गीता मेराचिन्तन अध्याय १३

ॐश्रीपरमात्मने नमः
                             
अथत्रयोदशोत्रयोदशऽध्यायः

अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ।।
             संवैधानिक चेतावनी―― यह उपरोक्त श्लोक गीता के मूल में नहीं है, इस श्लोक को गीता में प्रक्षेपण करने वाले किसी सनातन विद्रोही का लिखा हुआ है । गीता सप्तशती के नाम से भी प्रसिद्ध है, जिसके श्लोक प्रथम अध्याय से क्रमशः इस प्रकार हैं--- ४७+७२+४३+४२+२९+४७+३०+२८+३४+४२+५५+२०+३४+उ+२०+२४+२८+७८=७०० ये सात सौ श्लोक होते हैं जबकि उपरोक्त श्लोक के सहित ७०१ होते हैं अतः यह श्लोक अतिरिक्त है । अध्याय १३ के विषयानुसार अलग से श्लोक तैयार करके जोड़कर गीता को प्रक्षिप्त करने का असफल प्रयास तो किया गया है लेकिन उसने यह विचार नहीं किया कि अध्याय १२ के प्रथम श्लोक में अर्जुन द्वारा पूछे गये सविशेष और निर्विशेष ब्रह्म के विषय में प्रश्न का उत्तर मात्र श्लोक के पूर्वार्ध अर्थात सविशेष का ही उत्तर दिया गया है जबकि निर्विशेष का उत्तर यहां अध्याय १३ में दिया जाना शेष है । इस दृष्टिकोण से श्लोक का अर्थ करना, उस पर कोई टिप्पणी करना समय नष्ट करना मात्र है । विज्ञजन इस श्लोक की वैसे ही उपेक्षा करेंगे जैसे रास्ते में पड़ी गंदगी की उपेक्षा करके बुद्धिमान आगे निकल जाते हैं ।
                ×                    ×                     ×                       ×                   ×                      ×

              पूर्वाध्याय से इस अध्याय का संबंध---- पहले अध्याय छः तक त्वं और फिर अध्याय सात से बारह तक तत् पदार्थ का निश्चय किया गया । अर्जुन ने जो पूर्व अध्याय में सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म के उपासकों में कौन श्रेष्ठ है ? इस पर कृष्ण सगुणोपासक को श्रेष्ठ बताकर निर्गुण उपासक को वर्तमान में ही परमतत्त्व को प्राप्त होना बताते हैं । संभवतः अर्जुन के मन में विचार आया हो कि सगुणोपासक को श्रेष्ठ बताने पर भी यह सुनिश्चित नहीं है कि वह परमात्मा को कब प्राप्त करेगा ? अतः अव्यक्तोपासना ही ठीक है जिसका निराकरण स्वयं भगवान करते हुए कहते हैं क्लेशोऽधिकतरं तेषां…….। …….देहवद्भिरवाप्यते १२/५ अजितेन्द्रिय के लिए अव्यक्त की प्राप्ति संभव नहीं है, उसकी प्राप्ति में सविशेष को साधन और निर्विशेष को साध्य बनाकर निर्विशेष उपासना के लिए सिद्धों के लक्षणों का अनुगमन करने की आज्ञा देते हैं और इसी को मुमुक्षु का अक्षयधर्म कहते हैं ये तु धर्म्यामृतम् ११/२० । अब प्रश्न यह उठता है कि शरीराभिमान जाये कैसे ? क्योंकि बिना ब्रह्मात्मैक्य बोध के मोक्ष हो सकता नहीं और और देहाध्यास के रहते ब्रह्मात्मैक्य बोध होना नहीं । इसके लिए जो भगवान ने अध्याय सात में परा और अपरा नामक दो प्रकृति कही थी जिसमें अपरा को आठ प्रकार की और परा एक प्रकार वाली जीव रूपा कहा था इसके माध्यम से पहले जीव और प्रकृति का अन्तर समझना होगा । इस अन्तर को समझकर जब प्रकृति से स्वयं को भिन्न समझेगा तभी देहाभिमान नष्ट हो जायेगा और निर्विशेष ब्रह्म के साथ एकत्व को प्राप्त कर लेगा । एकत्व को प्राप्त होने पर तत् और त्वं का विलय हो जाता है और मात्र अस्मि या असि पद की अनुभूति मात्र शेष बचती है उसी असि पद के लक्ष्यभूत यहाँ से आगे का प्रकरण प्रारंभ किया जाता है । इस अध्याय में अर्जुन के दूसरे प्रश्न ये चाप्यक्षरमव्यक्तं १२/१ का उत्तर स्वतः भगवान दे रहे हैं । इस अध्याय का अलग से प्रारंभ करने का कारण यह है कि कहीं सविशेष साधन के साथ साध्य निर्विशेष को भी एक साथ अन्तर्भूत करके पुनः साधक को भ्रम उपस्थित न हो जाये अतः अत्यंत गम्भीर विषय को सहजता से समझाने के लिए अर्जुन के दूसरे प्रश्न का उत्तर अलग से दे रहे हैं । पहले शरीराभिमान निवारण के लिए अहंता और इदंता अर्थात मैं क्या है और यह अर्थात जो अपने से भिन्न है का निर्णय…..

श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।।१३/१।।
            शब्दार्थ---- हे कौन्तेय ! यह नाम से जाना जाने वाला शरीर क्षेत्र है । इस क्षेत्र को जो जानता है वह क्षेत्रज्ञ है ऐसा उसे जानने वाले अर्थात विद्वान कहते हैं ।
            तात्पर्यार्थ---- क्षेत्र यानी मनुष्य के द्वारा बोये गये बीज का उससे कई गुणा उसका कर्म फल देने वाला खेत । इस शरीर में भी कर्म फल उत्पन्न होते हैं अतः खेत है । तीनों गुणों की साम्यावस्था अपरा प्रकृति है और विषमावास्था विभिन्न प्रकार की सृष्टि के रूप में आकाश आदि शरीरों की उत्पत्ति । यह नाम से जिसे संबोधित किया जाये वह स्वयं से भिन्न होगा जैसे यह मेरा खेत है, मेरा बेटा, मेरी बुद्धि, मेरा मन, इत्यादि । संक्षेप में जो कुछ भी अनुभव किया जा सकता यह करके वह सब क्षेत्र है, यह ईश्वर है, यह जीव है, यह ब्रह्म है । यह जहाँ भी होगा मायोपाधिक स्व-भिन्न होगा । इन सबको जो जानता है वह क्षेत्रज्ञ है ऐसा विद्वान अर्थात क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को जानने वाले कहते हैं । जो सबको जानने वाला है वही यह नाम से कहे जाने वाले माया कार्य से भिन्न अर्थात माया से रहित एक मात्र सबको जानने वाला सर्वज्ञ क्षेत्रज्ञ है । 
             भावार्थ---- संक्षेप में जहाँ तक मन बुद्धि यह करके जान सके वहां तक मन बुद्धि सहित क्षेत्र है, जो इस क्षेत्र को ‘यह’ करके जाने वह क्षेत्रज्ञ ।।१।।

            संबंध---- क्षेत्र क्षेत्रज्ञ में भिन्नता दिखाकर वह माया रहित क्षेत्रज्ञ मैं हूँ का कथन….
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।१३/२।।
           शब्दार्थ---- हे भारत ! संपूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे जान । इस प्रकार जो क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है वही ज्ञान है ऐसा मेरा मत है ।
          तात्पर्यार्थ---- जैसा कि पूर्व श्लोक में बताया कि क्षेत्रज्ञ का अर्थ माया कार्य से भिन्न जो संपूर्ण विकारों से रहित है वही क्षेत्रज्ञ है । विकार रहित एक मात्र निरुपाधिक तत्त्व ब्रह्म है । इस श्लोक में जो क्षेत्रज्ञ मैं हूँ कहा है वह शुद्ध परमत्त्व निरुपाधिक ब्रह्म है । क्षेत्रज्ञं के साथ और अपि शब्द आया है जिसका इस श्लोक से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता है तथापि आया है तो निष्प्रयोजन तो नही हो सकता है, अतः पूर्व श्लोक के साथ संबद्ध है जिसमें पहले क्षेत्र को यह कहकर दिखाया और क्षेत्रज्ञ जिसे जीव कहा जा सकता है वह दिखाया है । इन दोनो को दिखाने के बाद अपनी सत्ता का प्रतिपादन करने के लिए यानी किन्तु का प्रयोग करके क्षेत्रज्ञ स्वयं को कहते हैं और अपि से यह समझ लेना चाहिए कि जिसे क्षेत्र कहा वह भी मुझसे भिन्न नहीं है मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति ७/७ अर्थात उस परमत्त्व परमेश्वर से भिन्न कुछ नहीं है । अतः अपि से क्षेत्र भी मैं हूँ और क्षेत्रज्ञ भी मैं ही हूँ यह समझना चाहिये । यहाँ पर स्पष्ट रूप से पूर्व श्लोक में आठ प्रकार वाली अपरा और संपूर्ण लोको को धारण करने वाली जीव रूपा परा प्रकृति का वर्णन है जबकि इस श्लोक एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ।।७/६ का वर्णन क्षेत्रज्ञ के रूप में है इस दृष्टकोण से जो पहले क्षेत्रज्ञ कहा वही क्षेत्रज्ञ मैं हूँ, यह पर कह देने मात्र से जीव की स्वतः ही सत्ता समाप्त हो जाती है, इसमें विवाद नाम का कोई स्थान है ही नहीं और यदि है तो उनको खिलौने लेकर बच्चों के साथ खेलना चाहिए । यह संगति की गई पूर्व में भगवान के कथन के साथ । 
           अब यहाँ द्वैतवादी आगे से एक और प्रश्न उठाते हैं द्वामिमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।१५/१६।। उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।१५/१७।। यहाँ पर भी अक्षर का अर्थ जीव करके परमात्मा को अलग करके जीव और ब्रह्म में भेद करके एकत्व मानने से मना कर देते और उसी आधार पर यहां पर क्षेत्रज्ञ का अर्थ जीव करते हुए कहते हैं कि ईश्वर जीव कैसे हो सकता है ? अर्थात जीव के साथ एकत्व हो ही नहीं सकता है । इस पर मैं कुछ अधिक कहने की सामर्थ्य नहीं रखता, बड़े बड़े विवेकमार्तण्डों के भाष्य टीकाएं हैं, उनमें भी आचार्य शंकर मेरे लिए प्रमाण हैं, फिर भी संक्षेप से सूर्य के सामने जुगुनू प्रकाश अवश्य प्रकट करता हूँ ।  मैं उनसे यह पूछना चाहूंगा का कि आपने कूटस्थ १५/१६ का अर्थ क्या किया ? कूट का अर्थ स्पष्ट रूप से बाहर से कुछ और, एवं भीतर से कुछ और जो दिखे उसे कहते हैं कूट और जो इस कूटभाव में स्थित हो वह है कूटस्थ । कूटस्थ कहते हैं माया को जो बाहर से कुछ और एवं भीतर से कुछ और होती है । यहाँ पर अक्षर १५/१६ के साथ कूटस्थ १५/१६ कहा अर्थात अक्षर तो है लेकिन कूटस्थ अर्थात माया के साथ है । माया का कभी विनाश स्वतः नहीं होता जब तक कि परमात्मा का ज्ञान न हो जाये, इसलिये अक्षर कहा, {श्रुति भी माया यानी प्रकृति को एका, अजा, अक्षरा, नित्या, अव्यक्ता आदि कहती है वही यहां पुरुष संज्ञक होने से अक्षर कहना पूर्णतः निर्दोष है } जबकि अन्य सभी जड़ पदार्थ स्वतः परिवर्तित यानी क्षरण को प्राप्त होते रहने से क्षर कहे गये हैं । इस प्रकार अध्याय सात की द्विधा प्रकृति का ही १५/१६ में वर्णन हुआ है । जिसे इन दोनो पुरुषों से अन्य उत्तम पुरुष कहा गया है, परमात्मा नाम से कहा गया है उसी को यहाँ अव्यय ईश्वर नाम से कहा गया है । पहले कूटस्थ अक्षर और फिर अव्यय ईश्वर । इसी से समझ लेना चाहिए कि मायोपाधिक अक्षर का अव्यय ईश्वर का ज्ञान होते ही कूटभाव नष्ट होकर मात्र अक्षर यानी अविनाशी आत्मा बचेगा और यहाँ परमात्मा में माया संज्ञक पर उपाधि नष्ट होकर आत्मा ही बचेगा और आत्मा+आत्मा का एकत्व स्वतः होता है, जैसे नदी से नदी नामक उपाधि और समुद्र से समुद्र नामक उपाधि के हटा देने मात्र से उनमें स्थित जल की स्वतः एकता हो जाती है, इसमें अधिक विद्वत्ता की आवश्यकता कहां है ? यह तो द्वैत है जो कि प्रातिभासिक है वस्तुतः नहीं उसे सिद्ध करने में चाहे जितनी विद्वता दिखाओ अन्त में परिश्रम वन्ध्यापुत्रवत् ही रहेगा । हम इन दोनों श्लोकों का विश्लेषण यथास्थान पर करेंगे, अभी मात्र इसलिये सांकेतिक रूप से दिया ताकि द्वैतावादियों द्वारा उद्धृत उन श्लोकों को यहां पर पढ़कर कोई भ्रमित न हो, इसलिये पूर्व में अध्याय सात और आगे अध्याय पंद्रह का वर्णन किया । वस्तुतः देखा जाये तो इस प्रकृति और पुरुष का विवेचन इसी अध्याया में आगे किया गया है जिसमें उपद्रष्टानुमन्ता च १३/२२ संपूर्ण शंकाओं का निराकरण कर देता है तथापि कुछ बालबुद्धि लोगों की दृष्टि से पूर्वापर की संगति देना आवश्यक हो जाता है अतः वही किया ।
             इस प्रकार जितने भिन्न भिन्न क्षेत्र दिखाई दे रहे हैं उन सभी क्षेत्रों में एक मात्र क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ । ऐसा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जिसे ज्ञान है वही ज्ञान है अन्य नहीं ऐसा मेरा अर्थात परमात्मा कृष्ण का मत है । यहाँ पर ध्यान देना चाहिए कि अर्जुन ने कहा था वेत्तासि वेद्यम् ११/३८ अर्थात जानने वाले आप हो और यहां भगवान कहते हैं कि क्षेत्रज्ञ अर्थात जानने वाला मैं हूँ, अर्जुन कहता है आप ही जानने योग्य हो और यहां भगवान कहते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो विभाग पूर्वक ज्ञान है वास्तव में वही ज्ञान है अन्य नहीं । यहां क्षेत्र त्याज्य और क्षेत्रज्ञ ग्राह्य है अतः यहाँ भी जानने योग्य क्षेत्रज्ञ यानी परमात्मा है और अर्जुन का कथन भी यही है, इतना ही नहीं-- वेदैश्चसर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् १५/१५ अर्थात संपूर्ण वेदों द्वारा जानने योग्य मैं ही हूँ एवं वेद वित् एव अहम् अर्थात जो कुछ भी जानने योग्य है उसे जानने वाला भी मैं ही हूँ । इस प्रकार जब एक मात्र परमेश्वर ही जानने वाला और जानने योग्य है तो उससे भिन्न कुछ है नहीं तो जीव और ब्रह्म की भिन्न और स्व से भिन्न अन्य सत्ता का प्रतिपादन भला भगवान क्यों करने लगे ? अतः यहाँ क्षेत्रज्ञ का अर्थ अभिन्न परमात्मा है यह सिद्ध हुआ ।
            भावार्थ---- क्षेत्रज्ञ यानी जानने वाला स्वयं परमात्मा है, अन्य नहीं । इस ज्ञान से जीवभाव ही समाप्त हो जाता है यह भाव दृढ़ हो जाने पर  क्षेत्र अर्थात शरीर से देहाभिमान नष्ट हो जाता है । और वह परमत्त्व में स्वतः प्रतिष्ठित हो जाता है यह जो पहले कहा था क्लेशोऽधिकतरं तेषाम् १२/५ उसका यहाँ यह समाधान दिया गया है ।।२।।

            संबंध---- इस प्रकार क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का वर्णन करके अब उनके प्रभाव को सुनने के लिए कहते हैं...
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ।।१३/३।।
            शब्दार्थ---- वह क्षेत्र जैसा है और जिस प्रकार का है, जिन विकारों वाला है और जिससे जो उत्पन्न हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जिस प्रभाव वाला है उसे संक्षेप में सुन ।
            तात्पर्यार्थ---- क्षेत्र का स्वरूप जिस प्रकार का और जैसा है उसके विकार रूप कार्य और उस क्षेत्र की उत्पत्ति का कारण तथा जो क्षेत्रज्ञ है और क्षेत्रज्ञ जो जैसा प्रभाव है उसका संक्षेप में सुनने की आज्ञा । भाव स्पष्ट है ।।३।।

            संबंध---- भगवान मात्र संक्षेप से कहेंगे लेकिन बात अपनी नहीं ऋषियों आदि की ही कहेंगे इस बात पुष्टि…..
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।।१३/४।।
            शब्दार्थ---- ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है, छन्द यानी चारों वेदों द्वारा अनेक प्रकार से अलग अलग कहा गया है, और युक्तियों द्वारा भलीभाँति सुनिश्चित किया हुआ ब्रह्मसूत्र में पदों द्वारा कहा गया है ।
            तात्पर्यार्थ---- ऋषियों द्वारा कहे जाने का मतलब उनके द्वारा रचित स्मृति आदि ग्रंथ, छन्द का सामान्य अर्थ वेद ही ठीक है विस्तार विद्वानों का विषय है ये सभी अलग अलग अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार बहुत प्रकार से कहते हैं एको सद्विप्रा बहुधा वदन्ति (ऋ. १६४/४६) अर्थात उस एक ब्रह्म का ब्रह्मवित् अनेक प्रकार से कथन करते हैं । हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः में अर्थकार हेतुमद्भिः का अर्थ युक्तियुक्त करते हैं ठीक भी है तथापि विनिश्चितैः कहने मात्र से संपूर्ण युक्तियों का समावेश हे जाता है, इसके पश्चात हेतुमद्भिः में मत् शब्द आत्मप्रत्यय के लिए सुनिश्चित हो जाता है अतः हेतुमद्भिः का सीधा अर्थ होता है मेरे अर्थात मुझ सर्वात्मा के निमित्त । तात्पर्यार्थ यह है कि अन्य सभी क्षेत्र के विषय में विस्तृत वर्णन करते हैं और संक्षेप में आत्मपद का भी, लेकिन ब्रह्मसूत्र विभिन्न युक्तियों द्वारा भलीभांति सुनिश्चित करके पदों द्वारा मुझ आत्मा अर्थात क्षेत्रज्ञ की ही उपासना के विषय मे कहते हैं ऐसा तात्पर्य है ।।४।।

             संबंध---- यहाँ से अब दो श्लोकों में क्षेत्र का वर्णन करते हैं…...
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ।।१३/५।। 
            शब्दार्थ---- पांच आकाशादि सूक्ष्म महाभूत, अहंकार, बुद्धि, एवं अव्यक्त भी, ग्यारह इन्द्रियां, पांच इन्द्रियों के विषय ।
            तात्पर्यार्थ---- यहाँ यदि सृष्टि क्रम से लें तो पूर्वार्ध में अव्यक्त से महाभूतानि तक आयेंगे । अव्यक्त तीनों गुणों की साम्यावस्था मूल प्रकृति, मूल प्रकृति से बुद्धि का उपलक्षण महत्तत्त्व, महतत्त्व से अहंकार और अहंकार से सूक्ष्म आकाश आदि पांच सूक्ष्म महाभूत उत्पन्न होते हैं । उन सूक्ष्म महाभूतों से दस इन्द्रियां और एक मन एवं इन्द्रियों के विचरण के स्थूल शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध विषय इस प्रकार ये चौबीस तत्त्व उत्पन्न होते हैं ।।५।।

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।।१३/६।।
           शब्दार्थ---- इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, शरीर, चेतना, धृति, ये क्षेत्र को विकार सहित संक्षेप में कहा गया हैं । 
           तात्पर्यार्थ---- इच्छा द्वारा उसी की प्राप्ति होती है जिनके गुणों से हम परिचित होते हैं, द्वेष का कारण अपने प्रतिकूल जिस जिस को जानते हैं, सुख अनुकूल दशा की प्रसन्नता, दुःख विपरीत स्थिति, संघात यानी मन इन्द्रियों के सहित स्थूल शरीर, चेतना अर्थात चैतन्य परम प्रकाश जिसमें प्रकाशित होता है वह ज्ञानस्वरूपा बुद्धि अथवा प्राणशक्ति ये सदैव परिवर्तित होते रहते हैं, धृति अर्थात धारणा शक्ति जो विषम परिस्थिति में शरीर सहित इन सभी विकारों को धारण करती है अथवा धृति यानी धैर्य जो समयानुसार परिवर्तित होने वाली है । इस प्रकार ये सात, उपरोक्त चौबीस तत्त्वों के विकार संक्षेप में कहे गये हैं ।
              पूर्वोक्त श्लोक में चौबीस तत्त्व जिसमें अव्यक्त तो तीनो गुणों की साम्यावस्था मूल प्रकृति है इसमें किसी प्रकार की विकृति नहीं है, आगे के शेष तत्त्व जिससे उत्पन्न होते हैं वह उत्पन्न कर्ता तत्त्व की विकृति है और उत्पन्न कर्ता तत्त्व प्रकृति । जैसे--- मूल प्रकृति से बद्धि उत्पन्न होने के कारण विकृति है और बुद्धि से अहंकार उत्पन्न होता है अतः बुद्धि प्रकृति है, अहंकार बुद्धि की विकृति है और आकाशादि पांचों भूतों को उत्पन्न करने के कारण प्रकृति है ऐसा समझना चाहिए । ये सभी चौबीस तत्त्व एवं सात विकार जिसे प्रथम श्लोक में इदं यानी यह करके कहा था उसे ही यहाँ एतत् अर्थात ये करके कहा है । ये सभी क्षेत्र संक्षेप से कहे गये हैं । इन्हें ठीक से समझ लेने मात्र से क्षेत्रज्ञ स्वतः इनसे भिन्न हो जाता है अर्थात जड़ यह नाम से जाने गये प्रत्येक पदार्थ से संबंध विच्छेद हो जाता है । यहाँ अहंकार को भी क्षेत्र कहा है इसका अर्थ यह है कि जिसे अहं अर्थात मैं करके जानता हूँ कि मैं यही हूँ यह जो अहंभाव है वह भी मैं नहीं हूँ । यह अहं मेरा स्वरूप नहीं हो सकता, हो सकता भी नहीं है । यही भाव दिखाने के लिए क्षेत्र का वर्णन किया गया है ऐसा तात्पर्य है ।।६।।

