वरूप जन्ममृत्यु रूप अशुभ से छूट जायेगा४/१६, कर्मों की गति अत्यंत गंभीर है । अतः शास्त्रीय कर्म, निषिद्ध कर्म एवं अकर्म अर्थात निष्कामकर्म ४/१७ के जानने की बात कहकर यहाँ कहते हैं कि कर्म में अकर्म, अकर्म मे कर्म देखने वाला ही बुद्धिमान मुझ आत्मस्वरूप से युक्त पुरुष है कहकर कर्म का स्वरूप समझा दिया । तथापि हम जैसे सर्वसामान्य को यह कुछ समझ में आने वाला नहीं है । इस अध्याय की शुरुआत इमं से की थी जो अध्याय ३ के कथन का सूचक है अतः हमारी समस्या का हल तृतीय अध्याय में ही मिलेगा आइए चलिए वहीं चलते हैं, क्योंकि आचार्यों के भाष्य टीकाएं बहुत गंभीर हैं और वह समझना भी कठिन है.....
              ३/४ में बिना कर्म के नैष्कर्म्य सिद्धि का अत्यंताभाव बताया, ३/५ में कार्य एवं कर्म प्रकृति जन्य हैं । अतः न करने पर भी प्रकृति परवश करवा ही लेगी क्योंकि प्रकृति कभी निष्क्रिय नहीं होती, इसलिये कोई भी बिना कर्म किये रह नहीं सकता है । ३/२७, प्रकृति से उत्पन्न कर्म सदैव क्रियमाण होते हैं किन्तु मूढ़ अपना किया हुआ मानता है । ३/२८में जो तत्त्ववेत्ता है वह गुणकर्म का विभाग करके गुण प्रकृति जन्य हैं वे ही गुण गुणों में व्यवहार करते हैं मैं प्रकृतिजन्य तो हूँ नहीं क्योंकि मेरी प्रकृति से भिन्न सत्ता है, प्रकृति को सत्ता आकाश के समान मैं ही देता हूँ किन्तु मैं स्वयं आकाशवत् निर्लिप्त रहता हूँ जैसे श्रीभगवान ने कहा कि संपूर्ण सृष्टि, स्थिति, लय करने के बाद भी मुझे कर्म नहीं बांधते ४/१४ । ३/३० में अध्यात्म चेतसा कहकर पीछे कहे कर्माकर्म अर्थात प्रकृतिजन्य कर्म और स्वयं को स्वामी समझकर कर्मों से अपने को भिन्न मानकर भय रहित अपना कर्तव्य पालन कर इससे तुझे भी कर्म नहीं बांध सकेंगे ३/३१ इस प्रकार से कर्माकर्म का सूक्ष्मता से विचार करके जो आत्मभाव में अचल और निश्चल होकर कर्म करने न करने की भी इच्छा का त्याग करके क्योंकि श्रीभगवान ने भी कहा न मे कर्मफले स्पृहा ४/१४ अर्थात न तो मुझे कर्म की इच्छा है न अकर्म की, इस प्रकार इच्छा रहित होकर जो कर्म करता है वह बन्धन से मुक्त हो जाता है । इसी बात को यस्य नाहङ्कृतोभावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते कहेंगे ।
               भावार्थ---- सारांश इतना कि स्वयं को प्रकृति से भिन्न करके अपने नित्य अचल और अकल्मष आदि भाव में स्थित होकर मात्र जनकादिकों की तरह कार्य करने पर भी वे कर्म बन्धन का हेतु नहीं हो सकते अर्थात मोक्ष प्रदान करने वाले होंगे । यही ज्ञानी के कर्मों में अकर्म देखना है, किन्तु अज्ञान इस भाव को नहीं देख पाता है तो उस कर्म को भी उसने यह किया, वह किया आदि का आरोप करता हुआ उसे भी अहंकारवश कर्म ही मान लेता है जिससे संसार के हेतुभूत कर्म बन्धन को प्राप्त होता है । यहाँ विकर्म की चर्चा नहीं की गई है, अतः मुझे भी उचित नहीं है ।।१८।।

                संबंध---- अभी पीछे हमने कर्म अकर्म का विवेचन किया, अब भगवान स्वयं उन कर्मों के बारे में अगले छः श्लोकों में बताएंगे जो कर्मबन्धन से मुक्ति देने वाले अकर्म कहे जाते हैं इससे भिन्न बन्धनकारक कर्मों को स्वयं ही समझ लेना चाहिए......
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पविवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ।।४/१९।।
             शब्दार्थ---- जिसके विधिवत किये गए सभी कर्म काम संकल्प रहित हैं, ज्ञानाग्नि के द्वारा संपूर्ण कर्म जल गये हैं बुद्धिमान लोग उसे ही पण्डित कहते हैं ।
              तात्पर्यार्थ---- सर्वे समारम्भाः को पहले समझ लेते हैं । सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो ३/२५ में कहा था जैसे विषयासक्त पुरुष फलप्राप्ति के लिए विधि पूर्वक कर्म करता है क्योंकि थोड़ी भी कमी रह गई तो फल प्राप्त नहीं होगा वरन् क्षति होगी, वैसे ही नैष्कर्म्य की सिद्धि के लिए भी विधि पूर्वक कर्म करे तो ही नैष्कर्म्य की प्राप्ति होगी अन्यथा नहीं । वही यहाँ समारम्भाः समझना चाहिए कि जिस यति ने सभी कर्म शरीर निमित्तार्थ विधिवत किये हैं और कर रहे हैं किन्तु कोई कामना मन में नहीं रहती अर्थात मनोगत २/५५ सभी काम जिसके नष्ट हो गये हैं उस यति ने ज्ञानाग्नि के द्वारा कर्म नष्ट कर दिये हैं ।(इसके लिए ३/३० एवं ३/४२ की व्याख्या देखना चाहिए) ऐसा जो ज्ञानी है उसको बुद्धिमान पण्डित कहते हैं ।
                  भावार्थ---- २/११ में श्रीभगवान ने अर्जुन को पण्डित कहते हुए उपहास सा किया था वही यहाँ पण्डित की व्याख्या कर रहे हैं । कुल मिलाकर जो आत्मभाव के अभ्यास में स्थित है वही पण्डित है वही पुण्य-पापमय कर्मों का अतिक्रमण अर्थात नाश करता है या मोक्ष प्राप्त करता है ।।१९।।

                   संबंध---- प्रश्न यह उठता है कि जब तक ज्ञान नहीं होता तब तक तो उसके कर्मफल हैं, ज्ञानोत्पत्ति के पहले के कर्म तो फल देते ही होंगे ? इसपर कहते हैं.....
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ।।४/२०।।
             शब्दार्थ---- कर्मफल की आसक्ति का त्याग करके नित्यतृप्त, आश्रय रहित होकर जो कर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह कर्म में प्रवृत्त होकर भी कुछ भी, किंचित भी नहीं करता ।
                   तात्पर्यार्थ---- जब तक शरीर है तब तक प्रारब्ध है क्योंकि बिना प्रारब्ध के शरीर हो नहीं सकता, अतः उसे प्रारब्धानुसार कर्म तो करना ही पड़ेगा यह ३/५ में कह चुका हूँ और आगे १८वें अ. में भी कहूंगा । अतः प्रारब्ध के अनुसार विधिवत शास्त्रीय कर्म यज्ञ, दान, तप आदि तो करेगा ही यह प्रकृति के नियमानुसार बाध्यकारी है, किन्तु उसमें आसक्ति निरासक्ति मेरी स्वतंत्रता है । उपरोक्त सभी कर्म अथवा यति के भिक्षादि कर्म करेगा लेकिन सभी कर्म प्रकृति से गुणों से गुणों में हो रहे हैं, मैं कुछ नहीं करता ऐसा जिसका अनासक्त भाव है, नित्यतृप्त है क्योंकि आत्मन्येवात्मनातुष्टः २/५५ है । उसको आत्मैक्य के अभ्यास से स्वरूप का ज्ञान हो गया है, संपूर्ण कामनाएँ भी जिस आत्मा से भिन्न नहीं हैं । उसे भला क्या कामना होगी जो पाने के लिए लालायित हो अर्थात अतृप्त हो ? अतः वह नित्यतृप्त है । जो स्वयं से भिन्न कुछ देखता ही नहीं तो वह किस काल, देश, व्यक्ति, या देवता का आश्रय ग्रहण करे । सब कुछ तो आत्मस्वरूप है । अतः वह निराश्रय है । ऐसी जिसकी स्थिति है वह कर्म करता हुआ दिखने पर भी कुछ नहीं करता ।
             तात्पर्यार्थ----अनासक्ति और आत्मैक्य बोध ही कर्मबन्धन से मुक्त करता है ।।२०।।

