गीता मेराचिन्तन अध्याय २
ॐश्रीपरमात्मने नमः
अथ द्वितीयोऽध्यायः
प्रथम अध्याय से दूसरे अध्याय की संगति----
प्रथम अध्याय के 'दृष्ट्वेमं स्वजनम्'से लेकर 'क्षेमतरं भवेत्' तक १८½ श्लोकों में विभिन्न तर्कों के माध्यम से मोह की चरम सीमा का वर्णन करते हुए सामान्य जीव की स्थिति का वर्णन करते हुए यह दिखाया गया है कि किस प्रकार मनुष्य मोहाविष्ट होकर कर्तव्य-अकर्तव्य अर्थात सत् असत् के विवेक से शून्य होकर अपने उपस्थित कर्तव्य कर्म से पलायन कर जाता है...' कर्तव्य-अकर्तव्य से विमूढ़ मनुष्य को ही जड़ता से चैतन्य की ओर ले जाने के निमित्त से ही दूसरे अध्याय का प्रारंभ किया जाता है ।
🙏निवेदन---- जैसे कि मैं पहले बता चुका हूं कि गीता जो जिस स्थान पर खड़ा है उसी स्थान पर उसके मार्ग को प्रशस्त करती है, क्योंकि मैं एक यति हूं और निवृत्तिमार्ग ही मेरे श्रेय का हेतु है । अतः मेरे प्रत्येक विचार निवृत्तिपरक होना स्वाभाविक है । इसी लक्ष्य को सामने रखकर हमारी परंपरा के आद्याचार्य भगवान शंकर को साक्षी मानकर अपना विचार प्रारंभ कर रहा हूं, यद्यपि यह कार्य एक अशिक्षित के लिए सरल नहीं हैं तथापि गुरुदेव का स्मरण करते हुए गीता नायक भगवान श्री कृष्ण का आवाहन करता हूं कि वे ही अपनी अहैतुकी कृपा से मार्गदर्शन करें ।
सूचना---- श्लोक मात्र का विचार ही मेरा लक्ष्य है नामों का नहीं, नामों का विचार फिर कभी करेंगे ।
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णा कुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन ।।२/१।।
शब्दार्थ---- इस प्रकार उस अर्जुन से जिसके नेत्र करुणा के जल से भीगे हुए हैं और कुल की इच्छा रखने अर्थात कुल नाश के भय से अत्यंत व्याकुल एवं विषाद अर्थात शोक करने वाले से भगवान मधुसून ने कहा….
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थिते ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।।२/२।।
क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।।२/२।।
क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तोत्तिष्ठ परन्तप ।।२/३।।
शब्दार्थ― श्रीभगवान बोले― हे अर्जुन ! इस विषम समय में तेरे अन्दर यह विकार कहाँ से उपस्थित हुआ है ? जो अनार्यों द्वारा आचरणीय, नरक देने वाला और अपयश को बढ़ाने वाला है ।
हे पार्थ ! इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो । हे परन्तप हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर उठ युद्ध के लिए उठ खड़ा हो ।
तात्पर्य---- श्रीभगवान बोले--- जब अर्जुन की तरह मोहाच्छन्न होकर विषम समय अर्थात जब अत्यन्त आवश्यक हो कर्तव्य विमुख होकर समाज को नजरअंदाज करके कर्तव्य पलायन कर जाता है, तभी कोई दैवयोग से जो जिस स्थानीय है उस स्थानीय गुरु मिल जाता है । जो कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराते हुए इस प्रकार के पलायन को निकृष्ट, नारकी, अपकीर्तिकारक बताकर क्लैब्य अर्थात पुरुषार्थ रहित हीन भाव से ऊपर उठाता है और कहता है कि इस प्रकार का हीनभाव एक कर्तव्यपरायण शिष्ट व्यक्ति के लिए कदापि उचित नहीं अर्थात अशोभनीय है, ये हृदय की दुर्बलता और क्षुद्र विचार हैं । इनका त्याग करके कर्तव्य कर्म करने के लिए उठकर खड़ा हो जाने का आदेश देता है ।
