गीता मेराचिन्तन अध्याय १८


ॐ श्रीपरमात्मने नमः

श्रीमद्भगवद्गीता
अथाष्टादशोऽयायः
                 पूर्वाध्यायों से इस अध्याय का संबंध–– दूसरे अध्याय में श्लोक १२ से ३०तक आत्मतत्त्व का उपदेश करके श्रीभगवान कहते हैं– एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धर्योगे त्विमां श्रृणु । बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मभबन्धं प्रहास्यसि ।। २/३९। यहां से कर्मयोग की भूमिका प्रारंभ होती है । भगवान ने यहां कर्म को योग बनाकर कर्मबन्धन काटने की बात कही । इस प्रकार पहले आत्मतत्त्व की प्रशंसा १९ श्लोकों में करके फिर कर्मबन्धन को काटने का उपाय भी कर्म से बताते हुए संपूर्ण गीता का पूरा दूसरा अध्याय उपक्रम रूप से तैयार हुआ । इसी अध्याय का सबसे अहं उपक्रम त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भावार्जुन । निद्वन्दो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।।२/४५।। वेद तीनो गुणों का विषय है लेकिन कब और कहाँ ? इसका यद्यपि २/४४ में पहले ही स्पष्टीकरण कर दिया है तथापि अध्याय १५ में संक्षिप्त और अध्याय १६ में विस्तृत वर्णन किया । इसी प्रकार निस्त्रैगुण्यो भव का वर्णन यद्यपि अध्याया सात में या आठ में होना चाहिए था, तथापि अर्जुन के निरंतर प्रश्नों के कारण अवसर न मिलने से अध्याय १४ में वर्णन किया गया । निर्द्वन्द्व का वर्णन यद्यपि संपूर्ण गीता में स्थान स्थान पर वर्णित है तथापि इसका वर्णन छठे अध्याय में संक्षिप्त आत्मसंस्थं कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ६/२५ करके स्थान पर विचरण करते हुए इस अध्याय में किया जायेगा । नित्यसत्त्वस्थ की भी व्याख्या १८/२० में की जायेगी । निर्योगक्षेम के वर्णन में तो कहते हैं योगक्षेमं वहाम्यहम् ९/२२ ददामि बुद्धि योगं तम् १०/१० एवं श्लोक १०/११ भी तथापि उसकी भी व्याख्या यहीं होगी । आत्मवान् की व्याख्या भी संपूर्ण गीता में विचारण करते इही इसी अध्याय के सर्वधर्मान्परित्यज्य में ही विश्रान्ति होगी । इस प्रकार उपक्रम का यह श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण और आत्म स्थिति के उपक्रम का बीज है । 
               अर्जुन को पहले आत्मतत्त्व कहा फिर बुद्धर्योगे त्विमां श्रृणु से कर्म से ही कर्मभबन्धं की बात करते हैं और पुनः प्रशंसा आत्मनिष्ठ ज्ञानी की करने लगते हैं, अतः अर्जुन भ्रमित होकर मात्र एक निश्चित श्रेय का मार्ग कहने को कहता है तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ३/२ इस पर भगवान सांख्य और कर्म नामक दो ३/३ निष्ठा बताकर पुनः अध्याय के अन्त में आत्मतत्त्व यानी ज्ञान की ही प्रसंसा कर देते हैं । इसका स्पष्टीकरण चतुर्थ अध्याय में देते हुए प्रसंग से गुण कर्म के आधार पर चार वर्णों की रचना की बात करते हैं, उसकी भी व्याख्या इसी अध्याय में होगी । अध्याय३ के गुणा गुणेषु वर्तन्ते ३/२८ और श्रेयन्यास्वधर्मो विगुणः ३/३५ की भी व्याख्या यहीं होनी है । इतना ही नहीं– अध्याय १२ में भक्त और ज्ञानी में श्रेष्ठता एक की पूछा तो उत्तर मिला कि सर्वश्रेष्ठ भक्त है और बता देते हैं ज्ञानी के स्वाभाविक लक्षण अक्षय धर्म हैं उनका पालन करो । जब ज्ञानी के लक्षणों का पालन करना है तो भक्त किस बात के लिए श्रेष्ठ है इत्यादि । अधिक क्या कहूँ संपूर्ण गीता का उपसंहार यानी सारांश यही अध्याय है । जो चौदहवें अध्याय में त्रिगुणात्मक व्याख्या छूट गई है जैसे त्रिविध त्याग, त्रिविध सुख, त्रिविध बुद्धि, त्रिविध धृति इत्यादि उसका भी विस्तार यहां होगा । 
               इस अध्याय में सभी विषय संक्षिप्त किन्तु विधिवत समाहित हैं । अर्जुन के मन में ऐसा प्रश्न उपस्थित होने का कारण यह है कि भगवान का उपदेश लुका छिपी के खेल के समान है । कभी अपना स्पष्टीकरण देते हैं, तो कभी उस स्पष्टीकरण को अन्य प्रसंग से छिपा देते हैं । अर्जुन को यही समझ में नहीं आ रहा था कि भगवान कहना क्या चाहते हैं ? बस वह एक बात सुनिश्चित जानना चाहता है कि जिससे उसका कल्याण हो जाये । अतः पांचवें अध्याय में भी यच्छ्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ५/१ अर्थात पुनः एक ही निश्चित बात कहने को बोलता है । तीसरे अध्याय में और यहाँ भी यही एक बात कहने को कहते हैं जबकि दूसरे अध्याय में यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे २/७ कह चुके हैं । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस अध्याय में किया जाने वाला अर्जुन का प्रश्न दूसरे अध्याय में होना चाहिए था किन्तु जैसे भगवान को अध्याय सात की दैवी और आसुरी संपत्ति का वर्णन अवसर न मिलने के कारण सोलहवें अध्याय में करना पड़ा वैसे ही अर्जुन को यह प्रश्न करना चाहिए था बुद्धर्योगे त्विमां श्रृणु के तुरन्त बाद दूसरे अध्याय में किन्तु अवसर न मिलने से अब प्रश्न इस अध्याय में करता है । जीव का सहज स्वभाव है कि उसका प्रश्न है अतः उत्तर उसके अनुसार ही होना चाहिए अन्यथा जब तक उसके अनुसार उत्तर नहीं मिलेगा तब तक उसका समाधान नहीं होगा और कहीं न कहीं प्रश्न करता ही रहेगा । अतः अर्जुन को संन्यास और कर्म में एक ही की श्रेष्ठता जानना इष्ट है । 
              संन्यास के विषय में आनन्दगिरि जी का मत है कि ब्राह्मण को वैराग्य न होने पर भी आयु के चतुर्थ पड़ाव में संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिए अन्यथा पाप लगता है । अन्य सभी वर्ण भी वैराग्य होने पर संन्यास के अधिकारी हैं और वानप्रस्थी हो जाना चाहिए यदहरेव विरज्येत्तदहरेव प्रब्रजेत् यह श्रुति कहती है कि जब भी वैराग्य हो जाये गृह त्याग कर संन्यास ग्रहण करना चाहिए । कुछ लोग शूद्र का संन्यास में अधिकार आज भी नहीं मानते हैं किन्तु आनन्दगिरि जी इस बात के सर्वथा विरुद्ध सबके संन्यास के पक्ष में हैं । महाभारत में विदुर जी शूद्र थे किन्तु वानप्रस्थी हुए और उसी प्रसंग में ब्राह्मण की संन्यास की और क्षत्रिय की वानप्रस्थ की अनिवार्यता बतायी गई है । यदि ऐसा ये दोनो नहीं करते हैं तो पाप लगेगा, किन्तु यदि वैश्य को वैराग्य हो जाये तो ही वह वानप्रस्थी हो और शूद्र के लिए कहा है कि जब शूद्र को वैराग्य हो जाये तो स्वामी यानी राजा आदि यानी जिनके वह आधीन हो उनकी अनुमति लेकर वानप्रस्थी हो जाये । इस प्रकार की चातुर्वर्णिक व्यवस्था महाभारत की है । अब प्रश्न शूद्र का अपने स्वामी की अनुमति का है तो जिन शास्त्रों में यह बात लिखी है उन्हीं शास्त्रों में ब्राह्मणों के त्याग और क्षत्रियों की निःस्वार्थता का भी वर्णन मुक्त कण्ठ से किया गया है । अतः अनुमति का अर्थ यह है कि सेवा से संबंधित देश की युद्धादि परिस्थिति में उद्योग आदि के कार्य द्वारा सामान का इधर उधर लाना ले जाना आदि देखकर यदि देश संकट में नहीं है खुशहाल है तो अनुमति मिल जाती थी और यदि समस्या है तो देश की स्थिति सुधरने तक प्रतीक्षा करनी होती थी । आज तो सभी स्वार्थ की चरमसीमा हैं, स्वार्थ भी अपना इतना स्वार्थ नहीं साध सकता है जितना आज का मनुष्य साधता है । अतः इस परिस्थिति के अनुसार आज कोई किसी का स्वामी या सेवक नहीं है । अतः शास्त्र की स्वामी से आज्ञा लेने की बात लागू नहीं होती, बस वैराग्य प्रबल होना चाहिए ।कहीं ऐसा न हो कि आपके वैराग्य से वैराग्य भी लज्जित हो जाये अस्तु ।
              अतः अब अर्जुन अपने आत्म कल्याण के लिए संन्यास के स्वरूप को और त्याग यानी निष्काम कर्म के स्वरूप को भी अलग अलग जानने की इच्छा से प्रश्न करता है…...

अर्जुन उवाच
सन्न्यासस्य महाबहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुतम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ।।१८/१।।
               शब्दार्थ–– अर्जुन बोले– हे महाबाहो ! हे हृषीकेश ! हे केशिनिशूदन ! संन्यास और त्याग के तत्त्व को अलग अलग जानने की इच्छा है ।
              तात्पर्यार्थ–– महाबाहो का अर्थ है कि आपकी भुजाएं इतनी बड़ी हैं कि आप अपने भक्तों की रक्षा के लिए कहीं भी अपने हाथ बढा देते हो और मैं तो आपके पास में ही हूं, अतः मुझ डूबते हुए शोकाकुल को आप ही बचा सकते हो और हृषिकेश का मतलब आप अन्तर्यामी हो मेरे हृदय की बात जानते हो कि मैं मात्र श्रेयमार्ग का ही चयन करना चाहता हूँ और केशिनिशूदन मतलब आप सभी आसुरी वृत्तियों यानी आन्तर विघ्न का नाश करने वाले हो । तात्पर्य यह कि आप बाहर और अन्दर के विघ्नों का नाश करने वाले अन्तर्यामी मैं जो पूछता वही बताकर मेरी उद्विग्नता रूप आसुरी वृत्ति का नाश करो । अब अर्जुन का प्रश्न….
                संन्यास को तत्त्व से जानना यानी संन्यास का अर्थ क्या होता है कर्म त्याग उस कर्म के त्याग का स्वरूप क्या है ? अथवा संन्यासी का व्यवहार कैसा होता ? अथवा संन्यास का फल क्या होता है ? इसी प्रकार त्याग का अर्थ कर्म त्याग के स्थान पर कर्मफल का त्याग होगा । त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् १२/१२ तो यहाँ वस्तुतः त्याग का स्वरूप क्या होगा ? और उसका फल क्या होगा ? अथवा समुच्चय के रूप में लेने पर संन्यास और त्याग यदि दोनो एक ही हैं तो इनका स्वरूप क्या है ? यहां अर्जुन पूछना चाहता है कि अगर दोनो एक ही हैं तो साङ्ख्ययोगी की तरह कर्म के फल का ही क्यों, बल्कि कर्म को ही त्याग देना चाहिए । स्वरूप जानने का मतलब यह है कि इसमें सात्त्विक, राजस और तामस के भेद से मुझे बताएं । यह अर्जुन के प्रश्न का तात्पर्य है ।।१।।

               संबंध–– अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में पहले दो श्लोकों में अन्यान्य मतों को बताना….

श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः । 
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।।१८/२।।
             शब्दार्थ–– श्रीभगवान बोले– काम्यकर्मों के त्याग को ज्ञानीजन यानी तत्त्वदर्शी संन्यास कहते हैं । कुछ सूक्ष्म विचार करने वाले सभी कर्मों के फल का त्याग कहते हैं ।
       तात्पर्यार्थ–– कामनाओं से प्रेरित पुत्र-पौत्रादि, एवं धन स्वर्गादि की प्राप्ति के निमित्त से सभी कर्मों के त्याग को ज्ञानीजन संन्यास जानते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि कामनापूर्ति के लिए यज्ञादि कर्म न करके निष्काम कर्म करना ही चाहिए । प्रथम पक्ष का भाव यह हुआ । दूसरा पक्ष यह है कि जितने भी कर्म हैं, उन सभी के फल का त्याग करना चाहिए, ऐसा सूक्ष्मदर्शी कहते हैं । यहाँ बात एक जैसी दिख रही है कुल मिलाकर त्याग । तथापि प्रथम पक्ष काम्यकर्मों के त्याग के अतिरिक्त नित्य नैमित्तिक कर्म के त्याग की बात नहीं की है, जबकि यहां नित्य नैमित्तिक कर्म के सहित होने वाले कर्मफल का विधिवत ज्ञान होने पर भी उन कर्मों को करना और फल न चाहना यही इसका भाव है ।।२।।

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।।१८/३।।
             शब्दार्थ–– एक तो कहते हैं कि कर्म को दोष की तरह त्याग देना चाहिए, दूसरे इस प्रकार कहते हैं यज्ञ, दान, तप नहीं त्यागना चाहिए ।
             तात्पर्यार्थ–– हम चोरी, मदिरा आदि को दोष मानते हैं वैसे ही सांख्योगी कर्म को दोष मानते है, उनका कहना है कि यज्ञादि भी हिंसक कर्म हैं, अतः निष्काम भी नहीं बल्कि स्वरूप से त्याग कर देना चाहिए । यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कर्मी गृहस्थ ही कर्म का अधिकारी है अतः ये सारी व्यवस्था उनके लिए ही कही जा रही है । क्योंकि सन्न्यासियों के लिए कर्म का विधान ही नहीं है तो निषेध भी कैसे होगा ?
             इसी प्रकार अन्य लोगों के अनुसार यज्ञ दान और तप का त्याग नहीं करना चाहिए । आगे यही मत अपना भी भगवान स्पष्ट करने वाले हैं ।।३।। 

            संबंध–– श्रीभगवान का अपना निश्चित कारण सहित अपना मत कहना….. 
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ।।१८/४।।
             शब्दार्थ–– हे भरतसत्तम !  उस त्याग के विषय में मेरा निश्चित मत सुनो । क्योंकि हे पुरुषव्याघ्र ! त्याग तीन प्रकार का त्याग कहा गया है ।
        तात्पर्यार्थ–– भरतसत्तम कहने का तात्पर्यार्थ यह है कि जो अभी तक भरतवंश में श्रेष्ठ पुरुष हुए हैं उन सब में जो श्रेष्ठ हुए हैं उन सबमें सर्वश्रेष्ठ हो इसलिए तुम यह ज्ञान सुनने के अधिकारी हो । पुरुषव्याघ्र का अर्थ मनुष्य के रूप में बाघ नहीं बल्कि गुणों की समानता के द्वारा स्तुति है कि जैसे जंगल में अकेला शेर निर्भय होकर अपना शिकार करता है उसी प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ होने के कारण तुम भी सुनकर जो त्याज्य है वह त्यागोगे और जो ग्राह्य है हर परिस्थिति में ग्रहण करोगे । अतः त्याग तीन प्रकार का होता है उसे सुनो ।।४।।

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । 
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।।१८/५।।
             शब्दार्थ–– यज्ञ, दान, तप रूप कर्म का त्याग का त्याग नहीं करना चाहिए । यज्ञ दान तप रूप कर्म विचारशील को पवित्र करते हैं ।
              तात्पर्यार्थ–– अग्निष्टोम आदि यज्ञ तो आज संभव नहीं है और जो हो रहे हैं वे शुद्धता की दृष्टि से निषिद्ध हैं, किन्तु पंचमहायज्ञ आज भी संभव है इसके लिए अध्याय ३/१२ की व्याख्या देखना चाहिए । दान अध्याय १७/२० देखना चाहिए । तप के लिए जलवास, आदि ऋतु वास, चान्द्रायण आदि बहुत कठिन हैं अतः अध्याय १७/१४–१६ तक देखना चाहिए । ये सभी कर्म मनुष्य को पवित्र करने अर्थात चित्तशुद्ध करने वाले हैं ।।५।।

             संबंध–– चित्तशुद्धि के लिए आसक्ति रहित मात्र कर्तव्य कर्म को ही श्रेष्ठ बताना….
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ।।१८/६।।
              शब्दार्थ–– क्योंकि ये यज्ञादि कर्म आसक्ति और फल का त्याग करके मात्र कर्तव्य पालन के लिए करना ही श्रेष्ठ है ऐसा मेरा श्रेष्ठ मत है ।
              तात्पर्यार्थ–– कर्मासक्ति और फल के त्याग के विषय में पीछे कहा जा चुका है । और श्रेयन्यास्वधर्मो आदि से कर्तव्य बोध भी कराया जा चुका है । सार बत इतनी है कि चित्तशुद्धि के लिए निष्काम कर्म करना चाहिए । कर्म में आसक्ति और फल की इच्छा दोनो का निषेध किया गया है । ये निष्कामता की चित्तशुद्धि ही फल है यह समझना चाहिए । यही भगवान का निश्चय किया हुआ मत है ।।६।।

              संबंध–– तीन श्लोकों द्वारा त्रिगुणात्मक त्याग का वर्णन…..
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ।।१८/७।।
               शब्दार्थ–– क्योंकि शास्त्र विहित कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए मोह से किया गया त्याग तामस कहा गया है ।
              तात्पर्यार्थ–– शास्त्र विहित कर्म यानी नित्य नैमित्तिक कर्म । यज्ञ, दान, तप जैसा शास्त्र कहता है वैसा का वैसा निष्काम भाव से एवं फल की अपेक्षा न रखते हुए मात्र इसलिये करना कि शास्त्र ने कहा है । उसमें हिंसा आदि की विधि भी हिंसा नहीं कही गई है । यह कर्म जिसकी चित्तशुद्धि नहीं हुई है और जो कर्माधिकारी हैं वही कर सकते हैं सर्वकर्मसंन्सासी नहीं, किन्तु मोहवश प्रमादवश त्याग किया गया कर्म तामसी त्याग कहा गया है । यहां तु पूर्व श्लोक में कर्म में आसक्ति और फल त्याग का भाव बताने के लिए है कि त्याग भी समझकर ही करना चाहिए, ऐसा भाव है ।
             शंकरानन्द जी ने अध्याय १२/१२ में त्याग का लक्षण किया है प्रत्यग्वृत्ति की वासना से कर्मरूप से जो दृश्यजात फलता है वह कर्मफल कहलाता है उसका त्याग यानी नित्य निरन्तर निर्विकल्प समाधिनिष्ठा से अदर्शन यानी बाहर भीतर सर्वत्र सब प्रकार से ब्रह्म मात्र का दर्शन करना ।।७।।

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ।।१८/८।।
              शब्दार्थ–– जो सभी कर्म दुःखरूप हैं ऐसा समझकर नित्य नैमित्तिक कर्म का त्याग करता है वह राजस त्याग है वह त्याग का फल नहीं पाता ।
            तात्पर्यार्थ–– चित्तशुद्धि हुई नहीं, जबकि उसको इस बात का ज्ञान है कि हमारा यह कर्तव्य है और शास्त्र ऐसा कहता है तो भी अपने आश्रम धर्म के नित्य नैमित्तिक कर्म त्याग देना राजसी त्याग है । इसका कोई फल नहीं होता वरन् कर्म के अधूरा छोड़ने पर दुःख होता है रजसस्तु फलं दुःखम् १४/१६ । इनको त्रिकाल में सुख नहीं मिल सकता न इस लोक में न परलोक में न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् १६/२३ ।।९।।

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं कुरुतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ।।१८/९।।
                 शब्दार्थ–– हे अर्जुन ! जो नियत कर्म करना चाहिए इसलिये आसक्ति और फल के त्यागपूर्वक करता है वह सात्त्विक है ऐसा मेरा मत है ।
                तात्पर्यार्थ–– जो जिसका शास्त्र विहित आश्रमादि के अनुसार आसक्ति रहित होकर बिना किसी स्वार्थ के करना चाहिए ऐसी शास्त्राज्ञा है ऐसा समझकर करता है, क्योंकि उसकी बुद्धि ईश्वरार्पित है, अतः अपने लिए कुछ करता ही नहीं है ईश्वर के लिए करता है इसलिये कर्मों में आसक्ति अर्थात मोह, ममता, स्वार्थ का प्रश्न ही नहीं बैठता । इसमें शंका बनती है कि जब आसक्ति रहित कर्म करेगा तो फल की पहले से ही कामना नहीं है तो अलग से फलत्याग की बात कैसे कह दिया ? इसका समाधान यह है कि निष्काम कर्म का भी फल चित्तशुद्धि कहा गया है अतः उसके मन में यह वृत्ति भी नहीं होनी चाहिए कि मेरी चित्तशुद्धि होगी, अन्यथा यह भाव भी कर्म में आसक्ति उत्पन्न कर देगी इसलिये अलग से फलत्याग की बात कही है ।
                  भावार्थ–– तीनों श्लोकों में तामस त्याग में मोह यानी अज्ञान प्रधान है । राजस त्याग में स्वार्थ प्रधान है किन्तु सत्त्व में निर्विकारता है । अतः यह साधक साधन चतुष्टय संपन्न होकर आत्मा अनात्मा का विवेक प्राप्त करता है सत्त्वात्सञ्जयते ज्ञानम् १४/१७ अर्थात सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है । अतः यही त्याग अपनाना चाहिए यह भाव है, यह भाव है ।।९।।