            संबंध---- क्षेत्र का वर्णन करके अब क्षेत्रज्ञ का वर्णन करना चाहिए था लेकिन क्षेत्रज्ञ का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अधिकार चाहिए, उसके जो पहले देहाभिमान के रहते अव्यक्त की प्राप्ति दुःखद है १२/५ उसी देहाभिमान को नष्ट करके इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए पांच श्लोकों में बीस साधन बताए जा रहे हैं; चूंकि ये हैं तो साधन लेकिन ज्ञान की प्राप्ति में सहयोगी होने के कारण इन्हें ज्ञान नाम से कहा गया है…..     
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ।।१३/७।।
             शब्दार्थ---- मान रहित, दंभ रहित, क्षमाशील, सरल, गुरु की आराधना, पवित्रता, स्थिरता, मन पर नियंत्रण ।
             तात्पर्यार्थ--- चित्त की शुद्धि का सबसे बड़ा शत्रु होता है सम्मान की कामना, इसके आने पर शेष आगे के स्वतः ही आ जाते हैं । अतः मान देना तो चाहिए लेकिन बदले में मान की इच्छा न होना ही अमानित्व है । विष्णुसहस्रनाम में भगवान का एक नाम आता है अमानी मानदो अर्थात स्वयं अमानी हैं और दूसरे को मान देने वाले हैं । ज्ञानयोगी तो अहं ब्रह्मास्मि का अनुसंधान करते हैं अतः प्रथम लक्षण यही होना चाहिए अमानित्व का । अपने किसी कर्म का दिखावा न करना अदम्भित्व है । मन वचन और कर्म से किसी को क्लेश न पहुंचाना अहिंसा है । सहनशीलता का होना, किसी के अपराध करने पर भी दंड देने दिलाने का भाव न रखना क्षमा अर्थात क्षान्ति है । बाहर भीतर से एकरस होना अर्थात जैसा भीतर वैसा बाहर बिल्कुल सहज और सरल होना आर्जव है । गुरु की सेवा करना आचार्योपासना है तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।४/२४ व्याख्या वहीं देखना चाहिए । यहाँ आचार्य का अर्थात कोई व्याकरण या शास्त्र पढ़ाने वाला नहीं है बल्कि आत्मविद्या का प्रसंग चल रहा है अतः आचार्य का अर्थ आत्मवेत्ता गुरु समझना चाहिए । बाहर से मृत्तिका, जल आदि से शुद्धि एवं अभक्ष्य, अग्राह्य आदि से बचना एवं राग द्वेष काम क्रोध आदि अन्दर के विकारों से रहित होना ये बाहर भीतर की पवित्रता शौच है । दृढ निश्चय का होना, जो विचार कर लिया वह कर लिया इस प्रकार आत्मभाव में अविचल भाव से स्थिरता का होना स्थैर्य है । मन का यम नियम आदि के द्वारा साधन चतुष्टय द्वारा अपने आधीन रखना ।
           टिप्पणी----- यहाँ पर कुछ भक्तिपक्षी यह कहते हैं कि भक्त के लक्षणों में पहला लक्षण अभय १६/१ कहा गया है क्योंकि भक्त सब कुछ भगवान पर छोड़कर निर्भय हो जाता है जबकि ज्ञानी का प्रथम लक्षण अमानित्व कहा गया है । जिससे भक्त अन्त में देहाभिमान से रहित हो जाता और ज्ञानी शुरू से देह संबंध न मानने से पहले ही देहाभिमान से रहित हो जाते हैं । यहां बात तो बहुत ही अच्छी कही गई और भगवान का भी यही लक्ष्य है कि आपका देहाभिमान नष्ट हो जाये कैसे भी नष्ट हो तथापि यहाँ कोई भ्रमित न हो अतः एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अपने विवेक की कमी के कारण कोई यह न समझ ले कि भक्त प्रारंभ से निर्भय कहा गया है ज्ञानी नहीं इसका अर्थ यह है कि ज्ञानी पहले भयभीत रहता है और जैसे भक्त अन्त में देहाभिमान से रहित होता है वैसे ही ज्ञानी अन्त में निर्भय होता होगा । यह धारणा गलत होगी क्योंकि जिस समय संन्यास संस्कार होता है तब सबसे पहली प्रतिज्ञा अभयं सर्वभूतेभ्यः दाम्येतद्व्रतं मम अर्थात संपूर्ण प्राणियों को निर्भय करने का व्रत लिया जाता है, यह व्रत वही ले सकता है जो स्वयं पहले निर्भय हो, इसके बाद ही अमानित्व आदि की बात ज्ञानी के लिए भी आती है । जो भक्त में पहले अभयं १६/१ की बात कही गई है वह भक्ति के प्रसंग में नहीं दैवीसम्पत्ति के प्रसंग में है जो साधक की साधना के फलस्वरूप सत्त्वगुण संपन्न में स्वतः वे २६ दैवीगुण आ जाते हैं जो वहां वर्णित हैं अतः यहां किसी को भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है ।।७।।

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।१३/८।।
            शब्दार्थ---- इन्द्रियों के विषयों से वैराग्य के एवं अहंकार से रहित होने के लिए भी जन्म, मृत्यु, बुढापा, रोग में बारंबार दुःख एवं दोष का दर्शन करना ।
            तात्पर्यार्थ---- इन्द्रियों का विषयों से वैराग्य आवश्यक है, जब सुने गये और भविष्य में सुने जाने वाले लोक और परलोक के सभी विषयों से वैराग्य हो जाये, इन्द्रियों का उनकी ओर आकर्षण बिल्कुल न हो, लेकिन इतना सरल भी नहीं है । सरल कैसे होगा इसके लिए कहते हैं अहंकार रहित होना आवश्यक है । किस बात के अहंकार से रहित होना ? इसके लिए जो हमारा जो जाति, वर्ण और शरीर संबंधित अहं भाव है वह नहीं होना चाहिए किसी ने कहा शिवाश्रम…, झट कार्यकरण संघात को लेकर अहंवृत्ति जाग्रत हो जाती है यह जो अहंकार है, नहीं होना चाहिए । दूसरी बात अहंकार का अर्थ अभिमान या घमंड होता है । मैं संन्यासी हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं धनवान हूँ, मैने अमुक अमुक अत्यंत कठिन कार्य किये इत्यादि का घमंड नहीं होना चाहिए । यहाँ एवं पद निश्चय करने के लिए है अर्थात निश्चित ही क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मतत्त्व को जानने के लिए इन्द्रियों का उनके शब्दादि विषयों से वैराग्य एवं देह संबंधित अभिमान अर्थात देहाध्यास का नष्ट होना मुमुक्षु के लिए अत्यावश्यक है । देहाध्यास नष्ट होने के उपाय बता रहे हैं इनमें होने वाले बारंबार दुःखों में दोष का दर्शन करे । यहाँ दोषों का चिन्तन करे न कहकर दर्शन करे प्रत्यक्ष की भांति । प्रत्यक्ष किसी भी घटना का अधिक प्रभाव होगा है । हमें केवल दुःख का भोग नहीं करना है बल्कि उनमें दिखने वाले दोष और उनके प्रभाव को भी समझना है जैसा कि श्लोक तीन में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के प्रभाव की बात कहा था वह प्रभाव समझकर ही हम निवारण कर सकते हैं मात्र भोग लेने से संकट कम नहीं होता । वह प्रभाव कैसे देखें ? इसके लिए कहते हैं जन्म अर्थात जन्म का क्या प्रभाव है ऐसे देखें माता के गर्भ में रज वीर्य का पिंड बना, जठराग्नि से पका, जठराग्नि में कैसे पका जैसे अग्नि पर रखे दूध का जलकर मावा बनता है । फिर मल मूत्र की थैली में बन्द । हिलडुल भी नहीं सकते । मां यदि कहीं तीखी मिर्ची आदि अधिक खा ले तो जठराग्नि और अधिक प्रबल होकर जलाती है । जन्म के समय योनियन्त्र से बाहर निकलते समय इतने छोटे द्वार से निकलने में कितनी असह्य पीड़ा का अनुभव होता होगा किसी प्रसूता द्वारा अनुभव किया जा सकता है वही अनुभव जन्म के समय बच्चे को होता है । जमीन पर गिरने के बाद भी वह कई महीनों तक मलमूत्र में ही सना रहता है, कोई जब साफ करे तब करे । मच्छर भी उड़ा नहीं सकता है केवल रो सकता है । थोड़ा बड़ा हुआ तो घर में मां बाप का भय और स्कूल में शिक्षक का, तो खेलते समय मित्रों का भय । विवाह हुआ तो देवी जी सिर पर सवार, मां बाप छूटे वह अलग, और पता नहीं क्या क्या संकट उपस्थित हो जायें यह सोचकर भी जो अपनी आंखों से देखा मन कांप उठता है । हमें लगता है दुश्मन भी उतना क्लेश नहीं दे सकता है जितना पत्नी देती है भगवान ही ऐसी देवियों से रक्षा करे ।
            यहाँ पर जन्म के बुढ़ापा पहले आना चाहिए था लेकिन मृत्यु पहले आ गया इसका कारण ऐसा हो सकता है कि वृद्धावस्था के साथ व्याधि अर्थात रोग भी दिया है जो वृद्ध और अन्य के लिए उभयपक्षी होने के कारण बाद में दिया हो अतः सम भी पहले मृत्यु पर ही विचार करते हैं। मृत्यु जितना जन्म लेने में क्लेश होता है उससे अधिक क्लेश मृत्यु में होता है । जिन्दगी भर की कमाई से आसक्ति जल्दी तो छूटती नहीं है । मृत्यु काल में उसके छूटने का कष्ट । प्राणों के उत्क्रमण के समय शरीर में असहनीय पीड़ा का कष्ट । कहते हैं कि हजारों बिच्छू के डंक मारने की जितनी पीड़ा होती है उतनी पीड़ा मृत्यकाल में होती है । जिसे बिच्छू ने डंक मारा हो अनुमान कर ले । 
             वृद्धावस्था आ गई । अब जिनको अपनी पत्नी माना उसका कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है वह कहती है बुढउ जब तुम मरिहौ तब सात बाती क्यार घिउ क्यार दिया जलइबे अब पत्नी मरने के लिए मनौती मान रही है । पुत्र को आवाज लगाओ कि बेटा थोड़ा पानी दे दो तो बिना घर से बाहर निकले ही आवाज आ जाती है कि मैं कहीं सगुन से जा रहा था बुड्ढे तूने टोककर अपसगुन कर दिया । जिसने सारी जिंदगी बच्चों की परवरिश करने में लगा दी अब उसी का बोलना अपसगुन हो गया । बहू को कहीं प्रपंच करने को नहीं मिलता है घर से बाहर जाकर तो वह कहती है बुड्ढा मर भी नहीं जाता उल्लू की तरह टुकुर टुकुर द्वार पर पड़ा देखता रहता है । इत्यादि । इसपर भी अवस्था जर्जर है और रोगों ने आक्रमण कर दिया जो मृत्यु से पहले जाने वाले नहीं । मृत्यु कब होगी पता नहीं । उसकी भी पीड़ा सहन नहीं होती । यह आवश्यक नहीं है कि मृत्यु वृद्धावस्था में ही आये । मुझे ही देख लो स्वास्थ्य क्या होता है मैं जानता ही नहीं । कई बार इस शरीर से व्यथित होकर आत्महत्या का भी भाव मन में जागा लेकिन किसी अदृश्य पुण्य प्रभाव से बचा हुआ हूँ । ये प्रभाव है क्षेत्र का जो स्थूल कार्यकरण संघात का अथवा क्षेत्र का विकार भी कह सकते हैं । इस प्रभाव को जो जान लेता है वही इस प्रभाव का निराकरण भी कर सकता है । इसके लिए ही इसे ज्ञान कहा गया है ऐसा तात्पर्य है ।।८।।

असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।।१३/९।।
             शब्दार्थ---- पुत्र, पत्नी, घर आदि में आसक्ति एवं पक्षपात रहित होना, अनुकूलता एवं प्रतिकूलता में निरंतर सम रहना ।
             तात्पर्यार्थ---- हमने भावावेश में पुत्र और पत्नी के गुण दोष पूर्व श्लोक मे कह दिये हैं और धन की आसक्ति भी मृत्युकाल में कैसे दुःख देती ? धन से कितने अनर्थ होते हैं यह किसी से छिपा नहीं है । साथ ही घर को भी धन समझ कर उसके विषय में भी विचार करना चाहिए कि गृह में भी आसक्ति न हो क्योंकि आसक्ति आसक्ति होती वह बंधन का निमित्त तो बनेगी ही । आदि शब्द यहाँ अतिरिक्त है  इससे हमारी पशु संपत्ति को भी ग्रहण करना चाहिए । पुत्र के साथ जिसका वर्णन ऊपर हो चुका है उस बहू को भी समझना चाहिए, साथ ही उनके पुत्र-पुत्री आदि भी । इसके अतिरिक्त हम और जिसे अपना मित्र शत्रु मानते हैं उसका भी आदि शब्द से ग्राहण करना चाहिए । उपरोक्त रीति से विचार करके इनमें से एक मात्र आत्मनिष्ठा या परमेश्वर को छोड़कर किसी में भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए । यहां अनभिष्वङ्गः शब्द आया है । वैसे सामान्य भाव से देखा जाये तो असक्ति और अनभिष्वङ्गः में अधिक अन्तर नहीं है तथापि आसक्ति उन से होती है जो हमारे अधिक हितैषी होते हैं या जिन्हें हम हितैषी मानते हैं । इसी आसक्ति के कारण ही हम अनेक बार पक्षपात कर बैठते हैं जो हमारे पतन का हेतु है किन्तु आसक्ति के न रहने पर हमारे अन्दर न्याय प्रतिष्ठित होगा उस समय हमारा न कोई शत्रु होगा और न ही मित्र । अतः हम जो भी करेंगे अनासक्ति के कारण ईर्ष्या द्वेष से रहित होकर करेंगे जो पक्षपात रहित होगा ।
            आदि से शरीर भी क्यों छूट जाये ? सारे अनर्थों की जड़ तो शरीर ही है अतः इस पर भी विचार करना चाहिए कि जिस शरीर को मैं शिवाश्रम समझता हूँ, जिस शरीर में मैं रहता हूँ । वह शरीर रक्त, मांस, अस्थि केश आदि निषिद्ध एवं अपवित्र धातुओं से बना है । इसमे पीब, टट्टी, पेशाब जैसी अपवित्र वस्तुएं भरी पड़ी हैं । ऐसे अपवित्र स्थान पर रहकर हम सुखी कैसे हो सकते हैं ? यह नस और नाड़ी का पिंजडा है और मैं इसमें बंद होकर सुखी रहने की कल्पना कैसे करूँ ? क्या कोई पक्षी पिंचड़े में बंद होकर सुखी हो सकता है ? क्या कोई अपराधी भी जेल में सुख का अनुभव कर सकता है ? क्या कोई पशु भी पशुबाड़ा में बंधकर रहना चाहेगा ? फिर तो हम मनुष्य हैं इस बात पर भी विचार क्यों न किया जाये ?  इस शारीर का मल मूत्र मैं स्वयं साफ करता हूँ, दवा आदि से स्वस्थ रखने के लिए पता नहीं क्या क्या करता हूँ फिर भी यह है कि कभी स्वस्थ रहता ही नहीं । इसके लिए ही झूठ, कपट, चोरी, बेइमानी, यहां तक गुरु एवं माता-पिता और गाय-ब्राह्मण तक की हत्या कर देने पर भी यह संतुष्ट नहीं होता और अन्त में साथ छोड़ ही देता है । इह प्रकार के विचारों द्वारा जिस शरीर को हम मैं मानते हैं उस शरीर पर भी विचार करना चाहिए । क्योंकि ये सभी विकार हैं । ऐसा तात्पर्य है ।।९।।

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।।१३/१०।।
           शब्दार्थ---- मुझ वासुदेव में अनन्ययोग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्त सेवन, जन समूह से अनासक्ति ।
            तात्पर्यार्थ---- अनन्ययोग अर्थात जहाँ अन्य कोई है ही नहीं एक मात्र वासुदेव ही हैं वासुदेवः सर्वम् ७/१९ एवं सर्वं वासुदेवः बुद्धि हो गई हो, मेरा तेरा जैसा भाव ही न हो वासुदेव ही मैं हूँ मैं ही वासुदेव हूँ, यह वह और मैं सब वासुदेव ही हैं ऐसी अनन्य बुद्धि का स्थिर अर्थात समाहित या समाधिस्थ होना ही अनन्ययोग है । ऐसी मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति का होना अर्थात मुझसे भिन्न कुछ न चाहता हो ऐसी भक्ति अव्यभिचारिणी भक्ति है । जन समूह से दूर पवित्र, एकान्त, एवं निर्भय स्थान का सेवन करना जिसका श्रुति-शास्त्र वर्णन करते हैं । यहाँ एकान्त के साथ साथ मन में बैठा विषय समूह से भी दूर रहने की बात भी मन में बैठा कर रखना चाहिए अन्यथा जिसकी न बनी घर में उसकी न बनेगी बन में, उसे जंगल में पेड़, पत्थर भी बाध पहुंचायेंगे । जन समूह से किसी प्रकार का लगाव न होना । यहां ध्यान देना चाहिए कि अरतिर्जनसंसदि अर्थात जन समूह से रति न करने की बात कहा है न कि जन समूह से दूर रहने के लिए । जिसका सीधा संबंध यह है कि कोई चाहे कुछ देता हो या न देता हो हमें न राग करना है न द्वेष करना है क्योंकि अनन्य के साथ मूल में योग शब्द भी है जिसका अर्थ है हमें सम भाव में रहना सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा /२/४८ ।। अर्थात जो अज्ञानी और मूढ़ जन हैं उनसे न राग रखना चाहिए न द्वेष । यदि संग ही करना है तो ज्ञानीजनों का संग करना चाहिए । ऐसा तात्पर्य है ।।१०।।