विशेष भाव---- मुमुक्षु का जब मन जब संसार से अर्थात भोगों से भर जाता है, तब गुरु की शरण संसार की उपरामता हेतु ग्रहण करता है तब गुरु संसार और स्वयं के बीच के यथार्थ संबन्धों का वास्तविक परिचय ‘कोऽहम्' अर्थात मैं कौन हूँ ? ‘कस्त्वं'----तू कौन है ? कुत आयातः इत्यादि का विचार पूर्वक परिचय कराते हैं । अतः अर्जुन यहाँ मुमुक्षु है उसी मुमुक्षा की दृष्टि से श्रीभगवान कहते हैं---- ‘कुतस्त्वा' अर्थात कहाँ तो तू और 'कश्मलमिदम्'----- कहाँ तो ये.....। अर्थात पहले तो यह विचार करते हैं कि मैं कौन हूँ ? और यह कौन हैं ? 'अहं' 'इदं' का अन्तर समझे बिना ही पलायन रूप निकृष्ट, नारकी, अपकीर्तिकारक, हृदय की दुर्बलता के कारण ही इस क्लैब्य अर्थात पुरुषार्थ रहित हीन भाव को प्राप्त हुआ है । अतः पहले इस हीन भावना का त्याग करके कर्तव्यपरायणता के लिए उठकर खड़ा हो जा ।।२-३।।
संबंध---- गुरुजन कम शब्दों में सार बात कह देते हैं,किन्तु विषयी जीव को समझ में आता नहीं है, अतः वह पुनः अपने तर्क उपस्थित करता ही है, जैसा कि….
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसून ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ।।२/४।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ।।२/४।
शब्दार्थ---- अर्जुन बोले--- हे मधुसून ! भीष्म, द्रोण के साथ किस प्रकार युद्ध करूँ ? शुत्रसंहारक ! वे मेरे पूज्य हैं, (जिनकी वाणी से भी हिंसा नहीं कर सकता उनको) बाणों से कैसे मारूं ?
तात्पर्यार्थ---- मोहाच्छन्न व्यक्ति ऐसा प्रश्न सामने रखता है कि सामने वाला निरुत्तर हो जाये जैसा कि अर्जुन कहता है कि आप ही बताएं----पुष्पों से जिनकी पूजा करता हूँ, उन्हें बाणों से कैसे मारूं ? अर्थात श्रीभगवान की बात सुनकर अपने पूज्यजनों के भावी वियोग को अर्जुन सहन नहीं कर सका ।।४।।
संबंध---- आप जिन्हें मारने को कहते हैं वे सामान्यजन नहीं हैं, वे महानुभाव हैं……
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थ कामांस्तु गुरुनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ।।२/५।।
हत्वार्थ कामांस्तु गुरुनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ।।२/५।।
शब्दार्थ---- ये गुरुजन महान अनुभवी हैं, बहुत विशाल धर्म तत्त्व के मर्मज्ञ और उपदेष्टा हैं । इनको मारने से मात्र पृथ्वी ही तो कामनापूर्ति हेतु मिलेगी ? मैं इनको न मारकर इस लोक में भिक्षाभोजी अर्थात संन्यासी होना श्रेष्ठ समझता हूँ ।।५।।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ।।२/६।।
शब्दार्थ---- एतत् शब्द से जो अभी हमने कहा कि मैं यह भी नहीं जानता भिक्षावृत्ति श्रेष्ठ है या नहीं अथवा हम यह भी नहीं जानते कि सामने खड़ा युद्ध करना श्रेष्ठ है या नहीं ? हम यह यह भी नहीं जानते कि हमारी विजय होगी या नहीं । अरे ! जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते विशेष रूप से धृतराष्ट्र के पुत्र....., वही युद्ध में अर्थात मरने मारने के लिए सामने खड़े हैं ।।६।।
संबंध----ऐसा अनिश्चय अर्जुन ने क्यों कहा ? इसपर कहते हैं….