              संबंध–– सात्त्विक त्याग के भाव का वर्णन….
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशायः ।।१८/१०।।
             शब्दार्थ–– जो अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता ऐसा त्यागी बुद्धिमान संशय का नाश करके सत्त्व में प्रवेश कर जाता है ।
             तात्पर्यार्थ–– यहां अकुशल कर्म का अर्थ विद्वत्वृन्द काम्यकर्म और और कुशल कर्म का अर्थ नित्य नैमित्तिक कर्म करते हैं । अर्थात जो मेधावी अर्थात सूक्ष्माति सूक्ष्म विचार करने वाले बुद्धिमान हैं वे काम्य कर्म जन्म मरण का हेतु हैं इनसे हमें क्या लेना देना, एवं कुशल अर्थात नित्य नैमित्तिक कर्म से आसक्त नहीं होता । यहाँ पर मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि २/४५ अर्थात तू कर्मफल का हेतु मत बन, इसका अर्थ यह भी किया जा सकता है कि तू कर्म और कर्मफल का हेतु मत बन क्योंकि एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च १८/६ यहां पर कर्म और कर्म फल दोनो के त्याग की बात कहा है, अतः कर्मफलहेतुर्भूर्मा में कर्म और उसके फल का हेतु न बनने की बात में कोई विरोध नहीं है । हेतु यानी जो निमित्त भाव है इसका भी त्याग कर दे ते सङ्गोस्त्वकर्मणि  । इस प्रकार न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म से अर्थ होगा कि जो हमारे नित्य नैमित्तिक कर्म हैं उनसे द्वेष नहीं करता अर्थात जिसे अपने ज्ञानी होने का अहंकार नहीं है और स्वभाव से अज्ञानी की भांति कर्म करता और करवाता रहता है सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ।।३/३५।। इस प्रकार जो कर्म मात्र से सकाम का महत्त्व प्रतिपादित करके दूसरों से कर्म करवाता है और अज्ञानी की भांति स्वयं भी लोकसंग्रह के लिए फलाकांक्षी की भांति कार्य करता है, इस प्रकार जो अकुशल यानी सकाम कर्मों से निरपेक्ष भाव रखने वाला अर्थात द्वेष न करने वाला, यह अर्थ ही उचित प्रतीत होता है क्योंकि प्रथम यह भाव कि सकाम कर्मों से हमें क्या लेना देना में उपेक्षा भाव स्पष्ट है और दूसरी तरफ नित्य नैमित्तिक कर्म करता है और आसक्ति नहीं है यह बात भी निष्कामता की संगति का ही सूचक है, क्योंकि दूसरी तरफ उपेक्षा भाव और एक तरफ निष्काम कर्म भाव ये निष्कामता की आसक्ति है इसीलिये भगावन ने कहा था ते सङ्गोस्त्वकर्मणि अर्थात निष्कामता का भी त्याग कर दे । इस प्रकार न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म का अर्थ हो गया । कुशले नानुषज्जते– संसार में एक ही कुशलता है और वह है चित्तशुद्धि क्योंकि यही स्व-स्वरूप की प्रतिष्ठा का बीज है और बीज ही नहीं तो वृक्ष कहाँ ? अतः यहाँ कुशल का अर्थ है कि चित्तशुद्धि रूप फल का जो मन में भाव बैठा है उसका भी त्याग करने वाला । यह अर्थ हम छठे श्लोक में भी बता चुके हैं । 
                इस प्रकार श्लोक के पूर्वार्ध का एक पक्ष हो गया । हम दूसरे पक्ष पर भी विचार करते हैं । हम मनीषियों की सहमति से कर्म का अर्थ कर्मफल बता चुके हैं, एवं अकुशल का अर्थ होता है अनिष्टकारक एवं कुशल का अर्थ होता है इष्टकारक । इस अर्थ के अनुसार जो प्रारब्धवश अनिष्ट कारक अर्थात क्लेशकारी पूर्व कर्मफल उदित होने पर जो उनसे द्वेष नहीं करता अर्थात विचलित नहीं होता और इष्टफल अर्थात अनुकूल सुख उत्पन्न करने वाले कर्मफल के उदित होने पर उसमें आसक्ति नहीं होता– सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते २/४८, यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वान्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ४/२२ इस न्याय से जो आगतं स्वागतं कुर्यात् गतं न निवारयेत् । अर्थात सुख हो या दुःख, आ गया है तो उसका स्वागत करो जा रहा है तो जाने दो कोई मतलब नहीं क्योंकि ये सब अनित्य और आने जाने वाले हैं आगमापायिनोऽनित्याः २/१४ इस प्रकार जो शुभ और अशुभ का भी सम भाव से त्याग कर देता है अर्थात निरपेक्ष हो जाता है यह निरपेक्षता ही सात्त्विक त्याग है, यही चित्तशुद्धि है इस प्रकार का मेधावी अर्थात ज्ञान को प्राप्त होने पर अपने संपूर्ण कर्मों को ज्ञानाग्नि में जला देता है ज्ञानाग्निः दग्धकर्माणं तमाहुः पंण्डितं बुधाः ४/१९ अर्थात वह पण्डितों का भी पण्डित हो जाता है । तब वह पूर्णतः निर्दोष होता है निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ५/२० ऐसा निर्दोष हुआ मुमुक्षु समता रूप ब्रह्म को प्राप्त करके उस ब्रह्म में ही स्थित हो जाता है अर्थात अभिन्नता को प्राप्त कर लेता है । यहां सत्त्वसमाविष्टः  सत्त्व सम आविष्ट ये तीन शब्द हैं जिसका अर्थ है उपरोक्त के अनुसार सात्त्विक त्याग द्वारा समता रूप निर्दोष ब्रह्म में स्थित होना । उसके बाद छिन्नसंशयः यानी स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित होने के बाद ही छिन्नद्वैधा अर्थात संशय विपर्य या जीव ब्रह्म नामक द्विधा का नाश होता है । एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति २/७२ इसी को तुलसीदास जी कहते हैं देश काल तहं नाहीं । तुलसिदास यह दशाहीन संशय निर्मूल न जाहीं ।। अर्थात जब तक हमारी स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठा नहीं होती है तब तक संशय जड़ से नष्ट नहीं होते । यहां संशय नष्ट हो चुके हैं मतलब वह परमतत्त्व स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित हो चुका है । ऐसा तात्पर्य है ।
              भावार्थ–– सात्त्विक त्याग में कर्म का नहीं कर्मफल का त्याग और उस त्याग के भाव का त्याग अपेक्षित है तभी समत्त्व रूप ब्रह्म से चित्तशुद्धि पूर्वक संशय रहित प्रतिष्ठा संभव है । यहां पर छिन्नसंशयः का भावार्थ अध्याय १२/१२ में शंकरानंद जी ने शान्ति का लक्षण निर्विकल्प समाधि किया है । निर्विकल्पता ही संशय नाश का भी लक्ष्य है ।  यह भाव है ।।१०।।

                संबंध–– देहाभिमानियों के लिए कर्मत्याग असंभव है इसलिए….
न हि ददेहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ।।१८/११।।
               शब्दार्थ–– क्योंकि शरीधारी के लिए पूर्णतः कर्म त्याग करना संभव नहीं है इसलिए कर्मफल का त्याग करने वाला त्यागी है ऐसा कहा गया है ।
            तात्पर्यार्थ–– न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । अर्थात प्रकृति का नियम है कि क्षण मात्र भी बिना कर्म के कोई भी नहीं सकता, न भी करना चाहे तो प्रकृतिं त्वां नियोक्ष्यति १८/५९ प्रकृति स्वयं करवा लेगी अतः कर्मत्यागना सर्वथा जिनका भी देह से तादात्म्य है उनके असंभव है । इसलिए कहा यद्यपि त्याग का भाव पूर्वोक्त ही होना चाहिए तथापि देहाभिमान के कारण यह संभव न होने के कारण कर्म के फल का त्याग ही त्याग है ऐसा कहा गया है । यही कर्माधिकारी की चित्तशुद्धि का साधन है । ऐसा तात्पर्य है ।।१२।।

              संबंध–– दो श्लोकों में फलत्याग का महत्त्व बताकर फल न त्यागने का फल बताते हैं….
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधः कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ।।१८/१२।।
         शब्दार्थ–– जिन्होंने फल का त्याग नहीं किया उनके लिए मरने के बाद अनिष्ट, इष्ट एवं मिश्रित तीन प्रकार का फल कहा गया है किन्तु संन्यासियों के लिए नही ।
            तात्पर्यार्थ–– यहाँ तीन प्रकार के कर्म दिये गये हैं पहला है अनिष्ट । अनिष्ट में दो विभाग कर सकते हैं पहला जो सोलहवें अध्याय में अनीश्वरवादी आसुरी सम्पत्ति वाले जो वेद प्रमाण नहीं मानते और दूसरे वे जो यज्ञादि सत्कर्म या तो बीच में क्लेशों को देखकर छोड़ देते हैं या फिर करते ही नहीं हैं । दूसरा फल है इष्ट । इसमें स्वर्गादि की कामना को लेकर कर्म किया जाता है । तीसरा पक्ष है मिश्रित कर्म अर्थात अनिष्ट और इष्ट मिला हुआ कर्म । इसके दो विभाग करते हैं, पहला वह जो कर्मफल त्यागपूर्वक कर्म करता रहा किन्तु चित्तशुद्धि न होने के कारण पूर्व के प्रबल पुण्य नष्ट नहीं हो सके और शरीर छूट गया, अतः वह ब्रह्मलोक दक्षिणायन मार्ग से यात्रा करके पुनः पृथ्वी पर जन्म लेते हैं अध्याय आठ एवं दूसरे वे जिनका कर्मत्याग के फलस्वरूप पुण्य और पाप दोनो समाप्त तो हो गये लेकिन अभिन्न प्रत्यगात्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ । इस प्रकार के जो भेद सहित तीन विभाग हैं उनके मरने के बाद का फलभोग बताया गया है । यहां स्पष्ट प्रेत्य शब्द लिखा है जिसका अर्थ मरने के बाद होता है । मरने के का तीन फल क्या होता है ? यह विस्तार नहीं बताया अतः अध्याय चौदह देखें– ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिश्च अधो गच्छन्ति तामसाः ।।१४/१८।। इसके अनुसार जिनका अनिष्ट फल कहा है वे कूकर शूकर आदि मूढयोनि को प्राप्त हैं अनिष्ट मतलब पाप । जिनका इष्ट अर्थात पुण्य फल है वे स्वर्ग को प्राप्त होते हैं । मिश्रित फल वालों में एक ब्रह्मलोक जाकर वापस होता है और दूसरा यहीं का यहां जन्म लेकर अपना उद्धार करता है अध्याय छः के अनुसार । यह कर्माधिकारी जो फल त्याग नहीं करते उनके लिए फल कहा गया है । तु से पक्षान्तर करके कहते हैं किन्तु संन्यासियों के लिए ये तीन में एक भी फल नहीं होता क्योंकि उनका कर्म में अधिकार ही नहीं है तो फल कैसे होगा ? यही इसका तात्पर्य है ।।१२।।

               संबंध–– आत्मा को पांच श्लोकों द्वारा अकर्ता बताकरके कारणों का वर्णन…..
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ।।१८/१३।।
             शब्दार्थ–– हे महाबाहो ! कर्मों का अंत कर देने वाले इन पांच कारणों को मुझसे जानो जिनसे सभी कार्य सिद्ध होते हैं ।
              तात्पर्यार्थ–– सांख्य शास्त्र यहां विद्वानों ने वेदान्त माना है । क्योंकि आत्मतत्त्व का ज्ञान होने पर ही सभी कर्मों का अन्त यानी नाश होता है सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३ इस न्याय से वेदान्त ही निरपेक्ष तत्त्व का प्रतिपादन करता है । पांचों कारण नीचे दिये जा रहे हैं ।।१३।।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ।।१८/१४।।
              शब्दार्थ–– अधिष्ठान, कर्ता, और अलग अलग करण, नाना प्रकार की चेष्टाएं, और दैव ये पांच ।
              तात्पर्यार्थ–– अधिष्ठान का अर्थ होता है जिस पर सब कुछ प्रतिभाषित हो रहा है वह । जैसे रस्सी में सांप, रस्सी अधिष्ठान हो गई और सर्प प्रातिभासिक हो गया । इसी प्रकार शरीर में ही इच्छा आदि प्रतिभाषित होने से शरीर अधिष्ठान है । कर्ता यानी मायोपधिक जीव कर्ताहमिति मन्यते ३/२७ मैं कर्ता हूँ का अहं पालने वाला । नाना प्रकार के कारण यानी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण चतुष्टय ये चौदह, अलग अलग चेष्टाएँ करने वाले प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान, नाग, कूर्म कृकल, देवदत्त और धनञ्जय ये दस प्राण शरीर में भिन्न भिन्न क्रिया करने वाले और पांचवां दैव यानी इन्द्रियों आदि के अधिष्ठातृ देवता ये पांच । यहाँ जो लोग दैव का अर्थ परमात्मा मानते हैं और कहते हैं कि उनकी दी हुई शक्ति से ही कार्य करता है तो ये बहुत ही अच्छी बात है लेकिन जब वही शक्ति देता है करने के लिए तो फिर शास्त्रीय और अशास्त्रीय करने और न करने में वह स्वतंत्र नहीं है तो फिर जीव को मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने की भी क्या आवश्यकता है ? ईश्वर स्वयं शक्ति जब चाहेगा तब दे देगा और आप मुक्त हो जायेंगे ? हमें ऐसे अशास्त्रीय लोगों से प्रयोजन ही क्या है ? ।१७।।

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्यायं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ।।१८/१५।।
              शब्दार्थ–– शरीर, वाणी, मन द्वारा प्रारंभ किये जाने वाले कर्म शास्त्रीय या अशास्त्रीय उन सभी कर्मों में निमित्त उपरोक्त पांचों ही हैं ।
              तात्पर्यार्थ–– शरीर से चलने आदि की क्रियाएं, मन से मनन की क्रिया, वाणी से बोलने की क्रिया सहित उपरोक्त वर्णित सभी के कार्य स्वयं समझ लेना चाहिए और वही पांचों मिलकर ही सब कार्य करते हैं प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः पार्थ सर्वशः ।३/२७,  गुणा गुणेषु वर्तन्ते ३/२८।।१५।।

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ।।१८/१६।।
              शब्दार्थ–– इस प्रकार होने पर भी जो केवल आत्मा को ही कर्ता देखता है वह दुर्मति अविवेक के कारण नहीं देखता ।
              तात्पर्यार्थ–– ऊपर पांच कर्ता भिन्न होने पर भी जो अकर्ता, निर्विकार आत्मा है उस कर्ता को कर्ता दुर्मति अर्थात संस्कार हीन बुद्धि के कारण यथार्थ नहीं देखता ।
               भावार्थ–– यहाँ अध्याय तीन और अध्याय तेरह के प्रकृति और पुरुष का प्रकारांतर से विवेचन किया गया है जिसमें आत्मा को अकर्ता बताया गया है यही इसका भावार्थ है ।।१७।।

             संबंध–– आत्मा किस प्रकार कर्म बंधन को प्राप्त नहीं होता वह बताते हैं….
यस्य नाहङ्कृतोभावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।।१८/१७।।
               शब्दार्थ–– जिसमें किये गये कर्म का अहंकार नही है, जिसकी बुद्धि कर्म में लिप्त नहीं होती वह इन लोकों को मारकर भी न मारता है और न उसके फल से बंधता है ।
                तात्पर्यार्थ–– कर्मासक्त के बन्धन में दुर्मति अर्थात संस्कार रहित बुद्धि को बताकर अब सद्बुद्धि की स्तुति करते हुए न तु सन्न्यासिनां क्वचित् का उत्तर दे रहे हैं । इसमें जो पहले से बताते आ रहे हैं वही यहां कर्मों में अहं बुद्धि न होना ही वह कर्म बन्धन में नहीं बंधता बताया गया है । इसकी व्याख्या अनेक बार गीता में अनहंकार इत्यादि के रूप में हो चुकी है वहीं देखना चाहिए । अधिक समझने के लिए आचार्य शंकर का भाष्य एवं शंकरानन्दी टीका देखना चाहिए । अध्याय १३/२२ भी देख लेना चाहिए । उस आधार पर ही यहां आत्मा को निर्विकार अकर्ता आदि सभी कुछ निर्बद्ध के लक्षण स्वतः समझ लेना चाहिए । जो न मारने आदि की बात कहा है, तो यहाँ यह समझना होगा कि यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः १५/१७ की व्याख्या में लोकत्रय का अर्थ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि किया गया है । विस्तार वहीं देखना चाहिए । जब आप जाग्रत से स्वप्न में गये तो आपने जाग्रत के संसार का नाश कर दिया, स्वप्न से सुषुप्ति में गये तो स्वप्न के संसार का नाश कर दिया । इस नाश में कितने लोग रोज मारते और पैदा करते हो ? लेकिन क्या पाप या पुण्य हुआ ? फिर प्रबोधावस्था में सुषुप्ति का भी नाश हो जाता है इस प्रकार तीनो लोकों का नाश हो गया लेकिन कोई पाप लगा ? इसी प्रकार स्थूल क्षर लोक, सूक्ष्म अक्षर यानी माया या जीवलोक एवं कारण यानी अव्याक्त यानी हिरण्यगर्भ का भी अपने अधिष्ठान में स्थित हो जाने पर सबका नाश हो गया कौन सा पाप लगा ? इस को– उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं गुणान्वितं । विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।१५/१०।। विस्तार वहीं देखना चाहिए यहाँ तो पूर्व श्लोक के दुर्मति से इस श्लोक विमूढा तृतीय चरण का मिलान करें और और वर्तमान यस्य नाहङ्कृतो भावो को ज्ञानचक्षुषः चतुर्थ चरण से मिलान कर लेने पर यहाँ का तीनों लोकों के मार डालने और कर्म से न बंधने की बात समझ में आ जायेगी ।
              यहां एक शंका होती है कि यह तो स्वप्न आदि की बात यहाँ नहीं जंचती है क्योंकि अर्जुन प्रत्यक्ष युद्ध में खड़ा है और वह प्रत्यक्ष शत्रुओं को मारेगा भी तो इस हिंसा का पाप क्यों नहीं लगेगा ?
                इसका समाधान यह है पहली बात यह है कि इस प्रकरण में न तु सन्न्यासिनां क्वचित् १८/१२ पहले ही कह दिया है अतः प्रश्न संन्यासियों का है कर्माधिकारी हैं ही नहीं तो कर्म करेंगे भी नहीं तो उनको कैसा पाप और कैसा पुण्य ? अतः उनके द्वारा त्रिलोकी का संहार वही युक्ति संगत है जो कह चुका हूँ अन्य नहीं तथापि रही अर्जुन यानी कर्मी की बात तो उसके लिए मा फलेषु कदाचन २/४५ पहले ही कह चुके हैं, बन्धन कर्म नहीं उसके फल में संलिप्तता में होता है । अतः भगावन की वाणी अर्थात शास्त्र को प्रमाण मानकर तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते १६/२४ कर्म करने में उसका शास्त्र प्रमाण है अतः वैसा ही करना चाहिए जैसे भगवान कहते कि कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो ११/३२ निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन् ११/३३। अर्थात करने वाला तो मैं हूँ तू तो मात्र मेरी आज्ञा मानकर निमित्त मात्र बन जा । निमित्त बनने के बाद नरसंहार हुआ उसके बाद फिर उसके प्रायश्चित के लिए तदनुसार यज्ञ द्वारा प्रायश्चित भी भगवान की ही आज्ञा से करना पड़ा । इसका अर्थ है कि कर्मी को कर्म का दोष लगता है तथापि प्रकरण आत्मा से संबद्ध जो सदा एकरस रहता है इसको पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः १५/१० यह अनुभूति ही मुक्ति का लक्षण है पूरी व्याख्या वहीं देखना चाहिए । गुणा गुणेषु वर्तन्ते ३/२८। अतः सब कुछ प्रकृति में ही संहार रूप गुण है तो पाप रूप दोष भी तो प्राश्चित रूप उन दोषों से मुक्ति भी । अतः यहां अठिष्ठान को निर्दोष बताना ही उद्देश्य है अधिष्ठेय को नहीं । औपाधिक जीव अधिष्ठेय है और उपाधि रहित होकर वही जीव पुरुषः परः १३/२२ अधिष्ठान हो जाता है तब निर्दोष होता है, निर्दोष होने के कारण चूंकि विमूढा नानु पश्यन्ति १५/१० मूढ आत्मा में ही आरोप करते हैं १८/१६ उस आरोप को ज्ञानी किस प्रकार निरस्त करके मूलभाव को देखता है यही यहाँ हत्वापि से कहने का तात्पर्य है । इसको और अधिक समझने के लिए अध्याय १५/१६-१८ तक मेरी व्याख्या देखना चाहिए । सौ बात की एक बात अध्याय १३ से १४ तक जिसे प्रकृति से असंग होने के लिए कहा है उसे ही यहाँ अनहंकार, न लिप्यते अर्थात अनासक्त कहकर आत्मा की स्तुति कर रहे हैं यही मूलभाव है ऐसा समझना चाहिए ।।१७।।

             संबंध–– अर्जुन की इच्छा थी संन्यास यानी ज्ञानयोग और त्याग यानी कर्मयोग को तत्त्व से समझने की, उसमें दूसरी जिज्ञासा कर्मयोग यानी त्याग का तत्त्व श्लोक १२ तक समझाकर न तु सन्न्यासिनां क्वचित् १८/१२  कहकर ज्ञान की भूमिका तैयार करते हुए आत्मा को अकर्ता बताते हुए उसे न जानने वाले की निंदा करते हुए जानने वाले की स्तुति की । समस्त क्रियाओं के पांच कारण १८/१४ बताए थे और अब उनका तीन विभाग करते हुए यद्यपि सत्रहवें अध्याय में त्रिगुणात्मक तप आदि का संक्षेप से वर्णन किया तो भी यहां श्लोक ३९ तक २२ श्लोकों में विस्तार पूर्वक बताने का यह उपक्रम है । गीता में जहाँ किसी तथ्य का वर्णन विस्तार में हो चुका है उसका यहाँ संक्षेप स्तुति और संक्षिप्त का विस्तार करना यह साधन साध्य की दृष्टि से है ताकि साधक उसके अनुसार साधन द्वारा साध्य को प्राप्त कर अपना परमार्थ सिद्ध कर सके ।

               कर्म की प्रवृत्ति और उनका त्रिविध संक्षेप कहना….
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधः कर्म चोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ।।१८/१८।।
                 शब्दार्थ–– ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता ये तीन प्रकार की प्रवृति की विधि है एवं करण, कर्म और कर्ता इन तीन के द्वारा कर्म संग्रह किया जाता है ।
          तात्पर्यार्थ–– ज्ञान– जिस विषय का उपभोग किया जाता है उसकी प्राप्ति से पहले की जानकारी ज्ञान है अर्थात विषय का ज्ञान । ज्ञेय– जो वस्तु, क्रिया जानी जाये वह ज्ञेय है । परिज्ञाता–– अर्थात निरंतर विषय और क्रिया का ज्ञान रखने वाला औपाधिक जीव । यही प्रवृत्ति के तीन कारण हैं । करण– जिनसे वस्तु, क्रिया का प्रकाश हो या जाना जाये वे साधन दश इन्द्रियां और अन्तःकरण चतुष्टय ये चौदह करण हैं । किन्तु करण का भी जिनसे प्रकाश होता है वह है कर्म क्योंकि बिना कर्म के इन्द्रियाँ प्रवृत्त कहां होंगी और बिना प्रवृत्ति के उन्हें जानेगा कौन ? अतः इन्द्रियों का भी प्रकाशक दूसरा कर्म है । इन दोनो का प्रकाशक औपाधिक जीव है । इस प्रकार यहाँ कर्ता को ही प्रधान माना गया है कर्ताहमिति मन्यते ३/२७ । इस प्रकार तीन प्रवृत्ति के और तीन क्रिया के हेतु संक्षेप में कहे गये हैं ।।१८।।

               संबंध— सांख्य शास्त्र के अनुसार गुणों का वर्णन….  
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्रुणु तान्यपि ।।१८/१९।।
               शब्दार्थ— ज्ञान और कर्म एवं कर्ता के गुणों को तीन प्रकार के भेदों से सांख्य शास्त्र के अनुसार जो कहे गये हैं उन्हें सुन ।
             तात्पर्यार्थ— ज्ञान कर्म का सांख्य शास्त्र के अनुसार कहने का तात्पर्य यह है कि जो पूर्व में सांख्य का अर्थ वेदान्त किया गया था उससे भिन्न यहां कपिल का सांख्य शास्त्र के अनुसार गणना करना है, क्योंकि प्राकृत गुणों की जो गणना कपिल सांख्य में है वह कहीं नहीं है भले वह ब्रह्मात्मैक्य का प्रतिपादन न करता हो । इसलिए सांख्य शास्त्र के अनुसार यहां तीनो गुणों को गिना रहे हैं । ध्यान देने की बात यह है कि प्रकृति के गुण कार्य और विकारों का वर्णन अध्याय तेरह से प्रारंभ हुआ फिर चौदह और सत्रह में भी हुआ और यहां भी होगा । बारंबार ऐसा वर्णन करने का कारण यह है कि अध्याय तेरह में आत्मा को असंग बताना, चौदह में गुणों से बंधन बताना और सोलह में गुणों का स्वभाव, सत्रह में तीनों गुणों वाली श्रद्धा का वर्णन किया गया और अब यह बताना कि आत्मा स्वभाव से ही त्रिगुणोपरि है । यह बताने के लिए सांख्य शास्त्र के अनुसार आगे का वर्णन करते हैं ।।१९।।