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । 
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।१३/११।।
          शब्दार्थ---- अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थित रहना, तत्त्वज्ञान के लक्ष्य का दर्शन करना ये ज्ञान है इस प्रकार कहा गया है । इसके जो विपरीत है वह अज्ञान है ।
          तात्पर्यार्थ---- अध्यात्मज्ञान कहते हैं जिन साधनों से आत्मा अनात्मा का नीरक्षीर की भांति विवेक उत्पन्न हो, जैसे-- साधु या विद्वान तत्त्वदर्शी महापुरुषों की संगति, आत्मतत्त्व का विवेचन करने वाले शास्त्रों का नित्य पढ़ना, सुनना, सुनाना और मनन करना तथा निदिध्यासन अर्थात आरूढ़ होने का अपने अथक परिश्रम द्वारा प्रयत्न करना, यह सभी साधन अध्यात्मज्ञान के साधन हैं अव्यक्तासक्तचेतसाम् १२/१५ अर्थात जिसका चित्त अव्यक्त की उपासना में आसक्त है उनको इस अध्यात्मज्ञान में निरंतर अर्थात एक क्षण बिना गंवाये आसक्त हो जाना चाहिए । ठीक वैसे ही जैसे कामी कामिनी का, लोभी धन का निरंतर चिंतन करता है । इस साधन में शिथिलता न हो इसके लिए तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् अर्थात इन सभी साधनों से उत्पन्न होने वाला जो तत्त्वज्ञान है है उसका अर्थ अर्थात लक्ष्य क्या है ? फल क्या है ? इसका बारंबार दर्शन करना चाहिए अर्थात तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् का फल है परमतत्त्व की की प्राप्ति, स्वरूप की प्राप्ति अर्थात मोक्ष इस पर जब दृष्टि मुमुक्षु स्थिर कर लेगा तो वह शिथिल नहीं होगा । इस तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् का अर्थ यदि परमेश्वर कर लें तो और भी अच्छा होगा क्योंकि योगक्षेमं वहाम्यहम् ९/२२, ददामि बुद्धियोगं तम् १०/१०, …...अज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।।११/१२, तेषामहं समुद्धर्ता १२/८ ये जो भगवान की प्रतिज्ञाएं हैं उनका पालन तो उन्हें करना ही होगा क्योंकि वे मित्थ्यावादी तो हो नहीं सकते । बस हमें करना ये है तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् करना है अर्थात उस तत्त्वज्ञान का जो अर्थ है, लक्ष्य है वह वासुदेवः सर्वम् ७/१९ है जब वही सब है तो सब वही है सर्वं वासुदेवः इस प्रकार अपने सहित सब कुछ वासुदेव आर्थात परमात्मा में देखना और परमात्मा को सबमें देखना अर्थात यह जो सब है और मैं ये सब कुछ वासुदेव है और वह वासुदेव मुझसे भिन्न नहीं है, अतः मैं ही वासुदेव हूँ । इस प्रकार जब हम सर्वत्र परमात्मा का दर्शन करेंगे तो वे भी अपनी प्रतिज्ञा का पालन करेंगे । यही है तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
         अमानित्व से लेकर तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् तक जो साधन कहे गये हैं उन्हें ज्ञान नाम से कहा गया है । क्लेशोऽधिकतरं तेषां…..। ……. देहवद्भिरवाप्यते १२/५ कहा था-- अव्यक्त में ही जिसका चित्त आसक्त है उसकी सहज साधना देहाभिमान निवृत्ति के लिए यहाँ बता दिया । क्योंकि बिना देहाभिमान नष्ट हुए अव्यक्त परमतत्त्व को प्राप्त नहीं किया जा सकता है । इस प्रकार जो सविशेष ब्रह्म के उपासक को युक्ततम १२/२ अर्थात श्रेष्ठ कहा था इस प्रकार सविशेष साधन के द्वारा निर्विशेष साध्य को प्राप्त कर लेगा इस लिए वह श्रेष्ठ है । इन साधनों में अगर एक भी कम है तो देहाभिमान नहीं जा सकता और तत्त्वज्ञानार्थ स्वरूप मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि ये साधन जहाँ दैवी संपत्ति की वृद्धि करके आगे आने वाले ज्ञेयतत्त्व का अधिकारी बनाती हैं वहीं अमानित्व से लेकर तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् तक कहे गये बीसों लक्षणों से ठीक उल्टा दंभादि लक्षण अज्ञान की वृद्धि करने वाले हैं जो हमें हमारे लक्ष्य से विमुख करके नाना प्रकार के क्लेश देते हुए हमारे पतन का मार्ग प्रशस्त करके दुःखद गति प्राप्त कराते हैं क्लेशोऽधिकतरं तेषाम् १२/५ इस पूरे श्लोक का अर्थ वहीं देखना चाहिए । अज्ञान के लक्षण विशेष अध्याय १६/४ में कहे जायेंंगे ।
             भावार्थ---- जब हम परमेश्वर की अनन्ययोग से शरण ले लेते हैं तब उपरोक्त लक्षण स्वतः आ जाते क्योंकि यह भगवान की जिम्मेदारी हो जाती है अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने की और जिसका विवेक द्वारा देहाभिमान नष्ट हो गया है उसमें स्वतः उपरोक्त लक्षण होते ही हैं उन्हें किसी ईश्वर के सहयोग की भी अपेक्षा नहीं होती न कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ३/१८ ।। हम पढ़कर विवेचन तो कर सकते हैं लेकिन उपरोक्त लक्षण नहीं ला सकते और ये लक्षण साधन चतुष्टय संपन्न मुमुक्षु या अनन्यशरणागत भक्त में स्वतः आ जाते हैं । ऐसा तात्पर्य है ।।११।।

          संबंध---- अभी तक पहले क्षेत्र का वर्णन करके फिर ज्ञान नाम से ज्ञान के साधनों का वर्णन किया । उन साधनों से क्या प्राप्त होगा ? इसके उत्तर में चित्तशुद्धि होने पर वस्तुतः मुमुक्षु के लिए जिस ज्ञेयतत्त्व का ज्ञान होगा उसका कथन…...
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।।१३/१२।।
            शब्दार्थ---- जो जानने योग्य तत्त्व है उसे कहूंगा जिसे जानकर तू अमृत अर्थात मोक्ष को प्राप्त करेगा । वह परब्रह्म अनादिवाला है न तो उसे सत् कहा जाता है और न ही असत् कहा जाता है ।
            तात्पर्यार्थ---- ऊपर अमानित्वादि साधनों से चित्तशुद्धि होने पर आचार्य एवं शास्त्र द्वारा श्रुत ज्ञान का मनन और निदिध्यासन करने पर जिस ज्ञेयतत्त्व का ज्ञान होगा उसे यहां पर कहा जा रहा है । यद्यपि ज्ञान ऊपर कहा जा चुका है लेकिन वह ज्ञानोत्पत्ति का सहयोगी होने के कारण ज्ञान कहा गया है किन्तु वास्तविक ज्ञान तो उन साधनों के बाद होगा जिसे अनुभूति भी कह सकते हैं । जो मानव जीवन का चरम लक्ष्य है जिस ज्ञेयतत्त्व के जान लेने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रहता है उस ज्ञान की अनुभूति होगी । उस अनुभूति का फल क्या होगा कहते हैं अमृतत्व को प्राप्त कर लेगा जन्म मरण से सदा के लिए मुक्त हो जायेगा, क्योंकि बिना फल सिद्धि के कोई भी कहीं भी प्रवृत्त नहीं होता । अतः मुमुक्षु को उस अमृतस्वरूप की ओर आकर्षित करने के लिए फल का कथन अमृत कहते हैं ।
               यहाँ द्वैतावादियों ने भी माना है कि उपरोक्त कहे गये ज्ञान का फल प्रत्यागात्मा अर्थात जीव का स्वरूप है जिसे भगवान कहेंगे । साथ ही उन्होंने अनादिमत्परं में अनादि को अलग करके मत्परं का अर्थ करते हैं मैं ही जिससे पर यानी मैं ही जिसका स्वामी हूँ अर्थात यहां जीव को भगवान की शक्ति के रूप में दिखाते हैं । आपने अन्त में ब्रह्म के साथ परम भी जोड़ा है । 
              अतः मैं आपसे पूछना चाहूंगा कि यदि आप यह मानते हो कि उपरोक्त साधन का फल प्रत्यागात्मा अर्थात जीव के स्वरूप का साक्षाकार है जैसा कि आगे वर्णन किया गया है तो फिर निम्न लक्षण तो परब्रह्म के हैं, तो फिर ब्रह्म का अर्थात अपना ही स्वामी कोई कैसे हो सकता है ? समुद्र नदियों का स्वामी हो सकता है क्योंकि स्वामीपने के लिए अन्य की आवश्यकता होती किन्तु जल जल तो एक होता है नदीत्व और समुद्रत्व उपाधि हटने पर बचा जल तो एक ही होगा, इसी प्रकार आपके अनुसार यदि प्रत्यागात्मा का स्वरूप वह है जो आगे कहा जायेगा तो एकत्व स्वतः सिद्ध है फिर बलात् द्वैत सिद्ध करने में समय क्यों नष्ट करते हो ? साथ ही जब आपने मत्परं को एक साथ ले लिया तो दूसरा परं मूल में है नहीं तो आगे परब्रह्म कैसे कह सकते हो ? मात्र ब्रह्म कहो । इस प्रकार आपके अनादि और ब्रह्म दोनो प्रकृति ही हैं ऐसा मानने में कोई दोष भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि संपूर्ण जीवों की स्वामिनी प्रकृति है, वही जीवों का नियंत्रण करती है और वह अनादि, अजा, अक्षरा यानी अविनाशी, एवं ब्राह्म आदि नाम से जानी भी जाती है । रही न सत्तन्नासदुच्यते की तो वही वाणी का भी विषय नहीं बनती क्योंकि आचार्य शंकर ने भी माया अर्थात प्रकृति को अनिर्वचनीय माना है । सभी लक्षण तो प्रकृति के साथ घट रहे हैं । रही बात अमृत को प्राप्त करने की तो आपके अनुसार और शास्त्र के अनुसार भी जीव अविनाशी है । अतः उसे किसी अमृतत्व की प्राप्ति की क्या आवश्यकता है ? यावज्जीवेत् सुखी जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत व्यर्थ का इतना परिश्रम क्यों ? किसी भी परिस्थिति में आपकी बात युक्ति संगत नहीं लगती । अद्वैतामृतवर्षिणी भगवातीमष्टादशाध्यायिनीम् की रीढ़ ही तोड़ दी मात्र द्वैत सिद्ध करने के लिए । हमें ऐसे लोगों से कोई प्रयोजन भी सिद्ध होने वाला नहीं है । अतः अपने पक्ष पर विचार करते हैं---
            पूर्वार्ध का विचार ऊपर हो चुका है उत्तरार्ध का विचार इस प्रकार है-- अनादिमत् अर्थात् जो अनादि तो है किन्तु मत्प्रत्यय वाला भी है वह अनादि आत्मप्रत्यय के लिए ही क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि १३/२ कहा था । वह आत्मप्रत्यय क्षेत्रज्ञ ही परब्रह्म है । परब्रह्म का तात्पर्य है जो त्रिगुणात्मिका मूल प्रकृति है उससे भी पर अर्थात उसका भी जो आदि है किन्तु जिसका स्वयं कोई आदि नहीं है, सबसे पर यानी उससे बढ़कर भी कोई नहीं है न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभावः ।।११/४३ ।। ऐसे प्रभाव वाला वह आत्मरूप क्षेत्रज्ञ है जिसे न सत् कहा जा सकता है न असत् कहा जा सकता है अर्थात जो व्यक्त रूप में इन्द्रियों द्वारा  दिख रहा है उसे सत् नहीं कह सकते और जो स्व-स्वरूप दिखने में नहीं आ रहा है किन्तु उसे मात्र स्व करके अनुभव किया जा सकता है उसे असत भी नहीं कह सकते अथवा वह सत् रूप अस्ति यानी है ऐसा भी नहीं कह सकते और असत रूप नास्ति यानी नहीं है ऐसा भी नहीं कह सकते ।
             यहाँ न सत्तन्नासदुच्यते में इस प्रकार चिंतन करना चाहिए--- सत यानी जिसे वेदों द्वारा विधिमुख से वर्णन किया है वेद ही जिसका प्रमाण है वह प्रमाण सत रूप है ऐसा सत है यह भी नहीं कहा जा सकता और वेद जिसे नहीं कह सकता है केवल नेति नेति ही कहता है ऐसा निषेधमुखवाला है ऐसा असत् भी नहीं कह सकते । क्योंकि यदि विधि मुख से कहा जाये तो वह वाणी का विषय हो जायेगा, वाणी का विषय सावयव ही होता है और सावयव देशकाल परिछिन्न होता है और जो देश काल परिछिन्न होगा वह नाशवान अवश्य होगा । अतः वह देशकाल अपरिछिन्न अवयव रहित एवं अविनाशी है उसकी सीमा वहां से प्रारंभ होती है जहाँ से यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । अर्थात मन के सहित वाणी उसे बिना प्राप्त किये लौट आती है अतः वह विधिमुख का विषय न होने से सत नहीं कह सकते । चूंकि वह ब्रह्मवित् के अनुभव में आता है इसलिए उसका निषेध भी नहीं किया जा सकता अतः वह असत भी नहीं कहा जा सकता है । 
              तुलसीदास जी कहते हैं सुनहु तात यह अकथ कहानी । बरनत बनै न जाय बखानी ।। अर्थात मैं एक कथा सुनाता हूँ और वह कथा ऐसी है कि वह कही नहीं जा सकती है क्योंकि अकथ है । अकथ होने से वर्णन भी नहीं किया जा सकता और न ही उसके गुणों का ही बखान किया जा सकता है । इतनी बड़ी प्रतिज्ञा कि अकथनीय कथा कहना है वर्णन या बखान कुछ भी हो नहीं सकता । यही यहाँ भगवान कृष्ण कर रहे हैं । प्रतिज्ञा कर रहे हैं अनादि आत्मप्रत्यय क्षेत्रज्ञ के कथन की जिससे अमृतत्व अर्थात मोक्ष प्राप्त हो जाये और बता रहे हैं कि वह न सत् है, न असत् है, यह कौन सी बात हुई ? फिर भी कहेंगे । मुमुक्षु को लक्षणावृत्ति से कहेंगे । चूंकि उपरोक्त साधनों से मुमुक्षु की चित्तशुद्धि हो चुकी है अतः वह समझ लेगा । इसलिए कहेंगे ।
           टिप्पणी---- यहां ध्यान देने की बात यह है कि ज्ञातुं द्रष्टुं च प्रवेष्टुं च ११/५४ अर्थात श्रुति शास्त्र एवं आचार्य से जानकर कर और तत्त्व से समझकर उसमें प्रवेश करने की बात विराट रूप दिखाने के बाद कही थी । ठीक उसी क्रम से पहले प्रत्यागात्मा का विराट स्वरूप वर्णन किया जा रहा है । भगवान ने कहा था एकांशेन स्थितो जगत् १०/४२ अर्थात मेरे एक अंश में संपूर्ण जगत स्थित है । इसके अतिरिक्त इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।११/७ यह विराट रूप और कहीं नहीं मेरे शरीर के एक ही स्थान में में देखो यह भगवान का वाक्य है जबकि सञ्जय कहता है संपूर्ण जगत् को विभागपूर्वक अगल अलग और अनेक प्रकार का भगवान के शरीर के एक ही भाग में देखा ११/१३ । यहां भी अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् । १३/१६ आदि कहेंगे । जो श्लोक तीन में क्षेत्रज्ञ के प्रभाव की बात कही थी वही यहां क्षेत्रज्ञ यानी प्रत्यागात्मा के प्रभाव सहित आत्मा के विराट स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है । यह बताने के लिए कि जिस विराट को तुमने मेरे शरीर के एकांश में देखा वह तू देखने वाला और कोई नहीं मैं वासुदेव ही प्रत्यागात्मा रूप में हूँ । इसीलिये भगवान पहले ही कह चुके हैं पाण्डवानां धनञ्जयः १०/३७ क्योंकि ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति अर्थात ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही होता है । जानत तुम्हहिं तुम्हहिं होइ जाई । इस प्रकार जो भी उसे जान लेता है वही हो जाता है और अनन्त ब्रह्मांड उसके एक अंश में ही स्थित होते हैं जैसे नेत्र जीवन भर देखते हैं तो भी क्या उनके देखने का स्थान कभी भरा या आधा हो गया का अनुभव हुआ ? इसी प्रकार किसी भी इन्द्रिय द्वारा उनके ग्राहण का विषय ग्रहण करने पर भी कभी भरीं या आधी होने का अनुभव हुआ ? नहीं न ? तो फिर आत्मा तो उनका भी स्वामी है उसी आत्मा के एकांश में रहने वाली इन्द्रियों के एकांश में सभी विषय हो जाते हैं तो प्रत्यगात्मा यानी क्षेत्रज्ञ के एकांश में संपूर्ण जगत हो इसमें क्या संदेह ? इसी बात को श्रुति, शास्त्र एवं आचार्य से जानकर तत्त्व में प्रवेश किया जा सकता है अर्थात आत्मैक्य को प्राप्त किया जा सकता है उसी का बोध कराने के लिए यह ज्ञेय तत्त्व छः श्लोकों में कहा जा रहा है । ऐसा तात्पर्य है ।।१३/१२।।

             संबंध---- अब अनादिमत्परं ब्रह्म का अध्यारोप द्वारा विवेचन कर रहे हैं….
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।।१३/१३।।
            तात्पर्यार्थ---- उस प्रत्यागात्मा ब्रह्म के सभी ओर हाथ, पैर, नेत्र, शिर एवं मुख हैं । सभी ओर कान हैं संपूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित है ।
             तात्पर्यार्थ---- सामान्य बात है कि जब मिट्टी के हाथी घोड़े आदि खिलौने बनाते हैं तब उस मिट्टी में हाथ पांव आदि किस ओर होते हैं ? स्याही और कलम में किस ओर कौन से अक्षर, भाषा या लिपि होती है ? अर्थात उपरोक्त में सब ओर सब अक्षर आदि हैं । अब मन को ही देखिए कि उसकी आंखें की किस ओर हैं, हाथ, पैर, आदि किस ओर हैं ? सभी ओर हैं न ? फिर बुद्धि तो मन से भी सूक्ष्म है तो उसके भी हाथ पैर आदि सब ओर होना स्वाभाविक है । इसी प्रकार प्रत्यगात्मा तो इन्द्रिय मन बुद्धि सबको प्रकाश दे रहा है । उसकी सत्ता से ही संपूर्ण जड़ पदार्थ मन, बुद्धि आदि चैतन्यभाव को प्राप्त होकर कार्यरत हैं । आंखे उसी के प्रकाश से देखती हैं । इसी प्रकार से प्रत्येक शरीर का अवयव जड़ होकर भी चैतन्य की भांति उसी प्रत्यागात्मा चैतन्य से ही प्रकाशित है । उसने संपूर्ण शरीर को धारण कर रखा है । किन्तु उसे किसी ने धारण नहीं किया । वह आत्मा ही मन बुद्धि आदि का आदि कारण है किन्तु उसका कोई आदि नहीं है इसलिए वह अनादि है वह मद्भाव अर्थात अहं भाव से स्फुरित होता है, उससे पर कुछ नहीं है । अतः वह अनादिमत्परं है उसी अनादिमत्परं को ही ब्रह्म नाम से जाना जाता है । 
                  यहाँ पाणिपादं अर्थात हाथ पांव से कर्मेन्द्रियाँ एवं अक्षि अर्थात आंख से ज्ञानेन्द्रियाँ ग्राह्य हैं । मुख से भरण पोषण करने वाला अथवा संपूर्ण शरीर का पालन करने वाला है । शिर से सात ऊपर के लोक, पैर से सात निम्न लोक आदि । व्यष्टि एवं समष्टि अपने स्तर पर समझ लेना चाहिए ।।१३।।

           संबंध---- वस्तुतः अवयव रहित आत्मा को कोई हाथ पैर आदि नहीं होते हैं तथापि चूंकि वह मन, वाणी और बुद्धि का भी विषय है नहीं, फिर भी उसे अधिकारी को समझाना भी है अतः पहले हम मन बुद्धि का विषय बनाकर अध्यारोप करते हैं फिर जिसे आत्मा या ब्रह्म कहा जाता है उसका अपवाद करके सांकेतिक रूप से लक्ष्य निर्धारित करके बताया जाता है, जिसे साधन चतुष्टय संपन्न मुमुक्षु तो समझ लेते हैं अन्य नहीं इसी बात को कहा आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन २/२९ विस्तृत व्याख्या वहीं देखना चाहिए । अब न सत्तन्नासदुच्यते के विषय में कहते हैं…..
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ।।१४/१४।।
             शब्दार्थ---- वह सभी इन्द्रियों से रहित है किन्तु सभी इन्द्रियगुणों को प्रकाशित करता है । किसी प्रकार की उसमें आसक्ति नहीं फिर भी सबका भरणपोषण करता है । गुणरहित होकर भी गुणों का भोक्ता है ।
             तात्पर्यार्थ---- सर्व इन्द्रिय अर्थात हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रिय एवं कान नेत्र आदि ज्ञानेन्द्रिय । एवं इनके गुण यानी वृत्ति । चलना और सुनना आदि यह सब माया के कार्य में हो रहा है जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है--- बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना ।। आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बड़ जोगी ।। तन बिनु परस नयन बिनु देखा । ग्रहइ घ्रान बिनु बास अशेषा ।। असि सब भांति अलौकिक करनी महिमा जासु जाइ नहीं बरनी ।। उस में कोई इन्द्रिय नहीं है फिर भी संपूर्ण इन्द्रियों की जो वृत्ति है उन इन्द्रियों को प्रकाश जहाँ से मिल रहा है वही आत्मप्रकाश है, वही ब्रह्म है । सर्व इन्द्रिय के अन्तर्गत वाणी, पैर, हाथ आदि पांच बाह्य इन्द्रिय और चार अन्तः करण आदि आन्तर इन्द्रिय, श्रोत्र एवं त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रिय ये पांचो बाहर-भीतर अर्थात उभय रूप हैं वह आत्मा इन सबसे रहित है फिर भी इनकी वृत्तियों को प्रकाशित करता है । उसमें कोई फलेच्छा नहीं न मे कर्मफले स्पृहा ४/१४ क्योंकि आसक्ति तो कर्मफल चाहने से होती है और परमेश्वर को कोई कर्मफल की चाह नहीं है अतः वह अनासक्त अर्थात आसक्ति रहित है । आसक्ति रहित होकर भी वह सबका भरण पोषण करता है । तीन गुण तो प्रकृति में होते हैं आत्मा तो त्रिगुणातीत है फिर भी वह तीनो गुणों का भोग करता है । यहाँ तीनो गुणों का भोग करता सा प्रतीत होता है ऐसा समझना चाहिए । जिसका सीधा संबंध है कि वह गुणों का भोग नहीं करता वरन् गुणों को प्रकाशित करता है जैसा कि इन्द्रियवृत्ति को ऊपर प्रकाशित करने की बात आयी है यहां उससे भिन्न अर्थ नहीं समझना चाहिए ।
            टिप्पणी---- ध्यान रखें कि यहां न ब्रह्म शब्द से तात्पर्य है और न आत्मा या जीव से । पहले जो कहा था कि क्षेत्रज्ञ जिस प्रभाव वाला है उसको संक्षेप से कहूंगा १३/३ एवं जिसे क्षेत्र से भिन्न करके क्षेत्रज्ञ १३/१ कहा और उसी को क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि १३/२  कहा था उसी क्षेत्रज्ञ को यहाँ ज्ञेय रूप से कहा जा रहा है । अतः प्रत्यागात्मा, आत्मा एवं ब्रह्म शब्द से क्षेत्रज्ञ का ही कथन किया जा रहा है और वह क्षेत्रज्ञ १३/१ क्षेत्रज्ञ १३/२ से भिन्न नहीं है ।।१४।।