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढ़ चेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं साधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।२/७।।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं साधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।२/७।।
शब्दार्थ---- अविद्या अर्थात अज्ञान जानित सदसद् विवेक से रहित धर्म अर्थात क्या कर्तव्य है इस पर मैं अत्यंत मूढ़ता के दोष से आवृत्त हुआ आप से पूछता हूँ कि जो मार्ग मेरे लिए श्रेय अर्थात मुक्ति देने वाला हो वही सुनिश्चित करके कहो क्योंकि मैं आपकी शरण आया हूँ, आपका शिष्य हूँ ।
तात्पर्यार्थ---- साधक की अविद्या जनित दोष के कारण सदसद् विवेक की बुद्धि नष्ट हो जाती है, अतः वह आत्मतत्व को नहीं जानता और जन्म-मरण रूप अविद्या से अविद्या की ओर चला जाता है, तथापि पूर्व सुकृत कर्मों के उदय होने पर सद्विद्या अर्थात ब्रह्मविद्या की जिज्ञासा होती है । उस ब्रह्मविद्या के दो ही अधिकारी होते हैं----- एक तो पुत्र जो स्वयं का अपना आत्मा कहा जाता है, वह ब्रह्मवेत्ता पिता के साथ नित्य रहने के कारण ब्रह्मविद्या के महत्व को समझता है । दूसरा शिष्य ब्रह्मविद्या का अधिकारी जो पूर्णतः गुरु के शरणापन्न होता है । अर्जुन पुत्र शिष्य दोनो नहीं है किन्तु वह भी श्रेयमार्गानुगामी होना चाहता है । यच्छ्रेयः स्यात् २/७, अतः श्रेय प्राप्ति के लिए ब्रह्मविद्या श्रवण की आवश्यकता है ही, उस ब्रह्मविद्या प्राप्ति हेतु भगवान श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करते हुए शिष्यता स्वीकार कर लेते हैं । साथ ही परम्परा के महत्व का भी प्रतिपादन करते हैं । इस परम्परा का वर्णन चौथे और तेरहवें अध्याय में भी श्रीभगवान करेंगे ।
भावार्थ---- ब्रह्मविद्या की प्राप्ति गुरुमुख से परम्परागत ही होती है ।।७।।
संबंध---- अविद्या ग्रस्त मनुष्य की इन्द्रियाँ जब सूख अर्थात उपराम हो जायें, जब पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक तक के भोगों का मन त्याग कर दे तब ही गुरु की शरण में जाना चाहिए, यही भाव आगे प्रदर्शित करते हैं….
न हि प्रपश्यामिममापनुद्यात् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रयाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ।।२/८।।
शब्दार्थ---- सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य मिल जाये अथवा देवताओं का स्वामित्व अर्थात इन्द्र पद या ब्रह्म पद भी मिल जाये तो भी मेरी इन्द्रियों को जो शोक प्राप्त हुआ है, सन्ताप प्राप्त हुआ है, उसे कोई भी उपरोक्त वैभव दूर कर सकें ऐसा तो मैं नहीं देखता ।
तात्पर्यार्थ---- इस प्रकार जब लोक परलोक के भोगों के सहित पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा इन तीनों ऐषणाओं का त्याग कर दे, जब जागतिक भोगों के नाम से मन-इन्द्रियाँ व्याकुल हो जायें तब ही ब्रह्मत्त्व के मर्मज्ञ श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर उनकी शरण ग्रहण कर ले । इस कथन की पुष्टि चतुर्थ अध्याय में करेंगे ।
भावार्थ---- ब्रह्मविद्या हेतु अशेष रूप से ऐषणात्रय का त्याग अत्यन्तावश्यक है ।।८।।
संबंध---- अर्थात का अधिकारी भाव देखकर श्री भगवान ब्रह्मविद्या का उपदेश कैसै करते हैं ? यह बताने के लिए…..
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशः गुडाकेशः परन्तप
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ।।२/९।।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ।।२/१०।।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ।।२/१०।।
शब्दार्थ---- सञ्जय बोले-- इसप्रकार परम्तपस्वी अर्जुन भगवान हृषिकेश को युद्ध नहीं करूंगा कहकर चुप हो गया ।।९।।
दोनों सेनाओं के मध्य शोक संतप्त अर्जुन से श्रीभगवान हृषिकेश अर्जुन के द्वारा दिये गए अनवसर विरुद्ध कुतर्कों का मानो उपहास करते हुए मुस्कुराते हुए से बोले------ ।।१०।।
तात्पर्यार्थ---- इसप्रकार का अर्थ अ.१ दृष्ट्वेमं स्वजनम् से लेकर क्षेमतरं भवेत् १/४६ तक एवं अध्याय २/४ से लेकर २/८ अपनी सम्पूर्ण मानसिक विकृत या दलीलें लेकर चुप हो गये ।
संबंध---और फिर श्रीभगवान मुस्कुराते हुए बोले…..