                   संबंध----अब शरीर संबंधित कर्मों में पाप का अभाव दिखा रहे हैं......
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।।४/२१।।
             शब्दार्थ---- जो निराशी, संयत चित्त, सभी प्रकार के संग्रह का त्याग करके केवल शरीर निर्वाह के लिए कर्म करता उसे पाप नहीं लगता ।
                  तात्पर्यार्थ---- इस श्लोक में सबसे गंभीर पद “त्यक्तसर्वपरिग्रहः" है । सर्वत्र परिग्रह का त्याग अपरिग्रह है, यहां सर्वपरिग्रह का, प्रसंग है कर्मयोगी का, वह गृहस्थ विरक्त कोई भी हो सकता है तथापि सर्वपरिग्रह का त्याग कदाचित् गृहस्थ के लिए संभव नहीं है क्योंकि अगला पद है शारीरं केवलं कर्म । अतः यह तो सिद्ध हुआ कि यह ज्ञानी के लिए इसलिये नहीं हो सकता क्योंकि ज्ञानी में किसी प्रकार की इच्छा होती नहीं । उसका शरीर ढाल पर बंद गाड़ी की तरह चल रहा है । यहाँ शरीर के लिए कर्म करने की बात है, अतः मात्र गृहत्यागी मुमुक्षु संन्यासी के लिए स्पष्ट संकेत है क्योंकि किसी से भी किसी भी प्रकार की आशा न रखना, यतचित्तात्मा कहिए जिसका मन विवेक, वैराग्य,(शम,दम, तितिक्षा, उपरति श्रद्धा एवं समाधान ये) षट्संपत्ति एवं मुमुक्षा इन अन्तःकरण चतुष्टय से सम्पन्न है ऐसा जो यति है सभी प्रकार के कर्म त्याग कर केवल शरीर संचालन हेतु तात्कालिक भिक्षा लंगोटी कंबल आदि जितने से जिस किसी प्रकार शरीर का निर्वाह हो जाये उतना ही संग्रह करे अधिक नहीं किन्तु आशा उसकी भी न करे यही निराशी है इस प्रकार अनासक्त भाव से किया जाने वाला कर्म निष्पाप होता है अर्थात पाप नहीं लगता ।

                 संबंध---- जब सब कुछ त्याग हो जायेगा तो भी शारीरिक कर्म करने पर भी अन्न वस्त्र आदि की कामना तो करनी ही पड़ेगी अर्थात संग्रह करना ही पड़ेगा ? ऐसी जिज्ञासा करने पर कहते हैं......
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वान्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।।४/२२।।
            शब्दार्थ----अपने आप जो प्राप्त हो जाये मुमुक्षु उसी में सन्तुष्ट रहे हर प्रकार के द्वन्द्वों और ममता से सिद्धि असिद्ध में सम होकर कर्म करते हुए उसमें नहीं बंधता ।
                 तात्पर्यार्थ---- संन्यासी अर्थात मुमुक्षु श्रवण, मनन, निदिध्यासन की तल्लीनता होने पर भिक्षा भी बाध्यकारी दिखने लगे तो सब कुछ प्रारब्ध पर छोड़ दे क्योंकि शरीर का रहना न रहना सब प्रारब्ध के आधीन है इसलिये भिक्षा का मिलना न मिलना, शरीर ढकने के निमित्त भी वस्त्र का मिलना न मिलना, इनके अभाव में मिलने वाले क्लेश, मिलने पर सुख सहित सर प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होकर किसी प्रकार के डाह अर्थात अमुक के पास देखो इतना है मेरे पास कुछ नहीं इत्यादि आन्तरिक भाव डाह कहलाते हैं वह डाह न करे । जीवन के अनुकूल प्राप्त वस्तु सिद्धि कहिये और विरुद्ध को असिद्धि उसमें भी मुमुक्षु सम रहे । यदि प्रारब्ध पर न छोड़कर भिक्षा भी करे तो शरीर संचालन मात्र जितने से हो सके उतना ग्रहण करे तथापि न मिलने पर भी मन निर्विकार रहे ऐसा असंग कर्म करता हुआ भी कर्मबन्धन को प्राप्त नहीं होता ।।२२।।

                 संबंध---- क्योंकि ज्ञानपूर्वक आसक्ति का त्याग ही कर्मबन्धन से मुक्त करने वाला है......
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थित चेतसः ।
यज्ञायाऽचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।।४/२३।।
             शब्दार्थ---- जिसकी कर्मफलासक्ति नष्ट हो गई, जिसका चित्त ज्ञान में स्थिर है, जो संपूर्ण कर्म यज्ञ अर्थात परमात्मा के लिए ही करता है उसके सभी कर्म अशेष रूप से नष्ट हो जाते हैं ।
                 तात्पर्यार्थ---- उलटपुलट कर कर्मफलासक्ति आदि की ही चर्चा बारंबार आती है, मात्र मुमुक्षु की दृढ़ता कैसे भी और कहीं से भी बने । इसलिये सर्वत्र व्याख्या उपयुक्त नहीं है । ज्ञानावस्थित चेतसः को अध्यात्म चेतसा ३/३० से संबद्ध करके वहीं देखना चाहिए यज्ञ का अर्थ परमेश्वर करने का कारण है कि समस्त यज्ञ उन्हीं में प्रतिष्ठित हैं “यज्ञो वै विष्णुः" ३/१५ कर्म का यही आशय है । अतः अब यज्ञ के स्वरूप पर विचार आगे करते हैं ।।२३।।