             संबंध---- वह इन्द्रियादि से रहित है फिर भी सबको प्रकाशित कैसे कर सकता है ? इस पर कहते हैं….
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ।।१३/१५।।
            शब्दार्थ---- वह चर और अचर में भी बाहर-भीतर से व्याप्त है । सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय है, अज्ञानियों से दूर और ज्ञानियों के निकट है ।
            तात्पर्यार्थ---- यहां पर पूर्वपक्ष शरीर के छूटने पर बाहर और शरीर के रहते आत्मा को अंदर मानता है एवं स्वभाव से अचर एवं शरीर संयोग से चर मानता है ।
            मेरा प्रश्न यह है कि आपने स्वयं प्रत्यगात्मा को ब्रह्म के समान व्यापक माना है । जब आत्मा ब्रह्म के समान व्यापक है तो वह शरीर रहते हुए भी बाहर क्यों नहीं हो सकता ? क्या आकाश शरीर के बाहर-भीतर नहीं है ? आत्मा तो उससे भी सूक्ष्म है फिर आपने शरीर के छूटने पर बाहर रहने की बात कैसे कही ? चलो मान लेते हैं कि आत्मा शरीर छूटने पर बाहर चला जाता है लेकिन कहां जाता है ? क्योंकि यह तो आप स्वयं कहते हैं कि ब्रह्म के समान होने से व्यापक है । आने जाने के लिए देश काल परिच्छिन्न होना आवश्यक है तब तो वह बाहर जायेगा ? और जो देशकाल परिछिन्न होगा वह व्यापक और ब्रह्म के समान कैसे हो सकता है ? वह तो सावयव विनाशी होगा । दूसरी बात आत्मा को आपने स्वभाव से अचर बताया और शरीर संयोग से चर । तो अचर स्वभाव होने से शरीर के बिना कहां और कैसे जायेगा ? क्योंकि कहीं जाने के लिए चलने का भी स्वभाव और शरीर होना चाहिए, परिच्छिन्नता होना चाहिए, अतः आपकी ही बातों से आपका विरोध सिद्ध होता है यह विवेकशील स्वयं समझकर दूर हो जायेंंगे । 
               सिद्धांत पक्ष यह कहता है कि बाहर भीतर वहां होता है जहाँ कार्य करण संघात अर्थात कोई न कोई शरीर होता है । शरीर की दृष्टि से वह आत्मा बाहर भी है और अन्दर भी । तो क्या वह मध्य में नहीं होगा ? इस पर कहते हैं कि वह सर्वव्यापक घनीभूत है उससे कोई ऐसी जगह शेष नहीं है जहाँ वह न हो, तो जायेगा कहाँ ? अतः वह अचर अर्थात स्थाणुवत् अचल है । इस घनीभूत अर्थ से बाहर, भीतर, मध्य, दिशा, विदिशा सब कुछ सम्मिलित हो जाता है । अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । अर्थात जितनी भी जो भी अवस्थाएं कही या अनुभव की जा सकती हैं उन सबमें वह है । वह चर अर्थात चलने वालों में भी है । यही माया है कि उससे कोई जगह शेष है नहीं फिर भी चलता हुआ सा दिख रहा है । भगवान घनीभूत हैं फिर भी वे माया को अपने आधीन करके अवतार लेते हैं ४/६ ।। उस समय चलते भी हैं, शत्रु संहार भी करते हैं, भक्तों की रक्षा भी करते हैं, इस प्रकार स्वयं ही स्वयं की गतिविधियों के लिए स्थान देते हैं यही माया है । दूसरी बात बर्फ में पानी बाहर भी है भीतर भी है, मध्य में भी है और पिंड के चारों ओर संपूर्ण पिंड ही बर्फ यानी पानी है । विशेष बात यह भी कि वे अचर यानी वृक्ष, पहाड़, मिट्टी आदि अचर में भी व्याप्त हैं और मनुष्य, पशु, पक्षी आदि विचरण करने वालों में भी व्याप्त हैं । 
              क्योंकि वह आत्मा अत्यंत सूक्ष्म है अणोरणीयान् अर्थात वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं वे अहंकार यानी मन, महत् अर्थात बुद्धि और बुद्धि भी जिसकी विकृति है उस तीनों गुणों की साम्यावस्था मूल प्रकृति से भी सूक्ष्म है इसीलिये जो अमानित्वादि साधन संपन्न नहीं हैं उनके लिए वह आत्मा अप्राप्य है क्योंकि वह बहुत दूर है, उसके पास मन और बुद्धि भी नहीं जा सकती किन्तु जो साधन चातुष्टय संपन्न उपरोक्त गुणों के स्वामी हैं उनके लिए तो उनके पास ही हृदय गुहा में स्वसंवेद्य आत्मरूप से सदैव प्राप्त ही है । ऐसा तात्पर्य है ।
            टिप्पणी---- यहां यह सिद्ध होता है बिना आत्मतत्त्व के ज्ञान के स्वसंवेद्य परमतत्त्व को नहीं जाना जा सकता है ।।१५।।

            संबंध---- विभिन्न रूपों में दिखने वाला आत्मा एक ही है इसका कथन…..
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।।१३/१६।।
             शब्दार्थ---- वह आत्मा विभाग रहित होते हुए भी विभक्त के समान दिखायी देता है और वह जानने योग्य आत्मा ही प्राणियों का भरण करने वाला, ग्रास बना लेने वाला तथा उत्पन्न करने वाला है ।
              तात्पर्यार्थ---- मिट्टी एक होकर भी नाम रूप आदि से खिलौने की भिन्नता दिखाई देती है तथापि सभी खिलौनों में मिट्टी एक ही है । एकाश एक होने पर भी घटाकाश, मठाकाश आदि नामों से भिन्न नाम रूप क्रिया होने पर भी आकाश ही है भिन्न नहीं । इसी प्रकार वह आत्मा भिन्न भिन्न नाम रूप क्रिया आदि धारण करने पर भी एक अखंड आत्मा से भिन्न कुछ नहीं है । उपद्रष्टानुमन्ता च १३/२२ में भी यही नाम रूप क्रिया के भेद से एक ही पुरुष का वर्णन किया गया है । वही ज्ञेय तत्त्व परमेश्वर संपूर्ण प्रणियों का भरण करने वाला अर्थात विष्णु है, सबको अपना ग्रास बना लेने के कारण संहारक रुद्र है रुद्राणां शंकरश्चास्मि १०/२३, एवं प्रभविष्णु अर्थात सबकी उत्पत्ति करने वाला होने से ब्रह्मा हैै ।
            विराट के वर्णन में आता तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ११/१३ अर्थात भगवान के शरीर के एक भाग में ही प्रविभक्तं अर्थात विभाग पूर्वक वह भी भी अनेकधा अनेक प्रकार के विभागपूर्वक देखा स्पष्ट देखा जबकि वह एकमात्र कृष्ण के शरीर के एकांश में ही वह सब देखा । वहाँ अर्जुन ने संपूर्ण लोकों को जहाँ महाकाल का ग्रास बनते देखा । भगवान भी कहते हैं कालोऽस्मि ११/३२वहीं उनको सबके आश्रय स्थान के रूप में भी देखा त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ११/१८.अर्थात सबका आश्रय स्थान होने से वे अपने आश्रयी का पालन कर रहे हैं और शाश्वतधर्मगोप्ता ११/१८ नित्यधर्म की रक्षा में तत्पर भी देखा । किन्तु वहां एक मात्र कृष्ण के अतिरिक्त देखा गया कुछ भी नहीं था । इसी प्रकार यहां कहते हैं कि जो बाहर अलग अलग नाम रूप क्रिया आदि को लेकर भिन्नताएं दिख रही हैं कि यह मनुष्य है, यह पशु है, यह पक्षी, या वृक्ष है वस्तुतः वह एक मात्र ज्ञेयतत्त्व प्रत्यागात्मा के अतिरिक्त कुछ नहीं है । यह सारा प्रपंच उसका विलास है ऐश्वर्य है । ब्राह्मादि के रूप में भी वही है और मनुष्यादि के रूप में भी वही है । 
                इस प्रकार यहाँ जो तज्ज्ञेयं पद आया है । तत् अर्थात वह ज्ञेय तत्त्व है जिसे क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि कहा था उसी का यहाँ प्रतिपादन करते हुए यहां बताया कि एक मात्र ज्ञेयतत्त्व आत्मा ही है जो अखंड है । ज्ञेय इसीलिये है कि वह दिख कुछ और रही है जबकि विचार करने पर है कुछ और । इस प्रकार यहाँ जीव ब्रह्म में अभिन्नता सिद्ध हुई ।।१६।।

              संबंध---- आत्मा का प्रभाव एवं प्राप्ति स्थान….
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।।१३/१७।।
             शब्दार्थ---- उस आत्मा को अन्धकार से परे ज्योतियों का भी ज्योति कहा जाता है । वह ज्ञानस्वरूप, जानने योग्य एवं ज्ञान द्वारा प्राप्त किया जाने वाला सबके हृदय में स्थित है ।
             तात्पर्यार्थ---- यहां आत्मा को अन्धकार से परे बताया गया है । यहां यह समझना चाहिए कि एक मात्र ब्रह्म ही प्रकामान है अन्य सभी उसी के प्रकाश से परस्पर प्रकाशित हो रहे हैं । अन्धकार प्रकृति का भी लक्षण है उसे भी ब्रह्म कहते हैं । प्रकृति दो प्रकार की कही गई है आठ भागों वाली अपरा और एक परा अर्थात अक्षर जीव रूप, ये जीव भी प्रकृति होने से अन्धाकारमय है, किन्तु चैतन्य परमप्रकाश ब्रह्म प्रकाश से प्रकाशित हुआ चैतन्य सा दिखता है । इसी बात का निराकरण करने के लिए ही तम अर्थात प्रकृति से परे आत्मप्रकाश को बताया है । इस बात को याद रखना होगा कि अक्षर जिसे जीव कहा गया है वह पर प्रकाश जीव है जो प्रकृति यानी माया के आधीन है यही बात “कूटस्थोऽक्षर उच्यते" १५/१६ में आयेगा जिसे लेकर उत्तम पुरुष और अक्षर जीव में भेददर्शी द्वैत सिद्ध करने में ही समय नष्ट कर देते हैं । ज्योति यानी प्रकाश । जैसे सूर्य प्रकाश, चंन्द्र प्रकाश, अग्निप्रकाश आदि वह आत्मा इन सबको प्रकाशित करता है और उसके बाद चैतन्य आत्मप्रकाश के द्वारा ये जगत को प्रकाशित करते हैं । 
                यदादित्यगतं तेजो…….। …..तत्तेजो विद्धिमामकम् ।।१५/१२ यही सूर्य आदि मुझ सर्वात्मा के प्रकाश से प्रकाशित हैं । सूर्य का उपलक्षण नेत्र संसार को दिखाने का जो काम करते हैं, यह देखना ही प्रकाश है, अर्थात दृष्टि की ज्योति नेत्र, श्रवण की ज्योति कान, स्पर्श की ज्योति त्वचा आदि । इसी प्रकार शब्दादि विषयों की ज्योति इंद्रियाँ, इन्दियों की ज्योति मन, मन की ज्योति बुद्धि और बुद्धि की ज्योति सबको जानने वाला क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मा है । सब कर परम प्रकाशक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ।। जो सबका प्रकाश करने वाला है वह अन्धाकारमय प्रकृति से परे है । या अन्धकार कहिए अज्ञान को । वह अज्ञान से परे ज्ञानस्वरूप है । ज्ञानस्वरूप होने से वही ज्ञेय अर्थात जानने योग्य है । वस्तुतः संसार में बहुत कुछ जानने देखने सुनने योग्य विषय हैं किन्तु वे सभी अज्ञान के अन्तर्गत अन्धकारमय माने गये हैं, क्षणिक आनन्द देनेवाले होकर भी दुःखमय हैं किन्तु आत्मा प्रकाशमय, नित्य आनन्दमय होने से यही जानने योग्य है और जो जानने योग्य होता है वही प्राप्त करने योग्य भी होता है । अतः उस आत्मा के प्राप्ति का स्थान ज्ञानगम्य है । इसी अध्याय में जो महाभूतान्यहङ्कारो १३/५ से लेकर तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् १३/११ तक छः श्लोकों में ज्ञान नाम से कहा गया उस ज्ञान का अनुष्ठान करके ही उसे प्राप्त किया जा सकता है । अथवा इस प्रकार समझना चाहिए कि जो साधन चुष्टय संपन्न होकर तत्त्वमस्यादि श्रवण पूर्वक ही उसे प्राप्त किया जा सकता है ।
             वहां कहाँ प्राप्त होगा ? इसके लिए कहते हैं कि वह और कहीं नहीं सबके हृदय में स्थित है । हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति १८/६१ यहां हृदय देश कहने का अभिप्राय यह है कि हृदय बुद्धि का निवास स्थान है और परमात्मा के सबसे अधिक सन्निकट कोई है तो वह है बुद्धि । अब कहेंगे कि क्या वह बुद्धि में स्थित है ? तो बहुत बुद्धिवादी चार्वाक नैयायिक आदि हैं उनको क्यों उपलब्ध नहीं होता ? तो इसका उत्तर यह है कि बुद्धि तो किसी को भी हो सकती है । बुद्धि का अर्थ चालाकी भी होता है और वह चालाकी यानी चतुराई से मिलने वाला नहीं है, बल्कि बुद्धि का अर्थ विवेक होता है । साधन चतुष्टय में सबसे पहला साधन विवेक है । साधन चतुष्टय इस प्रकार हैं , विवेक, वैराग्य, षट्संपत्ति (शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा एवं समाधान ये षट्संपत्ति है), एवं मुमुक्षा यानी मोक्ष की इच्छा । जब हम विवेक पूर्वक नीरक्षीर की तरह आत्मा अनात्मा का विवेक प्राप्त कर लेंगे तो संसार का यथार्थ सत्य सामने आ जायेगा, जिससे वैराग्य स्वतः हो जायेगा । वैराग्य आने के बाद षट्संपत्ति भी स्वतः दौड़कर आयेगी और षट्संपत्ति संपन्न होते ही मोक्ष की इच्छा स्वतः जाग्रत हो जायेगी । मोक्ष की इच्छा होने पर ही ईश्वर की कृपा होगी, ईश्वर की कृपा होते ही महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त होगा, महापुरुषों के सान्निध्य से शास्त्र कृपा होगी और शास्त्र कृपा होते ही आत्म कृपा हो जायेगी । क्योंकि यह आत्मा न तो प्रवचन से, न अधिक श्रवण से और न तो बल से ही प्राप्त होती है वरन् आत्मा स्वयं जिसे वरण करती है उसे ही प्राप्त होती है । यही तात्पर्य है आत्मा के हृदय में स्थित कहने का ।
            भावार्थ---- वह प्रत्यागात्मा ब्रह्म ही जिसे क्षेत्रज्ञ नाम से कहा गया है वही विवेकशील मुमुक्षु के लिए जो कि ज्ञानस्वरूप है अतः ज्ञान द्वारा ही प्राप्तव्य है । कुछ अगर जानने योग्य तो भी वही जानने योग्य है । अतः हमारा हर प्रयत्न उसी के लिए होना चाहिए ।।१७।।

            संबंध---- अब तक कहे गये क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय का उपसंहार और उसका फल….
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ।।१३/१८।।
             शब्दार्थ---- इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और ज्ञेय संक्षेप में में कहा गया है । मेरा भक्त इस प्रकार भलीभाँति जानकर मेरे भाव को प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त करता है ।
           तात्पर्यार्थ---- प्रथम श्लोक में जिसे इदं करके क्षेत्र कहा गया था उसका विवरण महाभूतान्यहङ्कारो १३/५ से लेकर  चेतनाधृतिः १३/६ तक क्षेत्र, अमानित्वम् १३/६ से लेकर तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् १३/११ तक छः श्लोकों में तत्त्व प्राप्ति में सहायक साधन रूप में ज्ञान एवं अनादिमत्परं १३/१२ से लेकर हृदि सर्वस्य विष्ठितम् १३/१७ तक ज्ञेयस्वरूप क्षेत्रज्ञ का वर्णन किया । अध्याय बारह में जिसे अपना अत्यंत प्रिय भक्त कहा था जो सिद्धों के अक्षयधर्म १२/२० का पालन करने वाला है ऐसा जो मेरा अतिप्रिय भक्त है यह जो क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय कहा गया है उसे भलीभांति विवेक पूर्वक जानकर, यहाँ वि उपसर्ग पूर्वक जानने की बात कही गई है इसका अर्थ यह है कि इस विज्ञान विवेक पूर्वक जानकर, जैसे महाभूतान्यहङ्कारो आदि क्षेत्र को भलीभाँति जान लेने से शरीर में होने वाला आत्मभाव नष्ट हो जाता है और जिससे सांसारिक आसक्ति का नाश हो जाता है, अमानित्वादि ज्ञान के साधन जानकर उन पर आरूढ़ता होगी जिससे अव्यक्त की प्राप्ति में बाधक देहाभिमान नष्ट होगा । देहाभिमान नष्ट होने पर ही चित्तशुद्धि होगी और चित्तशुद्धि होने पर ही आत्मतत्त्व को जानने की योग्यता उत्पन्न होगी तब वह क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मा के स्वरूप को जो अनादिमत्परं आदि ज्ञेयतत्त्व है को जानेगा यानी समझेगा, अनुभव करेगा । तब जाकर वह मेरे भाव को यानी परम सत्ता के साथ अभिन्नता प्राप्त करेगा । इस प्रकार ऋषियों का, वेदों का, वेदान्त आदि का जो तात्पर्य है उसे यहाँ तक संक्षेप में कह दिया और यही गीता का लक्ष्य है ।
           टिप्पणी---- मद्भाव का अर्थ है ब्राह्मी सत्ता और सत्ता एक ही होती है दो नहीं । कहने का भाव यह है कि जब क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को विधिवत समझ लेगा तब वह ब्रह्मस्वरूपता को प्राप्त करता है । ब्रह्म में पूर्णतः स्थित होगा । ऐसा तात्पर्य है ।।१८।।

               संबंध---- यद्यपि क्षेत्रादि के विषय में जो कहना था उसका कथन यहां पूर्ण हुआ तथापि उसे और स्पष्ट करने के लिए आगे का प्रसंग प्रारंभ करते हैं । अध्याय सात में जिसे अपरा और परा प्रकृति कहा था और इसी अध्याय में जिसे इदं अर्थात यह और क्षेत्रज्ञ १३/१ नाम से कहकर क्षेत्रज्ञ से एकता की गई उसी अपरा और परा प्रकृति को यहां प्रकृति और पुरुष नाम से पुनः स्पष्टीकरण करते हैं…..
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ।।१३/१९।।
             शब्दार्थ---- प्रकृति और पुरुष दोनो को ही अनादि जानो और विकारों एवं गुणों को प्रकृति से उत्पन्न हुआ जानो ।
              तात्पर्यार्थ---- प्रकृति और पुरुष अनादि है जिसका कोई आदि कारण न हो । जिसका आदि अर्थात जन्म नहीं होगा उसका अन्त अर्थात मृत्यु नहीं हो सकती अतः प्रकृति परिणामी अवश्य है किन्तु नाश नहीं होता । यदि प्रकृति का नाश होता तो ईश्वर का ईश्वरत्व किस बात को लेकर होता ? क्योंकि ईश्वर नित्य है और उसके नित्य ईश्वरत्व के संरक्षण के लिए किसी अन्य का होना आवश्यक है अतः प्रकृति को नित्य मानना पड़ेगा । भगवान कहते हैं कि ममयोनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् १४/३ अर्थात यदि प्रकृति नित्य अविनाशी नहीं होगी तो पुरुष किसके साथ मिलकर पुनः सृष्टि करेगा ? अतः अनादि शब्द यहाँ युक्ति संगत है । किन्तु उसमे उत्पन्न होने वाले जो विकार हैं १३/६ वे परिणामी हैं । वे नित्य नहीं हैं । उनमे गुण जो अमानित्व आदि हैं वे भी परिणामी अर्थात अनित्य हैं क्योकि ये सभी बंध रूप विकार और मोक्ष रूप गुणा प्रकृति के ही विकार हैं । जैसे मोक्षार्थी के लिए पाप तो पाप हैं ही किन्तु मोक्षमार्ग में बाधक होने से पुण्य भी पाप ही हैं, वैसे ही अगर बंधन और उसके हेतु इच्छा द्वेषादि विकार हैं तो मोक्ष और तत्संबंधी अमानित्वादि साधन भी विकार हैं । ये सभी प्रकृति से उत्पन्न गुणधर्म हैं पुरुष यानी आत्मा के नहीं ।
                यहां पर इसी अध्याय के प्रथम श्लोक में इदं करके जिस क्षेत्र का वर्णन करके क्षेत्रज्ञ को शुद्ध आत्मरूप बताया गया था उसी का स्पष्टीकरण यहाँ देते हैं कि जितने भी संसार बंधन के हेतु विकर हैं और जितने भी मोक्षसाधन हेतु बताए गये गुण हैं वे सभी प्रकृति के विकार मात्र हैं वस्तुतः पुरुष यानी क्षेत्रज्ञ १३/१ तो निर्विकार है उसमें किसी प्रकार का विकार नहीं है बल्कि वह भिन्न भिन्न क्षेत्रों में दिखने वाला एक मात्र शुद्ध चैतन्य सर्वात्मा ही है । पहले अनादिमत्परं ब्रह्म १३/१२ से लेकर हृदि सर्वस्य विष्ठितम् १३/१७ तक जिसे ज्ञेय को बताया वह क्षेत्रज्ञ १३/२ और यहाँ जिस पुरुष यानी क्षेत्रज्ञ १३/१ को ज्ञेय बता रहे वह दोनो ज्ञेयतत्त्व एक ही चिन्मय आनन्दस्वरूप, अव्यय परमतत्त्व परमात्मा हैं भिन्न नहीं इसका स्पष्टीकरण उपद्रष्टानुमन्ता च १३/२२ में भी होगा । इसमें उभौ के साथ अपि दिया गया है, यह अपि प्रकृति और पुरुष दोनो के नित्यत्व के निश्चय के लिए है ऐसा तात्पर्य है ।।१९।।