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।२/११।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।२/११।
शब्दार्थ---- श्रीभगवान बोले--- जो शोक के योग्य नहीं हैं उनका शोक करता है, ऐसा मूढ़ होकर भी पण्डितों के समान बातें करता है । बुद्धिमान लोग न उनका ही शोक करते हैं जिनके प्राण चले गये हैं और न उनका ही जिनके प्राण नहीं गये हैं ।
तात्पर्यार्थ---- अर्जुन भीष्म, द्रोण आदि पूज्यजनों को लेकर अधिक व्यथित है । इस पर श्रीभगवान कहते हैं भीष्मादि पूज्यों ने अक्षय कीर्ति प्राप्त की है, अतः वे मरकर भी अमर हैं और जीवित में तो हैं ही । अतः दोनो स्थिति में वे शोचनीय नहीं हैं । अर्थात जो सदसद् विवेक द्वारा जो अहं प्रत्यय है वह शरीर और शरीर के पश्चात भी अमर हैं, अतः वे शोक के योग्य नहीं हैं ।
भावार्थ---- स्थिति और विनाश दोनो काल्पनिक हैं, आत्मा अमर अजर है, अतः वे किसी भी परिस्थिति में शोचनीय नहीं हैं ।।११।।
संबंध---- आत्मा के अमरत्व, नित्यत्व आदि का साङ्केतिक बोध कराने पर भी अर्जुन, समझ नहीं सका अतः पुनः अखण्ड एवंं नित्य आत्मा के लिए कहते हैं….
न त्वेवाहं जातु नाशं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।२/१२।।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।२/१२।।
शब्दार्थ---- ऐसा नहीं है कि तुम मैं और ये लोग पहले नहीं थे अर्थात हम सभी लोग पहले भी थे आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे ।
तात्पर्यार्थ---- त्वं, इमे, वयम् इन तीनों शब्दों में अहं प्रत्यय है, यहाँ केवल अहं कहने मात्र से आत्मा की त्रिकाल सिद्धि हो जाती है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में एवंं एवं कौमार, युवा एवं वृद्ध इन तीनो अवस्थाओं में इतनी भिन्नताओं के बाद भी जो अहं है वह बदलता नहीं है वरन् सदैव वही एक मात्र एकरस अहं रहता है । इसी प्रकार इस शरीर के पहले और बाद में भी अहं प्रत्यय नित्य है, क्योंकि वह निरवयव, अव्यय और अखण्ड है । इस अपनी व्यापक अखण्डता को जाने बिना ही शोक करते हो और मूढ़ होकर भी पण्डितों की तरह बातें भी करते हो यह तुम्हारे योग्य कदापि नहीं है ।
भावार्थ----शरीर एक अवस्था है वह स्थिर होने वाली नहीं, और आत्मा नित्य होने से मरने वाली नहीं; अतः दोनो ही स्थिति में शोक बनता नहीं है ।।२/१२।।
संबंध---- अवस्था (शरीर) की अनित्यता और आत्मा की नित्यता पुनः इसप्रकार दर्शाते हैं…..
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।१३।।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।१३।।
शब्दार्थ---- जैसै इस शरीर के कौमार्य, यौवन तथा वृद्ध अवस्थाएं होती हैं वैसे ही शरीराभिमानी आत्मा के शरीर बदलने की एक अवस्था मात्र है । ऐसा समझकर धैर्यवान कभी मोह को प्राप्त नहीं होता ।
तात्पर्यार्थ---- शरीर की अवस्था त्रय में अविद्या जनित दोष के कारण सदसद् विवेक से रहित आत्मा स्वयं को मैं बालक हूँ, मैं पहले बालक था अब जवान हो गया हूँ, अब मैं वृद्ध हो गया का आरोप स्वयं पर करता रहता है, किन्तु तीनों अवस्थाओं में रहने वाला 'मैं' एक ही रहा । वह कभी बच्चा, जवान, वृद्ध नहीं होता तथापि बच्चा बूढ़ा जवान का आरोप कर लेता है । उसी प्रकार तीनो अवस्थाओं में एकरस रहने वाला आत्मा ही अविद्या दोष से शरीर के परिवर्तन को ‘हाय मैं मर गया’ इत्यादि आरोपित करके शोक करता है, किन्तु इस रहस्य को जानने वाले आत्मा के नित्य एक रस भाव में स्थिति होकर कभी मोहित नहीं होते अर्थात शोक नहीं करते ।
संबंध---- इस प्रकार आत्मा नित्य एकरसानन्दस्वरूप प्रत्यक्ष सिद्ध होने से शोक तो कदापि बनता ही नहीं, किन्तु अविद्या जनित पूर्व प्रारब्धानुसार आगमापयी अर्थात प्रकट और नष्ट होने वाला शरीर तो मिल ही गया है, आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक ताप भी स्वाभाविक प्राप्त ही होंगे । अतः उन्हें सहन करने के लिए श्रीभगवान आदेश देते हैं….