               संबंध---- पूर्व श्लोक में श्रीभगवान ने यज्ञ की बात की है, आशंका होती है कि मुमुक्षु गृहत्यागी होता है उसके पास यज्ञ सामग्री श्रुवा, चमस आदि पात्र, आहुति देने संबंधित सामग्री कहाँ से आयेगी ? इसपर कहते हैं......
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।४/२४।।
              शब्दार्थ---- श्रुवा आदि अर्पण पात्र ब्रह्म हैं, हवि ब्रह्म है, अग्नि ब्रह्म है, आहुति ब्रह्म है, इस प्रकार जिस की कर्म में ही समाधि अर्थात ब्रह्म बुद्धि है वह भी ब्रह्म ही है इस प्रकार यज्ञकर्ता ब्रह्ममय होने से उसका फल भी ब्रह्म ही होता है ।
              तात्पर्यार्थ---- इस मंत्र पर बड़े बड़े आचार्यों, विद्वानों के भाष्य, टीकाएं हैं तथापि उन सभी आचार्यों को नमन करते हुए इस मंत्र की व्याख्या आज की परिधि में करने की अनुमति मांगता हूं......
              आप सभी सुधीजन इस मंत्र को भोजन मंत्र के रूप में प्रयुक्त करते हैं तथापि हमें वहाँ अर्थाभाव दिखता है, आचार्यों की टीकाएं उनके उस वर्तमान परिप्रेक्ष्य की हैं, तो उसके अनुसार वर्तमान में उसी मंत्र को भोजन के समय क्यों बोलते हैं ? यह विचारणीय है । श्रीभगवान ने 'अहं वैश्वानरो भूत्वा" १५/१४ करके संपूर्ण अन्न पचाने की बात कही है । अतः इसी जठराग्नि को ब्रह्म समझकर अर्पण करने वाले हाथ रूप ब्रह्म से, मुख रूप ब्रह्म में, भोज्य पदार्थ रूप ब्रह्म का आहुति रूप ब्रह्म में अर्पण करना रूप ब्रह्म ही है । जिस मुमुक्षु की कर्मनिष्ठा ब्रह्मस्वरूप है वह मुमुक्षु की गति अर्थात ब्रह्माकार वृत्ति के कारण वह स्वयं ब्रह्ममय होकर ब्रह्म को ही प्राप्त होता है ।
                 भावार्थ---- मुमुक्षु साधक का यही यज्ञ है इससे भिन्न नहीं कारण कि श्रवण, मनन, निदिध्यासन में अत्यन्त निमग्न होने से भिक्षा आदि भी बाधा बन जाती हैं तथापि यदि भिक्षादि की उपेक्षा कर देगा और शरीर शान्त हो गया, स्थिति प्राप्त नहीं हुई तो शेष प्रारब्ध भोगने हेतु पुनर्जन्म होकर पुनः क्या स्थिति हो पता नहीं । अतः भिक्षादि कर्म भी ब्रह्म है ऐसा समझकर ब्राह्मीभाव का कि मैं ब्रह्म हूँ का अभ्यास करे, क्योंकि यही मंत्र ब्रह्मकर्मसमाधिना कहकर यज्ञकर्ता और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करता है ।

              संबंध----  इसी यज्ञ को आगे विभिन्न रूपों में वर्णन करते हैं......
दैवमेवाऽपरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञैनोवोपजुह्वति ।।४/२५।।
           शब्दार्थ---- दूसरे योगी लोग देवदर्शन के लिए उपासना करते हैं, अन्य ज्ञानीजन ब्रह्म रूप अग्नि में विचार रूप यज्ञ के द्वारा जीवात्मा रूप यज्ञ का हवन करते हैं ।
               तात्पर्यार्थ---- पूर्व श्लोक को दो प्रकार से देखना चाहिए......, एक तो वह सिद्ध की स्थिति है और वह इस स्थिति में सहज है उसे भावना की आवश्यकता नहीं है । इस भाव की भावना चित्तशुद्धि हेतु मुमुक्षु के लिए है । इस पूर्वोक्त श्लोक में शंका हो सकती है कि वह तो ज्ञानी की निर्गुण स्थिति है लेकिन हम जैसे अविद्याग्रस्त को भावना नहीं बन सकती है तो इस पर यहाँ से श्लोक ४/३० तक परंपराओं की व्याख्या करते हुए पूर्वोक्त की व्याख्या प्रकारान्तर से करते हैं.....
              १- चूंकि यहाँ नित्य यज्ञ का प्रसंग चल रहा है । अतः अ.३/१२ में पंचमहायज्ञों की व्याख्या समझ लेना चाहिए और यज्ञ का स्वरूप ३/१०-१५ तक देख लेना चाहिए कि वस्तुतः यज्ञ का परमेश्वर से क्या संबंध है “यज्ञो वै विष्णुः" अर्थात नित्य नैमित्तिक के अन्तर्गत पंचमहायज्ञों को साक्षात विष्णु समझना चाहिए । वासुदेवः सर्वम् के अन्तर्गत ही हाथ, भोजन, ग्रास, मुख में डालना, भोजन को मुख में डालने वाला स्वयं भी, अन्दर भोजन पचाने वाली जठराग्नि वह सब ही वासुदेवः सर्वम् है । इसी प्रकार से वासुदेवः सर्वम् से भावित स्वयं भी वासुदेव स्वरूप होकर वासुदेव हो जाता है । यह अपरब्रह्म के आराधकों की चित्तशुद्धि के लिए कहा गया है ।
              २- ब्रह्म अग्नि है उसमें यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन करे अर्थात ब्रह्मरूप अग्नि में श्रवण, मनन, निदिध्यासन एवं जीव रूप उपाधि का हवन करे अर्थात मोक्षकामी जितनी भी सांसारिक जीव भाव सहित अपरा-परा अर्थात प्राकृतिक गुणधर्म, आसक्ति, राग, द्वेष, आदि संपूर्ण जड़ अनात्मा का ब्रह्मरूप अग्नि में हवन विचार नामक यज्ञ से करते हुए जीव नामक अनात्म पदार्थ का भी हवन करके ब्रह्म नामक उपाधि का भी हवन अर्थात त्याग कर दे । उसमें जीव-ब्रह्म की भी समाधि हो जानी चाहिए । इस प्रकार परंपरागत अलग अलग उपासनाएँ कही गई हैं ।
              पुनर्समीक्षा― पूर्वपक्ष― यहाँ पर श्लोक के उतरार्ध का अर्थ स्वामी रामानुजाचार्य इस प्रकार करते हैं― ब्रह्म रूप अग्नि में यज्ञ से ही यज्ञ में हवन करते हैं,  यहां यज्ञेन का अर्थात अग्नि, श्रुवा, घृतादि हवन सामग्री का विशेषण माना है । पूर्व श्लोक ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः के साथ समन्व करते हुए समन्व करते हैं । यहाँ शंका यह होती है कि यज्ञ का अर्थ यदि साधन रूप धृतादि किया जाये तो ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः में जिन साधन सामग्री का वर्णन आया है उसका क्या होगा ? यदि उसे मनसे और इसे स्थूल यज्ञ बताते हैं तो किसी निर्विशेष ब्रह्म में कोई स्थूल हवन आदि होता नहीं है । यह सब औपाधिक विराट के लिए ही संभव है, जो पूर्वार्ध में पहले ही दैवामेवारे यज्ञं योगिनः पर्युपासते द्वारा कहा गया है । अतः यहाँ पर प्रत्येक दशा में स्वामी जी की बात युक्तिसंगत नहीं दिखती ।
               उत्तरपक्ष― हमने अद्वैताचार्यों के अनुसार पहले निर्णय कर दिया है । यहाँ पर मात्र इतना बताना है कि विशिष्टाद्वैत के अर्वाचीन गीता के तात्पर्य को भलीभांति समझने वाले स्वामी रामसुखदास जी ने भी यज्ञेन अर्थात विचार रूप यज्ञ के द्वारा यज्ञम् अर्थात जीव रूप यज्ञ का हवन करते हैं, यह माना है । इस आधार पर यहाँ भी, किसी भी द्वैतवादी का यज्ञ का अर्थ यज्ञ के साधन रूप घृतादि सामग्री बताना किसी भी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है । यज्ञ स्वयं विष्णु है– यज्ञो वै विष्णुः । जीव को यज्ञ कहकर ईश्वर और जीव की एकता का प्रतिपादन किया गया है । यह स्पष्ट हुआ ।।।२५।।