             संबंध---- जब सभी विकार और गुण प्रकृति के ही धर्म हैं और पुरुष शुद्ध चिन्मय परमतत्त्व है तो वह सुखी दुःखी क्यों होता है ? इस पर कहते हैं….
कार्यकरण कर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सर्वदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।।१३/२०।।
             शब्दार्थ---- कार्य एवं करण की हेतु प्रकृति कही गई है और सभी (सुख) दुःखों के भोग का हेतु पुरुष को कहा गया ।
             तात्पर्यार्थ---- कार्य यानी शरीर और करण यानी इन्द्रियां । जितने भी शरीर दिख रहे हैं ये प्रकृति का कार्य है उनमें पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त ये चौदह करण हैं अर्थात जो कार्य या क्रिया के साधन हैं उन्हें करण कहते हैं । कुछ लोग करण चौदह न मानकर तेरह मानते वे चित्त की गणना नहीं करते । उनका भी मत ठीक ही है क्योंकि संपूर्ण शरीर क्रियाशील कर्मेन्द्रियों के कारण है, उन कर्मेन्द्रियों पर शासन ज्ञानेन्द्रियाँ करती हैं, ज्ञानेन्द्रियों पर शासन मन करता है, मन बुद्धि के आधीन है और बुद्धि अहंकार के आधीन है इस प्रकार तेरह करण यानी साधन बताना उचित ही है, इसमें चित्त की कोई भूमिका समझ में नहीं आती है तथापि जिनके द्वारा चित्त चौदहवां करण माना गया है, उन्होंने कोई स्पष्टीकरण तो नहीं दिया तथापि यदि चित्त नहीं होगा तो अहंकार का भी प्रतिफलन कहाँ होगा और जब अहंकार का ही प्रतिफलन नहीं होगा तो और सब कहां टिकेंगे ? अतः अहंकार सहित सबके प्रतिफलन के लिए जो स्थान देता है, जो चित्र को पर्दे की भांति सत्ता देने वाला है वह है चित्त । अतः अपने अपने स्थान पर दोनो पक्ष ठीक हैं इसमें कोई विवाद नहीं ये सभी कार्य हैं प्रकृति के ।
           पुरुष के सुखी दुःखी होने का कारण यह है कि वह प्रकृति की संगति करता है, उसके गुण दोष का भोक्ता स्वयं को मानता है । ऊपर जो करण दिये गये हैं उनमें एक करण हैं अहंकार, यह अहंकार दो प्रकार का होता है एक अहंवृत्ति दूसरा अहंकर्ता । यह जो अहंवृत्ति है से शुद्ध स्वरूपगत चैतन्य मात्र अहमस्मि ककी अनुभूति है और संसार बंधन से मुक्त करके अखंड आनन्द देने वाली है, जबकि अहंकर्ता शुद्ध चैतन्य होकर भी जड़ के साथ अपने को जोड़ लेता है । यह शरीर मैं, यह मैं करने वाला हूँ प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।३/२७।। अर्थात सब कर तो प्रकृति रहती, क्योंकि प्रकृति ही क्रियमाण है पुरुष नहीं क्योंकि पुरुष तो नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।२/२४।। अर्थात नित्य, सर्वव्यापक, सूखे ठूंठ के समान स्थिर, और शाश्वत है । फिर भी भ्रमवश प्रकृति अर्थात जड़ की संगति करने के कारण उसको उसके विकारों में ही रस आने लगा और उस रस का रसास्वादन करने लगा इसी कारण जो अनुकूल रस लगा उसमें सुखी हुआ और जो प्रतिकूल रस हुआ उसमें दुःखी हुआ । जो पुरुष सुखी हो रहा है वही दुःखी भी हो रहा है, ऐसा नहीं कि सुख में कोई और एवं दुःख में कोई और हो जाये । मूल में जो सर्वदुःखानां आया था उसमें सर्व शब्द से सुख का भी अन्वय कर लेना चाहिए क्योंकि जगत वास्तव में जिस समय सुख का अनुभव कर रहे हैं उस समय भी दुःख रूप ही है । क्षणिक अनुकूलता होने के कारण सुख का भ्रम मात्र हो गया । 
             भावार्थ---- वास्तव में प्रकृति से उत्पन्न गुण दोष पहचान लेने से रह समझ में आ जाता है कि प्रकृति ही क्रियमाण है उसके उसके विकार ही गुण दोष रूप में परिणाम को प्राप्त हो रहे हैं गुणागुणेषु वर्तन्ते ३/२८ और पुरुष अक्रिय है, शुद्धि चैतन्य सुखदुःखादि से रहित चिन्मय है तो वह स्वतः ज्ञान स्वरूप, ज्ञेय और ज्ञानगम्य है यह समझ में आते ही आत्मैक्य स्वतः सिद्ध हो जाता है । इसी परिदृश्य में ही इस प्रकृति और पुरुष का बोध कराया गया है । 
               भावार्थ---- वस्तुतः सुख दुःख का नाम ही संसार है और पुरुष उनके भोगने और न भोगने में स्वतंत्र है । जब वह इन गुण दोषों का भोगना छोड़ देगा तब वह स्वतः मुक्त है । ऐसा तात्पर्य है ।।२०।।

             संबंध---- पुरुष सुख दुःख का भोक्ता क्यों होता है ? यह बता रहे हैं...
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।।१३/२१।।
             शब्दार्थ---- क्योंकि पुरुष यानी जीव प्रकृति यानी प्रकृति के कार्य शरीर में स्थित है अर्थात शरीर में रहने के कारण शरीर और इन्दियों के समूह को ही “मैं यही हूँ” यह मान बैठा । वस्तुतः ‘मैं’ क्रिया का सूचक है जो प्रकृति का धर्म है और हूँ सत्ता का वाचक । यह जो अस्मि अर्थात हूँ ही पुरुष का वास्तविक स्वरूप है तथापि प्रकृति के साथ जो तादात्म्य हो गया है इसलिये क्रियात्मक ‘मैं’ में होने वाली विकृति जो महत्(प्रकृति) यानी बुद्धि से उत्पन्न इच्छा द्वेष आदि विकार भी उत्पन्न हो जाते हैं । पहले कार्य, फिर उसके विकार ये सभी प्रकृति के स्वाभाविक गुण हैं । यही जो प्रकृतिस्थ यानी शरीर हो जाना और शरीर को ही मैं समझने की भूल करना, यह शरीर ही सब कुछ है यही संगति अर्थात भूल इस जीव के सत्, असत् योनियों में जन्म और मरण का कारण है । जन्म तो मूल में है लेकिन मृत्यु नहीं दिया गया है, जिसका जन्म हुआ है तो मृत्यु भी सुनिश्चित है, जातस्य हि ध्रवो मृत्युर्ध्रवं जन्म मृतस्य च ।२/२७, अतः मृत्यु का अध्याहार स्वतः कर लेना चाहिए । सत् योनि अर्थात सात्विक देव योनियां, असत यानी पशु, पक्षी, सर्पादि योनियां । अथवा मनुष्यों में जो सात्विक गुण संपन्न हैं वे सात्विक योनि हैं और जो राजस तामस हैं वे असुर एवं राक्षस वृत्ति भाव को प्राप्त असुर योनियां है । इत्यादि ।
             यहाँ गंभीरतापूर्वक विचार करने पर पर प्रश्न यह उठता है कि जब प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उवापि १३/१९ के अनुसार जब प्रकृति और पुरुष यानी जीव अनादि है तो संगति भी अनादिकाल से है, अतः यहाँ जीव के मोक्ष का अभाव भी स्वतः सिद्ध है क्योंकि वह भले कार्यकरण संघात एवं उसके गुण दोष प्रकृति से उत्पन्न प्रकृति के भले हों लेकिन भोक्ता तो जीव है और अनादि काल से यही क्रम चल रहा है तो उसका अन्त कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि अज्ञान अनादिकाल से चला आ रहा है या नहीं ? अज्ञान अनादिकालीन होने पर भी ज्ञान से निवृत्ति होती है या नहीं ? जिस प्रकार अज्ञान अनादिकालीन होकर भी सान्त है अर्थात उसी प्रकार प्रकृति भी अनादि सान्त है । उसमें कोई प्रतिक्रिया बिना चैतन्यप्रकाश के हो ही नहीं सकती इसीलिये यहाँ जीव के सत् असत् योनि का कारण बताया इस प्रकृति का साथ । यदि यह प्रकृति और उसकी विकृति यानी विकारों का साथ छोड़ दे तो उसका मैं हूँ जो क्रियात्मक प्रकृतिस्थभाव है वह नष्ट हो जायेगा और स्वस्थ भाव में मात्र अस्मि में स्थित हो जायेगा । अस्मि भाव में स्थित होते ही अनादि प्रकृति सान्त हो जायेगी और यह जीव मुक्त हो जायेगा । प्रकृति की संगति से मुक्त होना ही मोक्ष है, यही जीव का सहज स्वभाव है यही निरुपाधिक ब्रह्म है । स्व-स्वरूप से भिन्न कोई मोक्ष नहीं होता है और यदि कोई स्वरूप से भिन्न मोक्ष की कल्पना करे तो वह भी देशकाल परिच्छिन्न होने के कारण नाशवान होगा । यही कारण है कि ज्ञानयोगी स्वरूप से भिन्न मोक्ष मानते ही नहीं हैं मात्र प्रकृति यानी जड़त्व का त्याग करके स्व-स्वरूप की स्थिति ही मोक्ष है, इसी बात को स्पष्ट करते हुए भगवान कहते हैं प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते ।। २/५५, इसी का संकेत इससे भी पहले दिया था आत्मवान् २/४५, यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।३/१७।। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ।।६/२५।। इत्यादि । अर्थ उन उन स्थानों पर ही देख लेना चाहिए । इस प्रकार मैं जो तत्त्वमसि सत्ता का वाचक असि पद है उसी असि की अनुभूति अस्मि है । जैसे तत्त्वमसि की अनुभूति अहं ब्रह्मास्मि है इसमें अहं यानी मैं ब्रह्म हूँ में मैं क्रियात्म प्रकृति का सूचक है । मैं में प्रकृति की संगति है और जब प्रकृति की संगति होगी तो प्रकृति कोई न कोई नाम और रूप अवश्य देगी, अतः उसी मैं ने नाम दे दिया ब्रह्म और जब नाम हो गया ब्रह्म तो हम उसके किसी न किसी रूप के चिन्तन में खो जाते हैं हैं कि वह निरवयव है सावयव है आदि में । चिन्तन करते करते निरवयव व्यापक सत्ता के साथ तादात्म्य हो जाने से जिसे वह ब्रह्म करके पहले तत् पदार्थ के रूप में जाना वही त्वं पदार्थ उपलक्षित आत्मा के रूप में अनुभूति में आ गया और पहले अयमात्मा ब्रह्म के रूप में अनुभूत हुआ फिर लगा कि वह अयमात्मा से भी उपर प्रज्ञानं ब्रह्म अर्थात उत्कृष्ट ज्ञान स्वरूप में में अनुभूत हुआ किन्तु जब और उत्कृष्टता को प्राप्त होते ही अहं ब्रह्मास्मि की एक आकृति बच गई । इसमें अहं और ब्रह्म तो प्रकृति का कार्य है और अस्मि शुद्ध स्व-स्वरूप की अपरिच्छिन्न अनुभूति जो सत्ता मात्र शुद्ध चैतन्य देशकाल अपरिच्छिन्न, चिद्घन, अखंड, एकरस, नित्य, अव्यय, शाश्वत, अखंडानंदैकरस की चरमसीमा आदि जो भी नाम श्रुति प्रतिपादन करे वह नाम उस पमसत्ता का ही है । इस प्रकार प्रकृति और पुरुष के अनादि कहने पर जीव की मोक्ष पर शंका का निवारण करते हुए यह सिद्ध होता है कि जीव का बंधन हुआ ही नहीं तो मोक्ष कहाँ से हो ? वह स्वयं ही मोक्षस्वरूप है । गीता मात्र उसे इद मम,इदमहम् का त्याग मात्र करना होगा ।।२१।।

                संबंध---- इस पुरुष यानी जीव की माया का संग किन किन उपाधियों तक सो सकता ? इसका कथना….
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।।१३/२२।।
             शब्दार्थ---- समीप से देखने वाला, संमति देनेवाला, सबका भरणपोषण करने वाला, स्वयं ही सुखदुःखादि का भोग करने वाला, शासकों पर भी शासन करने वाला और परमात्मा इस प्रकार इसी देह में स्थित परम पुरुष को ही कहा गया है ।
              तात्पर्यार्थ---- यहां जीव के स्वरूप का वर्णन किया गया है । एक ही आत्मा को भिन्न भिन्न कार्यों को लेकर भिन्न भिन्न नामों से बताकर जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन किया गया है तथापि…..
             (पूर्वपक्षीय शंका और समाधान----) द्वैतावादियों का मानना है कि यहाँ पर परमात्मा के साथ एकत्व नहीं हो सकता है क्योंकि जीव अपने ही शरीर का परमात्मा है, इस बात का ही यहां पर प्रतिपादन किया गया है न कि समष्टि ब्रह्म के साथ एकत्व का । उनके अनुसार शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रमतीश्वरः । गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशययात् ।।१५/८ ।।  के अनुसार भगवान स्वयं जीव को शरीर छोड़ने की बात करते हैं इस प्रकार भिन्नत्व स्वतः सिद्ध होने के कारण एकत्व सिद्ध नहीं होता । यह बात आपकी ठीक है तथापि ठीक उससे पहले देखिए मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।।१५/७। अर्थात मन सहित छः इन्द्रियगुणों को प्रकृति की ओर आकर्षित करता अर्थात खींचता है । उसके बाद शरीर छोड़ने की बात आती है तो इसमें आपने यहां कौन सी नई बात कह दी ? उतनी दूर जाने की आवश्यकता ही क्या थी ? यही इसी अध्याय में देख लीजिये पुरुषः प्रकृतिस्थो हि…...। …...सदसद्योनिजन्मसु ।।१३/२१।। पुरुष जिस समय प्रकृति के आश्रित हो चुका है और वह शुद्ध प्रकृति रहित अस्मि को माया यानी प्रकृति की संगति के कारण भूल गया और अहमस्मि रूप से क्रियमाण प्रकृति से संबद्ध होकर स्थूल और सूक्ष्म शरीर को ही मैं मानने लगा तो जब शरीर वाला है तो प्राणों का तो उत्क्रमण होगा ही । यही बात वहां मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति में कह रहे हैं । प्रकृति की ओर खींचना क्या है ? जब वह प्रकृतिस्थ स्थूल शरीर में स्थित है तो प्रकृतिस्थ सूक्ष्म शरीर स्वतः होगा और प्रकृति अपने गुणों सहित क्रियमाण होती ही है वह भी चैतन्य प्रकाश का आश्रय लेकर । प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।३/२७।। तो जब प्रकृति क्रियमाण होगी कर्षण यानी उत्क्रमण क्यों नहीं होगा ? अतः जो आपने यहाँ इस प्रकरण में उदाहण देकर द्वैत सिद्ध करने में समय नष्ट कर रहे हैं उससे कम समय में पूर्वोक्त श्लोक के साथ संगति लगा लेते तो अच्छा होता ।
              दूसरी बात आपने जो कहा कि यहाँ शरीर का अर्थ आत्मा है, ठीक है अगर यहाँ शरीर का अर्थ आत्मा है तो यहां पर कहा गया पुरुषः परः यानी असंग पुरुष का अर्थ क्या होगा ? और यदि इस असंग पुरुष का अर्थ आत्मा है तो शरीर का अर्थ आप आत्मा कैसे कर सकते हैं ? द्विरुक्ति दोष स्पष्टतः होगा, दूसरी बार इन दो आत्मा की संगति कहां लगाएंगे ? आपने आत्मा का अर्थ मन भी किया आपने उदाहरण दिया ध्यानेनात्मनि पश्यति केचिदात्मानमात्मना १३/२४  अर्थात आत्मा से आत्मा को ध्यान में देखता है तो इसका मतलब यह हुआ कि ध्यान के द्वारा मन से शरीर को देखता है ? या शरीर द्वारा मन को देखता है ? फिर यदि आपके अनुसार इन दोनो में किसी एक को मान भी लें तो अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगें चापरे १३/२४  में सांख्ययोग एवं कर्मयोग द्वारा देखे जाने को आप क्या कहेंगे ? कौन सी संज्ञा देंगे आप ? आपने ज्ञेयतत्त्व क्षेत्रज्ञ १३/२ यानी ईश्वर की व्याख्या अमानित्वादि में भी प्रत्यागात्मा में भेद दर्शन किया और क्षेत्रज्ञ १३/१ पुरुषः प्रकृतिस्थो हि में भी भेद दर्शन किया । आपको कहीं भी भेद के अतिरिक्त और कुछ दिखता ही नहीं है । सत्य है दो से भय होता ही है ।  अतः आपकी बात तो समझ से परे है विचार करने पर कोई पूर्वापर की संगति समझ में नहीं आती है । मात्र बालविवेक है जो गीता के मूलसिद्धांत अद्वैतमृतवर्षिणीं के पूर्णतः विरोध में है ।
              सिद्धांत पक्ष---- जिसे क्षेत्रज्ञ १३/१ नाम से कहा गया था उसका विभिन्न युक्तियों द्वारा यह बताया गया कि यह क्षेत्रज्ञ अर्थात जीव भाव कहाँ से आया और जबकि वह शुद्ध चिन्मय आनन्दघन चिद्रूप सत्तामात्र है, वह आत्मा यानी पुरुष जीव कैसे बना ?  अब यहाँ यही बात और अधिक स्पष्ट की जा रही है कि वह भिन्न भिन्न कार्यवश ही भिन्न भिन्न नाम और रूप धारण करता है जबकि वह असंग पुरुष और चिन्मात्र या सत्तामात्र है…...          
            उपद्रष्टा---- अन्तःकरण चतुष्टय सहित संपूर्ण इन्द्रियों के व्यापार को अत्यंत समीप से देखने के कारण उपद्रष्टा है । वह हृदयदेश में है अतः हृदय से अधिक समीप और कोई हो ही नहीं सकता है, अतः उपद्रष्टा है । हमेशा एक बात ध्यान रखना चाहिए कि हमेशा द्रष्टा दृश्य का होता है स्वयं का नहीं और दृश्य सदैव यह करके ही जाना जाता है जो प्रकृति है ।
          अनुमन्ता---- अन्तःकरण चतुष्टय सहित इन्द्रियों को उनके व्यापार में प्रवृत्त होने के लिए अनुमोदन करने के कारण अनुमन्ता है । हमेशा अनुमति दूसरे को दी जाती स्वयं को नहीं । अतः यह भी प्रकृति है ।
             यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह व्यष्टि और समष्टि दोनो के लिए कहा गया ऐसा समझना चाहिए । जैसे बद्धि व्यष्टि हो गई लेकिन बुद्धि  उपलक्षित महत् यानी प्रकृति समष्टि हो गई, बुद्धि से उत्पन्न अहं व्यष्टि और समष्टि है । अहंकार से उत्पन्न मन भी व्यष्टि और समष्टि है । चित्त जिस समय ज्ञान द्वारा कल्मष रहित होता है तब समष्टि चिद्रूप होता है और जब बुद्धि आदि के द्वारा इन्द्रियादि विषय संगति से कल्मष को प्राप्त हो जाती है तब बुद्धि आदि जिस पर्दे पर अपना कार्य करते हैं, वह पर्दा रूप चित्त हो जाता है यही व्यष्टि है । चित्त जो व्यष्टि है उस में दो तकार और समष्टि में मात्र एक तकार होती है । यही दो तकार माया यानी प्रकृति हो और एक तकार शुद्ध चैतन्य परमतत्त्व ।
           भर्ता----  यद्यपि संपूर्ण जगत असत है तथापि अविद्या का आश्रय लेने के कारण संपूर्ण ज्ञान-अज्ञानमय विकारों का व्यष्टि समष्टि रूप में पोषण करने वाला होने से भर्ता । ज्ञान भी स्व से भिन्न होता है और अज्ञान भी । अतः यह भी प्रकृति है ।
            भोक्ता---- संपूर्ण विकार स्वयं की अविद्या से उत्पन्न होने के कारण उसके परिणामस्वरूप सुख-दुःखादि का भोग भी स्वयं ही करने के कारण भोक्ता कहा जाता है । यह भी अविद्या के द्वारा भ्रमवश होता दिखाई देता है अतः यह भी प्रकृति है ।
         महेश्वर----  उपरोक्त चारों के नाशवान होने से गी.अ.७/४ के अनुसार अपरा प्रकृति के अन्तर्गत है, जबकि जीव का नाश नहीं होता, अविनाशी होने से अत्यंत महान है, महिमा वाला है । इसने संपूर्ण जगत को धारण कर रखा है गी.अ.७/५ अतः व्यापक होने से संपूर्ण व्यापार जगत इसी आत्मा (जीव) से उत्पन्न होने के कारण उनका नियमन (शासन) भी उसी में हो जाने के कारण वह शासक अर्थात ईश्वर है । वह इन्द्रियों के शासक मन, मन की शासक बुद्धि और उस बुद्धि पर भी आत्मरूप से शासन करने के कारण शासकों यानी ईश्वरों का ईश्वर होने से महेश्वर अवथा इन्द्रिय उपलक्षित उन उन के देवता सूर्यादि ईश्वरों का ईश्वर होने से महेश्वर है ।
              परमात्मा---- जब उपद्रष्टा से लेकर महेश्वर भाव तक जानकर जीव उन सबमें स्वयं को देखकर यानी अनुभव कर लेता है आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति ६/३२, स्वयं को उससे अभिन्न समझता है तब वह पर अर्थात सर्वोकृष्टता को प्राप्त होकर परम् कहा जाता है । अपने को उपरोक्त से पर अनुभव करके मात्र अहं भाव को प्राप्त होकर आकावशवत्, चिद्रूप, चिन्मय भाव को प्राप्त कर लेने पर यही आत्मा (जीव) परमात्मा कहलाता है । संभवतः यही कारण है कि चिद्रूप आकाश मात्र शरीर वाले ब्रह्मा जी को भी जीव ही कहा जाता है ।
           इस प्रकार जहाँ अहं भाव का भी अभाव हो जाये मात्र स्वयं की महिमा में स्वयं स्थित रहे तब वही जीवभाव से ऊपर उठकर उस अनाम अरूप का नाम परस्पर सांकेतिक संबोधन हेतु ही ब्रह्म या पुरुषोत्तम कहा जाता है ।
           इति उक्तः---- इस प्रकार असंग, निर्लेप, निर्विकार, कूटस्थ अजन्मा, नित्य, शाश्वत, सबका आदि किन्तु जिसका स्वयं कोई आदि नहीं है ऐसा अनादि परमतत्त्व ही विभिन्न रूपों कभी माया को अपने आधीन करके अवतार रूप में कभी माया के साथ क्रीड़ा करने हेतु माया के आधीन होकर जीव रूप में स्वयं  ही अविद्या का आश्रय लेकर या संगति करके उपद्रष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर एवं परमात्मा नाम संज्ञाओं को धारण करता है, संज्ञा अविद्या का हेतु होने से ही प्रकृति कही गई है । 
               अस्मिन् देहे परः पुरुषः ― किन्तु इसे व्यष्टि और समष्टि शरीर में जिसे भी इदं कहा जा सकता है इदं शरीरं १३/१ उसमें मैं की संज्ञा को धारण करके अस्मि या असि सत्ता ही स्थित है जो असंग पुरुष यानी जिसका प्रकृति से दूर दूर तक संबंध नहीं है वही असंग पुरुष स्थित है अन्य नहीं । इस प्रकार जो भगवान ने कहा था क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि १३/२ वह युक्ति संगत है क्षेत्रज्ञ १३/१ यानी जीव एवं क्षेत्रज्ञ १३/२ यानी ब्रह्म एक ही हैं अभिन्न हैं यह सिद्ध हुआ । इसी को भगवान उत्तम पुरुष यानी पुरुषोत्तम १५/१७ कहेंगे ।
                समीक्षा---- अध्याय सात में कही गई अपरा और परा प्रकृति का वर्णन यहां श्लोक एक में इदं शरीरं १३/१ से अपरा का और क्षेत्रज्ञं १३/१ से परा प्रकृति यानी जीव का वर्णन कर दिया । अगले श्लोक में क्षेत्रज्ञ १३/२ जो इदं से रहित है वह मैं हूं यह कहा । जिसे अध्याय सात में सबका निमोत्तोपादन कारण बताया था वही यहाँ क्षेत्रज्ञ १३/२ कहा गया है । इस बात को भली भांति मन में बैठाकर रखना चाहिए क्योंकि अध्याय पंद्रह में जो श्लोक सोलह एवं सत्रह में तीन प्रकार के पुरुष कहे जायेंंगे उनमें प्रथम दो अपरा और परा नाम से कहे जायेंगें और जिसे पुरुषोत्तम कहा जायेगा वह यहाँ का एक का क्षेत्रज्ञ १३/२ होगा । इसी प्रकार वहां के क्षर पुरुष की व्याख्या यहां के विकारों और गुणों वाली प्रकृति एवं वहाँ का कूटस्थ अक्षर पुरुष यहां के प्रकृतिस्थ पुरुष को समझना चाहिए, श्लोक १५/८ में जीव के उत्क्रमण की बात को श्लोक १५/७ में पहले ही प्रकृति के साथ संयुक्त करके ही आगे उत्क्रमण कहा गया वहां पर, यहाँ प्रकृतिस्थ पुरुष १३/२१ के अनुसार एवं वहां जीव के उत्क्रमण की बात १५/८ में एवं यहाँ सदसद्योनिजन्मसु १३/२१ के साथ संयुक्त करके समझने पर विरोधाभास नहीं होगा । इसी प्रकार जिसे इस देह में पुरुषः परः अर्थात असंग पुरुष कहा गया है उसको ही पुरुषोत्म और वही क्षेत्रज्ञ १३/२ समझना चाहिए । इसमें किसी भी प्रकार का न तो विरोध है और नही द्वैत के लिए कोई स्थान है । यहाँ पर अद्वैतमृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनीम् का व्यास जी का उद्घोष अक्षरशः स्पष्ट है ।
              साधक एवं साध्य की दृष्टि से---- अध्याय दो से छः तक त्वम् पदार्थ का निश्चय करके, अध्याय सात से बारह तक तत् पदार्थ का निश्चय हुआ । अध्याय बारह में अर्जुन के प्रश्न पर सविशेष ब्रह्म के उपसकों को ही सर्वश्रेष्ठ कहा क्योंकि वे जो साक्षात् मेरी आत्मा ही हैं ज्ञानी त्वात्मैव ७/१८ उनका अनुसरण करते हैं, जो मेरे प्रिय हैं प्रियो हि ज्ञानिनोत्यर्थम् ७/१७ ऐसे ज्ञानियों के अक्षयधर्म रूप लक्षण का अनुसरण करते हैं १२/२०।। ऐसा करने से जो अव्यक्त की उपासना अत्यंत क्लेशकारी और शरीराभिमान के कारण दुःखद गति अर्थात अव्यक्त की प्राप्ति संभव नहीं थी उसकी प्राप्ति के लिए ही इस अध्याय तेरह का प्रारंभ किया । अध्याय सात में की गई ज्ञान विज्ञान की प्रतिज्ञा का यहां बहुत ही मार्मिक ढंग से वर्णन करते हुए असि पद का निर्धारण किया । यद्यपि यह उपदेश अभी पूर्ण नहीं हुआ है । अध्याय पंद्रह तक चलेगा तथापि पहले जो त्वं पदार्थ का वर्णन किया था और फिर तत् पदार्थ का । उन्हीं दोनो पदों का व्यतिरेक भाव से अर्थात जहाँ पहले त्वम् और बाद में तत् का वर्णन किया । वहीं इस अध्याय में पहले तत् पदार्थ यानी क्षेत्रज्ञ १३/२ का वर्णन अनादिमत्परं ब्रह्म १३/१२ से लेकर हृदि सर्वस्य विष्ठितम् १३/१७ तक ज्ञेयतत्त्व के रूप में वर्णन किया । फिर त्वम् पदार्थ यानी क्षेत्रज्ञ १३/१ का वर्णन प्रकृतिं पुरुषं १३/१९ से लेकर देहेऽस्मिन्पुरुषः परः १३/२२ तक वर्णन करके जो कहा था स च यो यत्प्रभावश्च १३/३ अर्थात वह क्षेत्रज्ञ जो है अर्थात उसका जो स्वरूप है और जैसा उसका प्रभाव है संक्षेप से कहूंगा । यहाँ पर तत् पदार्थ का स्वरूप बताते हुए उसका प्रभाव ज्तोतिषामपि १३/१७ आदि बताते हैं और त्वं पदार्थ का स्वरूप बताते हुए प्रभाव पुरुषः परः असंग पुरुष बताते हैं । तत्पुरुष को हृदि सर्वस्य विष्ठितम् १३/१७ बताते हैं तो त्वं पुरुष को अस्मिन् देहे बताते हैं । अर्थात इस शरीर में रहने वाला क्षेत्रज्ञ १३/२ अर्थात सर्वात्मा ब्रह्म और क्षेत्रज्ञ १३/१ यानी जीव भिन्न भिन्न नहीं हैं दोनो एक ही हैं और सभी उपाधियों से रहित सत्तामत्र से अस्ति यानी है या अस्ति की अनुभूति अस्मि यानी हूँ मात्र सत्ता है और सत्ता एक ही होती है भिन्न नहीं । अतः मायोपाधि से रहित होने पर जीवो ब्रह्मैव नापरः आचार्य जी का सिद्धांत श्रुति संमत असङ्गोऽयं पुरुषः, एकमेवाद्वीतीयम् सिद्ध हुआ ।।२२।।