              संबंध— तीन श्लोकों में त्रिगुणात्मक ज्ञान का वर्णन….
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ।।१८/२०।।
            शब्दार्थ— जिससे संपूर्ण विभक्त प्राणियों में एक अविभाज्य अव्यय भाव को देखता है उस ज्ञान को सात्त्विक ज्ञान जान ।
             तात्पर्यार्थ— विभक्त संपूर्ण प्राणी यानी देवता मनुष्य पशु पक्षी आदि के रूप में विभाजित दिखते हुए भी अविभक्त यानी देश काल अपरिच्छिन्न, अव्यय यानी निरवयव होने से अव्यय अर्थात एकरस, भाव यानी स्व से अभिन्न भाव अर्थात आत्मभाव से देखता है मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ७/७ सब कुछ एक परमेश्वर में मणियों की तरह धागे में पिरोया है इस प्रकार जिस वृत्ति से वह वृत्ति ही सात्त्विक ज्ञान जानना चाहिए ।
              भावार्थ— यहां एक प्रत्यगात्मा को संपूर्ण प्राणियों में देखना कहा गया है स्थिति नहीं है, इसका तात्पर्य यह है कि इस रजोगुण का मिला हुआ अंश है । शुद्ध सत्त्व तो नित्य स्व-स्वरूप कहा गया है । सर्वभूतस्थमात्मानम् ६/२९, यो मां पश्यति सर्वत्र ६/३०, एवं समं सर्वेषु भूतेषु १३/२७ इत्यादि का भी यही भाव है । ऐसा इसका भावार्थ है ।।२०।।

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।।१८/२१।।
                शब्दार्थ— किन्तु जिस वृत्ति से अलग अलग भावों से भेद दृष्टि से आत्मा को देखता है वह राजस ज्ञान जान ।
                तात्पर्यार्थ― तु यानी किन्तु पूर्व में कहे गये एकत्व से भिन्न पक्षान्तर करते हुए भेद दृष्टि से कि यह ब्राह्मण है, यह चाण्डाल है इत्यादि प्रकार से आत्मा और परमात्मा में भेद देखने की वृत्ति राजस ज्ञान है । भेदवादी किस बात के जो निरवयव को सावयव और अखंड को खंडित न कर दें । यही राजस है ।।२१।।

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ।।१८/२२।।
              शब्दार्थ― किन्तु जो वास्तविक ज्ञान से रहित अल्प फल देने वाले एक ही कार्य को पूर्ण के समान जानकर आसक्त हो जाता है वह तामस कहा गया है ।
              तात्पर्यार्थ― यही कार्य पूर्ण है इससे अतिरिक्त और कुछ नहीं है ऐसे शरीरादि के आकार का मान लेना कि जितना बड़ा जिसका शरीर है आत्मा भी उतना ही बड़ा है और यही सब कुछ है । अवथा राम-कृष्ण को सावयव मानकर मूर्ति पूजा आदि को ही पूर्ण मानना, अल्प फल देने वाले भूत आदि की सार रहित पूजा करना और उसे ही पूर्ण मानना, किसी मंदिर में गये और एक लोटा जल चढा देने मात्र को ही पूर्ण मानकर संतुष्ट होना इत्यादि सब तामस है । यहां ज्ञान शब्द नहीं है इसका मतलब यह सब ज्ञान न होकर अज्ञान है । ऐसा समझना चाहिए ।।२२।।

                  संबंध— तीन प्रकार का ज्ञान अर्थात कर्त्तव्य बताकर अब तीन प्रकार का कर्म बताते हैं….
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विक उच्यते ।।१८/२३।।
                 शब्दार्थ— जो कर्म फल की इच्छा न रखते हुए आसक्ति से रहित बिना राग द्वेष के जो नियत कर्म किया जाता है उसे सात्त्विक कर्म कहते हैं ।
               तात्पर्यार्थ― संगरहित का वर्णन पूरी गीता में है वहीं देखना चाहिए । नियत कर्म का अर्थ है जो शस्त्रीय विधि द्वारा किया जाये वह भी निरपेक्ष भाव से बिना फल चाहे और बिना राग द्वेष के । बिना राग द्वेष का मतलब जब बच्चे थे तो चाकलेट पसंद थी खूब खाया लेकिन बड़े होने पर नहीं खाते तो राग नहीं रहा लेकिन द्वेष भी नहीं है क्योंकि बच्चों को खरीद कर दिया जाता है । वैसे ही लोकसंग्रह के लिए फल की कामना और राग द्वेष रहित किया जाने वाला आसक्ति रहित कर्म सात्त्विक कहा जाता है ।।२३।।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।।१८/२४।।
                 शब्दार्थ― किन्तु जो कामनाओं की पूर्ति के लिए अहंकार पूर्वक और बहुत परिश्रम पूर्वक पुनः पुनः किये जाते हैं वे कर्म राजस कहे गये हैं
                तात्पर्यार्थ― कामनापूर्ति यानी फल की इच्छा और ‘वा पुनः’ का मतलब जितना अभी है तो ठीक है भविष्य में और अधिक फल की कामना से बहुत परिश्रम पूर्वक किया कर्म राजस कहा गया है ।।२४।।

अनुबंधं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ।।१८/२५।।
                शब्दार्थ― जो परिणाम में नाश, हिंसा वाले कर्म अपनी सामर्थ्य न देखकर मोह से कर्म करते हैं वे कर्म तामस कहे गये हैं ।
                तात्पर्यार्थ― जिनके करने से अपने सामर्थ्य अपने और दूसरे के धन जन का नाश हो, कर्म हिंसा प्रधान मारकाट लूटपाट, बेइमानी आदि मोह या अज्ञान पूर्वक किये जायें वे तामसी कर्म कहे गये हैं ।।२५।।

                संबंध― तीन प्रकार के कर्ता का वर्णन….
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निविकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ।।१८/२६।।
              शब्दार्थ―जो कर्ता आसक्ति रहित एवं कर्म करने के अभिमान से रहित धैर्य और उत्साह पूर्वक कर्म करता हुआ सिद्धि और असिद्धि में सम रहता है उसे सात्विक कर्ता कहते हैं ।
                तात्पर्यार्थ― सात्त्विक कर्ता कभी उत्साह रहित नहीं होता और धैर्य की प्रबलता होती है, बाधाओं के आ जाने पर भी विचलित न होना और उत्साह में कमी का न आना  । ये सात्त्विक कर्ता के लक्षण हैं शेष स्पष्ट है ।।२७।।

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।।१८/२७।।
              शब्दार्थ― कर्मफल की इच्छा वाला हिंसात्मक और अपवित्र कर्म आसक्ति पूर्वक करने वाले को राजसी कर्ता कहा गया है ।
                तात्पर्यार्थ― पुत्र पौत्र, धन आदि की कामना रखकर लोभ से दूसरे को पीडित करने वाला अपवित्र कर्म जिसकी सिद्धि न होने पर शोक और सिद्धि होने पर हर्ष यानी प्रसन्नता होना ऐसे कर्म राजस समझना चाहिए ।।२७।।

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोऽनैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्धसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।।१८/२८।।
               शब्दार्थ― असावधान, बच्चों के जैसे स्वभाव वाला, गुरुजनों के सामने न झुकने वाला, व्यंग्य बोलने वाला हितैषी का भी अहित करने वाला, खिन्न तथा दीर्घसूत्री ये तामस कर्ता के लक्षण कहे गये हैं ।
              तात्पर्यार्थ― अयुक्त यानी अपने कर्तव्य कर्म में सावधान न रहने वाला, प्राकृत यानी जैसे अबोध बालक का चंचल और विवेक हीन स्वभाव होता है वैसे ही प्राकृत यानी संस्कारहीन, स्तब्ध अर्थात गुरूजनों आदि के सामने उपस्थित होने पर भी वह यह भी नहीं जानता कि इन्हें झुकना या प्रणाम करना चाहिए अवथा किसी कार्य में अविवेक के कारण किंकर्तव्यविमूढ़, शठ अर्थात व्यंग्य पूर्ण बोलना अथवा ऐसा कार्य जानबूझकर करना जिससे लोग चिढें, अनैष्कृतिक यानी जो अपना हितैषी हो उसको भी क्षति पहुंचाना, अलस यानी आलसी मतबल किसी कार्य में प्रवृत्त न होने की वृत्ति, विषादी अर्थात किसी कार्य में रुचि न होने से आलस्य प्रमाद से खिन्न मन, दीर्घसूत्री अर्थात क्या है... ? करना ही तो है... कल कर लेंगे, कल आने पर फिर कर लेंगे और करने भी लगा तो बिना जानकारी के जुट गया और एक घंटे का काम दस घंटे लगाना । ऐसे कर्ता को तामस कहा गया है ।।२८।।

                संबंध― बुद्धि एवं धृति का त्रिगुणात्मक छः श्लोकों में वर्णन….
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमामशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ।।१८/२९।।
                 शब्दार्थ― हे धनञ्जय ! बुद्धि और धृति के गुणों के अनुसार तीश प्रकार के भेद विधिवत अलग अलग कहूँगा उसे तू सुन ।
                तात्पर्यार्थ― बुद्धि वस्तु स्थित के यथार्थ निश्चय को कहते हैं और किये जाने वाले कार्यों मे बाधा उत्पन्न होने पर उसे सहन करने की क्षमता को धृति कहते हैं । धृति धारणा शक्ति के अनुसार कार्य पूर्ण होने के पश्चात मिलने वाले संतोष को भी कहते हैं जिससे कार्य से उपरामता होती है । ये तीन तीन प्रकार के होते हैं उनको मुझसे सुन । अर्जुन यद्यपि सुन रहा है तो भी कहते हैं सुन । मतलब बुद्धि और धृति इन दोनो वृत्तियों से ही संपूर्ण कार्य संपादित होते हैं अतः इनका ज्ञान ठीक ठीक होना आवश्यक है । इसी बात को अशेष रूप से अर्थात पूर्णतः या ठीक ठीक समझने के लिए कहते हैं ताकि महत्वपूर्ण विषय चित्तवृत्ति के असावधान होने के कारण ऐसा न हो कि इतना महत्त्वपूर्ण विषय छूट जाये अतः अशेषेण श्रृणु एवं प्रोच्यं अशेषेण कहते हैं । अशेषेण दोनो पक्षों में लेने से अर्थ बलवान हो जाता है ।।२९।।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्ष च या पार्थ बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।।१८/३०।।
            शब्दार्थ― हे पार्थ ! प्रवृत्ति, निवृत्ति और कार्य, अकार्य भय, अभय एवं बन्ध, मोक्ष को जो जानती है वह बुद्धि सात्त्विक हैं ।
               तात्पर्यार्थ― प्रवृत्ति शास्त्र विहित कर्म के स्वरूप को और निवृत्ति अर्थात शास्त्र निसिद्ध कर्मों के स्वरूप को, अपना और संसार का हित किस में है ऐसे कार्य के स्वरूप को और अपना और संसार का अनिष्ट किसमें है ऐसे अकार्य को स्वरूप से, जिस कार्य से अपने और संसार के अनिष्ट की आशंका हो उस भय को, और जिस कार्य से अपना और संसार का कल्याण हो उस निर्भय को, बंधन के कारण कर्मासक्ति एवं उसके फल को स्वरूप से, और उस आसक्ति से छूटने के उपाय को स्वरूप से जानने वाली बुद्धि सात्त्विक है ।
                भावार्थ― जिस समय संसार के स्वरूप को ठीक से समझकर मोक्ष प्राप्ति का श्रवण, मनन और निदिध्यासन रूप कार्य के लिए उद्यत होता है वह प्रवृत्ति कही गई है । उस प्रवृत्ति की चरम सीमा आत्मस्वरूप में स्थिति ही मोक्ष है । जो संसार की आसक्ति से छूटने का निष्कामता रूप उपाय है वही कार्य और जन्म मृत्यु के चक्र में पड़ने का कारण फलासक्ति ही अकार्य है । सबसे बड़ा भय जन्म मृत्यु रूप संसार का कारण अनात्म पदार्थ में तादात्म्य है और संसार से तादात्म्य का समाप्त होना ही निर्भयता है । कामना का नाम संसार जो जन्मादि भय का हेतु है और कामना रहित होने पर स्वरूप स्थिति ही निर्भय है । बन्धन के हेतु कार्म्य कर्मों का स्वरूप से जानना कि कब क्या कैसे करना और और उन काम्य कर्मों के अनर्थकारी फलस्वरूप को जानकर उनसे निवृत्ति ही मोक्ष है ।
              सारांश― जब इस प्रकार स्वरूप से बुद्धि जान लेगी तब वह सर्वकर्मसंन्यास का आश्रय लेकर मोक्ष मार्ग का चयन करेगी ही सात्त्विक बुद्धि के वर्णन का सारांश है ।।३०।।

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चा कार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।।१८/३१।।
              शब्दार्थ― हे पार्थ ! जो बुद्धि धर्म-अधर्म, और कार्य एवं अकार्य को ठीक ठीक नहीं जानती वह बुद्धि राजसी है ।
               तात्पर्यार्थ― धर्म यानी आश्रम धर्म के अनुसार कर्तव्य बोध और अधर्म को भी स्वरूप से न जानना, इसी प्रकार कार्य और अकार्य जो ऊपर कहे गये हैं उनके स्वरूप को ठीक से न जानने वाली बुद्धि राजसी है । यह सब राग द्वेष से प्रेरित होने से राग के प्रति पक्षपत करने के कारण बुद्धि की स्वार्थ परता के कारण होता है, अतः स्वार्थपरता का त्याग हो सके इसके लिए यह बताया गया है ।।३२।।

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।।१८/३२।।
               शब्दार्थ― हे पार्थ ! अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म जिस वृत्ति से जानता है अज्ञान से ढकी हुई बुद्धि सर्वत्र जब विपरीत देखती है तब उस बुद्धि को तामसी कहते हैं ।
              तात्पर्यार्थ― भाव स्पष्ट है कि वह अपने हितैषी के प्रति भी विरुद्ध भाव रखता है यह विरुद्ध भाव ही तामस है यही इसका तात्पर्य है ।।३२।।

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।।१८/३३।।
                शब्दार्थ― हे पार्थ ! योग के द्वारा अव्यभिचारिणी जिस धारणा शक्ति से मन, प्राण और इन्द्रियों को धारण करती है वह धृति सात्त्विक है ।
               तात्पर्यार्थ― जीव की स्वाभाविक गति परमात्मा है अतः उसके अतिरिक्त और किसी तरफ न जाना अर्थात समत्त्व भाव के द्वारा आत्मस्वरूप में समाहित हुआ जिस धृति अर्थात धारणा शक्ति के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों के उनके बाह्य विषयों से रोककर स्थिति होती है वह धृति सात्त्विक है ।
              भावार्थ― हमारे महाराज जी कहते थे कि जिसने मन प्राण और वीर्य इन तीनों में एक को भी नियंत्रित कर लिया तो शेष दोनो स्वतः नियंत्रित हो जायेंगे । यहां वीर्य का उपलक्षण इन्द्रियां हैं । इन पर जिनका नियंत्रण होकर समाहित चित्त स्व-स्वरूप अर्थात अखंडानन्दैकरस में डूब गया है जिस धारणा शक्ति या धैर्य के द्वारा वह धैर्य या धृति सात्त्विक है और इसी का मुमुक्षु को अनुगमन करना चाहिए यह भावार्थ है ।।३३।।

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन ।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ।।१८/३४।।
               शब्दार्थ― क्योंकि हे पार्थ ! जिस धृति के द्वारा अत्यंत आसक्ति पूर्वक फल की कामना से धर्म, अर्थ और काम को धारण किया जाता है वह धृति राजसी है
               तात्पर्यार्थ― फल की कामना से धर्म यानी कर्तव्य का पालन करना कि आज हम ऐसा सहयोग किसी का करेंगे तो कल हमारा भी कोई करेगा, हमारे द्वारा किये गये अमुक कार्य से हमारी आर्थिक वृद्धि होगी, स्त्री-पुत्र, स्वर्गादि की कामना आदि को लेकर जो न चाह कर भी सहन और अपने आपको संतुलित रखने की वृत्ति ही राजसी धृति है ।।३४।।

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ।।१८/३५।।
             शब्दार्थ― अज्ञानमय तमोगुणी बुद्धि का त्याग न करने वाला, अधिक सोने वाला, भय, शोक, विषाद और घमंड का भी त्याग न करने वाली धृति तामसी है ।
              तात्पर्यार्थ― स्वप्न यानी सूर्योदय और सूर्यास्त जैसे समय में या कभी भी निद्रा का आनन्द लेने वाला । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।३५।।

                संबंध― ज्ञान, कर्म, कर्ता, धृति और बुद्धि का त्रिगुणात्मक वर्णन करके अब चार श्लोकों में तीन प्रकार का सुख बताना….
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु में भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ।।१८/३६।।
               शब्दार्थ― हे भरतश्रेष्ठ ! पूर्वोक्त पांचों प्रकार से उत्पन्न सुख तीन प्रकार से सुन । अभ्यास के द्वारा दुःख का अन्त होता है ।
               तात्पर्यार्थ― ज्ञान, कर्म, कर्ता धृति और बुद्धि इन में जो जो सात्त्विक भाव कहे गये हैं उनका अभ्यास करने से दुःख का अन्त होता है ।
              भावार्थ― ज्ञान का भी सुख बंधन देता है सुख सङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।१४/६ पहले कह चुके हैं और यहाँ सात्विक सुख को दुःखों का अन्त करने वाला बता रहे हैं जो विरोध जैसा प्रतीत हो रहा है तथापि यहाँ दिया गया शब्द कुछ शेष होने की बात कह रहा है जो अगले श्लोक में स्पष्ट होगा ।।३६।।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।।१८/३७।।
                शब्दार्थ― वह उपरोक्त अभ्यास जो पहले विष के समान प्रतीत होता है और बुद्धि की निर्मलता होने के पर परिणाम में अमृत के समान होता है वह सुख सात्त्विक कहा गया है ।
           तात्पर्यार्थ― यहाँ पर आत्मप्रसादजम् का अर्थ है अपनी बुद्धि की पूर्वोक्त सात्त्विक कथन के अभ्यास से उत्पन्न निर्मलता है । चूंकि सांसारिक विषयों में आसक्ति होने से शम दम आदि क्लेशकारी विषवत् होते हैं किन्तु जब बुद्धि में उन राजसिक और तामसिक विकारों का अभाव हो जाता है तब निरंतर श्रवणादि के अभ्यास से निर्मल हुई बुद्धि जब आत्मनिष्ठ हो जाती है और सर्वत्र व्यापक एक आत्मा को ही देखने लगती है वह आत्मसुख नित्य सुख स्वाभाविक होता और वह ही अमृत होता है अर्थात मोक्ष का वह स्वरूप होता है इस लिए सात्त्विक सुख का मतलब नित्य सुख यहाँ कहा गया और वह बन्धन देने वाला नहीं बल्कि साक्षात् मोक्ष स्वरूप है जबकि अध्याय १४/६ में जो बंधन की बात आयी है वह लोकों की कामना को लेकर आयी है । उस सत्त्व में एक अहं वृत्ति मैं ज्ञानी, वेदपाठी, अग्निहोत्री आदि हूँ यह सूक्ष्म रजोगुण वृत्ति से अहं युक्त और भेद दृष्टि को लेकर लौकिक और बंधन की दृष्टि से कहा गया है और यहाँ का सुख अव्यय आत्मसुख को लेकर कहा है । अतः प्रसंगानुसार जो जिस स्थान पर कहा गया है वहाँ का विषय भिन्न भिन्न होने से वहां के अनुसार कोई विरोध नहीं है । यहां पर मुमुक्षु को सात्त्विक निष्ठा के रूप में आत्मा, क्रिया आदि और लौकिक सुख से भिन्न आत्मा को बताना ही लक्ष्य है । जब आत्मा उपरोक्त कर्ता क्रिया आदि से स्वयं को भिन्न देखेगा तो उसका स्वरूप क्या होगा ? उसका स्वरूप नित्य सुख होगा । यही यहां सात्त्विक सुख से कहना है ।।३७।।

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।।१८/३८।।
           शब्दार्थ― जो विषय और इन्द्रियों के संयोग से पहले अमृत के समान परिणाम में विष के समान होता है उसे राजस सुख जानना चाहिए ।
               तात्पर्यार्थ― शब्द स्पर्श आदि के रूप में विषय पहले तो बहुतअच्छे लगते हैं बाद में नाना प्रकार के रोगों से आक्रांत करके विष के समान दुःखद होते हैं । स्त्री, पुत्र, धन, स्वर्ग आदि की कामना से किये गये कर्म भी पहले आनन्द देते हैं बाद में उन्हीं स्त्री पुत्रादि से प्रताड़ित होने पर वही विष के समान दुःखद हो जाते हैं । स्वर्ग भी अन्त में जन्म मरण रूप विष ही है । अतः ये अर्थात इन्द्रियों और विषयों से मिलने वाला सुख राजस जानना चाहिए ।।३८।।

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।।१८/३९।।
              शब्दार्थ― जो बुद्धि को मोहित करने वाला, निद्रा, आलस्य और प्रमाद को बढ़ाने वाला और बुद्धि को मोहित करने वाला सुख है उसे तामस कहा गया है ।
               तात्पर्यार्थ― लड़ाई झगड़ा मारपीट मद्य मांस आदि ये सब मोहित बुद्धि अर्थात अज्ञान का ही परिणाम है शेष अर्थ स्पष्ट है ।
               सारांश― अध्याय १४का सात्विक सुख बंधन करने वाला होने से वहाँ का वह सुख सुख या सत्त्वगुण त्याज्य है । अध्याय १६ में दैवी संपत्ति के रूप में जो सात्त्विक स्वभाव कहा गया है वह चाहे ज्ञानयोगी हो या भक्ति अवथा कर्मयोगी सबमें वह सात्त्विक स्वभाव होना ही चाहिए । अतः वह ग्राह्य है । अध्याय १७ में श्रद्धा का वर्णन है अतः वहां की सात्त्विक श्रद्धा के बिना कोई भी आत्मारूढ नहीं हो सकता अतः वह भी ग्रहण करना चाहिए । यहां का बाईस श्लोकों में कहे गये त्रिगुणात्मक भाव से आत्मा को उन सबसे भिन्न दिखाना और सात्त्विक सुख को नित्य बाताना है । अतः इस नित्य सुख का अभ्यास भले विषयासक्ति के कारण अनुकूल न हो फिर भी मुमुक्षु को परिणाम में अमृत अर्थात संसार बंधन से मुक्ति के लिए अभ्यास करना ही चाहिए । यही यहां निर्दिष्ट किया गया है ।।३९।।

                 संबंध― श्लोक बीस से अब तक तीनों गुणों के कार्य का वर्णन किया और अब संपूर्ण सृष्टि को ही त्रिगुणात्मक बताना…..
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ।।१८/४०।।
               शब्दार्थ― पृथ्वी के मनुष्यों से लेकर स्वर्ग के देवताओं तक अथवा और भी जहाँ कहीं भी कोई है वह कोई ऐसा नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न गुणों से मुक्त हो ।
               तात्पर्यार्थ― संपूर्ण सृष्टि प्रकृति के गुणों से युक्त है यही बताना यहाँ का उद्देश्य है ताकि आगे प्रकृति से भिन्न आत्मस्वरूप को समझाया जा सके ।
               टिप्पणी― यहाँ तक त्रैगुण्यविषया वेदा २/४५ को अनेक विधि से समझाया गया और अब निस्त्रैगुण्यो भव पर विचार होगा जो आत्मवान २/४५ अर्थात सत्ता भाव में स्थिर करेगा ।।४०।।

                संबंध― ब्राह्मण आदि वर्णों की गुणों के अनुसार उत्पत्ति….