                 संबंध---- पुनः प्रकारान्तर से......
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ।।४/२६।।
       शब्दार्थ----अन्य लोग श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियों को संयम रूप अग्नि में स्वाहा करते हैं तो दूसरे लोग शब्दादि कर्मेन्द्रियों को इन्द्रिय रूप अग्नि में स्वाहा करते हैं ।
                  तात्पर्यार्थ---- श्रोत्रादि का मतलब कान, नाक, आंख, मुख एवं त्वचा नामक पांचों ज्ञानेन्द्रियों का आकर्षण क्रमशः सुनना, सूंघना, देखना, बोलना और स्पर्श सुख में होता है । साधन चतुष्टय संपन्न साधक इन विषयों को संयम रूप अग्नि में स्वाहा कर देता है, कानों को सुनने की इच्छा है लेकिन हमें नहीं सुनना, आंखों को देखने की इच्छा है लेकिन हमें नहीं देखना आदि । इन्द्रियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध आहार देकर नियंत्रित करना यही प्रत्याहार रूपी यज्ञ करते हैं, तथा दूसरे लोग शब्दादि का मतलब शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का इन्द्रियों में हवन करते हैं अर्थात जैसा शास्त्र कहता है वही ग्रहण करना शास्त्र निषिद्ध विषय की ओर न जाने देना रूप यज्ञ करते हैं ।
                भावार्थ----यहां से लेकर आगे ४/३०तक ३/२४-२५ में कहे अभेद दर्शन ही जिसका लक्ष्य है उस लक्ष्य की प्राप्ति रूप साधनों का विभिन्न मतों द्वारा प्रतिपान किया गया है ।।२६।।

                संबंध---- अगले दो श्लोकों द्वारा अन्य मतों का प्रतिपान......
सर्वाणीन्द्रिय कर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।।४/२७।।
           शब्दार्थ---- अन्य लोग सभी इन्द्रियों एवं प्राणों के कर्मों को संयम रूप अग्नि में प्रज्ज्वलित ज्ञानदीप के द्वारा हवन करते हैं ।
               तात्पर्यार्थ---- संपूर्ण इन्द्रियों के कर्म क्या हैं इसकी व्याख्या अ.५/८-९ में ही देखना चाहिए । प्राण के कर्म क्या हैं ? संकुचन और विस्तार । भूख लगने पर संकुचन एवं उचित मात्रा में भोजन देने से यथा स्थिति इसका विस्तार युक्ताहारविहारस्य ६/१७ में होगा, और अधिक भोजन प्राप्ति पर विस्तार होता है अर्थात अनियमित होते हैं । ये हुआ पहला पक्ष, अब दूसरे पक्ष पर विचार करते हैं....। अपने आराध्य के मंत्र का श्वास प्रतिश्वास स्मरण करके श्वास को ही प्रभुमय बना दें । इस प्रकार किये गये संयम को योगाग्नि अर्थात जीवात्मैक्य रूप अग्नि में ज्ञानरूप अर्पण द्वारा अर्थात श्रुवादि द्वारा हवन करे । ज्ञानदीप दीपित अर्थात निरंतर प्रज्ज्वलित रहना चाहिए तत्त्वमसि आदि महावाक्य, प्रेस मंत्र का चिन्तन, उस पर आरूढ़ होने का सतत अभ्यास, जीवात्मैक्य द्वारा सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि हर परिस्थिति में रखना ही प्रज्वलित ज्ञानदीप है । आगे ज्ञानदीपेन भास्वता १०/११ कहेंगे ।।२७।।

               संबंध---- अन्यमत…..
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।।४/२८।।
          शब्दार्थ---- तथा दूसरे लोग द्रव्ययज्ञ तपयज्ञ, तथा योगयज्ञ करते हैं एवं अन्य लोग स्वाध्याययज्ञ, ज्ञानयज्ञ, एवं अन्य प्रत्यनशील कठोर तपयज्ञ करते हैं ।
                तात्पर्यार्थ---- द्रव्ययज्ञ से तात्पर्य है दान से, भोजन, जल, वस्त्र आदि । इसका विवरण अध्याय १७ में देखें । तप कृच्छ्र चान्द्रायण आदि द्वारा तप करना तो संभवतः आज लुप्तप्राय हो गया है तथा अन्य योग के द्वारा (यहाँ चूंकि विभिन्न मतों का वर्णन है अतः यहाँ गीता का समत्वयोग नहीं लिया जा सकता) महर्षि पतञ्जलि का यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान, समाधि ये अष्टांग योग समझना चाहिए । विवरण योगदर्शन में देखें । अष्टमी, प्रतिपदा आदि निषिद्ध काल को छोड़कर वेदों का अध्ययन करना भी यज्ञ है । मोक्षाकांक्षी को ज्ञानयज्ञ अर्थात उपनिषद प्रतिपादित ब्रह्मविद्या जो आत्मैक्य का बोध कराने वाली है उनका निरंतर चिंतन करना और कराना ज्ञानयज्ञ है । अन्य प्रयत्नशील मुमुक्षु कठोरता पूर्वक ब्रह्मचर्य, अहिंसा, अस्तेय, सत्य आदि का कठोरतम पालन रूप महायज्ञ करते हैं । विवरण उन उन संबंधित स्थलों पर देखना चाहिए ।।२८।।

                  संबंध----अगले दो श्लोकों में प्राणायाम बताकर इन विधियों का उपसंहार करते हैं......
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ।।४/२९।।
            शब्दार्थ---- कोई तो अपान को प्राण में, अन्य प्राण को अपान में तथा अन्य जो प्राणायाम परायण हैं वे प्राण की गति रोकना रूप यज्ञ संपादित करते हैं ।
              तात्पर्यार्थ---- प्राण के निवास स्थान हृदय से जब श्वास को गुदामार्ग की ओर ले जाते हैं तब वह निम्नगामी श्वास अपान और हृदय से ऊपर की ओर प्राण कहे जाते हैं । कोई तो अपान को प्राण में मिलाते हैं अर्थात गुदामार्ग से अपान को खींचकर हृदय में स्थिर करते हैं और प्राण हृदय से ले जाकर नीचे गुदामार्ग सीवन में प्रतिष्ठित करते हैं, तो कोई प्राण और अपान की गति को ही रोक देते हैं । प्राणायाम अनुभवगम्य होने से मैं अधिक कुछ नहीं लिख सकता किन्तु इतना कहूंगा नियमित होना चाहिए अन्यथा वायु कुपित होने से कोई रोक नहीं सकता, जो आजीवन क्लेशकारी सिद्ध हो सकता है । प्राणायाम की मात्रा एवं संख्या भी नियमित और निर्धारित हो । १:४:२ के अनुसार ही प्राणायाम करना चाहिए । अगर आप पित्त और वायु प्रधान हैं तो पहले बांयें स्वर से और यदि कफ प्रधान हैं तो पहले दांयें स्वर से शुरु करें । साथ ही शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष के अनुसार कब किस स्वर से प्रारंभ करना है, काल क्या है, योग क्या है, इत्यादि का निर्धारण भी आवश्यक है । यदि आप वायु के रोगी हैं तो अन्तः कुंभक बिल्कुल न करें  । बाह्य कुंभक सबके लिए लाभकारी है । प्राण अपान की गति रोकने की दो विधियां हैं । एक तो जिस समय जो प्राण जहाँ है वहीं रोक देना दूसरी प्राण अपान को मूलबंध मणिपूरक, स्वाधिष्ठान आदि कहीं भी अपनी परंपरा और अधिकारानुसार एक निश्चित स्थान पर एकीकृत करके रोक देना । विवरण योगदर्शन आदि में पढ़कर रोग और मौत को निमंत्रण न दें । परंपरा से ही करें । इसीलिये श्रीभगवान अनेक परंपराओं का वर्णन कर रहे हैं ।।२९।।