            संबंध---- उपरोक्त प्रकृति पुरुष के ज्ञान का फल...
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ।।१३/२३।।
            शब्दार्थ---- जो इस प्रकार से पुरुष एवं गुणों सहित प्रकृति को जानता है वह सभी व्यवहार करता हुआ भी पुनः जन्म को प्राप्त नहीं होता ।
            तात्पर्यार्थ---- ऊपर में जो कहा गया है कि प्रकृति और प्रकृति के कार्य को गुण सहित जान लेता वह असंग पुरुष को भी जान लेता है । इस प्रकार अविद्या रूप प्रकृति और उसके गुणों का त्याग कर देता है । वह जान लेता है कि जीव और कोई नहीं बल्कि मैं ही प्रकृति संग से सर्वथा निर्लेप होकर भी उसका संग करके जीवत्व भाव को प्राप्त हुआ हूँ । वस्तुतः मैं परमपुरुष अर्थात गुण आदि तो प्रकृति के धर्म हैं मैं तो सर्वथा त्रिगुणातीत हूँ । मैं ही सर्वात्मा ब्रह्म हूँ । मैं ही सबको सत्ता देने वाला सत्तामात्र हूँ । यह जब ज्ञान हो जाता है तब हर प्रकार का व्यवहार करता हुआ-- हर प्रकार के व्यवहार का अर्थ है चाहे वह गृहस्थ रहे अथवा सर्वकर्मसंन्यासी हो जाये । चाहे वह कर्म करे चाहे वह निष्कामता को प्राप्त हो जाये, चाहे वह राजसी वेषभूषा में रहे अथवा दिगंबर यानी अवधूत बनकर रहे । इसी बात की पुष्टि करने के लिए ही अपि शब्द दिया गया है कि जो जिस स्थान पर है उस स्थान के अनुसार कर्तव्यकर्म करते रहने पर भी वह पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता । गीता में सबसे बड़ी असंभव कोई चीज है तो जन्म का न होना और जब जन्म ही नहीं तो मृत्यु कहां से होगी और जब जन्म मृत्यु का बंधन ही नहीं तो मोक्ष किसको होगा । अतः असंग पुरुष अर्थात प्रकृति के संसर्ग से रहित पुरुष का जन्म न होना यही अजातवाद है । इसीलिये हमारे यहाँ ज्ञान से मोक्ष माना गया है ज्ञानादेव तु कैवल्यं अर्थात ज्ञान से ही मोक्ष होता है ऐसा श्रुति भी कहती है । 
             यहां एक बात और ध्यान रखना चाहिए कि सर्वथा वर्तमानोऽपि से मात्र शास्त्रीय कर्म ही विहित हैं अशास्त्रीय नहीं क्योंकि अज्ञानी की भांति ज्ञानी को भी आसक्त पुरुषों की भांति कर्म करना चाहिए ३/२५ । एवं तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते  १६/२४ ।। शास्त्र मनमानी की अनुमति कभी नहीं देता ।।२३।।

             संबंध---- प्रकृति और पुरुष के विवेचन और उससे प्राप्त होने वाले फल के कथन के पश्चात अब दो श्लोकों द्वारा आत्मतत्त्व को प्राप्त करने वाले चार में से तीन प्रकार के अधिकारियों का वर्णन करते हैं….
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।।१३/२४।।
           शब्दार्थ---- कोई तो ध्यान के द्वारा आत्मा में आत्मा के द्वारा आत्मा को, अन्य दूसरे लोग साङ्ख्ययोग के द्वारा, तो अन्य कोई कर्म योग के द्वारा देखते हैं ।
         तात्पर्यार्थ---- अध्याय बाहर में सविशेष ब्रह्म के चार प्रकार के अधिकारी बताए थे मय्येव मन आधत्स्व १२/८, अभ्यासयोगेन १२/९, मदर्थमपि कर्माणि १२/१० एवं सर्वकर्मफलत्यागम् १२/११ । ये सभी वे अधिकारी हैं जो अभी देहाभिमानी हैं और उन उन साधनों को करके निर्विशेष ब्रह्म के सिद्ध उपासकों के लक्षणों का उपरोक्त साधनों के साथ अनुष्ठान करते हैं । तब अव्यक्त की प्राप्ति के अधिकारी बनते हैं और फिर क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग को श्रवण के अधिकारी बनते हैं । क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग को श्रवण करने के पश्चात भी चूंकि अलग अलग साधना से यह अधिकार प्राप्त हुआ है अतः उस अव्यक्त तत्त्व को प्राप्त करने में भी अलग अलग ही साधन का अनुसरण भी करते हैं । उत्तम, मध्यम और मन्द इन तीन साधकों का इस श्लोक में वर्णन है । 
            उत्तम साधक अनादिमत्परं ब्रह्म १३/१२ का जो हृदि सर्वस्य विष्ठितम् १३/१७ के रूप में अनुष्ठान करता है अर्थात जो ब्रह्म नाम से कहा जाने वाला प्रत्यगात्मा है जो हृदय उपक्षित बुद्धि में ही स्थित है जिसका श्रवण के पश्चात मन के द्वारा मनन करके निदिध्यासन रूप ध्यान के द्वारा देखा जा सकता है ऐसी आत्मा को कोई तो इस प्रकार देखते हैं । यहां आत्मनि का अर्थ शरीर कदापि नहीं हो सकता है क्योंकि परमात्मा जड़ नहीं चैतन्य है बुद्धि को परमेश्वर के अत्यन्त निकट माना जाता है और शरीर की अपेक्षा चैतन्यभावापन्न है और श्लोक में परमेश्वर सबके हृदय में रहने की बात कहते हैं, यहाँ हृदय उपलक्षित बुद्धि यानी जो नीर-क्षीर की भांति आत्मा-अनात्मा का विवेक कर सके उसी बुद्धि में परमेश्वर का निवास होता है न कि बुद्धि का अर्थ विषयी और चालाक बुद्धि । ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति १८/६१ अतः यहां परमेश्वर निर्विषयी बुद्धि के रूप में उपलक्षित है अर्थात पूर्णरूप से जिसका चित्त शुद्ध हो चुका है वही शुद्ध चित्त ही बुद्धि है ऐसी बुद्धि में जो सत् एवं असत का निर्णय हुआ उसका मन के द्वारा मनन करते हुए मन और बुद्धि का तादात्म्य अर्थात एकाकार होकर लक्ष्य में स्थित होना ही निदिध्यासन रूप समाधि है ऐसी समाधि में ही प्रत्यागात्मा अनादिमत्परं ब्रह्म का ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः के रूप में दर्शन करते हैं । यहां केचित् कहने का ऐसा अर्थ प्रतीत होता है कि जिनकी पूर्णतः चित्तशुद्धि हो चुकी है उनको तुरंत तत्त्वमस्यादि वेदान्त वाक्य सुनते ही अविलंब आत्मैक्यता प्राप्त हो जाती है किन्तु अभी भी जिनमें थोड़ा सा कल्मष शेष रह गया है उनको इस प्रकार श्रवण के पश्चात मनन पूर्वक निदिध्यासन करके ही आत्मसाक्षात्कार होता है । 
              दूसरे लोग जो मध्यम अधिकारी हैं उनके लिए अन्ये अर्थात अन्य कहने का अभिप्राय यह है कि इनमें पहले की अपेक्षा कुछ अधिक कल्मष है अतः ये बुद्धि में ही स्थित परमेश्वर को देखने में समर्थ नहीं हैं, अतः सांख्ययोग का आश्रय लेते हैं प्रकृतिं पुरुषं चैव १३/१९ यहाँ पर प्रकृति और पुरुष का विवेक करके वे यह जान लेते हैं कि देहेऽस्मिन्पुरुषः परः १३/२१ अर्थात इसी शरीर में स्थित परमपुरुष किस प्रकार प्रकृति के संग से सुख-दुःख का भोक्ता होकर सत् एवं असत् रूप योनियों में आत्यंतिक कारुणिक दशा को प्राप्त होता है और वही जैसे जैसे संग का त्याग करता जाता है वैसे वैसे उपद्रष्टा से लेकर परमात्मा तक की संज्ञा धारण करता है । वही जब माया से पूर्णतः संबंध तोड़ लेता है, माया से मुख मोड़कर असंग हो जाता है तब वह जीव और पर नामक माया द्वारा प्राप्त उपाधि का त्याग करके मात्र असंग पुरुष असि या अस्मि नामक सत्तामात्र बचती है और वह परम सत्ता मैं हूँ , मैं ही सबको सत्ता देने वाला हूँ, मैं ही सबका निमित्तोपादान कारण ब्रह्म हूँ, मैं ही चैतन्य प्रकाश हूँ । सबमें जो चैतन्यता है वह मुझ चैतन्य से ही चैतन्य है । ऐसा सर्वात्मभाव रूप में उस परम तत्त्व का साक्षाकार करता है ।
             यहाँ पुनः अपरे यानी दूसरे लोग आया है । कोई, अन्य और अपर तीन प्रकार के शब्द तीन साधको में भेद दर्शन कराने के लिए ही अलग अलग शब्द कहे गये हैं । अर्थात जो तीसरी श्रेणी का है वह कर्म के द्वारा आत्म साक्षात्कार करता है ।
             शंका---- कर्मणाबध्यते जन्तुर्विद्यया तु विमुच्यते अर्थात कर्म से जीव बंधता है और ज्ञान से मुक्त होता है, ऐसा सुना जाता है एवं लोकोऽयं कर्मबन्धनः ३/९ ऐसा गीता भी कहती है कि इस संसार में कर्म बन्धन करता है तो फिर कर्म के द्वारा आत्म साक्षाकार कैसे हो सकता है ?
           समाधान---- कर्म बन्धन का हेतु कभी नहीं होता है क्योंकि वह तो प्रकृति का गुण है निरंतर सक्रिय रहना किन्तु यह गुण आत्मा में नहीं प्रकृति में है । आत्मा तो स्थाणुवत् अचल अर्थात स्थिर है स्थाणुरचलोऽयं २/२४ अतः भगवान ने भी कहा है मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ११/५५ अर्थात कर्म तो करो लेकिन उसका संग मत करो आसक्त मत होवो, बन्धन का कारण यहाँ भी कारणं गुणसङ्गोऽस्य १३/२१ बताया गया है अर्थात हम कर्म तो करें जो जिस स्थान पर खड़ा है वहां के अनुसार लेकिन मन में यह दृढ होना चाहिए कि गुणागुणेषु वर्तन्ते ३/२८ अर्थात ये प्रकृति के गुण ही परस्पर कर्म संज्ञा नामक कार्य कर रहे हैं मैं तो निर्लेप हूँ । कर्म में आसक्ति की निवृत्ति के लिए ही कहा अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं ६/१ अर्थात कर्मफल का आश्रय लेकर कर्म नहीं करना चाहिए । त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् १२/१२ कर्म करो, मंदिर में घंटी बजाओ, शंख बजाओ, पूजा आदि अपना जो स्वधर्म हो जिस जगह पर खड़े हो वहां के सब कार्य करो लेकिन भगवान के लिए करो तो आसक्ति होगी नहीं और आसक्ति होगी नहीं तो चित्तशुद्धि होगी और चित्तशुद्धि होने पर अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् १२/१३ आदि ज्ञानसिद्धों के अक्षयधर्म का पालन करेगा । जिससे कालांतर में आत्मतत्त्व का साक्षाकार कर लेगा । जो भी कुछ संसार के लिए किया जाता है वह कर्म है और जो भगवान के लिए किया जाता है वह योग है । प्रथम अध्याय में अर्जुन भगवान के सामने रोया, भगवान से अपनी व्यथा कही, भगवान के सामने विषाद को प्राप्त हुआ अतः वह विषाद योग बन गया अर्जुनविषादयोगो नाम । इसी प्रकार यहां कर्मयोगेन कहा है अर्थात सब कुछ भगवदर्थ कर्म करके चित्तशुद्धि पूर्वक आत्मसाक्षात्कार के लिए किया गया कर्म योग है । ऐसा तात्पर्य है ।
             टिप्पणी---- यहाँ हमने संक्षेप से इसी अध्याय से ध्यानयोगी एवं सांख्योगी का वर्णन संक्षेप में किया है । संपूर्ण गीता योगमय है, ज्ञानमय है । अतः ध्यानयोग के अन्तर्गत पंचम अध्याय के सत्ताइसवें, अठ्ठाइसवें श्लोक से प्रारंभ कर छठा अध्याय, अष्टम अध्याय आदि में देखना चाहिए, सांख्ययोग के लिए दूसरा, पांचवा सातवां आदि ।।२४।।