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।।१८/४१।।
               शब्दार्थ― हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र कर्मो के स्वभाव से उत्पन्न गुणों से द्वारा विभक्त किये गये हैं । 
               तात्पर्यार्थ― इन चार वर्णों की उत्पत्ति कर्मों से उत्पन्न गुणों के कारण हुई है इस बात को पहले ही चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । ४/१३ मतलब जो पूर्वजन्म के कर्मों द्वारा जो जिस गुण को लेकर शरीर त्याग करता है उसी गुण की प्रधानता वाला शरीर मिलता है । जैसे ब्राह्मण में रजोगुण गौड़ और सत्त्वगुण प्रधान होता है, और क्षत्रिय में रजोगुण प्रधान और सत्त्वगुण गौड़ होता है । इत्यादि । किन्तु इसके बाद वर्ण के अनुसार गुणों का वर्णन करते हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि वस्तुतः पूर्वजन्म के फलस्वरूप ब्राह्मण आदि उत्पन्न अवश्य हुए लेकिन उन उन में वे गुण यदि हैं तो ही वे ब्राह्मण आदि हैं अन्यथा नहीं । इस बात की शास्त्रों में भी प्रसिद्धि है― एकाहं जपहीनस्तु संध्याहीनो दिन त्रयय् । द्वादशामनग्निश्च शूद्र एव न शंसयः ।। अर्थात एक दिन गायत्री जप न करने पर, तीन दिन संध्या न करने पर, बारह दिन अग्निहोत्र न करने पर ब्राह्मण शूद्र ही है इसमें संशय नहीं है । त्र्यहं संध्यारहितो द्वादशाहं निरग्निकः । चतुर्वेदधरो विप्रः शूद्र एव न शंसयः ।। अर्थात तीन दिन संध्या न करने पर बारह दिन अग्निहोत्र न करने पर चारों वेदों का ज्ञाता होने पर भी वह ब्राह्मण शूद्र ही है इसमें संशय नहीं है । यहां यह नहीं कहा कि ऐसा ब्राह्मण शूद्र हो जाता, बल्कि वह शूद्र ही है इसमें संशय नहीं है यह कहा । यहाँ एव से शूद्र होना निश्चित किया गया और संशयः से इस निश्चय में किसी भी प्रकार का कोई भी सन्देह न होने की बात कही गई है । यह अंश स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी की गीता तात्पर्यप्रबोधिनी अध्याय १८/३ से लियख गया है । अन्यत्र भी शास्त्र प्रसिद्धि है । 
               अतः यह निश्चय हुआ कि ये नीचे कहे जाने वाले ब्राह्मण के गुण वर्तमान में जिस किसी भी जाति और वर्ण में मिलते हों वही ब्राह्मण है अन्य नहीं । चूंकि यहाँ कर्म की प्रधानता को लेकर जन्मज ब्राह्मण आदि को गौड़ कहा गया है इसका अर्थ यह होता है कि वे लोक दृष्टि में ब्राह्मण ही हैं और जन्मज ब्राह्मण ही ब्राह्मण है । किन्तु कर्म द्वारा जन्मज ब्राह्मण से श्रेष्ठता दिखाने के लिए यह बताया जा रहा है कि जिस किसी में ब्रह्म तत्त्व की प्राप्ति की जिज्ञासा है और निम्न श्लोक में कहे जाने वाले गुण उसमें हैं तो वह भले शूद्र ही क्यों न हो वह ब्राह्मण ही है और जिसमें जिस वर्ण के गुण मिलते हों वह उसी वर्ण का ही है यह निश्चित जानना चाहिए । ब्रह्म जानाति स ब्राह्मणः ही यहां के ब्राह्मण का लक्षण है, यही बताने के लिए गुणों का वर्णन करते हुए यह बता रहे हैं कि ब्राह्मणत्त्व में सभी का अधिकार है । ब्राह्मण गुणों से रहित मात्र झगड़ा करने से ब्राह्मण नहीं हो जाता है । ऐसा ब्रह्म जिज्ञासु शूद्र शरीर होकर भी ब्राह्मण और प्रणम्य है । जो अहंकार वश जाति आदि के आधार पर प्रणाम नहीं करता वही अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः १८/२८ इत्यादि समझना चाहिए । 
               टिप्पणी― ब्राह्मण आठ प्रकार के कहे गए हैं १- मात्र― ये जन्म से माने जाते । इनमें चोर, डाकू इत्यादि कर्मों वाले भी हो सकते हैं । अतः ये ब्राह्मण जन्म द्वारा ही माने जायेंगे और लौकिक मर्यादा में उन्हे अपमानित नहीं किया जा सकता है, फिर भी यद्यपि शास्त्र ब्राह्मण को अवध्य बताता है तथापि क्रुद्ध होकर यदि प्राणों पर संकट बन जाये तो मार देने में दोष नहीं है । उदाहरण के लिए द्रोणाचार्य का वध, अश्वत्थामा का अपमान आदि । २- ब्राह्मण― वेदपाठी देवी देवता के आराधक कर्मकांडी । ३- श्रोत्रिय― अंगों सहित वेदों का ज्ञान रखने वाला । ४- अनुचान― तत्त्वदर्शी, विद्यार्थियों को पढाने वाले । ५- भ्रूण― अनुचान के गुणों सहित जितेन्द्रिय, यज्ञादि कार्यों संलग्न । ६- ऋषिकल्प― नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करके आश्रम (वन) में रहने वाला । ७- ऋषि― जितेन्द्रिय, संशय विपर्यय रहित, वरदान और शाप देने में समर्थ । ८- मुनि― निवृत्तिमार्गी या यूं कहें संन्यासी । यह प्रसंग हमने किसी ग्रंथ में पढा था किन्तु विस्मृत हो गया था अतः नेट से लिया । विवरण भी संक्षेप से है । यह विवरण यद्यपि यहाँ युक्तिसंगत नहीं तथापि इस प्रसंग को पढ़कर लक्ष्य को बिना समझे कोई ब्राह्मण को अपमानित करने का दुस्साहस न करे एवं अन्य का अपमान भी न करे । अतः प्रथम को छोड़कर सब पर सबका अधिकार है क्योंकि आत्मोन्नति करना, परमतत्त्व की प्राप्ति सबका अधिकार है । इस श्लोक की व्याख्या आनन्दगिरि जी की देखने योग्य है ।।४२।।

            संबंध― ब्राह्मण के कर्म….
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।।१८/४२।।
               शब्दार्थ― शम, दम, शौच, क्षान्ति, आर्जव एवं ज्ञान, विज्ञान एवं आस्तिक्य भाव ये ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण कहे गये ।
               तात्पर्यार्थ― शम यानी मन का निग्रह, यहाँ मन के अन्तर्गत संपूर्ण अन्तःकरण चतुष्टय आ जाता है । दम यानी बाह्य इन्द्रियों का बाह्य विषयों पर नियंत्रण, शौच यानी बाहर भीतर की पवित्रता, क्षान्ति यानी अपराधी को भी क्षमा कर देने वाला, आर्जव अर्थात सहज भाव, ज्ञान अर्थात श्रोत्रिय, विज्ञान यानी ब्रह्मनिष्ठ, आत्मतत्त्व को जानने वाला और आस्तिक्य भाव यानी ईश्वर पर दृढ निष्ठा ये नौ गुण स्वभाव से ब्राह्मण के हैं । यही मोक्ष के साधन हैं । अतः मोक्ष के साधन रूप ये गुण जहाँ भी मिलें वह ब्राह्मण है ऐसा तात्पर्य है ।।४२।।

                संबंध― क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण…..
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजं ।।१८/४३।।
               शब्दार्थ― शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान देना और अनुशासन करना ये कर्म क्षत्रिय के स्वभाव से उत्पन्न हैं ।
            तात्पर्यार्थ― शौर्य यानी वीरता, तेज यानी प्रभाव जिसे देखकर और सुनकर दुश्मन भी थर्रा जाये, दक्षता यानी शत्रु को पराजित करने में व्यूह आदि के माध्यम से नीति निपुण । धैर्य- घायल होने पर भी युद्धादि अवसरों पर धैर्य वृत्ति, युद्ध में भले प्राण चले जायें लेकिन पीठ न दिखाना, प्रजा को अनुशासित करना ये सात कर्म क्षत्रिय के स्वाभाविक हैं ।।४३।।

                संबंध― वैश्य एवं शूद्र के कर्म….
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।१८/४४।।
                शब्दार्थ― कृषि, गौरक्षा, व्यापार, वैश्य के ये तीन स्वाभाविक कर्म हैं । एवं एक मात्र सेवा कर्म शूद्र का स्वाभाविक कर्म है ।
              तात्पर्यार्थ― अर्थ स्पष्ट है । इस प्रकार गुणों के आधार पर जन्म लेकर भी जन्म की अपेक्षा वर्तमान गुण क्रिया का विशेष महत्त्व प्रतिपादन किया गया है । अतः मोक्षकामी को उपरोक्त ब्राह्म कर्म में प्रमाद नहीं करना चाहिए । मात्र पुस्तकें पढ़ने और झगड़ा करने से किसी को मोक्ष नहीं मिल जाता ।।४४।।

             संबंध― अपने अपने स्वाभाविक कर्म से सिद्धि का दो श्लोकों में कथन….
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ।।१८/४५।।
             शब्दार्थ―  अपने अपने कर्म को करते हुए मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है । अपने कर्म में लगा हुआ जैसे सिद्धि प्राप्त करता है उसे सुनो ।
        तात्पर्यार्थ― यहाँ सिद्धि का अर्थ आत्मसाक्षात्कार या परमतत्त्व में प्रतिष्ठा है ।।४५।।

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।।१८/४६।।
              शब्दार्थ― जिससे संपूर्ण प्राणियों में प्रवृत्ति होती है, जिससे यह संपूर्ण जगत सत्तावान है अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा अर्चना करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है ।
               तात्पर्यार्थ― जिससे संपूर्ण प्राणियों में प्रवृत्ति होती है जिससे यानी किससे ? वह अनाम है नाम तो कल्मष है विकार है अतः नाम नहीं बताया और कहते हैं कि जिससे संपूर्ण जगत व्याप्त है उससे संपूर्ण प्राणियों में प्रवृत्ति हो रही है । यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूं कि यहाँ पर प्रवृत्ति का अर्थ अभी तक जो भी टीकाएं देखी उनमें अधिकांश विद्वान प्रवृत्ति का अर्थ आकाश आदि सहित संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति ही करते हैं । उनका कहना है कि अध्याय १५/४ में भी प्रवृत्ति का अर्थ उत्पत्ति ही है अतः यहां भी वही अर्थ होगा । मेरा मानना है कि जो अर्थ एक स्थान पर हुआ वही अर्थ दूसरी जगह होगा इसकी क्या गारंटी है ? दूसरी बात वहां का प्रसंग आत्मा और अनात्मा का विस्तार करने के लिए प्रसंग ही अलग है तथापि जब विस्तार से विचार किया गया तो वहां भी प्रवृत्ति का अर्थ कर्म में प्रवृत्ति अर्थात चेष्टा ही होता है न कि उत्पत्ति । वहाँ आदि पुरुष का अर्थ भी अनादि ही होता है । उसी की शरण लेने की बात कही गई है तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये १५/४ तो कैसे शरण लेगा ? सर्वभावेन १५/१९ अतः सर्वभावेन में उत्पत्ति से नहीं बल्कि उसकी प्रत्येक मानसिक और क्रियात्मक जो वासनाएं हैं उनको भी परमेश्वर में देखना । इस प्रकार भी वहाँ पर प्रवृत्ति का अर्थ क्रिया करने में होने वाली चेष्टा ही होगा । अध्याय १० में कहा― अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते १०/८ भगवान के इस वाक्य से ही उन विद्वानों की बात बाधित हो जाती है जो प्रवृत्ति का अर्थ मात्र उत्तपत्ति करते हुए तर्क देते हैं कि परमेश्वर मात्र उत्पत्ति करता है । क्रिया उसमें नहीं है क्योंकि क्रिया रजोगुण से होती है । हम पूछना चाहते हैं कि जब उस परमेश्वर में क्रिया ही नहीं है तो क्या जगत की सृष्टि क्रिया नहीं है ? वह भी तो क्रिया है और बिना प्रकृति के रजोगुण का आश्रय लिये सृष्टि हो भी कैसे सकती है ? जब वह सृष्टि की चेष्टा कर सकता है तो प्राणियों में प्रवृत्ति उसके बिना कैसे हो सकती है ? जब भगवान स्वयं कह रहे हैं कि संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति मैं ही करता हूँ, मुझसे ही सभी अपने अपने कर्म में प्रवृत्त होते हैं १०/८ तो भगवान की इस वाणी के विरुद्ध यह कहना कि उनमें क्रिया नहीं होती है यह तो भगवान को ही झूठा सिद्ध करना है । हमें इससे कोई मतलब नहीं है तथापि रामानुजाचार्य जी ने प्रवृत्ति का कोई अर्थ किया ही नहीं, जिसे जो समझना है वह समझे । 
                 हम एक बार अभी एक-दो महीने पहले हनुमान मंदिर जा रहे थे कि अचानक इस श्लोक का उच्चारण हुआ और अर्थ विचार शुरू हो गया और मन में आया कि इस श्लोक में प्रवृत्ति का अर्थ उत्पत्ति ही क्यों होना चाहिए स्वाभाविक कर्म के बीच उत्तपत्ति कहाँ से आ गई ? उस समय हमारे मन में यह भाव आया कि हम दूसरे विचारों को रटकर शब्दों को ही ज्यों का त्यों क्योंकि मस्तिष्क में संजोकर क्यों रखते हैं । मष्तिष्क है कोई तहखाना तो नहीं है । अतः हमने अर्थ सुनिश्चित कर लिया कि इसका अर्थ किसी के लिए कुछ हो लेकिन मेरे तो अर्थ यही है । मैने पढ़ाई तो की नहीं, लोग प्रमाण मांगेंगे इससे भी कोई मतलब नहीं रखा क्योंकि अर्थ अपनी अपनी समझके अनुसार ही होता है जो एक ने अर्थ कर दिया वही अर्थ हो सकता है यह मैं नहीं मान सकता तथापि जब लेखन जैसा सार्वजनिक कार्य हो तब पूर्वापर से संबद्ध होना भी आवश्यक है और किसी न किसी का प्रमाण होना भी आवश्यक है । एक बार किसी अन्य चर्चा के दौरान मुझसे किसी ने कहा कि इसका अर्थ यह कैसे हो सकता है ? यह कौन सी व्याकरण है ? इसमें कौन सा सूत्र लगाया ? क्योंकि वह जानता था कि मुझे व्याकरण नहीं आती । जब उसने ऐसा कहा तो मैने कहा आनन्दगिरि जी ने ये अर्थ किया है उनसे जाकर पूछो कि उन्होंने कौन सी व्याकरण पढी थी और कौन सा सूत्र लगाया था ? तब जाकर वह ठंडा हुआ । अतः किसी न किसी का प्रमाण चाहिए और वह आज आचार्य शंकर के द्वारा मिल गया । उन्होंने प्रवृत्ति का अर्थ उत्पत्ति या चेष्टा किया है । यह अर्थ अध्याय १०/८ का अनुसरण करता है । अतः मेरा अर्थ भी कर्म करने की चेष्टा प्रमाणित होगा गया । 
              चूंकि मैने आचार्य जी को ही प्रमाण भी माना है तो विचार करने का तरीका कोई भी हो लेकिन उनके विरुद्ध भी न हो अतः यह श्लोक मेरे लिए एक चुनौती था और वह पूर्ण हुई । चूंकि यहाँ पर प्रसंग संपूर्ण सृष्टि का गुणों से व्याप्त होना बताया गया है, इसीलिये उन्हीं गुणों के आधार पर प्रसंग स्वाभविक कर्मों का है और वह परवश होकर करेगा ही १८/५९-६० इस आधार पर एकांगी अर्थ उत्पत्ति न लेकर या तो आचार्य जी की तरह दोनो अर्थ लिया जाये जाना चाहिए या फिर चेष्टा यानी क्रिया वर्तमान प्रसंग के अनुसार एक मात्र अर्थ लेना चाहिए । अतः मैं यहां एक मात्र अर्थ चेष्टा ही ग्रहण करता हूँ ।
               चूंकि व्यापक परमसत्ता से ही पश्यञ्श्रृण्वन् ५/८-९ आदि सारी क्रियाएं तो स्वाभाविक ही हो रही हैं । इसी प्रकार हमारी स्वाभाविक जो प्रवृत्ति होगी वही हमारा कर्म होगा । मान लो जैसे किसी ब्राह्मण की स्वाभाविक प्रवृत्ति है क्षत्रियत्व की, तो वह परशुराम की तरह वही कर्म करेगा , विश्वामित्र की तरह जिस समय स्वाभाविक प्रवृत्ति जाग्रत होगी तो वह ब्राह्मण ही होना पसंद करेगा । जब व्यक्ति संन्यास लेगा तब उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति गृहस्थ वाली तो नहीं होगी, उसकी स्वाभाविक चेष्टा तो संन्यास सिद्धांत के अनुसार ही होगी । यही जो अपने अपने स्वाभाविक कर्म हैं इनसे सीमित अहंता को खींच लेना ही उस परमेश्वर की उन उन क्रियाओं से पूजा करना है और ऐसा करने से ही सिद्धि अर्थात स्वरूप में प्रतिष्ठित होना रूप सिद्धि प्राप्त कर लेगा इसका यही तात्पर्य है ।
                 भावार्थ― ब्रह्मार्पणं ब्रह्म ४/२४ एवं मेरा मुझको कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर । तोरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोर ।। यही भाव यहां भी समझना चाहिए ।।४६।।

               संबंध― अपने गुण रहित कर्तव्य पालन से दोष नहीं होता…..
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभाव नियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।।१८/४७।।
            शब्दार्थ― दूसरे धर्म की अपेक्षा भलीभांति अनुष्ठान किया गया अपना गुण रहित धर्म श्रेष्ठ है । स्वभाव से निश्चित किया कर्म करने से पाप नहीं होता ।
               तात्पर्यार्थ― जो क्रिया एक के लिए धर्म होती है वही दूसरे के लिए अधर्म भी । जैसे संन्यासी को अग्निहोत्र, मूर्ति पूजा, गायत्री, संध्या सब वर्जित है और यदि करता है तो उसे मुक्ति कभी नहीं मिल सकती । उसका एक मात्र आधार प्रणव है प्रेसमंत्र ही उसका अन्तिम लक्ष्य है । यज्ञादि के लिए पत्नी की आवश्यकता होती है यह ग्रहस्थ का कर्तव्य है, अग्निहोत्र, गायत्री आदि अपने स्वाभाविक अधिकारानुसार गृहस्थ का है । इस प्रकार यज्ञादि कर्म में आकर्षण दिखता अवश्य है किन्तु वह यदि संन्यासी करता है तो वह विधर्मी है और उसे चित्तशुद्धि न होना रूप पाप लगेगा ही । भले संन्यास धर्म मुक्ति का हेतु हो लेकिन गृहस्थ उसका अनुसरण करेगा तो दोष होगा । अतः हम जहाँ हैं और जो स्वाभाविक हमारा कर्तव्य है उसका पालन करने मात्र से मोक्ष सिद्धि हो जाती है ।
              भगवान ने जो कहा था कि मत्कर्मकृन् ११/५५ उस पर अर्जुन ने पूछा था कि आपके कर्मयोगी भक्त और ज्ञानी में श्रेष्ठ कौन है । इस पर कर्म योगी को श्रेष्ठ बताकर अन्त में ज्ञानी के लक्षणों का अनुसरण करने को कहते हैं । अर्थात अधिकार जिसका जो है उसके अनुसार कर्म करने से ही चित्तशुद्धि होगी और जब चित्तशुद्धि होगी और तब वह ज्ञान को भगवत् कृपा से प्राप्त करेगा दादमि बुद्धियोगं तम् १०/१० और फिर मोक्ष रूप परम सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं यही बात अर्जुन के पूछने पर तीसरे अध्याय में भी कहते हैं कि स्वधर्म के पालन में मरना भी श्रेष्ठ है ३/३५ अर्थात धैर्य को धारण करके मृत्यु पर्यंत सिद्धि असिद्धि में सम होकर स्वधर्म का पालन करे तब नैष्कर्म्य की सिद्धि होती है ।।४७।।

               संबंध― इसीलिये अपने धर्म को हमेशा गुणवान देखना चाहिए क्योंकि….
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ।।१८/४८।।
              शब्दार्थ― हे कुन्तीपुत्र ! आग में धुवें की तरह किये जाने वाले सभी कर्म दोष से युक्त हैं इसलिए अपना स्वाभाविक कर्म नहीं त्यागना चाहिए ।
             तात्पर्यार्थ― कर्म कोई भी हो उसमें दोष तो होता ही है, अग्नि को उसी से उत्पन्न धुंआ ही उसे ढक लेता है । किन्तु अग्नि का उससे कोई संबंध नहीं होता है और वह जलाने और पचाने का काम करती ही है और उन क्रियाओं से भी उसका कोई संबंध नहीं होता । इसी प्रकार सभी कर्म दोषयुक्त होते हैं जिससे सामान्य जीव का व्यापक आत्माभाव ढक जाता है किन्तु जब किये जाने वाले कर्म से कर्मासक्ति हटा लेते हैं, फलासक्ति भी समाप्त हो जाती है तब वह आत्म सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । अतः अपना स्वाभाविक कर्म कभी भी प्रलोभन में त्याग नहीं करना चाहिए । कांटे से गुलाब के पुष्प निकाल लेते हैं जबकि कांटों से कोई संबंध नहीं होता है । ऐसा ही अपने कर्म के दोष नहीं बल्कि सहज कर्म ईश्वरार्पित होने से किसी पाप को प्राप्त नहीं होता क्योंकि अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः १८/६६ आगे कहेंगे । यही इसका तात्पर्य है ।।४८।।

             संबंध― सिद्धि प्राप्ति का उपाय...
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगत स्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ।।१८/४९।।
              शब्दार्थ― सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि द्वारा मन को जीतकर इच्छा रहित हुआ मुमुक्षु ज्ञानयोग के द्वारा नैष्कर्म्य रूप परम सिद्धि को प्राप्त करता है ।
                आसक्ति का विवरण पीछे दिया जा चुका है । जहां तक यह करके जाना जाये ऐसे किसी कर्म या कर्मफल में आसक्ति न होने पर ही मन को जीता जा सकता है और मन को जीतने पर ही संपूर्ण इन्द्रियाँ जीती जा सकती हैं । अतः यहां आत्मा का अर्थ अन्तःकरण सहित चौदह इन्द्रियाँ । अतः इस प्रकार जितेंद्रिय होने पर ही इच्छाओं पर विजय प्राप्त किया जा सकता है । इच्छाओं पर विजय पाने पर ही संन्यास अर्थात ज्ञानयोग की प्राप्ति होगी और तभी नैष्कर्म्य नामक परम सिद्धि प्राप्त होगी ।
              यहाँ परम नैष्कर्म्य का अर्थ है कि जो तो व्यक्त और अव्यक्त से परे आत्मा है वह निक्रिय, निष्कल, निरंजन है जिससे पर और कोई नहीं है । ऐसे निष्क्रिय आत्मभाव को प्राप्त होना ही परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त करना है । अध्याय १८/४६  में जिस सिद्धि को प्राप्त करने की बात आयी थी उसका यहाँ स्पष्टीकरण करण हो गया और सिद्ध हुआ कि संपूर्ण सृष्टि की रचना करनी वाली आत्मा ही है उससे भिन्न और कोई सत्ता है ही नहीं ।
                  भावार्थ― यहां संन्यास का अर्थ ज्ञान किया है क्योंकि बिना सर्वकर्म संन्यास के ज्ञान होता नहीं है । इस वृत्ति का समाप्त होकर जीते हुए मन के द्वारा इच्छा रहित होना ही सर्वकर्म संन्यास हैं । यहाँ पर परमतत्त्व की प्राप्ति के योग्य चित्तशुद्धि को नैष्कर्म्य बताया है, इस मतलब यह है कि बिना कर्म किये निष्कामता आती नहीं और बिना निष्कामता के संन्यास यानी ज्ञान पनपता नहीं और बिना संन्यास के नैष्कर्म्य यानी चित्तशुद्धि रूप सिद्धि होती नहीं, इसलिये यहां यह सन्देश दिया गया है कि बैठे मत रहो । बैठने से काम बनने वाला नहीं अतः तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व ११/३३ अर्थात उठो और कामरूपी शत्रु को मारकर जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ३/४३ कर्मासक्ति और फलासक्ति रूपी शत्रुओं को मारकर नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त कर, क्योंकि न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ३/४ कर्म करने पर ही निष्कर्मता सिद्ध होती है ।।४९।।