                संबंध---- प्राणायम का एक और स्वरूप बताकर विभिन्न याज्ञिक उपसना पद्धति का उपसंहार.....
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपित कल्मषाः ।।४/३०।।
                 शब्दार्थ---- अन्य साधक नियमित आहार लेकर प्राणों से प्राणों का नियमन करते हैं, इस प्रकार के जो सभी प्राणायाम ४/२४ से लेकर यहाँ तक कहे गये उन यज्ञों को जानने वाला इस प्रकार के यज्ञ से सभी पापों को नष्ट कर देता है ।
                तात्पर्यार्थ---- कुछ लोग प्राणों की रक्षा जितने मात्र से हो जाये मात्र उतना ही लेकर अन्न नामक प्राण से ही शरीर रक्षक प्राणों का नियमन करते हैं । आगे युक्ताहारविहारस्य ६/१७ में आयेगा । इसप्रकार पूर्वोक्त सभी तत्त्ववेत्ताओं के लिए यज्ञ ही हैं इन यज्ञों से संपूर्ण पापों का नाश कर देता है ।यहाँ प्राणों का प्राणों में कहने मतलब है आहार के माध्यम से प्राणों का नियमन करना है ।।३०।।

                संबंध---- अब यज्ञशिष्ट भोक्ता का फल बताते हैं......
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ।।४/३१।।
             शब्दार्थ---- हे कुरुसत्तम ! यज्ञावशेष को खाने वाला सनातन ब्रह्म को प्राप्त होता है । जो इस प्रकार के यज्ञ नहीं करता उसको यह मनुष्यलोक भी नहीं मिलता फिर अन्य अर्थात ब्रह्म, स्वर्गादि लोक कहाँ ?
            तात्पर्यार्थ---- यज्ञावशेष का अर्थ है यज्ञ से बचा हुआ अन्न । यहाँ जितने भी यज्ञ बताए गए हैं उनमें कोई अन्नवाला द्रव्ययज्ञ को छोड़कर और कोई है नहीं तो क्या बचेगा ? क्या खायेगा ? इसका समाधान है कि उपरोक्त कर्म करने के पश्चात चित्तशुद्धि ही अन्न है उसमें संतुष्ट होना ही आहार है । यहाँ पर.... यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापं ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।३/१३।। इस श्लोक का प्रथम दो चरण ३/३० का, तीसरा, चौथा चरण ३/३१ के प्रथम और द्वतीय चरण का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि जो यज्ञ नहीं करता उसको लोक परलोक कुछ भी अर्थात कोई भी सुख नहीं मिलता ३/१३, का तृतीय चतुर्थ चरण पुष्टि करता है क्योंकि बिना कर्म के जीवन यात्रा भी सिद्ध नहीं होती ३/८, तो फिर लोक परलोक कहाँ से प्राप्त होगा ? अतः निष्कामकर्म रूप यज्ञ ४/२४-३० में कुछ तो करना चाहिए ।।३१।।

             संबंध---- यज्ञादि कर्तव्यकर्म को समझाकर अब कर्म करने की प्रेरणा दे रहे हैं.....
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।।४/३२।।
              शब्दार्थ---- ४/२४से अब तक जितने भी यज्ञ कहे हैं वे बहुत प्रकार के हैं जिन्हें वेदमुख से जानकर उन सभी यज्ञों को कर्म से उत्पन्न हुआ जान इससे तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा ।
             तात्पर्यार्थ----- एवं अर्थात इस प्रकार, बहुधा अर्थात बहुत प्रकार से जो ४/२४-३० तक कहा और बहुधा से यह कहना चाहते हैं कि इतने ही यज्ञ नहीं हैं वेदों ने और भी बहुत प्रकार से कहा है, वह भी संक्षेप से नहीं वितता अर्थात विस्तार से कहा है । उन सबको तू भली प्रकार विस्तार से वेदों द्वारा जान, क्योंकि यज्ञ केवल वेदों द्वारा शरीर से अग्नि में आहुति देना मात्र नहीं है । यज्ञ शरीर मन वाणी द्वारा तीनो प्रकार १८/१५ के होते हैं । अतः ये सभी यज्ञ कर्मजन्य ही हैं, ऐसा जानने वाला कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है । कर्मजन्य का अर्थ है जो भी कुछ युद्ध के अतिरिक्त भी अपनायेगा वह भी कर्मजन्य ही होगा, क्योंकि बिना कर्म के नैष्कर्म्य सिद्धि होती नहीं ३/४, अतः कर्म ही करना है तो “श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः" ३/३५ ही क्यों नहीं ? ऐसा समझकर ही कर्म करने से कर्मबन्धन से मुक्त होगा ।।३२।।

                 संबंध---- सभी यज्ञों में ज्ञान यज्ञ को श्रेष्ठ बताना.....
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाञ्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।।४/३३।।
              शब्दार्थ---- हे परन्तप ! द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ ही श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ ! सम्पूर्ण कर्मों की समाप्ति ज्ञान से ही होती है ।
                तात्पर्यार्थ---- अ.३/१०-१५तक यज्ञ का वर्णन करके सबक सिखाने विनियोग ब्रह्म में कर दिया था । इसीप्रकार ४/२४-३० के जितने भी यज्ञ बताए हैं उनमें ४/२४ का ज्ञानयज्ञ ही श्रेष्ठ बताया है, क्योंकि जितने भी श्रौत-स्मार्त कर्म हैं सबका विनियोग ज्ञान में होकर अशेष कर्मों की समाप्ति ज्ञान में ही होती है । यहाँ जीवात्मैक्य अर्थात अपरिच्छिन्नता ही सर्वोपरि है यह बताया गया है । आगे ज्ञान की महिमा का कथन होने वाला है अतः वहाँ देखें ।।३३।।

                 संबंध---- इतना विस्तार हम कहाँ पढ़ समझ सकते अतः कोई संक्षिप्त मार्ग बताओ जिससे यह ज्ञान का रहस्य जान सकूं । कहते हैं संक्षिप्त मार्ग भी है......
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।४/३४।।
            शब्दार्थ---- जो ज्ञानी और तत्त्वज्ञानी महात्मा हैं उनको साष्टांग प्रणाम करो, उनकी सेवा करो फिर उनको संतुष्ट देखकर पुनः पुनः समयानुसार प्रश्न करो, वे दयालु महात्मा तुम्हें तत्त्व का उपदेश करेंगे ।
               तात्पर्यार्थ---- परंपराओं का मूलोच्छेद हो जाने के कारण गुरु परंपरा भी लोभाधीन हो गई है आज की तो स्थिति है---- लोभी गुरू लालची चेला । बीच नरक में ठेलमठेला ।। गुरुशिष बधिर अंध कर लेखा । एक न सुनइ एक नहिं देखा ।। हमारी परंपराओं में हमारे ऋषिगण महात्मावृन्द कितने त्यागी होते थे ? एक मात्र उदाहरण देख लें-----
            भारतीय इतिहास का गौरव नैय्यायिक महर्षि कणाद का नाम कौन नहीं जानता ? इन महात्मा का जीवन बाजार में बिखरे अन्न कणों को बीनकर उससे यापन करने के कारण ही इनक नाम कणाद पड़ा था । एक बार किसी ने राजा से जाकर कहा कि तुमहारे राज्य में ऐसे त्यागी महात्मा रहते हैं उनका तुम ध्यान नहीं देता हो....., अगर ऐसा महात्माओं का अपमान करोगे तो तुम्हारा राज्य नष्ट हो जायेगा । राजा दौड़ा हुआ बाजार गया । महर्षि को निवेदन किया कि आपकी जीविका राजकोष से दी जायेगी । आप यह न करें हमें दुःख होता है । महर्षि ने पत्नी की ओर देखकर कहा---- देखा....! हमारे यहाँ रहने से राजा को दुःख होता है, चल उठ किसी दूसरे राज्य में चलते हैं । राजा महर्षि के चरणों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगा और कहा महाराज आपको जैसे भी रहना है वैसे रहो, हमें कोई दुःख नहीं होगा, लेकिन हमारे राज्य को छोड़कर मत जाओ । ऐसा था हमारे पूर्वजों का त्यागमय गौरव पूर्ण तपस्वी जीवन । आज हम उनके ही वंशज हैं ? पढ़ते हैं नौकर बनने के लिए फिर भी हमें कोई नौकर भी नहीं रखता । भारतीय इतिहास में विद्वान और विद्या का अपमान इससे पहले कभी अंकित नहीं हुआ । हम भी तो उन्हीं के वंशज संन्यासी हैं । हमें अपनी परधर्ममय अशास्त्रीय करतूतों और भोगलिप्सा से न तो लज्जा ही आती है और न ही चुल्लू भर पानी ही डूबमरने के लिए मिलता है ।
               पहले की परंपराएं विचित्र थीं । गुरुजन जितना शिष्यों को प्रताड़ित करते थे आज उसका आधा भी हो जाये तो मानवाधिकार जेल की रास्ता दिखा देगा । हमारे वे विद्यार्थी जब शिक्षित होकर निकलते थे तो देश और समाज के लिए अनुकरणीय और पूजनीय होते थे हालांकि हमारा विषय यह नहीं विषयान्तर हो गया । हमारा लक्ष्य है प्रणिपात, सेवा, परिप्रश्न, ज्ञानी, तत्त्वदर्शी पर विचार.....
      पहले ब्रह्मविद्या क्यों फलीभूत होती थी हमें अपना खाता मिलाना चाहिए.....
           ब्रह्मचर्य के चार पाद----
           १- प्रणिपात अर्थात शरणागति---- गुरु के पास रहकर पूर्णतः शरणापन्नता, थोड़ी भी आज की तरह स्वच्छंदता नहीं, कोई अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं ।
             २- सेवा----- गुरु सहित जिससे गुरु का आत्मीयभाव पत्नी-पुत्र-पुत्री आदि सबकी सेवा एवं विनम्रता ।
            ३- कृतज्ञता----- गुरुप्रदत्तविद्या का सतत अभ्यास करते हुए गुरु का कृतज्ञ आज की भाषा में एहसानमंद होना । गुरु को स्वयं से भिन्न न देखना ।
               ४- आचार्य की प्रसन्नता---- आचार्य की प्रसन्नता के लिए आवश्यक हो तो धन, प्राण सहित सर्वस्व समर्पण कर दे ।
यह तो हुआ गुरु के पास जाकर गुरु को प्रसन्न करने का साधन ।