अन्ये त्वेवमजान्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ।।१३/२५।।
          शब्दार्थ---- किन्तु अन्य अर्थात मन्दतर चौथी श्रेणी के साधक जो ध्यान, ज्ञान, कर्म कुछ नहीं जानते वे भी अन्य अर्थात जीवन्मुक्त महापुरुषों द्वारा श्रवण करके सुने गये के अनुसार उपासना करते हैं वे भी जो मृत्यु से शीघ्र ही तर जाते हैं ।
            तात्पर्यार्थ---- यह श्लोक अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है । सभी न तो योग के अधिकारी होते और न ही सांख्य या कर्म के क्योंकि कर्म अकर्म और विकर्म में बड़े बड़े विवेकचूड़ामणि मोहित हो जाते हैं ४/१६ । कर्म शास्त्रीय ही होना चाहिए और वह भी प्रामाणिक १६/२४ अर्थात विधिवत होना चाहिए भले निष्काम हो अन्यथा उलटा फल होगा । अतः आत्मसाक्षात्कार में भले भेद दिखता हो लेकिन वे अपने अपने क्षेत्र के धुरंधर पण्डित हैं । किन्तु सेवक वर्ग, स्त्री वर्ग, अत्यंत पाप कर्म में प्रवृत्त इत्यादि को कहाँ का योग ? कहाँ का ध्यान ? और कहां का कर्म ? इन्हें तो कभी न तो यह सब सिखाया गया और न ही इनकी इन कर्मों आदि में प्रवृत्ति हुई । आधा या अधिक जीवन सांसारिक मस्ती में व्यतीत हो गया तो अब ये अपना कल्याण करें तो कैसे ? इसका समाधान देते हुए भगवान ने कहा था--- अपि चेत्सुदुराचारो ९/३०, स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः ९/३२ अर्थात हमने सबके उद्धार के विषय में सुनिश्चित कर दिया है कि आपका उद्धार कैसे होगा ? पहली बात आप अनन्य भाव से मेरे शरणागत अर्जुन की भांति होइए फिर मैं जब प्रसन्न हो जाऊंगा तब किसी तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास अन्तर्प्रेरणा से भेजूंगा और तब तद्विद्धि प्रणिपातेन प्ररिप्रश्नेन सेवया । ४/३४ अर्थात उनके पास जाकर उनकी भलीभाँति सेवा करना उनकी आज्ञा का पालन करना तब जब आपकी सेवा से वे महापुरुष भलीभाँति संतुष्ट दिखें तब उनसे जैसे ही समय मिले अपना प्रश्न बारंबार करते रहना जिससे संतुष्ट होकर उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।४/३४ अर्थात वे तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन आपको तत्त्व का उपदेश कर देंगे । आचार्योपासनं शौचं १३/७ अर्थात बाहर भीतर की पवित्रता पूर्वक निष्कपट भाव से आचार्य की सेवा करने पर वे जो आज्ञा दें उसका पालन करने मात्र से मृत्यु को पार कर जाओगे अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लोगे ।
             यहां एक विशेष भाव यह है कि आपको अर्थ का पता हो या न पता हो महापुरुष ने कह दिया तत्त्वमसि तो आप उसका लक्ष्यभूत अहं ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ब्रह्म हूँ ऐसा श्रुतिपरायण यानी जैसा सुना वैसे के आधीन हो जाओ अर्थात उसी में लग जाओ । वही सत्य है जो आचार्य ने कहा है ननु न च मत करो मात्र श्रद्धा से उपासना में लग जाओ तो कल्याण होना ही है, मृत्यु के पार जाना ही है ऐसा भगवान का कथन है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो अनजान में भी महापुरुष की आज्ञा से बिना अर्थ जाने ही आत्मसाक्षात्कार कर लेते हैं तो अर्थ जानने वाले कर लें इसमें क्या आश्चर्य है ? उन्हें तो और जल्दी आत्मसाक्षात्कार होगा यह कहने का तात्पर्य है तथापि इन पढ़े लिखे अर्थ चिन्तन करने वालों को भी अनपढे लोगों को जिस प्रकार हीनभाव से देखते हैं, उपहास करते हैं और कहते हैं कि बिना वेदान्त पढ़े क्या चिंतन क्या करेंगे ? भगवान का स्वरूप क्या है कैसे बिना वेदान्त पढे जानेंगे ? इस प्रकार उपेक्षा और उपहास करके हीन मन बनाना भी भगवान की इस आज्ञा का उपहास करना है । भगवान यहाँ यह कहते हैं कि आप परंपरागत जिस विद्या को प्राप्त करते हैं उसका अर्थ जानो या न जानो उसका पालन करने से आपका कल्याण होगा ही इसमें किसी भी प्रकार की कोई बाधा होनेवाली नहीं है । इसी बात को तुलसीदास जी भी कहते हैं-- भांय कुभांय अनख आलसहूँ । नाम जपत मंगल दिशि दसहूँ ।। यह साधन मात्र श्रद्धा प्रधान है श्रद्धा हमारे अन्दर है तो अन्य सभी साधन ईश्वर गुरु एवं आत्मप्रसाद से स्वतः प्राप्त हो जायेंगे । ऐसा तात्पर्य है ।।२५।।

             संबंध----कारणं गुणसङ्गोऽस्य १३/२१ जो कहा था, उसमें मुक्त होने के लिए संग का सर्वथा परित्याग आवश्यक है तभी मुक्ति संभव है अर्थात संसार अविद्या ग्रस्त है । यह अविद्या क्या है इस बात को जान लेना ही ज्ञान है । इसी ज्ञान से अविद्या की निवृत्ति भी संभव है अतः अब पुनः प्रकृति और पुरुष का विवेचन अविद्या की निवृत्ति हेतु अध्याय की समाप्ति पर्यंत करते हैं । पहले जीवों की उत्पत्ति का हेतु बता रहे हैं….
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ।।१३/२६।।
            शब्दार्थ---- हे भरतश्रेष्ठ ! जो कुछ भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं उन्हें तू प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ जान ।
            तात्पर्यार्थ---- अध्याय सात में जिसे अपरा और परा प्रकृति कहा था और स्वयं को अलग से सबका निमित्तोपादान कारण बताया था इसका कारण यह था कि वहाँ तत् पदार्थ निश्चय करने के लिए सविशेष भक्ति का प्रकरण था और भक्त की दृष्टि भगवान पर ही आकर्षित होती है अतः स्वयं को अलग कहा था । यहां ज्ञान का प्रकरण है और भगवान स्वयं को क्षेत्रज्ञ १३/२ कहते हैं । अतः यहाँ पर क्षेत्रज्ञ पर ही केंद्रित होना है । क्षेत्र यानी प्रकृति यानी जड़ यानी अविद्या, क्षेत्रज्ञ यानी पुरुष यानी चैतन्य यानी विद्या अर्थात ज्ञान स्वरूप । अब यहाँ देखिए कितनी विचित्र बात है प्रकृति जड़ है और पुरुष चेतन है । जड़ और चेतन मिलकर संपूर्ण सृष्टि पैदा हो गई है । भला जड़ रस्सी में चैतन्य सांप भी हो सकता है ? पर होता है, ऐसे सांप को देखकर कुछ लोग तो इतने भयभीत होते हैं कि मर भी जाते हैं । ऐसे ही जड़ चेतन मिलकर संसार पैदा हो गया । तुलसीदासजी कहते हैं-- जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ।। रस्सी में सांप त्रिकाल में नहीं हो सकता, ठूंठ कभी प्रेत नहीं हो सकता है पर दिखता भी है, लोग भयभीत भी हो जाते हैं और कदाचित मर भी जाते हैं । 
            प्रकृति यानी अविद्या और पुरुष यानी ज्ञान । जिस ज्ञान से अविद्या की निवृत्ति होती है वही ज्ञान अविद्या के साथ मिलकर अलग ही दुनिया बनाकार मस्ती कर रहा है, सुखी दुःखी हो रहा है । भला विद्या और अविद्या कैसे मिल सकते हैं ? यह तो वही बात हुई कि दिन और रात मिलकर रंगरेलियां मना रहे हैं । यही संसार का सत्य है । इस संसार में कुछ भी शुद्व नहीं मिला है इसी को आचार्य शंकर कहते हैं सत्यानृत मिथुनीकृत संसारः अर्थात झूठ और सांच को मिलाकर ही यह संसार बन गया है । जैसे जब व्यक्ति सो जाता है और फिर स्वप्न देखने लगता है । स्वप्न में भी उससे अतिरिक्त और कोई नहीं है किन्तु उस स्वप्न में वह है यह तो सत्य है किन्तु और कोई है यह असत्य है,  किन्तु भ्रम हो गया और असत्य को सत्य मानकर संगति कर बैठा । अब उसी असत्य की संगति के कारण सुखी दुःखी हो रहा है, भूखा भी है, शेर भी खाने आ पहुंचा, जेल भी जा रहा है, राजा भी बन गया भिखारी भी हो गया । यही स्व सत्य के असत्य के साथ भ्रमवश मिश्रण से संसार बन गया यही है सत्यानृत मिथुनीकृत संसारः ।यही माया है यही भ्रम प्रकृति है, इसी बात का ज्ञान कराने के लिए ही इस प्रकरण को उपस्थित किया गया है क्योंकि यहाँ यह करके क्षेत्र कहाँ से उत्पन्न हुआ और इसका प्रभाव क्या है १३/३ का विवेचन पुरुषः प्रकृतिस्थो १३/२१ से यद्यपि समझाया तथापि और अधिक दृढ करने के लिए कि पुरुष प्रकृति से सर्वथा भिन्न एवं असंग है यह प्रसंग विस्तार से समझाने के एक एक प्रसंग को अलग अलग अध्याय समाप्ति पर्यन्त कहेंगे । ऐसा तात्पर्य है ।।२६।।

           संबंध---- जो विनाश में भी अविनाशी एक परमेश्वर को ही देखता वस्तुतः वही ठीक देखता है….
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।।१३/२७
          शब्दार्थ----संपूर्ण प्राणियों में परमेश्वर समभाव से स्थित है । जो विनाश में भी अविनाशी एवं सम परमेश्वर को देखता है वस्तुतः वही देखता है ।
           तात्पर्यार्थ---- संपूर्ण सृष्टि विषम है । नाम से, रूप से, क्रिया से स्वभाव से,गुणों से । विषमता का ही दूसरा नाम संसार है और वह निरंतर क्षरण को प्राप्त हो रहा है । यहाँ पर हम बता दें कि परमेश्वर जिसे कहा जा रहा है वह अनादिमत्परं १३/१२ जिसे प्रत्यागात्मा के रूप क्षेत्रज्ञ १३/२ कहा था एवं जिसे क्षेत्रज्ञ १३/१ कहकर पुरुषः परः १३/२२ कहा है उसे ही यहाँ परमेश्वर कहा गया है । इसी आत्मा को परमात्मा १३/२२ कहा गया था और आगे ईश्वर १३/२८ नाम से भी इसे ही संबोधित किया जायेगा । वही परमेश्वर नाम से जानी जाने वाली आत्मा देव, दानव, मानव, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि समस्त स्थावर जंगम प्राणियों में समान रूप से व्याप्त है । कहने का अभिप्राय यह है कि ब्रह्मा से लेकर स्तंभ पर्यंत जितने प्राणी हैं वे सभी विषम शरीरों को लेकर ही उत्पन्न हुए हैं । त्रिगुणात्मिका प्रकृति के विकार कभी सम नहीं हो सकते और वे निरंतर परिवर्तन यानी विनाश को प्राप्त हो रहे हैं ।  इसपरिवर्तन यानी विनाश काल में भी आत्मा सदैव एक और एकरस रहती है । गर्भ से लेकर मृत्यु पर्यंत शरीर की अनेक अवस्थाओं का परिवर्तन हो गया किन्तु वह आत्मा मैं के रूप में एक ही रहा । मैं कभी नहीं बदला । जब देखा तब मैं । यही स्वसंवेद्य मैंं सदैव अपरिवर्तनीय सदैव एकरस रहने वाला शुद्ध चिन्मय आत्मा ही है अन्य नहीं । 
              यहाँ हम यह भी बता देना चाहते हैं कि यहाँ क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अनुसार ही ब्रह्म का बोध और उसकी प्राप्ति १३/३० बतायी जा रही है आतः आत्मा का अर्थ क्षेत्रज्ञ १३/१ अर्थात जीव नहीं है बल्कि क्षेत्रज्ञ १३/२ यानी यानी शुद्ध चिन्मय एकरस सर्वात्मा का वर्णन होने से परमात्मा या परमेश्वर अथवा ईश्वर कहा जा रहा है यही आत्मा यानी क्षेत्रज्ञ१३/२ ही सदैव सम और एकरस रहता है जबकि जीव कहने के लिए अविनाशी अवश्य है तथापि माया के आश्रित होने के कारण कभी देव बनता है तो कभी दैत्य, वृक्षादि १४/२८ बनता है इसीलिए इसको प्रकृतिस्थ पुरुष १३/२१ एवं कूटस्थ अक्षर १५/१६ कहा गया है । अतः यहाँ क्षेत्रज्ञ यानी सर्वात्मा असंग यानी पुरुषः परः १३/२२ करके जिससे कहा गया है वही आत्मा सदैव एक रस और सम रहता है और इसी असंग, निर्विकारी पुरुष की ही ब्रह्मा के साथ एकता होती है न कि सकल्मष अर्थात सविकारी की । इस प्रकार जो आत्मा को असंग, निर्विकारी, सम, एकरस अज एवं व्यापक देखता है वस्तुतः वही ठीक देखता । (यहाँ इसके विपरीत इतना और जोड़ लेना चाहिए कि अज्ञानी जो देखता है वह जब देखता है तब गलत देखता है ।) ऐसा तात्पर्य है ।।२७।।

           संबंध---- जो अपनी आत्माहत्या नहीं करता वही परमगति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है, इसका कथन….
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ।।१३/२८।।
           शब्दार्थ---- क्योंकि जो स्वयं ही अपनी बुद्धि नष्ट नहीं करता है वरन् संपूर्ण प्राणियों में एक आत्मा को ही समान रूप से सर्वत्र देखता है वह परम् गति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है ।
            तात्पर्यार्थ---- यहां हम समष्टि रूप से देखते हैं तो यहां ईश्वर तत् पदार्थ का वाचक है एवं जो दो बार आत्मानम् आया है उसमें एक का अर्थ है मन और दूसरे का अर्थ त्वम् पदार्थ लक्षित जीव । यहाँ तत् पदार्थ हो गया क्षेत्रज्ञ १३/२ यानी ईश्वर एवं त्वम् पदार्थ हो गया क्षेत्रज्ञ १३/१ यानी जीव । भगवान कहते हैं कि सभी क्षेत्रों में जिसे जीव कहा गया है वह प्रकृति से सर्वथा असंग होने पर मैं ही हूँ ऐसा यहां पर तत् एवं त्वम् पदार्थ का स्पष्ट एकत्व दर्शाया गया है । इस एकत्व रूप से संपूर्ण प्राणियों में एक आत्मा को ही देखना समत्व है । शेष विवरण अगली व्याख्या के साथ….
             यहां प्रकृति और पुरुष का विवेचन हो रहा है अतः यहाँ दो आत्मानम् में एक का अर्थ तो मन ही होगा और दूसरे का अर्थ बुद्धि होगा । निरंकुश मन ही हर प्राणी का शत्रु है-- बन्धुरात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।।६/६।।  मन जीत लिया तो मित्र और नहीं जीता तो शत्रु । इसीलिये उद्धरेदात्मनात्मानम् ६/५  अर्थात अपने विवेक यानी बुद्धि अर्थात आत्मज्ञान से अपना उद्धार करे । न आत्मानमवसादयेत् ६/५ अर्थात आत्मा का बहिर्मुखी अर्थात विषयी होकर पतन यानी नाश न करे । मैं ब्राह्मण हूँ, मैं चाण्डाल हूँ, मैं अमुक जाति का हूँ, इत्यादि आत्मा को सीमित अहंता में बांधकर जन्म मरण के चक्र में ढकेल देना ये आत्महत्या ही है । संंसार के सभी पाप एक ओर हो जायें और आत्महत्या का पाप एक ओर हो जाये तो भी अन्य सभी पाप आत्महत्या के पाप की बराबरी नहीं कर सकते । इसी बात को यहां पर कहा गया है कि मन को विषयी बनाकर बुद्धि यानी जो सत् और असत् का निर्णय करने में सक्षम है जो आत्मा के अत्यंत निकट है, जिसके बिना हम वेदान्त चिंतन नहीं कर सकते । श्रवण मनन निदिध्यासन ही जिसकी प्राप्ति का एक मात्र साधन है और वह साधन भी जिस निर्विषयी बुद्धि के आधीन है उसे नष्ट न करना ही आत्मा से आत्मा की हत्या न करना है । यदि विषयासक्त होता है तो वह आत्महत्या है, अतः वह आत्मा को नहीं जान सकता ; इसी को सुना जाता है कि-- इसी शरीर में रहकर जो इस आत्मा को नहीं जानता उसका महाविनाश हो जाता है,  ऐसा श्रुति भी कहती है । तात्पर्य यह है कि जो संपूर्ण इन्द्रियों को प्रकाश दे रहा है वह मन है और मन को भी प्रकाश बुद्धि और बुद्धि का भी प्रकाशक ईश्वर अर्थात आत्मा है । वही आत्मा सर्वत्र अर्थात वह चाहे चैतन्य या जड़ कोई भी ब्रह्मा से लेकर स्तंभ पर्यंत हों समान रूप से व्याप्त है । वह आत्मा और कोई नहीं मैं ही हूँ । इस प्रकार का जिसका पूर्वोक्त के अनुसार नित्यदर्शन अर्थात ऐसी जिसकी अभिन्नभावापन्न वृत्ति बन गई है वह परम गति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ।
              विशेष---- यहां प्राप्त करना क्रिया वाचक है जैसे कहीं अन्यत्र कोई चीज हो और उसे प्राप्त किया जाये किन्तु प्राप्त करने में प्राप्त करने वाला, प्राप्त की जाने वाली वस्तु एवं अन्य स्थान का देशकाल परिच्छिन्न होना आवश्यक है, किन्तु आत्मा तो चिद्घन अर्थात सर्वत्र है व्यापक है अतः वह नित्य प्राप्त है मात्र अप्राप्त की भ्रान्ति मात्र मिटना है । भ्रान्ति मिटने से पहले जैसे हाथ की वस्तु खोजना पड़ता है कहीं और लेकिन भ्रान्ति मिटने पर वस्तु तो हाथ में ही दिखती है फिर भी कहते हैं मिल गई, प्राप्त हो गई । इसी प्रकार यहां मोक्ष प्राप्त करना है, वस्तुतः बन्धन ही नहीं तो मोक्ष कैसा ? ऐसा तात्पर्य है ।।२८।।

              संबंध---- सभी क्रिया प्रकृति में ही हैं तथा आत्मा अकर्ता है, इसका कथन….
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ।।१३/२९।।
            शब्दार्थ---- जो संपूर्ण कर्मों एवं क्रियाओं को प्रकृति में तथा आत्मा को अकर्ता देखता है वही देखता है ।
            तात्पर्यार्थ---- विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् १३/१९ का ही यहाँ पुनः स्पष्टीकरण किया जाता है । एक बात तो समझ में आती है कि खाना, पीना, चलना इत्यादि में क्रियमाणता तो दिखती है किन्तु पत्थर में कौन सी क्रिया है ? सुषुप्ति अवस्था में कौन सी क्रिया है ? प्रलयकाल में कौन सी क्रिया है ? यह समझ में नहीं आता । हम देखते हैं बड़े-बड़े पहाड़ों की बड़ी-बड़ी चट्टानें स्वतः टूटती रहती हैं रही क्रियमाणता है । अब कोई कहे नीचे किसी गैस की हलचल के कारण ऐसा हो सकता है तो उस गैस की हलचल ? और फिर उसकी हलचल ?  इसी प्रकार हम गहरी नींद में सो जाते हैं, घोर स्वप्न रहित सुषुप्तावस्था में और कोई आकर जगा दे तो कहते हैं कि कच्ची नींद जगा दिया । वहां कोई क्रिया भले नहीं दिख रही है लेकिन नींद का पकना रूप क्रिया जारी है । प्रलय के बाद यदि प्रकृति निष्क्रिय हो जाती तो सृष्टि के आरंभ में सक्रिय कैसे होती अतः वहां भी क्रिया है । जब हम मैं करके संबोधित करते हैं तब वह जो मैंपना है यह मैंपना भी क्रिया ही है और ये सभी प्रकृति के कार्य हैं क्योंकि यह मैं परिच्छिन्न और क्रियात्मक है । इसी को कहा गुणागुणेषु वर्तन्ते ३/२८ । इस प्रकार जब हम क्रियमाण प्रकृति का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे तब जिसे पुरुषः परः १३/२२ कहा वही असंग पुरुष यहाँ अकर्ता के रूप में मात्र स्वसंवेद्य क्षेत्रज्ञ१३/२ असि की अनुभूति अस्मि रूप में यानी आत्मा का सत्ता रूप में अनुभव होगा वह सत्ता निर्विकार होने से उसमें क्रिया रूप विकार का होना संभव ही नहीं है उसे तो मात्र अस्ति इस रूप में ही जाना जा सकता है । इस प्रकार जो प्रकृति को जानकर अकर्ता आत्मा अर्थात क्षेत्रज्ञ १३/२ को जानता है वस्तुतः वही तत्त्वदर्शी है । उसी को मोक्ष प्राप्त होता है इतना पूर्व श्लोक के अनुसार अधिक जोड़ लेना चाहिए या अगले श्लोक में ब्रह्म संपद्यते के साथ जोड़ लेना चाहिए । ऐसा तात्पर्य है ।।२९।।