                संबंध― यहाँ तक बताया कि कर्मासक्ति और फलासक्ति का त्याग करके अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा नैष्कर्म्य सिद्धि अर्थात आत्मनिष्ठा प्राप्त हो जाती । यहां तक कर्मयोगियों का वर्णन किया । अथवा तीनो गुणों के विषय रूप कर्मों से ऊपर उठा हुआ त्रिगुणातीत जिसे आत्म निष्ठा तो प्राप्त हुई है किन्तु परिच्छिन्न भाव बना हुआ हैै ऐसे चित्तशुद्धि वाले आत्मनिष्ठ साधक ब्रह्म को जैसा कि अध्याय १४/२६ में आत्मा की उपासना करने वाले को ब्रह्म प्राप्ति बताया गया था अथवा अब जिनकी श्रवण मन के द्वारा चित्तशुद्धि हो चुकी है, वे मुमुक्षु कैसे ब्रह्म को प्राप्त करते हैं ? अगले पांच श्लोकों में वर्णन करते हैं…..
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ।।१८/५०।।
                शब्दार्थ― सिद्धि को प्राप्त करके जिस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त करता है, हे कौन्तेय ! जो ज्ञान की परा निष्ठा है उसको संक्षेप से सुन ।
            तात्पर्यार्थ― सिद्धि का अर्थ स्वाभाविक कर्म रूप पूजा से प्राप्त चित्तशुद्धि १८/४६ अथवा नैष्कर्म्य सिद्धि द्वारा चित्तशुद्धि पूर्व आत्मनिष्ठा अर्थात व्यापार रहित एकत्व निष्ठा रूप सिद्धि । ज्ञान की परा निष्ठा यानी जिसके बाद कुछ भी जानना शेष नहीं बचता । जो स्वरूप अहं ब्रह्मास्मि की अस्मि सत्ता मात्र है उसमें स्थिति । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।५०।।

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ।।१८/५१।।
               शब्दार्थ― विशुद्ध बुद्धि से युक्त होकर मन सहित इन्द्रियों को धैर्यपूर्वक अपने आधीन करके राग द्वेष के सहित विषयों का त्याग करके ।
            तात्पर्यार्थ― विशुद्ध बुद्धि यानी पूर्वोक्त प्रकार से अथवा श्रवण मनन निदिध्यासन द्वारा निर्विकार बुद्धि के द्वारा राग द्वेष को उत्पन्न करने वाले विषयों को और राग द्वेष पूर्ण विषयों को धैर्यपूर्वक अन्तःकरण चतुष्टय सहित इन्द्रियों नियंत्रित करके….। 
              यहां पर संपूर्ण विषयों का त्याग तो कहा है लेकिन साथ में राग द्वेष भी कहा है इसका अर्थ यह है कि जितनी जो सामग्री जीवन निर्वाह के लिए अत्यावश्यक है उसको बिना किसी राग अर्थात आसक्ति के बिना ग्रहण करना चाहिए और जो आवश्यक नहीं है उसका त्याग द्वेष से नहीं बल्कि  स्वभाव से करना चाहिए ।।५१।।

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवक्कायमानसः ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ।।१८/५२।।
               शब्दार्थ― एकान्तसेवी, कम खाने वाला, शरीर, वाणी और मन को वश में रखने वाला, निरंतर ध्यानयोग परायण, वैराग्य का भलीभांति आश्रय लेकर ।
                तात्पर्यार्थ― एकांत यानी निदिध्यासन में बाधा न बने, शोरशराबे से दूर निर्भय स्थान अथवा जो एक मात्र अद्वितीय परा सत्ता से अतिरिक्त कहीं भी मन की गति न हो वह एकान्त है, उस एकांत का सेवन, अध्याय छः में युक्ताहारविहारस्य की बात कही थी और विधि अध्याय सत्रह में बताई थी उस प्रकार का आहार जिससे भूखा भी न रहे और बैठने में असुविधा भी न हो ऐसा भोजन लेना, शरीर को अपने वश में रखकर, वाणी का सात्त्विक संयम में रखते हुए अध्याय सत्रह वाला, मन को एक परमात्मनिष्ठा के अतिरिक्त अन्य किसी विषय में न जाने देकर, इस लोक से लेकर स्वर्ग तक के भोगों से भलीभाँति उपरत यानी विरक्त होकर निरंतर ध्यान यानी एकाग्रता या सावधानी पूर्वक समता का आश्रय लेकर ।।५२।।

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।१८/५३।।
              शब्दार्थ― अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध, परिग्रह का त्याग करके निर्मम एवं शान्त ब्रह्म होने का संकल्प करता है ।
               तात्पर्यार्थ― जब एक मात्र सम भावस्थ परमात्मा को स्व से अभिन्न निरंतर चिन्तन करते करते उसे स्वाभाविक कुछ सिद्धियां भी होती हैं उन सिद्धियों को लेकर मैं ब्रह्मनिष्ठ हूँ इस प्रकार की अहं वृत्ति का भी त्याग कर देता है, योग के बल से किसी का हित अहित करना, अपने ज्ञानी होने का घमंड, संपूर्ण लौकिक पारलौकिक इच्छा और साधना में विघ्न उपस्थित होने पर क्रोध, अत्यावश्यक शरीर निर्वाह संबंधित वस्तु का अनासक्त भाव से संग्रह के अतिरिक्त परिग्रह इन सबका त्याग कर निर्मम अर्थात लौकिक और पारलौकिक अहं वृत्ति से लेकर सभी अनात्म पदार्थ का त्याग करके शरीर से भी ममता को हटाकर ब्रह्म होने का संकल्प करता है ।
                यहां पर पहले ही कहा जा चुका कि नैष्कर्म्य सिद्धि यानी चित्तशुद्धि होकर आत्मा और परमात्मा का अनुभव कर चुका है, किन्तु अभी परिच्छिन्न भाव बना हुआ है, किन्तु इस अनुभव काल में जो अहंकार से लेकर क्रोध पर्यंत ये सभी बाधाएं भी उपस्थित हो जाती हैं । इनसे बचे तो शरीर के रहने न रहने की भी चिन्ता हो जाती है अतः शरीर के प्रति भी ममता का त्याग करना और अहंकार से लेकर क्रोध पर्यंत जो भी प्रतिक्रिया होती है वहाँ कहीं न कहीं अनात्म पदार्थ में आसक्ति के कारण होती है । अतः अनात्म पदार्थ का त्याग करके आत्मभाव में समाहित होकर अपने अपरिच्छिन्न ब्रह्मस्वरूप में स्थित होने का संकल्प करता है । मतलब जिस समय चित्तशुद्धि के पश्चात स्व-स्वरूप का सर्वात्मा ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है उसी समय अहं ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ब्रह्म हूँ ऐसी अनुभूति पूर्वक निर्विकार परमसत्ता के असि पद में प्रतिष्ठित हो जाता है । ऐसा इसका तात्पर्य है ।।५३।।

                संबंध― इस प्रकार ब्राह्मी भाव में स्थित का लक्षण बताते हैं…..
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।।१८/५४।।
               शब्दार्थ― ब्राह्मी भाव को प्राप्त हुआ योगी सदैव प्रसन्न चित्त होता है, वह न शोक करता है, न इच्छा करता है । संपूर्ण प्राणियों में सुख दुःख को समान रूप से देखने वाला मेरी परा भक्ति प्राप्त करता है ।
               तात्पर्यार्थ― शोक और इच्छा ब्राह्मी भाव को प्राप्त होने वाले में नहीं होते क्योंकि ये सभी अनात्म पदार्थ के लक्षण हैं । संपूर्ण प्राणियों में सम भाव से देखना अर्थात आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ६/३२ अपने जैसा सुख दुःख का अनुभव करना । ये सभी लक्षण यह बता रहे हैं कि ब्राह्मी भाव का अभिन्न रूप से अनुभव कर रहा है अभिन्न अभी हुआ नहीं है इसीलिए कहा कि मेरी पराभक्ति प्राप्त करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि त्वं पदार्थ का पूर्णतः अब शोधन हुआ है । जब नदी समुद्र के पास पहुंच जाती है तब समुद्र भी नहीं होती और नदी भी नहीं होती है किन्तु समुद्रत्व का अनुभव होता है और पीछे लौटना संभव नहीं होता है उसी प्रकार यह मुमुक्षु ब्रह्मभूत हुआ है अभी अहं और अस्मि की अनुभूति है अतः मेरी परा भक्ति प्राप्त करने का भाव यह है कि मुझ तत् पदार्थ से अभिन्नता रूप भाव को प्राप्त करता है ।
               त्वं पदार्थ द्रष्टा चेतन कहा जाता है और यह कभी देश काल से बाधित नहीं होता है । तत् पदार्थ अधिष्ठान चेतन है वह भी देश से कभी बाधित नहीं होता अतः दोनो की अबाधता लक्षण से आत्मा परमात्मा की एक का निश्चय ही पराभक्ति है । यही यहाँ पराभक्ति प्राप्त करने की बात कहने का उद्देश्य है ।।५४।।

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चाश्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।।१८/५५।।
               शब्दार्थ― भक्ति के द्वारा मुझे जितना हूँ और जो हूँ तत्त्वतः जानता है फिर मुझे तत्त्व से जानने के पश्चात मुझमें प्रवेश कर जाता है ।
               तात्पर्यार्थ― भक्ति का अर्थ आत्मनिष्ठा है क्योंकि आचार्य शंकर ने भी यही माना है आत्मनिष्ठा होने पर जब ब्राह्मीभाव का अनुभव होता है तब मैं जितना हूँ अर्थात जो विभूति रूप में अध्याय ७, ९, १०, १५ में बताई गई विभूतियों का जो स्वरूप और प्रभाव है और जो विभूतियाँ नहीं कही गई उनका भी प्रभाव और स्वरूप जान लेता है कि उन उन उपाधियों के रूप में क्षेत्रज्ञ एक मात्र परमात्मा ही है, अतः जहाँ कहीं भी और जो कुछ भी चैतन्य भाव दिख रहा है वह मेरे सहित ब्रह्म है और वह मैं हूँ । इसकी अनुभूति होने पर मैं जो हूँ अर्थात मेरा सगुण साकार स्वरूप आत्मरूप से जानकर मेरे निर्गुण निराकार का जो स्वरूप है वह भी जान लेता है । वह वासुदेवः सर्वम् अर्थात सब वासुदेव ही हैै और वासुदेव ही सब हैं इस रूप में अनुभव करने के पश्चात मुझमें प्रवेश कर जाता है । यहाँ ज्ञान होने के बाद प्रवेश करने का मतलब है जिस क्षण उसका तत्त्वतः ज्ञान हो जाता है उसी क्षण ब्रह्म में प्रवेश अर्थात अभिन्नता को प्राप्त हो जाता है ।
                  अध्याय ११ में ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टम् ११/५४ कहा था अर्थात महापुरुषों से मेरे स्वरूप को जानकर उसे ठीक से अनन्य आत्मनिष्ठा से समझकर फिर मुझ परमतत्त्व में प्रवेश कर जा । यहाँ पर ज्ञातुं का अर्थ करेंगे तद्विद्धि प्रणिपातेन…..। ….. तत्त्वदर्शिनः ।। ४/२४।। अर्थात भगवान ने जो बताया यावत् अर्थात जैसा हूँ द्रष्टुं का अर्थ यहां बनेगा यत् अर्थात जो अर्थात जैसा स्वरूपतः हूँ उसका अनुभव करके ब्रह्मभूयाय कल्पते १८/५३ यही है द्रष्टुं ११/५४ । इस ज्ञातुं ११/५४ और यावत् एवं द्रष्टुं ११/५४ और यत् का जो संयुक्त जो ज्ञान है वह है सर्ववित् १५/१९ अर्थात अनुभव पूर्वक सर्वरूप से सगुण और निर्गुण के स्वरूप को भलीभांति जानने वाला । भक्त्या अनन्या शक्य अहं ११/५४ यहाँ अनन्य भक्ति का अर्थ है अनन्य आत्मनिष्ठा । जिसे यहां भक्त्या माम् कहा है इस प्रकार आत्मनिष्ठा में स्थित होकर ही मुमुक्षु मेरे यथार्थ स्वरूप को अभिन्न रूप से जानेगा यही जानना ही द्रष्टुं११/५४ अर्थात देखना है । जब आत्मनिष्ठा से जान लेगा तब सर्वविद्भजति माम् १५/१९ वह मुझे किसी प्रतिमा या अप्रतिमा के रूप में नहीं बल्कि सर्व रूप में जानेगा । भगवान का एक नाम है सर्व, यही सर्व है । सर्वरूप से जानकर तत्त्वेन प्रवेष्टुम् ११/५४ और मां विशते तदनन्तरम् १८/५५  इस प्रकार मुझमें प्रवेश कर जायेगा और यही मैं पुरुषोत्तम १८/१८ हूँ । यही मद्भक्तिं लभते पराम् १८/५४ अर्थात यही भगवान की परा भक्ति है जिसे मुमुक्षु सर्ववित् होकर सर्वभाव से जानता है । यहां विचारणीय बात यह है कि द्वैतवादी तो आत्मा-परमात्मा की एकता मानते नहीं किन्तु भगवान स्वयं अपने में ऐसे ब्रह्मवेत्ता को अपने में प्रवेश करने की बात कहते हैं । विचार करो नदी समुद्र में प्रवेश करने के बाद नदी होगी या समुद्र ? अगर नदी नदी नहीं रह सकती है तो आत्मा परमात्मा में मिलकर परमात्मा से अभिन्न क्यों नहीं हो सकता है ? यही है ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति अर्थात ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही होता है क्योंकि उसके अतिरिक्त उसे स्वरूपतः कौन जान सकता है ? भेद दृष्टि रखने वालों और भगवान की वाणी गीता में छत्तीस का आंकड़ा है । बुद्धिमान को किसी भी संप्रदाय की हठधर्मिता का त्यागकर सत्यस्वरूप भगवान की वाणी को ही स्वीकार करना चाहिए ।
                   विशेष भाव― अध्याय ११ में भगवान ने कहा था पश्य मे योगमैश्वरम् ११/८ अर्थात भगवान ने माया और उसका ऐश्वर्य देखने की बात कही है । किन्तु जिसे आत्मनिष्ठा से ही जानकर, देखकर अर्थात समझ कर उसमें प्रवेश करके आत्मस्वरूप मुझ परमात्मा को आत्मरूप से ही अभिन्न रूप से जाना जा सकता है । अन्य किसी उपाय या भाव से नहीं । साथ ही यह अवश्य ध्यान देने योग्य है कि अध्याय १८ पिछले सभी अध्यायों का उपसंहार है इसलिये यहाँ कोई अलग से नई बात नहीं कही जा रही है बल्कि पूर्व मे कहे गये उपदेश का ही संक्षेप में अन्तिम लक्ष्य को बता रहे हैं । इन पांच श्लोकों को ठीक ठीक समझ लेने पर ही सर्वधर्मान्परित्यज्य १८/६६ का रहस्य समझ में आ सकेगा ।
              इस प्रकार मुमुक्षु भक्ति अर्थात आत्मनिष्ठा और तत्त्व में प्रवेश किस प्रकार करना उसका विवेचन यहाँ कर दिया । इसके आगे जो प्रसंग बताया जा रहा है उससे यहाँ सर्वकर्मसंन्यास ही विवक्षित है इसीलिये सन्न्यासेन १८/४९ अर्थात ज्ञानयोगेन की बात कहा था ।।५५।।

                संबंध― श्लोक ५० में ज्ञानी के ब्रह्म प्राप्ति विषयक साधन बताने की प्रतिज्ञा यहाँ पूरी होने के बाद ब्रह्म को सर्वभाव से जानने वाले की स्तुति….
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।।१८/५६।।
               शब्दार्थ― सभी कर्मों को मेरा आश्रय लेकर निरंतर करता हुआ मेरी कृपा से अव्यय शाश्वत पद को प्राप्त करता है ।
               तात्पर्यार्थ― भगावन की कृपा क्या है अहं अचिरात् तेषां समुद्धर्ता १२/७ अर्थात जो सविशेष ब्रह्म का आश्रय लेकर सभी कर्म करता है उसके लिए अविलंब उद्धारकर्ता बन जाते हैं । उद्धार नहीं करते हैं बल्कि उद्धारकर्ता बन जाते हैं । कैसे ? इसका उत्तर पाने के लिए कहे गए श्लोक की व्याख्या उसी स्थान पर देखना चाहिए । यहाँ पद आया है सर्वकर्माण्यपि अर्थात कर्म करने में अपि है और ज्ञान का विषय जब आता है तब कोई उपाधि नहीं और भक्ति का प्रसंग आता है तब उपाधि ? अर्जुन ने अध्याय १२ में ज्ञानी और भक्त में जब यह पूछा कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? तब भक्त के साथ उपाधि दे दी युक्ततमा । ठीक है लेकिन अगर भक्त ही श्रेष्ठ है तो फिर आगे ज्ञानी के स्वाभाविक लक्षणों की भलीभाँति उपासना करने को क्यों कहते हो १२/२० ? और यहाँ भी जब ज्ञानयोग की बात आयी तब नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति १८/४९ यहां सीधे ज्ञानयोग के द्वारा नैष्कर्म्य सिद्धि कह दिया और भक्ति प्रकरण आरंभ करते ही अपि उपाधि अर्थात विशेषता दे दी । इसका मतबल क्या हुआ ? मतलब जैसे किसी निम्न जाति वाले को कहा कि वह वह ब्राह्मण ही है, मतलब ब्राह्मण पहले श्रेष्ठ है तभी उसकी लक्षणों को लेकर तुलना यानी प्रशंसा की जा रही है । इसी प्रकार यहाँ पर ईश्वर यानी सविशेष ब्रह्म की शरणागति की स्तुति की जा रही है ।
              यहाँ शंका हो सकती है कि नैष्कर्म्य सिद्धि को सन्न्यासेन प्राप्तव्य कहा है इस का अर्थ यह हुआ कि मोक्ष प्राप्ति में सर्वकर्मसंन्यास ही आवश्यक है तो हम कर्म क्यों करें ? इस पर कहते हैं― सभी कर्म करने वाला भी― इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी कुछ भी करे, इसका मतलब यह है कि जिसके लिए जो विहित कर्म है जो सहज स्वाभाविक स्वधर्म यानी कर्तव्यत्वेन प्राप्त है वह कैसा भी घोर या अघोर कर्म क्यों न हो मेरा आश्रय लेकर अर्थात मुझ सविशेष ब्रह्म का आश्रय लेकर जो निरंतर बिना विक्षेप के कर्म करता है वह मेरी कृपा से शाश्वत पद यानी मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । ददामि बुद्धियोगं तम् १०/१०, …….ज्ञानदीपेन भास्वता १०/११ तेषामहं समुद्धर्ता १२/७, तद्विद्धि प्रणिपातेन ४/३४ इत्यादि का कृपा विवरण दिया जा चुका है ।।५६।।

              संबंध― शाश्वत पद की प्राप्ति का सरल साधन बताते हैं….
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।।१८/५७।।
              शब्दार्थ― चित्त के द्वारा सभी कर्मों को मुझ परात्पर ब्रह्म में अर्पित करके निरंतर बुद्धियोग के द्वारा उपासना करके मुझमें चित्तवाला हो ।
              तात्पर्यार्थ― चेतसा से दो अर्थ एक साथ बनेंगे पहला चित्त से अन्तःकरण चतुष्टय के अन्तर्गत मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार चारों को समझना, मन से संसार की स्थिति का मनन करके, बुद्धि से निश्चय करके चित्त से कर्मों के प्रभाव एवं कृत का अहंकार इन सबके द्वारा होने वाले सभी कर्म मुझमें अर्पण कर दे । अर्थात दृष्ट यानी जो अभी कर्म भोग रूप में उपस्थित हैं और जो अदृष्ट यानी अभी भोग में उपस्थित नहीं हैं वे सभी कर्म जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण रूप वासना में छिपे हैं उन सबको मुझमें अर्पण कर दे । दूसरे अर्थ में सावधानी पूर्वक अशेष कर्म मुझ परात्पर में अर्पित कर दे । पूर्व श्लोक में कहा था मेरा आश्रय लेकर और अब कहते मत्परः इसमें मत् शब्द आत्म प्रत्यय है और परः शब्द जिससे पर यानी उत्कृष्ट या बढ कर और कोई नहीं है पुरुषः परः १३/२२, पुरुषोत्तम १५/१८, यतः प्रवृत्तिर्भूतानाम् १८/४६ । येन सर्वमिदं ततम् २/१७, ८/२२, १८/४६ यही अर्थ यहाँ उचित है क्योंकि आगे कहते बुद्धियोगमुपाश्रित्य यहाँ पर कोई विद्वान बुद्धि के द्वारा समता रूप उपासना, तो कोई ज्ञानयोग के द्वारा अर्थ करते हैं यहाँ दोनो ही उचित प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि बिना समता भाव के ज्ञानयोग की सिद्धि नहीं होती जो ज्ञानयोग का पहला सूत्र है और बिना ज्ञानयोग अर्थात आत्मा अनात्मा का विवेक किये आत्मभाव में स्थित हो नहीं सकते और बिना आत्मभाव के समत्त्व हो नहीं सकता इसलिये यहाँ बुद्धि का अर्थ दोनो ही ठीक है, क्योंकि  समत्वं योग उच्यते २/४८, समत्व को योग कहते हैं । दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय । बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणः फलहेतवः ।।२/४९ अर्थात जिन कर्मों में समत्व भाव न हो उन कर्मों को देर से त्याग देना चाहिए और ज्ञानयोग का अन्वेषण करना चाहिए क्योंकि फल का निमित्त अर्थात फल की कामना दीन-हीन बना देती है  । ज्ञान के द्वारा सभी शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं ४/१९, ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा  ४/३७ इसलिए योग अर्थात समता की उपासना करो क्योंकि कर्मों की कुशलता तो समता में ही है २/५० इस भगवान के कथन से बद्धियोग की उपासना करते हुए मुझ आत्मप्रत्यय अर्थात प्रत्यगात्मा में चित्त वाला हो । अर्थात मुझ चित्तवाला या मुझसे अभिन्नभाव वाला हो । ऐसा तात्पर्य है ।।५७।।

                 संबंध― आधे श्लोक से पूर्वोक्त प्रकार से समर्पण का फल बताते हुए आधे श्लोक से अनुशासन करना…..
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।।१८/५८।।
                  शब्दार्थ― मुझसे अभिन्न चित्तवाला होने से मेरी कृपा से सभी दुर्गुणों को पार कर जायेगा । अब भी यदि अहंकार के कारण तू जानबूझकर नहीं सुनेगा, सावधान नहीं होगा तो नष्ट हो जायेगा ।
                  तात्पर्यार्थ― सर्वदुर्गाणि का मतलब अर्जुन प्रथम अध्याय में जिस पाप के भय से नाना प्रकार के तर्क देकर जिन पापों के कारण युद्ध से पीछे हटना चाहता था और वहाँ जो पाण्डित्य दिखाया था वही यहां उत्तर दे रहे हैं कि मुझमें चित्त रखकर जो भी घोर अघोर शास्त्र विहित कर्म करेगा उन सबके पुण्य-पाप रूप फल और उन फलों का फल जन्म-मृत्यु रूप जैसे सभी दुर्गुणों से मुक्त हो जायेगा और यदि अधिक पाण्डित्य दिखाकर मेरी बात नहीं मानी तो नष्ट हो जायेगा अर्थात मेरी बात मानेगा नहीं और बाद में राग द्वेष से प्रेरित होकर क्षत्रिय स्वभाव के कारण युद्ध करेगा ही तो चौरासी के चक्र में पड़ेगा यही नष्ट होना है । यह तात्पर्य है ।।५८।।