          ब्रह्मविद्या के चार पाद----
         १- गुरुसान्निध्य,  २- शास्त्राभ्यास, ३- सहपाठियों/गुरुभाइयों से परस्पर चर्चा, ४- कालक्रम से । विस्तार भय से इतना ही ।
                इस प्रकार की हमारे यहाँ परंपरा रही है । उपनिषदों ने वैराग्य होने पर जितेन्द्रियता का प्रमाण देने हेतु सूखी समिधा हाथ में लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाने की बात कही है उसी को यहाँ ज्ञानिनः और तत्त्वदर्शिभिः कहा गया है । इस प्रकार शरणागति एवंं सेवा से सन्तुष्ट गुरु से समय समय पर अर्थात गुरु की अनुकूलता और समय देखकर प्रश्न करे..., बन्ध क्या है ? मोक्ष क्या है ? विद्या क्या है ? अविद्या क्या ? जीव क्या है ? ब्रह्म क्या है ? आत्मैक्य कैसे संभव है ? इत्यादि । तब दयालु गुरु उपदेश करेंगे । जो गुरु उपदेश करें उसमें संशय विपर्य अर्थात यह ऐसा हो ही नहीं सकता ये संशय है और इसका अर्थ ऐसा कैसे,  ऐसा क्यों नहीं हो सकता है ये विपर्यय है , ऐसा संशय विपर्यय न करे ।
            भावार्थ----- गुरु की शरण में जाकर अपनी स्वतंत्र सत्ता का परित्याग करके ही ब्रह्मविद्या ग्रहण की जा सकती है ।।४/३४।।

                 संबंध----अर्जुन के मन में शंका हो सकती है कि युद्धक्षेत्र में हूँ, शरण आपकी ली है तो फिर और के पास जाने की बात क्यों करते हो ? इस शंका के निवारण हेतु कहते हैं........
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ।।४/३५।।
          शब्दार्थ---- हे पाण्डव ! जिस परमतत्त्व को जानकर तू पुनः मोह को प्राप्त नहीं होगा एवं तत्त्वज्ञान से पहले संपूर्ण प्राणियों को अपने में और फिर मुझ सच्चिदानन्दघनस्वरूप परमात्मा में देखेगा ।
            तात्पर्यार्थ---- श्रीभगवान कहते कि तुम घबड़ाओ मत हमने ४/२५-३४ तक परंपरा का वर्णन और उसकी प्राप्ति के साधन बताये है । अब मैं तुम्हें वह तत्त्वज्ञान कहूंगा जिसको जानकर तुम पुनः मोह को प्राप्त नहीं होओगे । वह ज्ञान कैसा होगा ? इस पर कहते हैं कि ब्रह्मार्पणं४/२४के जिस महायज्ञ में एकमात्र अखण्ड ब्रह्म की जो भावनात्मक उपासना बताया वह जैसे करना है उसकी दूसरी विधि सुनो, जिसके जानने मात्र से पुनः मोह को प्राप्त नहीं होगा । यहाँ द्रष्टव्य है एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्यविमुह्यति ।२/७२ में भी जिस स्थिति को प्राप्त होकर पुनः मोहित नहीं होता वह ब्राह्मी स्थिति है अर्थात यह भी उसी ब्राह्मीभाव को प्रकारान्तर से बता रहे हैं । कहते हैं कि यह वह तात्त्विक ज्ञान है जिसको जानकर संपूर्ण प्राणियों को पहले अपने में देखोगे उसके बाद स्वयं को मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में । यहां अर्जुन को पहले संपूर्ण प्राणियों को अपने में देखते हुए मुझमें देखोगे कहने का तात्पर्य है जिन्हें तू मेरा कहकर चिन्तित होता है वह मेरापन ही तत्त्वज्ञान का बाधक है । पहले उसे मिटा दे उसको मिटाकर फिर जो शरीर भाव को लेकर जीवात्मा है उसका उपाधिस्थ अहंभाव मुझमें अर्पित करके अभिन्नभाव से देख क्योंकि आगे क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि १३/२ बताऊंगा । 
            अतः जिसे तू भिन्नभाव से अहं समझ रहा है वह अहं मैं स्वयं वासुदेव ही हूँ वासुदेवः सर्वम् ७/१९, इसप्रकार अहं मम का शोधन अध्यात्म चेतसा ३/३० के अनुसार करके तत् पदार्थ उपलक्षित असि पदार्थ में स्थित हो जा । यहाँ स्पष्ट तत्त्वमसि का उपदेश है, जिसके शोधन के पश्चात अहं ब्रह्मास्मि बचता है । सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ का माम् शब्द यहाँ के मयि से भिन्न नहीं है । ३/३० का शब्द भी ऐसा ही समझना चाहिए । ऐसा तात्पर्य है ।
                भावार्थ---- तत्त्वं के शोधन पूर्वक असि में प्रतिष्ठा ही ब्राह्मीभाव है, इसको प्राप्त किये बिना कभी भी मोक्ष का बाधक मोह आ सकता है । अतः इस स्थिति को जब तक जान न लें अर्थात प्राप्त न कर ले तब तक मुमुक्षु को संतुष्ट या साधन में शिथिल नहीं होना चाहिए  । यह भाव है ।।३५।।