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमायिनोऽनियास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।१४।।
आगमायिनोऽनियास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।१४।।
शब्दार्थ---- हे भारत ! पञ्चमहाभूत निर्मित शरीर में उनकी पञ्तन्मात्राएं शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि देने वाले ही हैं, किन्तु ये आने जाने वाले हैं अतः इन्हें सहन करो ।
तात्पर्यार्थ---- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इनसे ही अनुकूल प्रतिकूल होने के कारण शीत-उष्ण, मान-अपमान, जीवन-मरण, स्वस्थ-अस्वस्थ आदि सुख-दुःख देने वाले हैं, किन्तु ये आज हैं कल नहीं हैं, अतः तू उसे सहन कर क्योंकि इन सभी आने जाने वाली अवस्थाओं का एकमात्र नित्य, अखण्ड, सुख-दुःखादि को सत्ता देने वाला तू ही है ।
भावार्थ---- जो नित्य है उसका कभी कुछ बिगड़ता नहीं, अनित्य कभी स्थिर रहता नहीं, अतः 'आगतं स्वागतं कुर्यात गतं न निवारयेत' ।।१।।
संबंध---- इसप्रकार जो पूर्व की मात्राओं और उनके विकारों को सहन कर लेता है उसकी प्रशंसा और गति का वर्णन करते हैं…..
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
सम दुःख सुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।।१५।।
शब्दार्थ----जो पूर्वोक्त मात्राओं से उत्पन्न शीत-उष्ण, स्थिति-विनाश से उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वन्दों से व्यथित अर्थात चलायमान या प्रकंपित नहीं होता वही पुरुषों में श्रेष्ठ और धैर्यवान है, वही ब्रह्मप्राप्ति का संकल्प करता है अर्थात आत्मैक्य भाव को प्राप्त करता है ।
तात्पर्यार्थ---- यथा प्राप्तं सहेत्सर्वं स तपस्योत्मोत्मः -- शेष भाव स्पष्ट है ।।१५।।
संबंध---- उपरोक्त प्रकार से सहन करते हुए ब्रह्म प्राप्ति का संकल्प लेकर वह किस प्रकार आत्मदर्शन (ब्रह्मदर्शन)करता है ? यह बताते हैं…..
नाऽसतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोः तत्त्वदर्शिभिः ।।२/१६।।
शब्दार्थ---- असत की सत्ता नहीं सत का अभाव नहीं इस प्रकार तत्त्वदर्शियों के द्वारा देखा अर्थात निश्चित किया गया है ।
तात्पर्यार्थ---- सत वह है तो नित्य, निर्विकार एकरस, विज्ञानघन, देशकाल अबाधित, सर्वकाल, सर्वगत और शाश्वत हो उसे सत कहते हैं । सत से जो विलक्षण हो उसे असत कहते हैं । कोई भी कुछ भी दिख रहा है उसका कोई तो कारण होगा ? जैसे आकाश निर्विकार, नित्य, सर्वगत है तथापि उसमें नीलिमा रूप विकार दिखता है । इसमें आकाश तो सत्तावन है, कभी इसका अभाव नहीं हो सकता स्वरूप से भिन्न नीलिमा दिखने पर भी असत है, और अभाव ही है । इसी प्रकार जिस काल में सत्स्वरूप निर्विकार, सर्वगत, सबका साक्षी जो आत्मा है उसके आश्रित शरीर आदि विकार हैं, वह वास्तव में है नहीं पर दिखता है और अगर होता तो जो शरीर जैसा बचपन में था वैसा ही जवानी, बुढ़ापा में भी दिखना चाहिए, किन्तु यह एककाल में दिखता है और दूसरे काल में नहीं दिखता, अतः इस अनात्मा शरीर का सदैव अभाव और आत्मा नित्य, निर्विकार, आत्मरूप सदा एक रस, रहता है । इसप्रकार जो जानता है वही तत्त्वदर्शी आत्मैक्य भाव में नित्य, निरन्तर, निर्विकार स्थित अद्वय आत्मा में सर्वात्मा रूप से शोक रहित स्थित है । ऐसा तत्त्वदर्शियों का निश्चय है ।
भावार्थ---- जो सत् असत् को विवेक पूर्वक जानता है वही शोक रहित सर्वान्तरात्मा में एक रस स्थित है ।।१६।।
संबंध---- पूर्व में सत् का कभी अभाव नहीं होता अर्थात सत्स्वरूप आत्मा नित्य होने से अविनाशी बताया गया है । अतः अविनाशी किसे कहा गया है यह बताते हैं…..