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।।१८/५९।।
               शब्दार्थ― जो अहंकार वश युद्ध नहीं करूँगा ऐसा मानता है तो यह तेरा निश्चय झूठा है । प्रकृति तेरा नियंत्रण करेगी ।
              तात्पर्यार्थ― व्यक्ति में ज्ञान का अहंकार सबसे घातक होता है । यह अहंकार जल्दी नष्ट नहीं होता । अर्जुन के प्रथम अध्याय के पाण्डित्य का स्मरण दिलाते हैं कि तू कहता है मैं युद्ध नहीं करूंगा तो ये तेरा झूठा अहंकार है क्योंकि प्रकृति यानी जो तेरा स्वभाव है वह युद्ध में लगा देगी । 
                 अर्जुन को मानो भगवान कह रहे हैं कि तूने कहा था कि शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् २/७ पहली बात तूने मेरी शिष्यता स्वीकार की है, इसलिये मेरी बात मानना चाहिए क्योंकि गुरु की बात शिष्य अपने ज्ञान के अहंकार के कारण न माने तो उसका नाश निश्चित है इसलिये तेरा मैं युद्ध नहीं करूंगा ये मिथ्या कथन है, फिर भी यदि युद्ध नहीं करेगा तो तेरा नाश हो जायेगा । दूसरी बात तूने मेरी शरण किस बात के लिए ग्रहण किया जो मेरी बात नहीं सुनेगा या नहीं मानेगा ? शरणागत शरणदाता के सदैव आधीन रहता है, इसलिए भी बात न मानना तेरे विनाश का कारण होगा क्योंकि तूने यह भी कहा है कि मेरा अनुशासन करो, तो ये मेरा अधिकार है कि तुम पर अनुशासन करूँ, किन्तु मुझे ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, जब ये तेरे अपने लोग तेरी निंदा के पुल बांध देंगे तब तू जो तेरी प्रकृति है उसके द्वारा तू स्वयं ही युद्ध करने लगेगा क्योंकि सामर्थ्य रहते निंदा नहीं सुन सकता है २/३६ इस प्रकार अब अनुशासन करना ही यहां का उद्देश्य है । ऐसा समझना चाहिए ।।५९।।

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ।।१८/६०।।
                शब्दार्थ― हे कौन्तेय ! तू अपने स्वभाव से ही अपने कर्म में बंधा है । जिस युद्ध रूप कर्म को मोह के कारण नहीं करना चाहता है, वह कर्म भी परवश होकर करेगा ।
                  तात्पर्यार्थ― जो सहज स्वाभाविक है बिना राग द्वेष के वही स्वाभाविक कर्म हैं, ऐसे स्वाभाविक कर्तव्यपूर्ण कर्म प्राप्त होने पर विचलित नहीं होना चाहिए स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि २/३१ क्योंकि श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः ३/३५,१८/४७ यहाँ एक शंका होती है कि वर्ण व्यवस्था के अनुसार धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते २/३१ अर्जुन को क्षत्रिय धर्म भगवान सिखा रहे हैं किन्तु द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य तो ब्राह्मण थे और उनका स्वधर्म भी युद्ध नहीं था तो भी उन्होंने अपना श्रेष्ठ और सौम्य ब्राह्मण धर्म त्याग कर उससे कनिष्ठ और घोर क्षत्रिय धर्म का पालन किया तो क्या वे शास्त्र विरुद्ध थे ? क्या उन्हें नरकादि का भय नहीं हुआ ? इसका उत्तर भगवान इस प्रकार देते हैं कि उन ब्राह्मणों ने जो भी निर्णय लिया वह विवेक पूर्वक निश्चय करके लिया, अतः न उनमें विचलित होने का भय था और न ही क्षत्रिय धर्म स्वीकार करने पर उन्हें कोई भय हुआ क्योंकि पूर्व कर्मों के फलस्वरूप ब्राह्मण आदि होने पर भी उस उस वर्ण के वर्तमान में भी गुण होने ही चाहिए जैसा कि श्लोक १८/४२-४४ तक कहा है जो भी उन उन गुणों से युक्त है वह वही है । अतः वे निश्चयात्मक बुद्धि से क्षत्रिय थे इसलिए उन पर जन्मज प्रकृति नहीं बल्कि कर्मज प्रकृति नियंत्रित करके युद्ध में ले आयी और पूरी निष्ठा से उसका पालन भी निर्भय होकर किया, किन्तु अर्जुन में जो भिक्षा आदि के ब्राह्मण धर्म के अनुसार की वृत्ति थी वह विवेक से नहीं मोह से अर्थात अज्ञान के कारण थी । यदि विवेक से होती तो वह युद्ध में आता ही नहीं । जीवन का एक बड़ा भाग परिस्थिति वश ब्राह्मण रूप में ही बिताया, उसी समय ऋषि वृत्ति से जीवन निर्वाह का निश्चय कर लेना चाहिए था, किन्तु नहीं किया । युद्ध में आ गया और स्वजनों की मृत्यु का भय उपस्थित हो गया इसी भय के कारण युद्ध से उपराम होना चाहता था, किन्तु दुर्योधन और कर्ण की कटुता भरे वाक्य वह सहन नहीं कर पाता अपने क्षत्रिय स्वभाव के कारण इसलिये उसी मोह को बताने के लिए भगवान कहते हैं यन्मोहात् अर्थात अज्ञान पूर्ण निर्णय कभी टिकता नहीं है इसीलिए भगवान ने कहा मिथ्यैष १८/५९ और अहंकार से परिपूर्ण और झूठी हठ होने कारण ही उसकी क्षत्रिय प्रकृति उसे युद्ध के लिए परवश कर ही देगी । अतः उसी स्वभावज क्षत्रिय धर्म का पालन करना चाहिए । ऐसा इसका तात्पर्य है ।
       भावार्थ― भगवान ने उसकी सभी कमजोरियां खोल कर रख दी और मित्र की भांति समझा रहे हैं सखा चेति ४/३ भगवान ने अर्जुन को सखा कहा था, अतः उसी प्रकार जैसे मित्र मित्र की कमजोरियां बताकर बलवान शत्रु से बचने के उपाय बताकर उसकी रक्षा करता है, वैसे ही अर्जुन की कमजोरियों से अवगत कराकर उसके वास्तविक लक्ष्य युद्ध की ओर आकर्षित करके उसके लक्ष्य की रक्षा कर रहे हैं । शिक्षार्थ में यह है कि कोई भी निर्णय राग द्वेष रहित होकर ही कर्म करने से चित्त शुद्धि होती है । अतः इसी का त्याग और मुमुक्षु को लेश मात्र भी मोह की पहचान करके शास्त्र विहित अनासक्त होकर कर्म करना ही चाहिए ।।१८/६०।।

                संबंध― उपरोक्त में कहा गया कि स्वभाव से विवश होकर जीव कर्म करता ही है, वह क्यों परवश होकर करता है यह बताते हैं…..
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ।।१८/६१।।
               शब्दार्थ― हे अर्जुन ! ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय देश में रहता है । शरीर रूप यन्त्र पर चढकर संपूर्ण प्राणियों को भ्रमण कराता है ।
             तात्पर्यार्थ― पहले हृदि सर्वस्व विष्ठितम् १३/१७, हृदि सन्निविष्टः १५/१५ कहा था अब यहाँ भी वही कहते हैं । पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् १३/२१ वहाँ पुरुष को प्रकृति में बैठा बताया और यहां माया यानी अज्ञान के आश्रित । वहां प्रकृतिस्थ होने के कारण सदसद्योनि जन्मसु बताया और यहाँ भ्रमण करना बताया । सत् असत योनि में जन्म लेना ही भ्रमण करना है । इस प्रकार अध्याय १३/२१ की यहाँ पर पुष्टि करते हैं । वह परमेश्वर सबके हृदय में यानी बुद्धि में बैठकर माया यानी अज्ञान के द्वारा सभी प्रणियों को भ्रमित कर रहा है, क्योंकि उस आत्मा का पहला प्रकाश बुद्धि पर पड़ता है उसी प्रकाश से प्रकाशित होकर बुद्धि जैसा निश्चय करती है वैसी ही उसकी क्रिया होती है उस क्रिया के अनुसार ही उसकी ऊपर-नीचे, मध्य, इधर-उधरगति होती है । यही गति भ्रमण है जो अज्ञान द्वारा संचालित होती है । यही मायोपाधिक ईश्वर सबका शासक है, उपद्रष्टानुमन्ता च….. १३/२२ ।
             विद्युत बल्व, पंखा, हीटर, फ्रिज, टीवी, रेडियो आदि में एक ही विद्यमान है है तथापि यंत्र भेद से उसके भिन्न भिन्न कार्य हो रहे हैं, किन्तु यन्त्र वैसा ही कार्य करता है जैसा निर्माता ने निर्माण किया है । इसी प्रकार शरीर रूप यंत्र में बुद्धि रूप स्वभाव निर्माता जैसा निश्चय करता है वैसे ही नाना प्रकार की योनियों में भ्रमण रूप कार्य हो रहा है । किन्तु आत्म प्रकाश से प्रकाश मात्र मिल रहा है वह वस्तुतः कुछ करता नहीं । मत्तः सर्वं प्रवर्तते १०/८ यतः प्रवृत्तिर्भूतानाम् १८/४६ मात्र अध्यारोप है, अपवाद तो यह है मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचम् ९/१० मात्र अत्मप्रकाश की संन्निधि मात्र से सभी प्राणी अपने अपने कर्मकृत फलभोग को लेकर स्वभाव की आधीन होकर भ्रमण कर रहे । ईश्वर तो मात्र बुद्धि को प्रकाश दे रहा है ।
               भावार्थ― इसका मतलब यह हुआ कि हमें कभी भी बुद्धि का दुरुपयोग नही करना चाहिए, और ईश्वर की प्राप्ति का एक मात्र साधन बुद्धि है । बुद्धि से आत्मा और अनात्मा का विश्लेषण करके अनात्म पदार्थ का त्याग करके आत्मभाव का निश्चय करना ही ज्ञान है और उस ज्ञान के द्वारा आत्मभाव में स्थित होना बुद्धियोग है १८/५७  है । यही इसका भाव है ।।६१।।

             संबंध― उसी उपरोक्त कहे गए सर्वात्मा ईश्वर की शरण लेना चाहिए….
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ।।१८/६२।।
              शब्दार्थ― हे भारत सब प्रकार से उसी परमेश्वर की शरण में जा । उसकी प्रसन्नता से परम शान्ति नामक शाश्वत पद को प्राप्त करेगा ।
                तात्पर्यार्थ― भगवान ने पहले कहा कि जो आत्मनिष्ठा से मुझे जानता है वह मुझमें प्रवेश कर जाता है १८/५५, फिर कहा मेरी कृपा से शाश्वत पद को प्राप्त करेगा १८/५६, मेरी कृपा से सभी दुर्गुणों को पार कर जायेगा१८/५८ किन्तु मानो अर्जुन ने कान में तेल डाल लिया हो । कोई उत्तर नहीं मिला और धमकी भी दी कि मेरी बात न मानना हितकारक नहीं होगी लेकिन पता नहीं ये बातें अर्जुन ने सुना भी या नहीं, तब भगवान ने सबके हृदय में स्थित ईश्वर की बात कहकर तमेव शरणं गच्छ कहते हैं, तू उसकी शरण में चला जा । तो क्या कृष्ण ने उस सर्वेश्वर की शरण में जाने की बात कहकर यह सिद्ध कर दिया कि वह ईश्वर और है, मैं और ? भगवान ने सदैव अहं, माम्, मयि शब्दों का प्रयोग किया है । और यहाँ तम् कहते हैं इसका अर्थ यह हुआ कि माम्, मयि और तम् ये सभी अहं अर्थात मैं के अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं । यहां अहं, माम्, मयि त्वम् पदार्थ का लक्ष्य शुद्ध द्रष्टा चैतन्य आत्मा है और तम् तत् पदार्थ का लक्ष्य अधिष्ठान लक्षित परमात्मा है और इस प्रकार आत्मा और परमात्मा दोनो में यहां अभेद दर्शन कराया गया है ।
                  शंका हो सकती है कि अभेद दर्शन कैसे कराया गया है ? तो समाधान करते हैं सर्वभावेन, पूर्व श्लोक में ईश्वर को हृदय देश में स्थित बाताया गया है । हृदय का अर्थ भाव पक्ष भी होता है । मतलब उसमें भाव कैसा हो ? इसके लिए कहते सभी प्रकार के जो भी भाव परमेश्वर के निमित्त हो सकते हैं उन सभी भावों के सहित । सर्वभावेन का भाव समझने के लिए अध्याय १५/१९ देखना चाहिए, वही भाव यहां समझना चाहिए । शालिग्राम में, मिट्टी की प्रतिमा में कागज के चित्र में, ध्यान में, चैतन्य प्राणियों में, जड़ प्राणियों में और स्वयं में भगवान ही भगवान हैं, कुछ भी भगवान से भिन्न कुछ भी नहीं है यह सर्वभाव है । इसमें भी पहले अपने में भगवान दिखेगा तब तो शालिग्राम में भगवान होने का ज्ञान होगा । अतः पहले अपने को भगवान से अभिन्न देखता है भगवान की शरण में चला जाना है । विचार करने की बात है जब मैं अर्थात मैं का अर्थ आत्मा मैं ही हूँ तो भगवान की शरण में जाने की आवश्यकता क्या है ? भगवान मानो यह कह रहें कि मुझे भगवान नहीं तो खुद को भगवान मानकर सर्वात्मा का अनुभव कर । इस प्रकार उसकी शरण जाने पर उसकी प्रसन्नता से अर्थात आत्मा की सीमित अहंता को त्यागकर व्यापक अहंता की शरण ले यानी स्वयं को व्यापक देख, तब उस आत्मा की प्रसन्नता से परम शान्ति को यानी अनात्म पदार्थ के कार्य और उनके गुणों से उपरामता मिल जायेगी और तू शाश्वत आत्म पद प्राप्त कर लेगा अर्थात जन्म मरण को पार करके नित्य स्वप्रकाश परम सत्ता जिसे मात्र असि कहा जाता है उस असि पद को प्राप्त कर लेगा । यह तात्पर्य है ।।६२।।              

                संबंध—  विचारों को व्यक्त करके भी करने वाले की स्वतंत्रता का प्रतिपादन—
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥६३॥
                शब्दार्थ— इस प्रकार मेरे द्वारा तेरे लिए गोपनीय से भी अधिक गोपनीय ज्ञान कहा गया है । इस पर अशेष रूप से विचार करके फिर जैसा उचित हो वैसा करो ।
                व्याख्या— “न त्वेवाहं जातु नाशं २/१२ से लेकर स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्” १८/६२ तक जो आत्मैक्य एवं कर्तव्य का बोध कराने वाला सूक्ष्म ज्ञान कहा गया है । यह भूत विद्या, देव विद्या, अष्ट सिद्धियों की भी गोपनीयता से ब्रह्मविद्या/मोक्ष विद्या होने के कारण अधिक गोपनीय है । कर्तव्य यज्ञ की सूक्ष्मता से विवेचना करके फिर ब्रह्मविद्या के अधिकार पर चतुर्दिक् विचार करके फिर जैसा उचित हो वैसा करो ॥६३॥