             संबंध---- लेकिन इस ज्ञान से क्या होगा ? क्या आचार्यों आदि के वध के पाप से मुक्ति मिल जायेगी ? इस पर कहते हैं.....
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।।४/३६।।
              शब्दार्थ---- जो अशेष पाप अर्थात जिससे कोई भी पाप छूटा न हो ऐसा पापी भी ज्ञानरूपी नौका पर बैठकर समस्त पापों को पार कर जायेगा ।
                 तात्पर्यार्थ---- श्रीभगवान कहते हैं कि अर्जुन तुम अकेले आचार्य आदि की बात क्या करते हो ? मैं तो वह ज्ञान कहूंगा कि कोई भी पाप नहीं बचेगा । सर्वेभ्यः बहुवचन, पापेभ्यः बहुवचन उसमें भी कृत्तमः अर्थात जिसके पापों की गिनती ही नहीं की जा सकती ऐसे भी जिनके पापों की चरमसीमा है वे भी मेरी बतायी हुई ज्ञानरूपी नौका पर बैठकर पार हो जायेंगे, फिर भीष्मादि के वध का पाप ही क्या है ?
                भावार्थ---- यहाँ विशेष यह है कि नौका और नदी की उपमा दी गई है । संसार स्वयं छल कपट से परिपूर्ण साक्षात् पाप की नदी ही है । बाकी तो पाप बाद में ही होते हैं । संसार में आते ही नहीं तो अन्य पाप कैसे होते ? अतः मानव मात्र का कर्तव्य है कि संसार रूपी नदी को श्रीभगवान के बताये कर्मयोग उपलक्षित ज्ञानयोग नामक किस्ती पर बैठकर संसार रूपी नदी को पार कर जायें । इसके लिए किसी को किसी प्रकार की कोई बाध्यता नहीं है । इसीलिये स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ९/३९ भी कहा है ।।३६।।

               संबंध---- इस पाप के नष्ट होने में कितना समय लगेगा ? इस आशंका पर कहते हैं.....
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।४/३७।।
             शब्दार्थ---- हे अर्जुन ! जैसे अग्नि समिधा को भस्म कर देती है वैसे ही ज्ञानाग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है ।
                तात्पर्यार्थ---- बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत दुष्कृते २/५०।। कह चुके हैं अतः पूर्व के और उत्तर यानी बाद के प्रसंग विरोध न हो यह भी ध्यान रखना आवश्यक है । वहाँ जिस बुद्धियुक्त की बात कही गई है वही यहाँ प्रकारान्तर से ज्ञानाग्नि कहा है वहाँ सुकृत दुष्कृते और यहां सर्वकर्माणि अर्थात पुण्य-पापमय दोनो कर्म कहा । एधांसि कहिए ईंधन या लकड़ी को समिद्धः कहिए अत्यंत उग्रभाव को प्राप्त अर्थात जैसे अत्यंत प्रचंड हुई अग्नि लकड़ी के सूखे हुए छोटे छोटे टुकड़ों को क्षण भर में भस्म कर देती है वैसे ही ज्ञानाग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है वह पापमय हों या पुण्यमय । जैसे अग्नि के द्वारा जलकर भस्म में यह पता नहीं चलता इसमें जलने वाली लकड़ी की राख गूलर, आम या खैर अथवा बबूल की है ? इसी प्रकार मनोगत संपूर्ण विकारों के नष्ट हो जाने पर जो पूर्व में अर्जुन को कहा था कि संपूर्ण प्राणियों को पहले अपने में और फिर मुझमें देखेगा वही यहाँ जली हुई लकड़ी की भस्म से समझना चाहिए कि जब जीव और ब्रह्म नामक उपाधिरूप कल्मष ज्ञानरूप अग्नि में जलकर भस्म है जायेगी तो वहाँ कौन जीव होगा और कौन ब्रह्म ? अर्थात वहाँ मात्र असि नाम की राख बचेगी ।
               भावार्थ---- कहने का भाव यह है कि अहं त्वं का भाव मिट जाने पर सत्तात्मक असि मात्र बचता है चूंकि राख जड़ पदार्थ है और सत्ता चैतन्य है । अतः जीव ब्रह्म की सत्ता समाप्त होकर मात्र चैतन्य सत्ता अहं ब्रह्मास्मि की अनुभूति मात्र शेष रह जाती है । ऐसी स्थिति में पुण्य पाप स्पर्श भी कहाँ कर सकता है ? इसलिये सर्वकर्माणि कहा यह भाव है ।।३७।।

              संबंध---- इसीलिये जिसे पवित्राणां पवित्रं यो मंगलानां च मङ्गलम् एवं परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् कहा गया है, क्योंकि ज्ञान से बढ़कर पवित्र, पवित्र को भी पवित्र करने वाला और कुछ है ही नहीं.....
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।४/३८।।
             शब्दार्थ---- इस संसार में ज्ञान की समानता करने वाला पवित्र और कुछ है ही नहीं । वह ज्ञान समयानुसार स्वयं आत्मा में ही सिद्ध हो जाता है ।
                तात्पर्यार्थ---- बुद्धौशरणमन्विच्छ २/४९ अर्थात तू ज्ञान का अन्वेषण कर, क्यों ? क्योंकि संसार में जितने भी शास्त्रीय पवित्र किये जाने वाले कर्म हैं वह चाहे किसी भी देवी या देवता की आराधना हो विभिन्न प्रकार के कृच्छ्र चान्द्रायण आदि तप हों एकादशी आदि व्रत हों ये जितने भी पवित्र करने वाले कर्म हैं न ज्ञानेन सदृशम् अर्थात कुछ भी ज्ञान के समान नहीं है । भेदभाव की उपासना को राजसी-तामसी १८/२१-२२ कहा गया है, जबकि अभेद उपासना को सात्विक १८/२०।। अतः ज्ञान पवित्रतम है उसकी आरूढ़ता का सतत अभ्यास करना चाहिए । जब संपूर्ण कर्मों के द्वारा उत्पन्न राग द्वेष आदि अशेष कल्मष नष्ट हो जायेंगें चित्त शुद्ध अर्थात पवित्र हो जायेगा ज्ञान उसी काल को उपयुक्त समझकर स्वयं आत्मा अर्थात अपने अन्दर ही प्रकट है जायेगा । 
            ज्ञान उसी को पवित्र करता है जो स्वयं पवित्र हो अर्थात संपूर्ण प्राणियों को तो अपने में देखता है और स्वयं को ब्रह्म में देखता है यह सब चित्त शुद्धि होने पर हो गया लेकिन परिच्छन्नता रूप जो कल्मष दोनो जगह पर है वह नहीं गया है । उस परिच्छन्नता रूप कल्मष को नष्ट करके आत्मैक्यता रूप अभेद को प्राप्त करा देगा । इसके लिए और कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है । ऐसा तात्पर्य है ।।३८।।

                संबंध---- तब तो यह ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? इस पर कहते हैं.....
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधि गच्छति ।।४/३९।
            शब्दार्थ---- श्रद्धावान, संयतेन्द्रिय, एवं ब्रह्माभ्यास में तत्पर ही ज्ञान को प्राप्त करता है । ज्ञान प्राप्त करके मुमुक्षु शीघ्र ही पराशान्ति अर्थात ब्रह्मरूपता को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है ।
                 तात्पर्यार्थ---- यह ४/२४ से लेकर जो विभिन्न प्रकार के ब्रह्मात्मैक्य भाव प्राप्ति के लिए साधन बताये गये हैं, वह तो कोई भी कर सकता है, जैसे आजकल तो कोई भी योगा कर ही रहा है, तो क्या ब्रह्म प्राप्ति हो जायेगी ? इस पर कहते हैं नहीं यह बहिरंग साधन हैं, वह सहायक अवश्य हैं लेकिन उसके लिए तीन साधन और चाहिए जो अन्तरंग साधन हैं श्रद्धा, इन्द्रिय निग्रह एवं तत्परता । श्रद्धा आजकल लोगों में बहुत दिखती है लेकिन सुनना एक बात नहीं, कैसी आपकी श्रद्धा ? श्रद्धा वह है जो गुरु शास्त्र ने कह दिया वह कह दिया, गुरु शास्त्र पर कोई संशय नहीं विपर्यय नहीं, इसको कहते हैं श्रद्धा । 
               आपको जब गुरु शास्त्र के सत्स्वरूप अनुभव धारण करने की क्षमता बनेगी तब आप श्रद्धावान होओगे, तथापि इतने मात्र से काम चलने वाला नहीं है आपकी इन्द्रियां नियंत्रित होनी चाहिए । उसके लिए विवेक, वैराग्य, (शम,दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा एवं समाधान ये) षट्संपत्ति और मुमुक्षा ये चार साधन और चाहिए, केवल “मैं ब्रह्म हूँ, यह आत्मा ब्रह्म है” आदि करके प्रमाद करने से काम नहीं चलेगा जब तक अपरोक्षानुभूति न हो जाये तब तक अज्ञानी जैसे धन प्राप्ति के लिए रात दिन एक कर देता है ३/२५, वैसे ही ब्रह्म प्राप्ति हेतु आसक्त चित्त हुआ रात दिन श्रवण, मनन, निदिध्यासन करके एक कर देना तत्परता है । ऐसा जो श्रद्धावन, संयतेन्द्रिय और तत्पर मुमुक्षु है वही ब्रह्मात्मैक्य का ज्ञान प्राप्त करके स शान्तिमधिगच्छति २/७१ अर्थात पराशान्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ।।३९।।