             संबंध---- संपूर्ण जगत को एक आत्मा में देखने वाले को ब्रह्म की प्राप्ति…..
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।।१३/३०।।
            शब्दार्थ---- जिस समय मुमुक्षु संपूर्ण प्राणियों को एक आत्मा में देखता है तथा उसी से विस्तार देखता है उसी समय वह ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है ।
             तात्पर्यार्थ---- यहाँ इस अर्थ को हम यदि भक्ति प्रकरण के अनुसार समझें तो अध्याय सात में श्लोक चार एवं पांच में अपरा और परा प्रकृति से संपूर्ण संसार का विस्तार बताकर स्वयं को सबका निमित्तोपादान कारण बताया । इस अनुसार भी यहां उस एक परमात्मा में ही संपूर्ण भूत पृथक् से स्थित और उसी से विस्तार मानना पड़ेगा न कि प्रकृति से । इसी प्रकार….
            मुमुक्ष को प्रकृति और पुरुष के स्वरूप को समझाने के लिए ही अलग अलग कहकर समझाया गया है, वस्तुतः यह जो पृथक्भाव प्राप्त हुआ है या दिख रहा है वह दिख कहाँ रहा है ? चिद्दर्पण में दिख रहा है । विश्वं दर्पण दृश्यमान नगरी तुल्यं निजान्तर्गतं, सब कुछ अपने हृदय के अन्दर ही चिद्दर्पण में दिख रहा जैसे पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया अर्थात हम मोह रूपी नींद में सोये हुए हैं और उसी मोह के कारण हमारे अन्दर स्थित संपूर्ण वासनाएं बाहर के समान दिख रही हैं । जब हम स्वप्न देखते हैं तो कहाँ देखते हैं ? इतने जंगल, पहाड़, पशु, पक्षी इत्यादि भयंकर और स्वप्न  दिखते कहाँ हैं ? आपके अतिरिक्त तो कोई वहां है नहीं, वह भी सोये हैं फिर भी दिखता है तो वह सब स्वयं के अन्दर दिखता है लेकिन जैसे बाहर दिखाई देता है वैसे ही अन्दर का निद्रादोष के कारण बाहर दिखाई देता है । उसी प्रकार यह मायां तु प्रकृतिं विद्यात् अर्थात माया यानी प्रकृति के संग दोष से संपूर्ण जगत भिन्न दिख रहा है । अर्जुन ने जो विराट रूप में नाना प्रकार की सौम्य एवं भयंकर आकृतियां देखी वे कहाँ देखी ? भिन्न भिन्न क्रियाएं एक ही परमेश्वर कृष्ण के एक ही शरीर में एक ही स्थान में देखा, किन्तु वे कृष्ण से भिन्न थीं या अभिन्न ? अगर अभिन्न थीं तो भिन्न क्यों दिखीं ? और यदि भिन्न थीं तो एक ही कृष्ण के शरीर के किसी एक ही स्थान में क्यों और कैसे दिखीं ? इस बात को समझ लेना ही प्रस्तुत प्रसंग को समझने के लिए पर्याप्त होगा ।आगे भी कहेंगे--- सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं सात्विकं स्मृतम् ।।१८/२०।। यहाँ भी सात्विक ज्ञान के लक्षण में संपूर्ण प्रणियों में एक ही आत्मा को देखने की बात कही गई है । वही विभाग रहित अर्थात अखंड एकरस है और वही विभागपूर्वक यानी देव, दानव, मानव, पशु पक्षी आदि रूप में भी है । ऐसा जो देखता है वही सात्विक ज्ञान है । भगवान भी अर्जुन निस्त्रैगुण्य होने के लिए दूसरा साधन नित्य सत्त्वस्थ २/४५ बताया है । इस प्रकार संपूर्ण प्राणियों में वही एक आत्मा स्थित है और वही नाना रूपों में एवं एक अखंड रूप में है अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् १३/१६ उसी आत्मा से ही इस संपूर्ण जगत का विस्तार प्राप्त होता है अर्थात वह जब प्रकृति यानी माया का साथ कर लेता है तब मोहवश स्त्री, पुत्रादि जगत का विस्तार होता है । 
         इस प्रकार जब भिन्न भिन्न प्रकृति, आकार वाले संपूर्ण प्राणियों में एक अखंड आत्मा का दर्शन करता है तब ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है । यहाँ पश्यति का अर्थ देखना मात्र नहीं है बल्कि उस अखंड आत्म सत्ता का अभिन्न रूप से साक्षात्कार करना है । यहाँ संपद्यते आया है जिसका अर्थ है संपादन करना अर्थात ब्रह्म का संपादन करता है । संपादन उसी का होता है जो पहले आपने लिखा हो और बाद में कोई त्रुटि बन गई हो उसका सुधार कर लिया जाये । इसी प्रकार यहाँ वह ब्रह्म नामक प्रत्यागात्मा अनादिमत्परं ब्रह्म १३/१२ पहले से ही है लेकिन प्रकृति के अन्दर बैठ गया है, छुप गया है पुरुषः प्रकृतिस्थो हि १३/२१ इसीलिये सारा प्रपंच हो गया अब उसने संपादन अर्थात अपना सुधार कर लिया है अतः पुरुषः परः १३/२२ अर्थात असंग पुरुष हो गया है जो असंग पुरुष है वही प्रत्यागात्मा ब्रह्म है अतः अपने स्वाभाविक निर्विकार अस्मि भाव में स्थित होना ही ब्रह्म की प्राप्ति है । यही मोक्ष है । ऐसा तात्पर्य है ।
              टिप्पणी---- यहाँ एक ही आत्मा से संपूर्ण सृष्टि का विस्तार बताया गया है । इसीलिये क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि १३/२ में स्वयं को क्षेत्रज्ञ तो कहा लेकिन कहा क्षेत्रज्ञ भी मैं हूँ । यह भी बिना किसी प्रयोजन के अधूरा लग रहा है अतः श्लोक १३/१ में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग के अन्तर्गत क्षेत्र तो मैं हूँ ही लेकिन क्षेत्रज्ञ भी मैं ही हूँ क्योंकि मैं ही सबका अनादि कारण हूँ यही भाव यहां दर्शाया गया है कि आत्मा ही सब कुछ है और सब आत्मा ही है । आत्मा से भिन्न कुछ नहीं और वह आत्मा मैं हूँ यही अहं ब्रह्मास्मि की अनुभूति है । वासुदेवः सर्वम् सर्वं वासुदेवः एवं सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म की यही अनुभूति है, यही अभिन्नत्व की प्राप्ति है ।।३०।।

             संबंध----आत्मा अकर्ता है,इस बात का कथन….
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।।१३/३१।।
             शब्दार्थ---- आत्मा अनादि, निर्गुण, परमात्मा, अव्यय है । शरीर में स्थित होने पर भी न कुछ करता नहीं है, न लिप्त यानी बंधता है ।
           तात्पर्यार्थ---- इस श्लोक को समझने के लिए अध्याय २/१२ से २/३० तक देखना चाहिए । फिर भी संक्षेप से--- अनादि होने से ही अर्थात जो सबका आदि तो है किन्तु जिसका कोई आदि नहीं है क्योंकि आदि यानी जन्म जिसका हो वह आदि और और जिसका आदि होगा उसका अवयव यानी शरीर होगा किन्तु वह निरवयव है उसका कोई शरीर नहीं है । शरीर आदि तो प्रकृति के तीनो गुणा हैं किन्तु वह तो प्रकृति पर भी शासन करने वाला, किन्तु असंग पुरुष है । अतः शरीर आदि जिसका तीनो गुणों से दूर दूर तक संबंध नहीं है किन्तु तीनो गुण जिसकी सत्ता में प्रकाशित हैं वह निर्गुण है या यूं समझो कि सोलहों कलाएं तीनो गुणों के अन्तर्गत हैं हैं किन्तु वह कलातीत है, इसी कलातीत को सत्रहवीं कला विद्वान मानते हैं । ऐसी सत्रहवीं कलावाला कलातीत होने से ही वह निर्गुण है । निर्गुण होने से ही परमात्मा यानी जिसकी सर्वोकृष्टता से बढकर और कोई सर्वोत्कृष्टता नहीं है अथवा जो अनुत्तम अर्थ जिसके समान और कोई उत्तम यानी सर्वश्रेष्ठ नहीं है वह परमात्मा है । परमात्मा का कभी व्यय नहीं होता है क्योंकि व्यय होने के लिए कोई न कोई अवयव चाहिए किन्तु वह निरवयवी है अतः उसका व्यय न होने से अव्यय है । ऐसा जो प्रत्यागात्मा है वह शरीर में रहता हुआ भी न कुछ करता है और न किये हुए के फल से बंधता है ।
             शंका हो सकती है कि वह जब शरीर में रहता है किन्तु न कुछ करता है और न ही उसके फल से बंधता है तो फिर सुखी-दुःखी कौन होता है ?
            इसका समाधान यह है कि यह आप भी मानते हैं कि शरीर कुछ नहीं करता, क्योंकि यदि करता होता तो शरीर से चैतन्यात्मा के निकल जाने के बाद भी शरीर को करना चाहिए ? परन्तु नहीं करता अतः शरीर तो कर्ता हुआ नहीं तो फिर शरीर को बंधन भी नहीं होता क्योंकि जब चाहता है तब छोड़ देता है, बंधन होता तो कैसे छोड़ता ? शरीर के अन्दर स्थित इन्द्रियां भी कुछ नहीं कर सकती हैं क्योंकि उस पर मन शासन करता है, मन भी कुछ नहीं कर सकता क्योंकि मन पर बुद्धि शासन करती है । बुद्धि चैतन्य के प्रकाश से ही क्रियमाण है स्वतः वह भी कुछ नहीं कर सकती और चैतन्य तो असंग है अतः वह कुछ करता नहीं है । इसलिए सुख-दुःख का भोक्ता न आत्मा है और न शरीर है बस मान लिया कि मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ, यह मानना ही सुख-दुःख का हेतु है । इसी को कहा-- कर्ताहमिति मन्यते३/२७ अर्थात ये मूढ लोगों का मानना है कि मैं करता हूँ तो करोगे तो बंधोगे ही ।
              कर्ताहमिति मन्यते में स्पष्ट करना माना गया है इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि आत्मा अकर्ता है, हमारी मान्यता है कि आत्मसाक्षात्कार कृत यानी कर्म साध्य है लेकिन यह मान्यता भी अविवेकपूर्ण है । कृत साध्य आत्मा नहीं है वह तो तो नित्य प्राप्त है अकर्तापन तो उसका स्वभाव है कृत साध्य तो संसार है । आत्मा जब अकर्ता है तो कर्म के फल से बंधने का प्रश्न ही नहीं बैठता । कहीं मूढ़ लोग शरीर के संबंध से आत्मा का नाश, कर्ता एवं कर्मफल से बंधने वाला न मान लें इसीलिये अठारहवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में कहते हैं-- जो आत्मा को अकर्ता नहीं देखता है वह दुर्मति अर्थात अत्यंत दूषित बुद्धि वाला कुबुद्धि है । 
          भावार्थ---- यहाँ यह भाव है कि उपरोक्त लक्षणों वाला आत्मा कुछ कर्म नहीं करता क्योंकि कर्म उसका स्वभाव नहीं है, अतः वह कर्म के फल से लिप्त अर्थात बंधता भी नहीं है अर्थात वह साक्षत मोक्षस्वरूप ही है अलग से कोई बंधन, मोक्ष या ब्रह्म नहीं है । ऐसा तात्पर्य है ।।३१।।

               संबंध---- पूर्व श्लोक में कहा कि आत्मा न कुछ करता है और न लिप्त होता है । शरीर में रहकर भी ये गुण उसमें क्यों नहीं आते इसका उत्तर दो श्लोकों में दे रहे हैं….
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ।।१३/३२।।
            शब्दार्थ---- जिस प्रकार अत्यंत सूक्ष्म होने से सर्वव्यापक होने से आकाश लिपायमान नहीं होता है वैसे ही आत्मा भी अतिसूक्ष्म होने से लिप्त नहीं होती ।
            तात्पर्यार्थ---- पूर्व श्लोक में पहले कहा-- न करोति, बाद में कहा-- न लिप्यते यहां न लिप्यते का उदाहरण आकाश के दृष्टांत से दे रहे हैं । आकाश तो सर्वत्र है बाहर भी, भीतर भी किन्तु वह न तो बाहर है न भीतर वरन् सर्वत्र है । तो लिप्त कैसे होगा ? मदिरा के घड़े में भी आकाश है किन्तु मदिरा का स्पर्श भी आकाश को नहीं होता । गंगाजल के घड़े में भी आकाश है किन्तु कभी गीला नहीं होता, इसका अर्थ है गंगाजल कभी आकाश का स्पर्श नहीं करता । इसी प्रकार अत्यंत सूक्ष्म आत्मा जो मन और बुद्धि से भी सूक्ष्म है वह संपूर्ण शरीर में व्याप्त है किन्तु उसका गुण दोष कभी स्पर्श भी नहीं करते । यहाँ ध्यान देना चाहिए कि कभी कर्म किसी को पहले नहीं बांधता, करेगा तभी बांधेगा लेकिन कर्मफल पहले बांधता है क्योंकि पहले कर्मफल के भोग की इच्चा मन में उत्पन्न हुई, फिर उस भोग को प्राप्त करने के लिए उद्यम करता है अर्थात पहले कर्मफल से बंधा और फिर कर्म किया । इसी सूक्ष्मता को समझाने के लिए ही पहले आत्मा की निर्लिप्तता का उदाहरण दिया ।।३२।।

            संबंध---- आत्मा अकर्ता है इसका उदाहरण….
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ।।१३/३३।।
             शब्दार्थ---- हे भरतवंशी अर्जुन ! जैसे एक सूर्य संपूर्ण संसार को प्रकाशित करता है उसी प्रकार संपूर्ण क्षेत्र को आत्मा प्रकाशित करती है ।
             तात्पर्यार्थ--- हमारे महाराजश्री कहते थे कि सूर्य के प्रकाश में चाहे आप चोरी करो,पूजा करो, दान करो, हत्या करो, रक्षा करो, अथवा कोई भी अन्य कर्म करो लेकिन सूर्य कभी यह नहीं कहता है कि तुम हमारे प्रकाश में यह कार्य करो और यह न करो उसका स्वभाव है प्रकाश करना मात्र, क्रिया तो संसार करता है । इसीलिये सूर्य कभी जगत के कार्यों या उसके फल से नहीं बंधता । उसी प्रकार सूक्ष्मबुद्धि यानी महतत्त्व यानी प्रकृति से लेकर शरीर यानी प्रकृति के कार्य तक को आत्मा ही प्रकाशित करती है । तो बीच के आकाशादि पंचमहाभूत, शब्दादि पंचविषय, पंच ज्ञानेंद्रियां, पंच कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण चतुष्टय आदि सभी स्वतः आ जाते हैं महाभूतान्यहङ्कारो…. १३/५ एवं इच्छा द्वेषः १३/६ इत्यादि संपूर्ण जगत यानी शरीर को आत्मा प्रकाशित करती है । उसी के प्रकाश में संपूर्ण क्षेत्र अर्थात तत्संबंधित इन्द्रिय उपलक्षित देवता आदि सभी अपनी अपनी क्रियाएं कर रहे हैं मात्र आत्मप्रकाश को लेकर । 
            यहां एक बात और समझ कर रखनी चाहिए कि सूर्य को कहा प्रकाशित करता है यह क्रिया पद है इससे प्रकाश करना कर्म सिद्ध होता है यदि ऐसा कोई समझे तो समाधान यह है कि समझाने के लिए क्रियापद का प्रयोग किया गया है । प्रकाश तो सूर्य का स्वभाव है अब उससे किसी को प्रकाश मिल रहा है उसमें कोई कुछ क्रिया कर रहा है यह सूर्य को भी पता नहीं होगा । अगर सू्र्य से प्रकाश निकाल दिया जाये तो सूर्य ही नहीं बचेगा । इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव है प्रकाश देना ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः १३/१७ अर्थात वह जो कुछ भी प्रकाशति हो रहा है उनका भी प्रकाश है, यदादित्यगतं तेजो १५/१२ इत्यादि । आंख देख रही, कान सुन रहा है, इत्यादि जो कुछ भी क्रियात्मक प्रकाश है वह आत्मप्रकाश है । तथापि यह प्रकाश वह दे नहीं रहा है प्रकाशित नहीं कर रहा है वरन् यह तो आत्मा का स्वभाव है । विशेष बात यह है कि जिसे प्रकाशित किया जाता है यानी जो प्रकाश्य है वह प्रकाशति करने वाले अर्थात प्रकाशक से भिन्न होगा । यही बात यहां समझाने के लिए सूर्य का दृष्टांत दिया गया है कि जैसे सूर्य जगत को प्रकाशति करता है किन्तु वह जगत से भिन्न एवं असंग है, उसी प्रकार आत्मा क्षेत्र अर्थात प्रत्येक क्रिया और कार्य से भिन्न और असंग है । स्थूल शरीर से चलना, खाना, गाना, आदि कार्य होते हैं, सूक्ष्म शरीर मन बुद्धि से श्रवण, मनन, निदिध्यासन करते हैं तो समाधि कारण शरीर का कार्य है किन्तु आत्मा तो इससे भिन्न है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से होने वाली हर क्रिया संसार यानी क्षेत्र की है इसीलिये संसार यानी क्षेत्र के ही काम आती है । आत्मा का इन कार्यों से कोई प्रयोजन नहीं है । 
           भावार्थ---- चूंकि आत्मा अक्रिय है कर्म और कर्मफल उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते अतः वह साक्षात् मोक्षस्वरूप ही है अलग से क्रियापद से प्राप्त मोक्ष की उसे आवश्यकता नहीं है । अलग से मोक्ष चाहने के लिए देशकाल की परिच्छिन्नता आवश्यक है जबकि आत्मा देशकाल अपरिछिन्न है, सर्वगत है, अखंड एवं एक रस है, अज एवं अनादि है सबका प्रकाशक एवं मोक्षस्वरूप है । ऐसा तात्पर्य है ।।३३।।

             संबंध---- अब तक जो क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के विषय में कहा गया उसका उपसंहार….
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ।।१३/३४।।
            शब्दार्थ---- जो ज्ञाननेत्र द्वारा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के अन्तर को जान लेते हैं वे कार्य और करण से मुक्त होकर परमतत्त्व को प्राप्त कर लेते हैं ।
           शब्दार्थ---- यहाँ आचार्य शंकर ने सभी अध्यायों का उपसंहार माना है तथापि कुछ विस्तृत विवरण नहीं दिया । फिर भी अध्याय सात से प्रारंभ ज्ञान विज्ञान के उपदेश का ही विवेचन अभी तक चल रहा है इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता है । अतः यहां ज्ञानचक्षुषा का अर्थ ज्ञान विज्ञान करें तो युक्तिसंगत लगता है । क्षेत्र यानी अष्टाधा प्रकृति का ज्ञान और क्षेत्रज्ञ यानी जीव भी ब्रह्म हो सकता है यह थोड़ा समझना कठिन है तथापि जीव ही निरुपाधिक भाव को प्राप्त होने पर ब्रह्म है यह दृढ निश्चय ही विज्ञान है । इसी ज्ञान और विज्ञान द्वारा जो क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के भेद को जो जान लेता है अर्थात यह जान लेता है कि अखिल ब्रह्मांड मैं जो कुछ भी देखने सुनने और समझने में आ रहा है वह क्षेत्र है, यही ज्ञानीदृष्टि है । इस प्रकार जो जान लेता है वह भूत और प्रकृति से मुक्त हो जाता है । भूत से आकाशादि गुणों सहित कार्य और और प्रकृति से अपरा प्रकृति अर्थात जीवभाव । इस प्रकार गुणों सहित कार्य से क्षेत्र को जान लेने से क्षेत्र यानी स्थूल और सूक्ष्म शरीर से और जीवत्व भाव का मूल श्रोत अज्ञानमय कारण शरीर से भी मोक्ष हो जाता है इस प्रकार जो जानता है वह परतत्त्व अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।
             यहाँ दूसरे भाव में इसी अध्याय में कहे गए क्षेत्र क्षेत्रज्ञ को विवेक पूर्वक विचार करने पर प्राणी यानी जीव प्रकृति से मुक्त हो जाता है । यहाँ प्रकृति से मुक्त होना अर्थात प्रकृति ही तीनों गुणों द्वारा बांधती है अध्याय १४/६-७। जो कार्य सहित प्रकृति को जान लेता है वह प्रकृति से से मुक्त होकर परमतत्त्व अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । इसी प्रकृति से छूटने के लिए ही चौदहवें अध्याय का प्रारंभ किया जाता है ।
          भावार्थ---- पूरे अध्याय में एक ही बात सामने आयी है कि न तो जन्म हुआ, न बंधन हुआ तो फिर मोक्ष किसका ? अर्थात जैसे जन्म और बंधन मिथ्या वैसे ही मोक्ष भी मिथ्या है । आत्मा स्व-सत्ता में में मात्र असि रूप से विराजमान है । गलती से माया या प्रकृति के साथ खेलने की इच्छा ही हमारे बन्ध और मोक्ष का हेतु बन गई । जन्म मान लिया तो मृत्यु सहित नाना प्रकार के बंधन मानना ही पड़ेगा, बंधन माना है तो मोक्ष और उससे छूटने का उपाय भी मानना पड़ेगा तभी मुमुक्षु आनन्द सागर में डूबने के लिए कूद कर मर कर अमर हो पायेगा ।।३४।।

।।ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ।।

हरिः ॐतत्सत् !                                          हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
                                                         🌹श्रीकृष्णार्पणमस्तु🌹



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