                संबंध― अब पुनः गुह्यतर से भी अधिक सभी गोपनीय के गोपनीय का भी गोपनीय वचन कहते हैं…..
सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ।।१८/६४।।
              शब्दार्थ― सभी गोपनीयों में भी जो सर्वाधिक गोपनीय है पुनः मेरे उन श्रेष्ठ वचनों को सुनो । तुम मेरे अत्यंत प्रिय हो इसलिये तुम्हारे कल्याण के लिए कहता हूँ ।
              तात्पर्यार्थ― कर्मयोग के विषय में कहा था कि इसमें तो बड़े बड़े विद्वान मोहित हो जाते हैं ४/१६ इसीलिये कर्म बड़ा रहस्यमय है । बिना कर्म के ज्ञान मात्र से मुक्ति हो जाये यह उससे भी बढकर रहस्य है किन्तु इन सबका फल जिस साधन से प्राप्त हो वह उससे भी अधिक रहस्यमय है, इसलिये अब अपना इति १८/६३ से उपदेश समाप्त करके जिस सरल साधन से मुझ साक्षात् आत्मस्वरूप को प्राप्त किया जा सकता है उसको सुनने की आज्ञा देते हैं । शंका होती है कि अर्जुन सुन तो रहा है ही, फिर सुनो ऐसा क्यों कहते हैं ? इस पर कहते हैं दृढं इष्टः असि इति अर्थात ते मेरे लिए अत्यंत इष्ट है इसलिये मैं बिना अपने किसी स्वार्थ से संबंध रखे ते हितम् केवल तुम्हारे हित की बात कहता हूँ इस बात को बहुत ही सावधानी पूर्वक मन स्थिर करके सुनो । अर्थात सावधान करते हैं । अत्यंत इष्ट क्यों कहा ? इस पर कहते हैं कि तूने मुझसे कहा था यच्छ्रेयः स्यान्निश्चतं ब्रूहि तन्मे एवं शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् २/७ अर्थात आपने श्रेय का निश्चित मार्ग पूछा था अतः वह अन्तिम बात बताना ही है यह एक बात, दूसरी बात ये तुमने मेरी शिष्यता स्वीकार की है, तीसरी बात अपने अनुशासन अर्थात शिक्षा के लिए भी कहा, चौथी बात तू मेरी शरण में आया है, भक्तोऽसि मे सखा चेति ४/३ अर्थात पांचवीं बात तू मेरा भक्त है, छठी बात तू मेरा सखा है और भी संबंध हैं, इन सभी कारणों से तू मेरा अत्यंत प्रिय है इसलिये तुम्हारा जिसमें हित है वही अब अगले दो श्लोकों में कहूँगा तुम ध्यान से सुनो ।।६४।।।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।१८/६५।।
                  शब्दार्थ― मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त हो, मेरी पूजा कर, मुझे नमस्कार कर । तू मेरा प्रिय है तेरे प्रति सत्य कहता हूँ तू मुझको ही प्राप्त होगा ।
                  तात्पर्यार्थ― यह श्लोक अध्याय नौ में भी थोड़े अन्तर से आया है लक्ष्य में वह ज्ञानयोग में है और यह श्लोक पूरी गीता की समीक्षा में है । 
                 यहां पर संपूर्ण गीता में भगवान ने उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ और निकृष्ट ये चार साधकों की दृष्टि से चार साधन भगवत्प्राप्ति के बताए हैं जो अध्याय १२ मे इस प्रकार हैं― मय्येव मन आधत्स्व १२/८ यह पद यहाँ के मन्मना भव के साथ ज्ञानयोग उत्तम अधिकारी के लिए पहला साधन है । अभ्यासयोगेन १२/९ यह इसके साथ यहां का मद्भक्तो भक्तियोग सविशेष ब्रह्म के माध्यम से निर्विशेष ब्रह्म की प्राप्ति का अभ्यास दूसरा साधन । मदर्थमपि कर्माणि १२/१० इसके साथ यहां का मद्याजी कर्मयोग के माध्यम से उपासना करना तीसरा साधन । सर्वकर्मफलत्यागम् १२/११ इसके साथ यहां का मां नमस्कुरु से सीमित अहंता का समर्पण ये चौथा साधन है । 
                यहां पर मन्मना भव से स्वयं को परमेश्वर से अभिन्न अनुभव करना यह पहला और उत्तम साधन है और भगवान ने यहाँ पर कहा है प्रियोऽसि मे । इससे पहले चार प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हुए कहा था तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त ७/१७ अर्थात ज्ञानी मुझसे नित्ययुक्त अर्थात अभिन्न है । इसी अभिन्नता के कारण प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् ७/१७ अर्थात ज्ञानी थोड़ा नहीं अति प्रिय है । कारण पूछने पर कहते हैं ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ७/१८ ज्ञानी मेरा आत्मा ही है ऐसा मेरा मत है । पहले अति प्रिय और फिर एव लगाकर निश्चय पूर्वक अपने से ज्ञानी की अभिन्नता का प्रमाण पत्र दे दिया । इस प्रकार यहाँ यद्यपि उद्देश्य ज्ञानयोग द्वारा अभिन्नता का प्रतिपादन करना है तथापि जो इतना उत्तम अधिकारी नहीं वह ज्ञान प्राप्ति के साधन भक्ति का आश्रय ले, भक्ति करे । उसके लिए ज्ञानयोग का लक्ष्य रखकर विभिन्न प्रकार के योग, उपासना आदि का इन्द्रिय दमन पूर्वक मन को समाहित करके साधन चतुष्टय के आश्रित होकर अभ्यास करे । यदि यह अभ्यास भी कठिन लगता हो अर्थात इस भक्ति का भी अधिकारी नहीं है तो भगवान के निमित्त ब्रह्मार्पणं ब्रह्म ४/२४इत्यादि यज्ञ आदि जीव मात्र को बिना कष्ट दिये ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करे जिससे चित्त शुद्धि होकर क्रमशः भक्ति और ज्ञान का संपादन कर लेगा । यदि यह भी असंभव लगता हो तो अपनी सीमित अहंता का मुझ व्यापक अहंता में त्याग कर दे । इसी के लिए कहा था त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् १२/१२ इस प्रकार चार अलग अलग साधन में से कोई भी एक का अनुष्ठान कर लेने वाला मुझे प्रिय है यह मैं सत्य कहता हूँ । यदि पहला साधन करता है तो उसकी प्रियता तो कहना ही क्या है, क्योंकि आत्मा के विषय में क्या कहना किन्तु अन्य तीन में से भी किसी भी एक साधन वाला भी क्रमशः ज्ञान प्राप्त कर लेगा ही इसलिये वे सभी मुझे प्रिय हैं ।
               यह अर्थ श्लोक के अन्वय क्रम से कहा गया व्यतिरेक से अर्थ यह होगा कि कहना तो इसमें भी ज्ञान को ही श्रेष्ठ है तथापि मुमुक्षु में पहले विनम्रता होनी चाहिये । कटुता का त्याग करके प्राणिमात्र से विनम्र व्यवहार सब में ईश्वर एक ही है ऐसा समझ कर करे, क्योंकि बिना विनम्रता के वह अहंकार पूर्ण यज्ञ आदि अपने कर्तव्य कर्म करेगा भी तो वह राजसी तामसी होगा तो वह भक्ति ज्ञान कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेगा । अतः पहले विनम्र होने के लिए नमस्कार की बात कहा है । अहंकार रहित कर्तव्य कर्म जो स्थान भेद से स्वाभाविक प्राप्त हैं उन्हें करने से हृदय में ईश्वर के प्रति श्रद्धा और भक्ति का उदय होगा जिससे वह संत चरणों में जाकर परिप्रश्नेन सेवया ४/३४ सेवा और जिज्ञासा के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके मुझे अर्थात मुझ प्रत्यगात्मा को स्वसंवेद्य आत्मरूप से जानकर मुझे अर्थात आत्मरूपता को प्राप्त हो जायेगा ये रहस्यों का रहस्य मैने तुमसे सत्य प्रतिज्ञा पूर्वक कहा है क्योंकि तुम मेरे अत्यंत प्रिय अधिकारी शिष्य हो । 
          और आगे बढ़ते हैं तो अर्जुन को त्रिगुणातीत होने के चार साधन कहे थे उनके साथ अन्वय करने से निर्द्वन्द्वो २/४५ पहला साधन है । निर्द्वन्द्व तब होंगे जब सीमित अहंता को संसार से खींचकर करर व्यापक अहंता से जोड़ देंगे इसके लिए कहा मां नमस्कुरु दूसरा साधन है― नित्यसत्त्वस्थो २/४५ हम निरंतर सात्विक कर्मानुष्ठान यज्ञादि करें । इस प्रकार फलाकांक्षा से रहित सात्विक कर्म होने पर ही निरपेक्ष यानी अपेक्षा न होने से ही निर्द्वन्द्व २/४५ हुआ जा सकता है, यह तीसरा साधन है । सात्विक कर्म वही होता है जो ईश्वरार्पित हों इदं न मम यह मेरे लिए नहीं ईश्वर के लिए ही हैं, यही  सात्विक भाव की निरंतरता है इसके लिए कहा मद्याजी । इस प्रकार जब निरहंकार होकर सात्विक कर्म में प्रवृत्ति होने पर जैसे जैसे चित्तशुद्धि होगी वैसे वैसे कर्मों से ऊपर उठकर श्रद्धा और भक्ति से उपासना में लग जायेंगे इसके लिए कहा मद्भक्तो इन सबका फल होगा आत्मवान् २/४५ स्वसंवेद्य आत्मा में स्थिति यही है आत्मन्येवात्मना तुष्टः २/५५ बस सबका सारांश इतना ही कहना है कि स्वयं से स्वयं में संतुष्ट होकर स्वयं से स्वयं में स्थित हो जा यही ब्राह्मी स्थिति है एषा ब्राह्मी स्थितिः २/७२ यह तब संभव होना जब मन्मना होगा अर्थात स्वयं को मेरे से अभिन्न जानेगा  । इस प्रकार यह श्लोक श्रीकृष्ण के उपदेश का अध्याय दो से लेकर अध्याय बारह तक का प्रतिनिधित्व करता है । इसलिए प्रत्येक विषय नहीं दिया जा सकता है । जिसे प्रत्येक जिज्ञासु को स्वयं ही समझना होगा । यही इसका तात्पर्य है ।।६५।।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।१८/६६।।
                शब्दार्थ― सभी धर्मों को त्यागकर एक मात्र मेरी शरण में  चला जा । मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर ।
                 तात्पर्यार्थ― प्रथम पक्ष― सभी धर्मों का त्याग क्या है ? इस पर परस्पर विचार सबके अपने अपने हैं । यहाँ पर मेरे विचार से सर्वधर्म से कर्तव्य अकर्तव्य के परिणाम स्वरूप उसका फल या आसक्ति ही योगरूढ़ मुमुक्षु के लिए त्याज्य है । अन्यथा अनर्थ सिद्ध हो सकता है, क्योंकि अर्जुन भी कह सकता है कि जब सभी धर्मों का त्याग करके एकमात्र आपकी शरण ही ग्रहण करनी है तो फिर युद्ध जैसे घोर कर्म में क्यों लगूं ? किन्तु अर्जुन आगे कहता है करिष्ये वचनं तव १८/७३  इसका अर्थ यह हुआ कि जो हमारे कर्तव्यत्वेन कर्म हैं जो जिस क्षेत्र में स्थित है वह चाहे गृहस्थ धर्म हो या आश्रम धर्म । यदि नहीं करेगा तो भगवान कहते हैं कि न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि १८/५८ इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि भगवान कहते हैं जो मेरी बात नहीं मानेगा वह नष्ट हो जायेगा । अतः स्वधर्म का पालन आजीवन अर्थात जीवन के प्रवृत्तिकाल तक करते हुए उसी से परमेश्वर की पूजा करना चाहिए । उन कर्मफलों से प्राप्त उत्थान-पतन रूप धर्म का त्याग करके समभाव में स्थित होना ही सर्वधर्मान्परित्यज्य है । त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् १२/१२ अर्थात त्याग ही शान्ति का मुख्य द्वार है । अतः सर्वकर्मफलत्यागः १२/११ ही यहां सर्वधर्म से अभीष्ट है और उसी का त्याग करना चाहिए । भगवान ने अध्याय १२/५ में कहा था कि अव्यक्त की उपासना देहाभिमान के रहते कभी उसे प्राप्त नहीं किया सकता है और उसी अव्यक्त की प्राप्ति का सरल साधन सर्वकर्मफलत्याग बताया था । उसी सर्वकर्म फलत्याग को ही यहाँ सर्वधर्मान्परित्यज्य बताया है । सभी धर्मों का परित्याग क्या है ? अध्याय १३ से लेकर अध्याय १४ तक जितना भी यह करके जाना जा रहा है वह सब कुछ अनात्म पदार्थ है उस अनात्म पदार्थ का त्याग कर देना ही सर्वधर्म त्याग है और प्रत्यक्चैतन्य एकमेवाद्वितीय परम पुरुष भाव में निरंतर स्थित होना ही मामेकं शरणं ब्रज है । सारांश यह अनात्म पदार्थ का त्याग ही सर्वधर्म परित्याग ही यहाँ श्रेष्ठ त्याग है । अनात्म पदार्थ का त्याग करने का अर्थ यह तो नहीं कि शरीर अनात्मा है इसका त्याग करना ही चाहिए, ऐसा कहकर कोई आत्महत्या ही कर ले और कहे मैं अनात्मा का त्याग कर रहा हूँ, यह भगवान की आज्ञा है । 
                शरीर एवं इन्द्रियों तथा अन्तःकरण चतुष्टय सहित कारण शरीर भी अनात्मा ही है इसका भी त्याग कर देना चाहिए । यदि सभी धर्म के त्याग का अर्थ अपना कर्तव्य त्याग ही यहां का लक्ष्य हो तो ? अतः किसी भी विचार के लिए भगवान ने बुद्धि दी है और कहा है हृदि सर्वस्य विष्ठितम् १३/१७, हृदि सन्निविष्टः १५/३, हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति १८/ ६१ अर्थात मैं स्वयं तेरी बुद्धि में बैठा बताऊंगा तो मैं तू तो सिर्फ विचार कर विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु १८/६३ ठीक ठीक से विचार कर लो और विचार करके जो अन्तिम शास्त्र संमत निर्णय निकले वही कार्य ईश्वरार्पित भाव से करो अन्य नहीं । प्रत्येक मनुष्य जब गलत कार्य करता है तब उसकी अन्तरात्मा उसको रोकती है यह वह भी जानता है तथापि राग द्वेष से प्रेरित होकर उस आवाज को नहीं सुनता और अनिष्ट कर्म कर बैठता है जिससे परिणाम घातक सिद्ध होता है । ऐसे राग द्वेष प्रेरित सभी धर्मों का त्याग करके जो अध्याय १४ में बंधन के हेतु तीनों गुण हैं उनका त्याग करना चाहिए यही सर्वधर्मान्परित्यज्य है । अध्याय १६ का सात्विक स्वभाव, अध्याय १७  की सात्विक श्रद्धा और अध्याय १८ का सात्विक कर्म कभी नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि वही तो तो चित्तशुद्धि पूर्वक एक मात्र अद्वितीय परेश्वर की शरणागति का उत्तमोत्तम साधन है ।यही भगवान को भी अपेक्षित है १८/५ यह हुआ सर्वधर्मान्परित्यज्य का भाव ।
              अब विचार करते हैं मामेकं शरणं ब्रज का― यहाँ अधिकतर विद्वानों में मतभेद मामेकं को लेकर है । कोई तो सविशेष ब्रह्म सिद्ध करने में लगा है और कोई निर्विशेष ब्रह्म का किन्तु गीता के ही दृष्टिकोण से विचार करने पर ही भगवान का विचार स्पष्ट होगा । देखिये मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते १४/२६ यहां पर अपनी यानी सविशेष ब्रह्म की उपासना का स्पष्ट आदेश दिया है और वह भी अव्यभिचारी उपासना का । व्यभिचार तो तभी नहीं होगा जब अन्य दूसरी कोई भी सूक्ष्म एवं कारण सत्ता न हो यही है एकम् अर्थात ऐकान्तिक भक्ति, जहाँ पर एक के अतिरिक्त दूसरा और कोई हो ही नहीं, स्वयं उपासक भी न हो और उपास्य भी न हो ऐसी ऐकान्तिक भक्ति करने वाले को त्रिगुणातीत होकर निर्विशेष ब्रह्म की प्राप्ति फल कहा है । शंका हुई कि आप सविशेष की उपासना से निर्विशेष ब्रह्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? तो इसका समाधान करते हैं― ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।।१४/२७।। अर्थात जो ब्रह्म कहा गया है उसकी प्रतिष्ठा मैं हूँ, मोक्ष, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुख भी मुझमें ही प्रतिष्ठित हैं । अर्थात निर्विशेष ब्रह्म और सविशेष ब्रह्म भिन्न नहीं हैं दोनो ही एक हैं यह अभिन्नत्व स्वयं श्रीकृष्ण ही सिद्ध करते हैं इसमें अन्य के सिद्ध करने और न करने से कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है, क्योंकि वह स्वयं सिद्ध है । यहां एक बात और स्पष्ट होती है कि श्रीकृष्ण इस समय त्वं पदार्थ का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं यही सविशेष की भक्ति है और ब्रह्म निर्विशेष ही तत् पदार्थ का प्रतिनिधित्व है जो मुमुक्षु का लक्ष्य है । इस प्रकार श्रीकृष्ण द्वारा आत्मा और परमात्मा की एकता अर्थात जीवात्मैक्य स्वयं सिद्व किया गया है इस में भी भिन्नता का किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है । इसी एकता को लेकर जितनी भी जीव का वाचक विभूतियां गिनाकर कह कि वह सब मैं हूँ और अन्तिम वाक्य में कहते हैं क्षेत्रज्ञ १३/२ मात्र मैं हूँ । ये भगवान के ही वाक्य हैं जो इसे नहीं मानेगा वह भगवान में भी दोष देखने वाला और नास्तिक है तो नष्ट तो होगा ही जन्म मरण के चक्र में पड़कर । इस प्रकार जो अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । स सन्न्यासी च योगी च….।६/१। इत्यादि कर्मयोग की स्तुति एवं योगवित्तमाः १२/१ से जो स्तुति की गई थी । उसका उपसंहार हुआ ।
                  दूसरा पक्ष― इस प्रकार जो अति मंद भक्त है वह जब सीमित अहंता को व्यापक अहंता से जोड़कर अपने कर्तव्य का भलीभाँति पालन करेगा तो उसको भक्ति की प्राप्ति होगी और उस भक्ति के प्रभाव से चित्तशुद्धि होकर आत्मा और अनात्मा का विवेक होकर स्व से अभिन्न एकमेवाद्वितीयम् का अपरिच्छिन्न ज्ञान प्राप्त होगा । यह होगा सभी शुभाशुभ और उभय कर्म फल के त्याग का फल । यहाँ तक पूर्व श्लोक में कहे गये मां नमस्कुरु से लेकर मद्भक्तः तक का विश्लेषण पूरा हुआ ।
                अब मन्मना अर्थात अभिन्नत्व की प्राप्ति का उपाय बताते हैं― अध्याय १२ में कहा था― त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् १२/१२ कर्मफल के त्याग का फल है ऐकान्तिक शान्ति सुखस्यैकान्तिकस्य १४/२७ यही ऐकान्तिक सुख ही ऐकान्तिक शान्ति अर्थात चिदानन्दैकरस ब्रह्म है । उसकी प्राप्ति का उपाय बताया कि जो सिद्धों के अद्वेष्टा आदि जो लक्षण बताये हैं उनका अनुसरण करे, अमानित्वादि १३/७ आदि का अनुसरण करे । अर्थात जब वह भक्ति में परिपुष्ट हो जाये तब ज्ञानी का अनुगमन करे जिससे वैराग्य उत्पन्न होगा । जब भी वैराग्य उत्पन्न हो जाये उसी समय संन्यास ग्रहण करके भिक्षावृत्ति से विचरण करे, श्रुति का यही आदेश है यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रब्रजेत् ।  जब संसार का संपूर्ण कर्तव्य कर्म समाप्त हो जाये आत्मा और अनात्मा के विवेक से लौकिक-पारलौकिक इच्छाओं की निवृत्ति हो जाये अर्थात प्रजाहाति यदा कामन्सर्वान्पार्थ पार्थ मनोगतान् २/५५ अर्थात जब मन में उत्पन्न होने वाली लौकिक पारलौकिक, सुनी गई और आगे सुनी जाने वाली प्रत्येक मन में उत्पन्न होने वाली संकल्प-विकल्पात्मक कामनाओं का नाश हो जाये तब आत्मन्येवात्मना तुष्टः२/५५ जब स्वयं से स्वयं में ही संतुष्ट हो जाये अर्थात कोई ईश्वर भी है यह भाव भी मन में उत्पन्न न हो तब स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते २/५५ उस समय वह स्वरूपस्थ कहा जाता है । सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगरूढस्तदोच्यते ६/४ सभी संकल्प का त्याग कर देने पर योगारूढ़ कहा जाता है । आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ६/३५ अर्थात अब वह और कुछ चिन्तन कर ही नहीं सकता और बिना चिन्तन के कर्तव्य कर्म का भी पालन कैसे करेगा ? इस न्याय के अनुसार अब सर्वकर्मसंन्यास  ही अभीष्ट होगा । अतः यहाँ पर सर्वधर्मान्परित्यज्य के अन्तर्गत सभी नित्य नैमित्तिक कर्म का भी विरजा होम पूर्वक विधि से त्याग आवश्यक है । अधर्म का यहाँ कोई प्रश्न ही नहीं बैठता है जो संस्कारित विवेक वाला है शास्त्र ही जिसका प्रमाण है उसके लिए । 
                  अतः सर्वधर्म से नित्य नैमित्तिक और कर्तव्य कर्म, जाति, कुल, गोत्र, वर्ण, आश्रम, शरीर आदि सभी धर्म का परित्याग करके सर्वकर्म संन्यास ही यहाँ विवक्षित है जो गृहस्थ के द्वारा कदापि संभव नहीं है । अगर अर्जुन को क्षात्रधर्म के अनुसार ही कर्तव्य कर्म सुनिश्चित था तो सभी पाण्डवों के साथ स्वयं भी अन्तिम यात्रा हिमालय की क्यों की ? इसका अर्थ यह हुआ कि वास्तविक ज्ञान जिस समय आत्मा और अनात्मा का हो जायेगा तब उसी समय वैराग्य हो जायेगा । आत्मा अनात्मा के विवेक के बाद ही साधन चतुष्टय उदित होते हैं― विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति (शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान ये षट्सम्पत्ति है) और मुमुक्षा ये साधन चतुष्टय संपन्न होकर सर्वकर्मसंन्यास ही यहाँ सर्वधार्मान् परित्यज्य से विवक्षित है यह सिद्ध हुआ । इसी बात को असङ्गेशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा १५/३ यह असंग पूर्णतः गृहस्थ के लिए संभव नहीं है । अतः सर्वकर्म संन्यास पूर्वक एक मात्र मेरी शरण में आ जा कहने का मतलब है कि मैं ही एक मात्र अद्वितीय ब्रह्म हूँनेह नानास्ति किञ्चन । इस सब को नाना रूप जगत दिख रहा है वह कुछ नहीं है केवल मैं ही मैं हूँ । मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ इस प्रकार उससे भिन्न कुछ है ही नहीं मैं भी नहीं और वह भी नहीं तो यह कहां से होगा ? इस मैं, यह और वह की त्रिपुटी का बाध करके जो शेष बचे वह अस्ति सत्तात्मक मैं हूँ मुझसे भिन्न और कुछ है ही नहीं । यहाँ शरण का अर्थ समझना चाहिए कि सविशेष का उपासक शरण मांगता है अर्थात सुरक्षा भगवान से मांगता क्योंकि द्वितीयाद्वै भयम् वहां दूसरा है इसलिये वह दीन है और अपनी रक्षा की भिक्षा मांगता है लेकिन जिसके लिए स्व से भिन्न कुछ है ही नहीं वह रक्षा मांगता नहीं है बल्कि आत्मैक्य बोध के द्वारा अपनी  रक्षा स्वयं करता है क्योंकि न हिनस्यात्मनात्मानम् ततो याति परां गतिम् १३/२८ जो प्रकृति के संग दोष से अपनी हत्या नहीं करता है वह परमगति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है, ऐसा स्वयं भगवान ने ही कहा है अतः सर्वधर्मान्परित्यज्य अर्थात ज्ञानी सभी धर्मों का त्याग करके एकमेवाद्वितीयम् रूप में स्थित होकर अपनी रक्षा करता है अर्थात स्व-स्वरूप में ज्ञानी की स्थिति ही एक मात्र शरण है, ऐसा कहा गया है ।
                 इस प्रकार एकमात्र स्व सत्ता से भिन्न किसी भी अन्य का शरीर पर्यन्त चिन्तन न करना ही माम् शब्द से सुनिश्चित होता है । जैसा हमने प्रथम पक्ष में बताया कि श्रीकृष्ण त्वम् पदार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं । और यहाँ वही त्वम् पदार्थ का लक्ष्यार्थ ब्रह्म से अभिन्न संबंध का प्रतिपादन करते हैं तभी पहले सविशेष ब्रह्म और निर्विशेष ब्रह्म १४/२६-२७ का प्रतिपादन करके यहाँ पहले कहा तमेव शरणं गच्छ १८/६२ और अब कहा मामेकम् मतलब तम् यानी तत् पदार्थ और माम् यानी त्वम् पदार्थ दोनों ही अभिन्न हैं यही यहां का प्रतिपादित विषय है क्योंकि सर्ववित् १५/१९ अर्थात सर्वज्ञ होकर फिर भजति मां सर्वभावेन १५/१९ जो सर्वज्ञ हो चुका है वह किसी का भजन क्यों करे ? सर्वज्ञ तो एक मात्र परमेश्वर है, इसका अर्थ यह हुआ कि सभी उपाधियों से निवृत्त होकर जो सर्वज्ञ हो चुका है वह अपने को सर्वभाव यानी सभी रूपों में, सविशेष और निर्विशेष रूप में मैं ही हूँ अन्य नहीं इस प्रकार मैं ही पुरुषः परः १३/२२ एवं पुरुषोत्तम १५/१८ हूँ, यही है मामेकं शरणं ब्रज ।
                  तो ठीक है लेकिन इस प्रकार से जब आत्मा से कुछ भिन्न है ही नहीं तो यह क्यों कहते हैं कि मैं तुम्हारे सभी पाप नष्ट कर दूंगा शोक मत कर । इस पर कहते हैं कि जो अभी अति उत्तम अधिकारी नहीं है वह सविशेष ब्रह्म की उपासना करता है जो भेद दृष्टि को लेकर ही संभव है और मंद एवं अति मंद जो अभी कर्म में ही मेरे आश्रित लगे हैं या कर्म का ज्ञान ही नहीं है उनको आश्वासन देने के लिए कहा है, जैसे तेषामहं समुद्धर्ता १२/७ तो दादमि बुद्धियोगं तम् १०/१०, ज्ञानदीपेन भास्वता १०/११ का क्या होगा ? तद्विद्धि प्रणिपातेन ४/३४ का क्या होगा ? अर्थात वे ज्ञान का साधन उपलब्ध करा देते हैं और सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३ जब सभी दृष्ट और दृष्ट कर्म ज्ञान से ही समाप्त हो जाते हैं एवं अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ४/३६ अर्थात जिसने सभी पाप किये हों कोई भी संसार का पाप छूटा ही न हो वह भी ज्ञान रूपी नौका से भलीभांति सभी पापों को पार कर जाता है । और भी― यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते १८/१७ अर्थात जिसकी बुद्धि कहीं भी लिप्त नहीं होती है, कोई रस नहीं लेती है वह तीनो लोकों को मारकर भी न कुछ करता है और न ही उसके फल से बंधता है (यह सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ४/३६ का अनुवाद है) । उसे किस पाप से मुक्त करने की भगवान बात करेंगे ? अर्थात अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः अनुवाद मात्र है या ब्रह्मी स्थिति को प्राप्त की स्तुति मात्र है कि वे ज्ञानी मेरी आत्मा ही हैं ७/१८ मुझसे भिन्न नहीं अतः साधना काल में विचलित न हों इससे आरुरुक्षु को धैर्य बना रहे । बाकी काम तो ज्ञान स्वयं करता ही है । 
              हम एक दृष्टिकोण से और देखते हैं कि सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः । पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।। अर्थात जैसे बछड़े को गाय के थनों में थोड़ी देर लगाकर फिर उसे हटा दिया जाता है और दूध निकालकर सभी पीते हैं वैसे ही अर्जुन को निमित्त बनाकर इस अद्वैतामृत का मुमुक्षु जनों के लिए ही संन्यास धर्म का यहाँ पर प्रतिपादन किया है । अथवा सर्वशास्त्रमयी गीता अर्थात गीता सर्वशास्त्रमयी होने से सभी के धर्मों का प्रतिपादन करती है इसलिए श्लोक ६५ में प्रवृत्तिमार्गी के लिए और श्लोक ६६ में निवृत्तिमार्गी के लिए प्रतिपादन करते हुए अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायीनीम् अर्थात अद्वैत रूपी अमृत का वर्षा करने वाली अष्टादशाध्यायी अर्थात अठारह अध्यायों वाली गीता का उपसंहार किया गया है । अस्तु ।
             भावार्थ― इस प्रकार इन दो श्लोकों में संपूर्ण गीता का उपसंहार भगवान ने करते हुए प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनो मार्ग का विश्लेषण कर दिया । बुद्धिमान विवेकशील को अपने विवेक से विवेचन करके उसके अनुसार ही अपने कल्याण का मार्ग स्वयं चयन करे । यही इसका भावार्थ है ।।६६।।

                संबंध― अब गीता के अधिकारी का वर्णन करते हैं…..
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।।१८/६७।।
                शब्दार्थ― यह जो ज्ञान तुझसे कहा गया है जो शरीर से तपस्वी न हो, जो भक्त न हो सुनने की इच्छा न रखता हो, मुझमें दोष देखता हो उससे नहीं कहना चाहिए ।
                 तात्पर्यार्थ― यहाँ शरीर से तपस्वी कहा गया है, इसका अर्थ यह है कि तद्विद्धि प्रणिपातेन प्ररिश्नेन सेवया ४/३४ अर्थात जो प्रणत न हो यानी अपनी शरण में न आया हो एवं विनम्र न हो, जिसमें गुरु एवं आश्रम के प्रति सेवा भाव न हो, आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः १३/७ अर्थात आचार्य को सेवा आदि द्वारा भलीभाँति संतुष्ट करने वाला, बाहर और भीतर से पवित्र यानी कपट रहित एकरस, और स्थिरता होनी चाहिए । जो गुरु ने कहा वही ठीक है ऐसा संकल्प-विकल्प से रहित, यह सब तब हो सकेगा जब इन्द्रियों एवं मन पर नियंत्रण होगा, इस प्रकार शारीरिक तप सहित इन्द्रिय निग्रह यानी मानसिक एवं वाचिक तप भी होना चाहिए यह शारीरिक तप है । यद्यपि शारीरिक तप में गुरु के प्रति भक्ति अर्थात समर्पण आ जाता है तो भी कहते हैं कि अभक्त को नहीं देना चाहिए, मतलब यह कि गुरु और ईश्वर के प्रति एकनिष्ठ श्रद्धा होनी चाहिए । जो सुनने की इच्छा न रखता हो उसको नहीं देना चाहिए । मतलब श्रद्धा है नहीं तो बात को सुनकर अनसुना कर देगा अतः जो सुनने का इच्छुक हो उसे ही यह ज्ञान देना चाहिए । जब सुनने की इच्छा नहीं होगी तो वह मुझमें और गुरु में दोष दृष्टि करेगा अतः वह भी इस गीता का अधिकारी नहीं है । यहां पर इदं शब्द आया है जो इससे पूर्व में कहे गए दो श्लोकों से विशेष संबंधित है । यह ज्ञान नहीं कहना चाहिए क्योंकि अगर कह दिया सर्वधर्मान्परित्यज्य, तो वह आलसी हो जायेगा । योगक्षेमं वहाम्यहम् तो कहेगा हमें क्या पड़ी भगवान करेंगे ही, अगर कह दिया अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः तो वह कहेगा भगवान तो पाप मुक्त कर ही देंगे जो मर्जी हो वह करो यानी स्वेच्छाचारी हो जायेगा । जो भगवान कहते हैं कि मुझसे अतिरिक्त अन्य कोई भी वृत्ति बनने ही न पाये वह तो करेगा नहीं, उल्टे स्वेच्छाचारी बनेगा तो स्वयं भी नष्ट होगा और गुरु को भी नष्ट करेगा, इसलिये पहले ही कह दिया नातपस्काय अर्थात जो शारीरिक तप नहीं कर सकता उसकी न तो इन्द्रियाँ नियंत्रित होंगी और न ही वाणी, फिर श्रद्धा का न होना और दोष देखना स्वतः सिद्ध हो जाता है । ऐसे दंभियों को यह ज्ञान नहीं कहना चाहिए ।
                भावार्थ― यह ज्ञान विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति (शम दम, तितक्षा, उपरति श्रद्धा एवं समाधान) एवं मुमुक्षा, ये साधन चतुष्टय शारिरिक तप के साथ मानसिक और वाचिक तप से जो संपन्न हो उसी को देना चाहि, क्योंकि ऐसे प्रमाद रहित में ही अन्य दोषों का न होना स्वतः सिद्ध है । बीज ही नहीं तो वृक्ष कहाँ से होगा ? 
               इस प्रकार यहाँ पर किसे कहना चाहिए और किसे नहीं ? यह अधिकारी की पहचान और अधिकारी को ही उपदेश देना, इससे संप्रदाय का प्रतिपादन किया गया है । यह भाव है ।।६७।।