               संबंध---- यदि श्रद्धा नहीं है तो गुरु शास्त्र के वचनों पर संशय होगा जिसका परिणाम बहुत ही घातक होगा.....
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।४/४०।।
            शब्दार्थ---- जो अज्ञानी है जिसमें श्रद्धा नहीं है एवं संशयात्मा है उसका विनाश हो जाता है उसको न तो इस लोक में और न ही परलोक में ही कोई सुख मिलता है ।
               तात्पर्यार्थ---- ब्रह्मप्राप्ति के तीन साधन बताकर अब उन तीन कारणों को बता रहे हैं जिन कारणों से ब्रह्मप्राप्ति नहीं होती...., जो अज्ञानी है.... अज्ञानी का मतलब जो न तो शास्त्र का ही ज्ञान रखता है और न ही गुरु के उपदेश पर ही विचार कर सकता है, उसमें अगर नीर-क्षीर विवेक है तो श्रद्धा की कोई आवश्यकता नहीं है श्रद्धा स्वतः दौड़कर आती है । इतनी क्षमता न हो तो गुरुमुख से निकला वाक्य जैसा का तैसा मान लेना श्रद्धा है और न मानना अश्रद्धा है । आपने बहुत से शास्त्र पढ़ लिया है तथापि इसका अर्थ ऐसा कैसे हो सकता वैसा क्यों नहीं ? गुरु ने जो उपदेश दिया उस पर भी ननु न च करना संशय है । इस प्रकार अज्ञान, अश्रद्धा और संशय ही मुमुक्षु के विनाश के हेतु हैं । ऐसे के लिए लोक परलोक कहीं भी सुख शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती अथवा वह मनुष्य लोक में पुनः मनुष्य बनकर आयेगा भी ऐसा कहना कठिन है । अश्रद्धालु ९/३ गुरु शास्त्र पर श्रद्धा न रखकर उसमें संशय के कारण त्याग वाले के लिए १६/२३ में भी बताया जायेगा ।।४०।।

          संबंध---- इसलिये छिन्न संशय होना आवश्यक है.....
योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।।४/४१।।
                 शब्दार्थ---- योग के द्वारा सर्वकर्म संन्यास और ज्ञान के द्वारा समस्त संशयों का जिसने नाश कर दिया है ऐसा जो आत्मस्थ है उसको कर्म नहीं बांधते ।
               तात्पर्यार्थ---- श्रीभगवान ने यहाँ योग से कर्मों और ज्ञान से संशयों के नाश की बात कही है । योग की परिभाषा श्रीभगवान ने क्या की है इसे भी समझ लेना चाहिए । समत्वं योग उच्यते २/४८, अर्थात समत्व को ही योग कहा गया है । इस समत्व बुद्धि से ही सर्वकर्म संन्यास कर देना चाहिए । श्रीभगवान ने जो क्रम पहले कहा था वही क्रम यहाँ है  समत्वं योग उच्यते के बाद तुरन्त बुद्धौशरणमन्विच्छ २/४९ कहा था जिसका विनियोग यहाँ पर संशय का नाश करना है क्योंकि बिना संशय नाश के भी आत्मनिष्ठा नहीं होगी । अतः सर्वकर्मों का संन्यास समत्वं योग उच्यते एवं बुद्धौशरणमन्विच्छ का क्रम यहाँ पर पहले अपनाकर तब कहा आत्मवन्तम् जिसे आत्मवान् २/४५ कहा था । कहने का संबंध है कि अर्जुन को श्रीभगवान ने वहाँ पहले आत्मवान् फिर समत्वं योग उच्यते और फिर बुद्धौशरणमन्विच्छ अर्थात पहले साध्य फिर साधन समझाया था, लेकिन समझ में नहीं आया अतः तृतीय अध्याय का आरंभ हुआ और यहाँ पर आकर उसी क्रम को पलटकर पहले साधन और फिर साध्य बताया । इस प्रकार जो आत्मस्वरूप में स्थित हो गया है अर्थात आत्मवान्, आत्मवन्त हो गया है उसको हो धनञ्जय ! धन का संचय करने वाले तुम इस दैवी धन का संचय करो क्योंकि आत्मवान्, आत्मवन्त अर्थात स्वरूप की अनुभूति को प्राप्त ‘अहं ब्रह्मास्मि’ में स्थित को कर्म कभी नहीं बांधते अर्थात कर्मों के फलस्वरूप जन्ममृत्यु का बन्धन नहीं होता, उसका मोक्ष निश्चित है ।
                भावार्थ---- इस प्रकार श्रीभगवान ने अ. २ के जिस संशय को लेकर तृतीय अध्याय प्रारंभ हुआ था उसका यहाँ पर उपसंहार कर दिया ।।४१।।

            संबंध---- पूर्व के श्लोक में समता द्वारा कर्मों का त्याग और ज्ञान के द्वारा संशय का नाश करने की आज्ञा देकर अब पुनः संशय के नाशपूर्वक कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा देते हैं......
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमात्तिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।४/४२।।
            शब्दार्थ---- इसलिए हे भारत हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न संशय का ज्ञानरूपी तलवार के द्वारा नाश करके समत्व में स्थित होकर उठकर खड़ा हो जा ।
              तात्पर्यार्थ---- अज्ञान अर्थात कर्माकर्म का विवेचन न कर पाना ही अज्ञान है, इसीलिये श्रीभगवान ने किं कर्म किमकर्मेति ४/१६-३१ तक विभिन्न प्रकार से श्रौत, स्मार्त कर्मों की सूक्ष्मता से व्याख्या करते हुए कहा था कि जिस कर्म रहस्य को जानकर कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा ४/३२ उसी को यहां अर्जुन के लिए पुनः कहना चाहते हैं कि यह जो तुम्हारा निर्णय है वह हृदयस्थ मोह से आवृत अज्ञान के कारण ही है । अतः इस अज्ञान से उत्पन्न हुए संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काटकर अर्थात नाश करके समत्व में स्थित होकर उठ खड़ा हो जा अर्थात युद्ध कर ।
            भावार्थ---- मनुष्य का जीवन जब तक संशय विपर्यय से रहित नहीं होगा, तब तक कोई भी ज्ञान उसका कल्याण नहीं कर सकता । संशय विपर्यय रहित ही कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता है ।।४२।।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।

हरिः ॐतत्सत् !                                           हरिः ॐतत्सत् !! हरिः ॐतत्सत् !!!

                                                           श्रीकृष्णार्पणमस्तु


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