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं जगत् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।२/१७।।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।२/१७।।
शब्दार्थ---- जिससे सम्पूर्ण जगत व्याप्त है उसे अविनाशी जान । चूंकि वह अव्यय है इसलिये उसका नाश करने में कोई भी सक्षम नहीं है ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ आया हुआ ‘येन सर्वमिदं ततम्' ‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्' ७/५, ‘जीवनं सर्वभूतेषु' ७/९, ‘बीजं मां सर्वभूतानाम्' ७/१०, के साथ एकात्मकता को प्राप्त है । इसी येन सर्वमिदं की पुष्टि ‘अहमात्मा' १०/२०, ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि' १३/२ में स्पष्ट होता है ऐसा होने पर ‘येन सर्वमिदं ततम्' ८/२२ एवंं ‘येन सर्वमिदं ततम्' १८/४६ इत्यादि में जिसका वर्णन है वही यहाँ पर ततम् करके जिसे कहा गया है, वही अविनाशी, नित्य, शाश्वत, अखण्डानन्दैकरस जो सबका सर्वात्मा है, वह अव्यय अर्थात कभी भी, किसी भी काल में जिसका व्यय हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं, उसका कोई नाश कर सकता भी नहीं । ऐसा जो सर्वात्मा है जिसे अहं करके जाना जाता है वही अविनाशी अहं अर्थात ब्रह्म मैं हूँ ।
भावार्थ---- उपरोक्त के अनुसार जब तत् अर्थात वह करके जिस परमात्मा को जाना जाता है, वही क्षेत्रज्ञ अर्थात अहं प्रत्यय है, तो फिर अविनाशी ब्रह्मत्त्व जो है वही मैं हूँ । मेरा विनाश कभी हो सकता नहीं, ऐसी स्थिति में निरन्तरता शोक मोह से रहित अखण्डानन्दैकरस का पान करती है ।।२/१७।।
संबंध---- माना कि जीव ब्रह्म है किन्तु जो इस भाव का अधिकारी नहीं है वह तो शोक करेगा ही ?....
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्मद्युध्यस्व भारत ।।२/१८।।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्मद्युध्यस्व भारत ।।२/१८।।
शब्दार्थ---- हे भारत ! ये सभी शरीर नाशवान हैं और इसमें रहने वाला जीवात्मा अविनाशी एवं अप्रमेय है, इसलिये भी युद्ध अर्थात उपस्थित कर्तव्य का पालन कर ।
तात्पर्यार्थ---- कहते हैं कि ‘इमे’ करके जितने शरीर हैं उसमें जो आत्मा है उसका किसी भी प्रकार विनाश संभव नहीं है । विनाश उसका होता है जो सावयव हो, निरवयव का विनाश होता नहीं । सावयव न होने से उसका उसके अतिरिक्त दूसरा कोई प्रमाण भी नहीं, तो विनाश का प्रश्न भी कैसे उपस्थित हो सकता है ? अतः वह आत्मा नित्य है यह तो मानना ही पड़ेगा । अतः आत्मा को अविनाशी जानकर युद्ध रूप कर्तव्य का पालन कर ।
भावार्थ---- मुमुक्षु यदि रोगादि शत्रुओं से आक्रांत हो तो भी आत्मभाव से विचलित न हो कर आत्मभाव में स्थित होकर अपने आश्रम धर्म के अनुसार भिक्षादि कृत्य करते हुए स्वयं से स्वयं में स्थित रहने का अभ्यास रूप युद्ध करता रहे ।।२/१८।।
संबंध---- यदि मुमुक्षु अनात्म दोष से भयभीत होकर स्वयं को जन्मने मरने वाला मानता है तो….