               संबंध― इस प्रकार इस गुह्यतम ज्ञान का अधिकारी निरूपण करके अब गीता की फलश्रुति चार श्लोकों में कहते हैं….
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयम् ।।१८/६८।।
               शब्दार्थ― जो इस परम गोपनीय शास्त्र को मेरे भक्तों से कहेगा वह मेरी परा भक्ति करके मुझे ही प्राप्त होगा इसमें संशय नहीं है ।
                तात्पर्यार्थ― यह परम गोपनीय शास्त्र क्यों है ? इसलिए कि यह संसार, बंधन और मोक्ष का विधिवत प्रतिपादन करने वाला शास्त्र है । इसके रहस्य को सामन्य जन जान ही नहीं सकते । ऐसे गोपनीय शास्त्र को सिर्फ मेरे भक्तों से कहेगा वह मेरी पराभक्ति यानी सर्ववित् सर्वभावेन १५/१९ मुझे तत्त्वतः जानकर सभी संशयों को छिन्न भिन्न करके मुझ आत्मस्वरूप को ही प्राप्त होगा । यहाँ पर भक्त और भक्ति का पुनः वर्णन आया है जिसका मतलब यह है कि भक्त यानी सविशेष ब्रह्म का उपासक और परभक्ति करने वाला निर्विशेष ब्रह्म में स्थिरभाव वाला । इसका अर्थ यह हुआ कि उस परमतत्त्व को बिना सविशेष ब्रह्म की उपासना के यानी बिना भक्ति के जाना नहीं जा सकता है । हम पीछे बता चुके हैं कि कृष्ण त्वम् पदार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं और तम् अर्थात तत् पदार्थ का इस प्रकार सविशेष और निर्विशेष ब्रह्म को समझकर आत्मनिष्ठा ही भक्ति है यह समझना चाहिए ।
               यहां अभिधाष्यति शब्द आया है जिसका अर्थ विद्वानों के किया है कहता है इसके अनुसार अर्थ हो चुका है और दूसरा अर्थ होता है― स्थापित कराना या धारण कराना । इस प्रकार यदि अर्थ करें तो य इमं गुह्यं (शास्त्रं) मद्भक्तेषु मयि परां भक्तिं अभिधाष्यति, (स इति) कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयम् अर्थात इस मेरे कहे हुए संसार बंधन से मुक्त कराने वाले शास्त्र को मेरे भक्तों में मेरी पराभक्ति को धारण करायेगा अर्थात मुझ ब्रह्म और जीव के एकत्व का भलीभाँति प्रतिपादन करते हुये मेरे भक्तों के संशयों का नाश करके जो इस निर्विशेष अद्वैत शास्त्र को जो धारण करायेगा वह भी मुझे ही प्राप्त होगा इसमें संशय नहीं है ।
                  विशेष भाव― पूर्व में आया तमेव शरणं गच्छ १८/६२ और मामेकं शरणं ब्रज १८/६६ इन दोनो को जब विचार पूर्वक यहाँ पर देखा तो एक नया भाव उत्पन्न हुआ । तम् और माम् अर्थात तत् और त्वम् ये दोनो पदार्थ अभिन्न सिद्ध होने पर यह भी स्वतः सिद्ध हो जाता है कि ज्ञान का भी इन दोनो से एकत्व है । क्योंकि तत् पदार्थ ज्ञेय है और त्वं पदार्थ ज्ञाता । ज्ञाता द्वारा जिस वृत्ति से ज्ञेय को जाना जाता है वह वृत्ति ही ज्ञान है । ज्ञान का ज्ञेय से अभिन्न संबंध है । जैसे हमने कहा राम तो राम सामने न होने पर हमारी वृत्ति जिससे राम को जाना वह और राम दोनो एकाकार हो गये । राम कहते ही वृत्ति रामाकार होकर राम से अभिन्न हो गई इस प्रकार ज्ञेय राम और वृत्ति ज्ञान दोनो अभिन्न सिद्ध हुए किन्तु जिसने जाना वह जानने वाला यदि ज्ञाता न हो तो ज्ञान और ज्ञेय को सत्ता कौन देगा ? ज्ञान और ज्ञेय को सत्ता देने वाला ज्ञाता ही होगा । बिना ज्ञाता के न तो ज्ञान की सत्ता सिद्ध होती है और न ही ज्ञेय की । पहले जानने वाले की ही सत्ता सिद्ध होती है जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येत् (द.मू.स्तो.४) पहले तो मैं जानता हूँ होगा फिर इस समस्त जगत को जिसे यह करके जाना है उसे जाना जायेगा । इस प्रकार विचार करने पर स्व से भिन्न कोई सत्ता सिद्ध ही नहीं होती है । यही वह अस्ति पद है जो निर्विकल्प, निर्विकार, निरंजन, सर्वव्यापक, सर्वात्मा, सबकी सत्ता किन्तु उसकी कोई सत्ता नहीं है यही केवलाद्वैत है ।।६८।।

               संबंध― गीता ज्ञान के प्रचार की महिमा….
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रितरो भुवि ।।१८/६९।।
                शब्दार्थ― मेरे भक्तों को गीता का उपदेश करने वाले से बढकर मनुष्य में मेरा प्रिय से भी अधिकाधिक प्रिय कार्य करने वाला और कोई नहीं और भविष्य में भी नहीं होगा इसलिये पृथ्वी पर वह मुझे अत्यंत प्रिय है ।
               तात्पर्यार्थ― गीता का प्रचार करने वाले से बढकर और कोई प्रिय क्यों नहीं है ? क्योंकि वह निःस्वार्थ भाव से मेरे इस ज्ञान का प्रचार कर रहा है । वह इसे मेरी सेवा सझकर प्रचार कर रहा है भक्तिं मयि परां कृत्वा इसलिये उससे बढ़कर और कोई प्रिय नहीं है । वह ब्रह्मवेत्ता है इसलिए वही मुझे स्वरूप से जानता है और वही स्वरूपतः गीता के माध्यम से बताए गये बंध, मोक्ष और तत् एवं त्वम् का यथार्थ विवेचन कर सकता है क्योंकि अन्य कोई ठीक से न समझ सकते हैं और न ही समझा सकते हैं क्योंकि आश्चर्यवद्वदति वदति तथैव चान्यः २/२९ यह कार्य सामान्य नहीं बल्कि आश्चर्यजनक है मतलब पृथ्वी पर दुर्लभ है और ऐसा दुर्लभ कार्य करना वाला ब्रह्मवेत्ता मेरी आत्मा होने के कारण ही अत्यधिक प्रिय है । ऐसा समझो कि वह मैं ही हूँ अथवा मेरा अवतार है । अतः उसकी समानता करने वाला वर्तमान में भी अन्य नहीं है और न ही भविष्य में होगा । इस प्रकार संप्रदाय के संरक्षण और उसकी वृद्धि का मानव मात्र के कल्याण के लिए आवश्यकता सिद्ध करते हैं ।
                शंका होती है कि पहले तो उनके लक्षण बताये हैं जिन्हें गीता का ज्ञान नहीं देना है फिर उसके प्रचार की इतनी महिमा बता रहे हैं तो यह कैसे जानें कि कौन अधिकारी है ? कौन नहीं ? 
                इसका समाधान यह है कि जब हम प्रवचन कर रहे हों तब अधिकारी की दृष्टि से प्रवचन करना चाहिए बीच में कोई आये या कोई जाये उसमें यह भाव नहीं रखना चाहिए कि इसमें श्रद्धा नहीं है, इसे सुनना ही चाहिए । लोग अधिकाधिक दिखें उसके लिए गीता के लक्ष्य से हटकर लोगों की प्रसन्नता के लिए नमक मिर्च लगाकर गीता के लक्ष्य को ही बदल दे इसीलिये यथार्थ वक्ता की दुर्लभता बताया है २/२९ ।  किन्तु व्यक्तिगत जैसे आजकल लोगों को उपदेश देने का रोग हो गया है कि जिसे जहाँ पाया वहीं पकड़कर ज्ञान जबर्दस्ती बांटने लगे ऐसा नहीं होना चाहिए । वह श्रद्धालु हो, सुनने की इच्छा वाला हो, भगवान और गीता में दोषारोपण न करने वाला हो ऐसे को अकेले ही जब अवसर मिले या उसकी जिज्ञासा हो तब उसे उपदेश करना चाहिए यही तात्पर्य है ।।६९।।

                 संबंध― इस धर्ममय संवाद के पढने का फल एवं गीताशास्त्र की स्तुति….
अध्येष्यते य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ।।१८/७०।।
               शब्दार्थ― हमारे तुम्हारे बीच हुये इस धर्ममय संवाद को जो पढ़ेगा उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ द्वारा इष्ट अर्थात पूजित होऊंगा ऐसी मेरी मति है ।
                तात्पर्यार्थ― सभी प्रवचन करके ही भगवान के प्रिय हों ऐसी बात नहीं है । जो इस धर्ममय यानी स्वधर्म से संबंधित गीताशास्त्र को पढ़ेगा उसके द्वारा ज्ञानयज्ञ से मैं पूजित होऊंगा । इसमें विशेष ध्यान देने की बात यह है कि पढने मात्र से कुछ होने वाला नहीं है क्योंकि धर्म्यं कहा है और गीता का धर्म है स्वधर्म अर्थात कर्तव्यपरायणता । मतलब जब वह पढेगा तो मेरे बताए मार्ग का अनुसरण भी करेगा और जब अनुसरण करेगा तब समयानुसार चित्तशुद्धि होगी और चित्तशुद्धि का फल है आत्मा-अनात्मा का विवेक और विवेक का फल वैराग्य है, वैराग्य का फल षट्सम्पत्ति है और उसका भी फल है मोक्ष की तीव्र इच्छा इस प्रकार क्रमशः वह ज्ञान को प्राप्त कर लेगा और सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३ अर्थात सभी कर्मों की समाप्ति ज्ञान से ही होती है, यह लक्ष्य है गीता के पढने और भगवान की प्रियता का, क्योंकि प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् ७/१७ एवं ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ७/१८ यही यहां पर भगवान का तात्पर्य है और अगले श्लोक में जो सुनने का फल बता रहे हैं वह भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए ।।७०।।

                संबंध― गीता के प्रवचन एवं पढने का फल बताकर श्रवण का फल…..
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभांल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ।।१८/७१।।
               शब्दार्थ― जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीता शास्त्र का श्रवण करेगा वह भी यज्ञ आदि पुण्य से प्राप्त होने वाले शुभ लोकों को प्राप्त होगा ।
              तात्पर्यार्थ― भगवान, गीता और उपदेश कर्ता पर श्रद्धा रखने वाला और उपदेशक में या अन्य के दोषों का अन्वेषण न करने वाला जो भी मनुष्य सुनेगा । यहाँ पर नर उपलक्षित स्त्री पुरुष दोने कहे गये भले वे पापकर्मा ही क्यों न हों, वे सभी जिस दिन से ईश्वर आदि पर अपने दोषों का अन्वेषण करते हुए श्रद्धापूर्वक इस गीताशास्त्र का श्रवण करेंगे और ऐसा करते हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे तो वे पुण्य कर्मों से जो पुण्यकर्मा को लोक प्राप्त होते हैं वही शुभलोक गीता सुनने वाले को भी प्राप्त होंगे । कहने का मतलब वह योगभ्रष्ट की गति को प्राप्त होगा और गीता छठे अध्याय के अनुसार किसी योगी या ब्रह्मनिष्ठ के घर पुनः जन्म लेकर ज्ञानयज्ञ का अनुष्ठान करके मोक्ष को प्राप्त कर लेगा यही भगवान का यहाँ तात्पर्य है ।।७१।।

                संबंध― इस प्रकार गीता की फलश्रुति कहकर अब अर्जुन से पूछते हैं….
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा । 
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनस्टते धनञ्जय ।।१८/७२।।
               शब्दार्थ― हे पार्थ ! क्या तुमने मुझसे यह गीता शास्त्र समाहित चित्त होकर सुना ? हे धनञ्जय ! क्या तुम्हारी अज्ञान जनित मूढता भलीभाँति नष्ट हो गयी है ?
               तात्पर्यार्थ― यह अर्जुन से पूछने का एक ही कारण है कि इससे जो आचार्य का शिष्य के प्रति कर्तव्य है कि शिष्य का जब तक समाधान न हो तब उसे उपदेश करे और शिष्य तब तक सुने जब तक समाधान न हो जाये ।
                 यहां पर भगवान एक प्रकार की शंका करते हैं क्योंकि इतना भय दिखाया तो भी नहीं बोला, स्वधर्म के पालन और प्रकृति द्वारा जबरन कराये जाने की बात की नहीं बोला, तमेव शरणं गच्छ कहा नहीं बोला, एकमात्र मेरी शरण में आ जा फिर भी नहीं बोला, फलश्रुति सुनाया तो भी नहीं बोला जैसे अर्जुन ने मौन ही साध लिया हो, कुछ भी कहो बोलना ही नहीं है । अतः भगवान ने पूछा । शेष भाव स्पष्ट है ।।७२।।

अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।।१८/७३।।
            शब्दार्थ― अर्जुन बोले― हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है एवं स्मृति को प्राप्त कर ली है । मेरे सभी संदेह चले गये हैं और स्थित हूँ ।
            तात्पर्यार्थ― यहाँ पर अर्जुन अच्युत कहकर यह कहना चाहता है कि आप अपनी बात से कभी च्युत नहीं होते हैं और शुरू से बारंबार युद्ध करने का आदेश दे रहे हैं किन्तु मुझे जो अज्ञान के कारण मोह उत्पन्न हुआ था वह आपके उपदेश के फलस्वरूप नष्ट हो गया है । मेरा कर्तव्य कर्म क्या है ? स्वधर्म क्या है ? यह जो अज्ञान जनित मोह से विस्मृत हो गया था और धनुष बाण रखकर युद्घ न करने की जो बात कही थी वह अज्ञान नष्ट हो जाने के कारण सभी संशय भी नष्ट हो गये हैं अतः अब आपकी आज्ञा का पालन करूंगा अर्थात आपकी इच्छा युद्ध करने की है, अतः वह युद्व करूंगा । 
            मैं जानता हूँ मेरा यह तात्पर्य विद्वत्वृन्द को स्वीकार नहीं होगा लेकिन जब वस्तु स्थिति का विचार करते हैं तब हमें कुछ अलग ही दिखता है, जो हम प्रकट करना चाहते हैं विद्वत्वृन्द क्षमा करें । यहां पर स्मृति प्राप्त होना दो अर्थों में समझना चाहिए एक वह जिससे आत्मा और अनात्मा का परोक्ष ज्ञान होता है । यह स्वरूपगत ज्ञान क्या है, यह ठीक ठीक समझ लिया है । यदि अपरोक्ष ज्ञान हो जाता तो अर्जुन करिष्ये वचनं तव के स्थान पर कृतकृत्योस्मि कहता, लेकिन कहा करिष्ये वचनं तव । इससे परोक्ष ज्ञान प्राप्त हो गया,.स्मृति प्राप्ति का यही अर्थ निकलता है । दूसरा अर्थ जो पहले कर दिया वह निकलता है कि मोहाधीन होकर अपना कर्तव्य भूलकर अकर्तव्य को ही कर्तव्य मान लिया था उस भ्रम की निवृत्ति हो गई और कर्तव्य का स्मरण हो गया और जो भीष्म, द्रोण आदि की मृत्यु से पाप का भय और युद्ध करने न करने का संशय था वह नष्ट हो गया है अतः अब युद्ध करूंगा ।
                   अर्जुन को यदि स्वरूप की स्मृति प्राप्त हो गई होती तो वह उस स्वरूप में स्थित अवश्य होता और स्वरूप स्थिति कभी च्युत होती नहीं है, जबकि अभिमन्यु के वध पर शोकाकुल अर्जुन इस उपदेश को भूलने की बात स्वीकार करता है और पुनः उपदेश की बात कहता है तब अनुगीता का उपदेश होना ही इस बात का प्रमाण है कि अर्जुन को स्वरूप का परोक्ष ज्ञान हुआ था न कि अपरोक्ष स्वरूप की स्मृति प्राप्त हुई । यह विवेचन यही बता रहा है कि मोक्ष में एकमात्र सर्वकर्मसंन्यासी का ही अधिकार है गृहस्थ का बिलकुल नहीं । क्योंकि वह चतुर्दिक् कर्तव्य से घिरा है । अर्जुन को पहले बताते हैं कि जिसकी बुद्धि कर्मों में लिप्त नहीं होती और कृत कर्म का अहंकार नहीं होता है वह तीनो लोकों को मारकर न तो कुछ करता ही है और न ही उसके फल यानी पाप से बंधता ही है १८/१७  तो फिर युद्ध के पश्चात किस पाप के प्रायश्चित के लिए अश्वमेध यज्ञ करने की आज्ञा श्रीकृष्ण ने दी थी ? ये सभी साक्ष्य यह कहते हैं कि अर्जुन को अपरोक्ष ज्ञान नहीं हुआ, तथापि अर्जुन और कृष्ण तो नित्यमुक्त हैं उन्हें न उपदेश सुनने की आवश्यकता है और न ही उपदेश देने की । वे तो सुहृदं सर्वभूतानाम् हैं इसलिये हम मुमुओं को अर्जुन को निमित्त बनाकर यह बताया कि गृहस्थ कितना भी कुछ कर ले, लेकिन वह नाना प्रकार के कर्तव्यों से बंधा है उसकी मुक्ति बिना सर्वकर्मसंन्यास के, बिना परिब्रजन के नहीं हो सकती है अर्थात स्वरूप से ही कर्मत्याग आवश्यक है मोक्ष के लिए जो गृहस्थ नहीं कर सकता है । यही सर्वकर्मसंन्यास ही एकमात्र गीता का लक्ष्य है जिससे मुमुक्षु आत्मपद को प्राप्त कर सके । मोक्षार्थी के लिए स्वसंवेद्य आत्मा से बढकर और कोई ईश्वर है ही नहीं जिनकी वह उपसना करे । यह तो ईश्वर आदि की व्यवस्था अज्ञानी जीवों की कामना के अनुसार और जीवन जीने एवं आत्मा की ओर बढने का एक मात्र आधार से अतिरिक्त कुछ नहीं है । यही संपूर्ण गीता का यहां तक मुझे सारांश समझ में अब तक आया है ।
                 विशेष भाव― गीता के श्रवण का फल है मोह अर्थात कर्त्तव्य-अकर्तव्य विषयक मोह का नाश करके वस्तु का मार्गदर्शन करना ।।७३।।

सञ्जय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिमश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ।।१८/७४।।
             शब्दार्थ― सञ्जय बोले― इस प्रकार महात्मा अर्जुन और वासुदेव के इस मोह का नाश करके ब्रह्मतत्त्व में स्थित कराने वाला आश्चर्यजनक और शरीर में प्रसन्नता की विपुलता से रोमांचित कर देनेवाला यह संवाद अर्थात परस्पर बातचीत को सुना । 
           तात्पर्यार्थ―यहाँ अर्जुन को महात्मा कहने का अर्थ यह है कि अर्जुन कितने महान हैं कि जिनकी आज्ञा का पालन और मार्गदर्शन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कर रहे हैं । रोमांच का मतलब है– जो सोचा भी न जा सके ऐसा दृश्य सामने उपस्थित होने पर अत्यधिक प्रसन्न और आश्चर्य के कारण नेत्रों से आंसू आ जाना, वाणी का अवरुद्ध हो जाना और रोंगटे खडे हो जाना । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।७४।।

व्याप्रसादाच्छ्रुवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ।।१८/७५।।
                शब्दार्थ― व्यास जी कृपा से यह परमगोपनीय ब्रह्मविद्या को सुना, जो स्वयं ब्रह्मविद्या के अधिपति भगवान कृष्ण ने ही कहा है ।
                तात्पर्यार्थ― व्यास जी की कृपा से यानी व्यास जी की दी हुई दिव्यदृष्टि से । योग का मतलब समत्त्व में स्थित कराने या जीवब्रह्मात्मैक में प्रतिष्ठित करनेवाली परम गोपनीय ब्रह्मविद्या । शेष अर्थ स्पष्ट है ।।७५।।

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिमद्भुतम् ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ।।१८/७६।।
              शब्दार्थ―  हे राजन् ! श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस अद्भुत कल्याणकारी संवाद का बारंबार स्मरण करके  बारंबार हर्षित हो रहा हूँ ।
              तात्पर्यार्थ― बारंबार स्मरण करके यानी उस गोपनीय ब्रह्मविद्या के स्वरूप का चिन्तन करके बारंबार हर्षित होने का मतलब है कि व्यास जी की कृपा से सहज ही संसार बंधन से मुक्त कर देने वाली ब्रह्मविद्या प्राप्त हो गई यही विचार कर पुनः पुनः यानी बारंबार हर्षित हो रहा हूँ ।।७६।।

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ।।७७।।
                शब्दार्थ― राजन् ! सबके पापों का हरण करने वाले उन के उस अद्भुत रूप को बारंबार स्मरण करके मुझे विस्मय और बारंबार हर्ष हो रहा है ।।७७।।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।१८/७८।।
                शब्दार्थ― जहाँ योगश्वर कृष्ण हैं एवं जहाँ धनुर्धारी पृथापुत्र अर्जुन हैं वहीं विजय नामक ऐश्वर्य है ऐसा मेरा निश्चित विवेक है ।
               तात्पर्यार्थ― यत्र यानी जिस  पांडव पक्ष में । योगेश्वर यानी समस्त योगों के बीज । शेष अर्थ स्पष्ट है । आध्यात्मिक अर्थ देखने के लिए नीचे किमकुर्वत नामक शीर्षक देखें ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्याययः ।।


                इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता "मेराचिन्तन" का यह पड़ाव श्रावण कृष्ण अमावस्या को गुरुपुष्य योग में विक्रम संवत् २०७६ तद्नुसार १ अगस्त सन् २०१९ ईसा. को राजस्थान सेवा समिति शीशम की झाड़ु ऋषिकेश उत्तराखंड में विश्राम को प्राप्त हुआ । ओ३म् !

                                                         ――स्वामी शिवाश्रम
                                   

हरिः ॐ तत्सत् !                                           हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!

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