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नाऽयं हन्ति न हन्यते ।।२/१९।।
शब्दार्थ---- जो इस आत्मा को मरने मारने वाला मानते हैं वे दोनो ही नहीं जानते, क्योंकि यह आत्मा न तो मरता है न मारता है ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ श्रीभगवान ने वेत्ति का अर्थ जो मरने मारने वाला जानने के लिए कहा है, इसे अविद्या ग्रस्त अज्ञान की चरमसीमा कहते हैं कि वे दोनो अज्ञानी हैं इसी अज्ञानमय मृत्यु के कारण ही पाप-पुण्य की कल्पना हो जाती है । जैसा कि अर्जुन ने ‘पापमेवाश्रयेदस्मान्' १/३६-४५ तक कहा है । यही कल्पना भय का हेतु है आत्मा का नाश होने के लिए कोई न कोई अवयव अर्थात शरीर चाहिए, जबकि वह निरवयव है, शरीर है तो क्रिया है, कर्म रूप विकार है, जबकि वह निर्विकार है । शरीर होने से अन्तवाला होगा जबकि आत्मा अनन्त है इत्यादि । अतः वह ‘साक्षी चेतो केवलो निर्गुणश्च' श्रुति प्रमाणित है । अगर श्रुति का श्रवणादि प्रमाण उपेक्षित करके आत्मा को मरने मारने वाला मानता है तो जैसे कोई स्त्री मृतपुत्र को जन्म देकर मात्र पीड़ा सहती है लाभ कुछ नहीं, वैसे ही ब्रह्मचर्य, संन्यास, वेदाध्ययन आदि सब परिश्रम मात्र कष्ट उठाने के लिए ही है । कोई लाभ नहीं ।
भावार्थ--- श्रुति वचनों को प्रमाण मानकर कि आत्मा नित्य, शाश्वत, निर्विकार आदि है शोक निवृत्त हो जाना चाहिए ।।१९।।
संबंध---- अब आत्मा के निर्विकार स्वरूप का वर्णन करते हैं…..
न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।२/२०।।
शब्दार्थ----यह आत्मा न कभी जन्मता है, न मरता है, न कभी उत्पन्न हुआ था, न होगा और और न ही उत्पन्न हुआ है । यह आत्मा अज, नित्य शाश्वत एवं पुराण है । अतः शरीर नष्ट होने पर भी न तो मरता है और न ही किसी को मारता है ।
तात्पर्यार्थ---- न जायते अर्थात अजन्मा है, अर्थात जन्म रहित है, जन्म रहित होने से उसका व्यक्तित्व अर्थात अस्तित्व भी संभव नहीं है, जिसका अस्तित्व नहीं उसका क्षय (अपक्षय) नहीं हो सकता, वृद्धि क्षय का परिणाम न होने से विपरिणामी भी स्वतः हो गया, जिसका जन्म, अस्तित्व, वृद्धि,अपक्षय, विपरिणाम, नहीं उसकी मृत्यु भी तीनों कालों में संभव नहीं है । वह अज, नित्य, शाश्वत, सदा पुराण अर्थात नवीन है ।
तात्पर्यार्थ---- जिसके जान लेने मात्र से जन्मादि विकारों से रहित हो जाता है अथवा जो स्वयं अज है ऐसा वह आत्मा ही मै के रूप में प्रतिभासित हो रहा है । अर्थात जिसे यह आत्मा कहा जाता है वह आत्मा अर्थात ब्रह्म मै ही हूँ ।।२०।।
संबंध----जिसे तुम मरने मारने वाला मानते हो वह उस अविनाशी में संभव ही नहीं है यह बताते हैं…..
वेदाऽविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।।२/२१।।
शब्दार्थ---- इस आत्मा को अविनाशी, नित्य, अज, और अव्यय करके जो जानता है, हे पार्थ ! उस पुरुष को कैसे और किस प्रकार कोई मार सकता है अथवा वह किसको मार सकता है ?
तात्पर्यार्थ---- यहाँ आत्मा को हर प्रकार से नित्यानन्दैकरस, अव्यय इत्यादि बताया गया है, जिसकी इस अव्यय भाव में स्थिति हो चुकी है, कब किससे और कैसे मारे, मरे ? अर्थात वह षड्विकारों का त्याग करके स्वयं से स्वयं में स्थित सर्वत्यागी संन्यासी है, जन्मादि विकारों का त्याग अर्थात इनसे ऊपर वही हो सकता है ।
तात्पर्यार्थ---- अहं भाव में प्रतिष्ठा अर्थात मैं ब्रह्म हूँ यही भाव तत्त्ववेत्ता का है ऐसा दिखाया गया है ।।२१।।
संबंध---- निर्विकार आत्मा किसी भी प्रकार विकारी नहीं हो सकता है उसका उदाहरण देते हैं….
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।२/२२।।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।२/२२।।
शब्दार्थ---- जैसे मनुष्य के वस्त्र बदलने पर मनुष्यत्व में कमी नहीं आती, प्रत्येक बदले वस्त्र में एक वही होता है, वैसे ही यह आत्मा अनेकों शरीरों में भ्रमण करता हुआ भी एक वही रहता है । उसके अजत्व, निर्विकारत्व आदि में कोई कमी नहीं होती, क्योंकि वह षड्विकारों से रहित है ।
भावार्थ---- यह भाव ही अनासक्त कर्मयोगी का लक्षण है और इस भाव में स्थित संन्यासी का लक्षण है ।।२२।।
संबंध---- वस्त्र की तरह शरीर बदलने से आत्मा में परिवर्तन नहीं होता, लेकिन शास्त्र, अग्नि, वायु, पानी आदि तो बड़े भयंकर होते हैं ये तो कुछ भी कर सकते हैं , इस पर कहते हैं…..
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।२/२३।।
शब्दार्थ----इस आत्मा का शस्त्र छेदन नहीं कर सकते, आत्मा को अग्निजला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकता ।
तात्पर्यार्थ---- उपरोक्त शस्त्रादि चारों पदार्थ पृथ्वी सहित चारों भूत हैं । ये स्थूल हैं और स्थूल के द्वारा ही स्थूल का नाश होता है, सूक्ष्म का नहीं । नाश होने के लिए अवयव अर्थात शरीर चाहिए जबकि वह निरवयवी है, इसीलिये आत्मा का कोई स्पर्श भी नहीं कर सकता, छेदन आदि की तो बात ही क्या ? आकाश निरवयव है वही आकाश आदि चारों भूतों को सत्ता देता है, लेकिन क्या ये चारों भूत आकाश का स्पर्श भी कर सकते हैं ? नहीं न ? तो आत्मा तो आकाश को भी सत्ता देने वाला महाकाश है फिर उसको कोई क्षति कैसे पहुंचा सकता है ?
भावार्थ---- इसप्रकार आत्मा को जानकर मुमुक्षु को आत्मभाव अर्थात मैं ब्रह्म हूँ के भाव में स्थित हो जाना चाहिए ।।२३।।
संबंध---- ऐसा शस्त्रादि क्यों नहीं कर सकते ? इस पर कहते हैं…..
अच्छेद्योऽयमदह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।२/२४।।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।२/२४।।
शब्दार्थ---- यह आत्मा अछेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य एवं अशोष्य है, यह आत्मा नित्य, सर्वगत, स्थाणुवत् स्थिर और सनातन है ।
तात्पर्यार्थ---- उपरोक्त संसाधन भी इस आत्मा को कोई क्षति नहीं पहुंचा सकते इसलिये वह नित्य है, नित्य होने के कारण सर्वगत अर्थात व्यापक है, व्यापक होने के कारण ही पर्वत के समान स्थिर है, स्थिर होने के कारण ही सनातन अर्थात अनादि है ।
भावार्थ---- न जायते म्रियते वा कदाचिन् २/२० में जिस छः विकारों से रहित आत्मा का वर्णन किया गया था उसका स्पष्टीकरण यहाँ कर दिया गया ।।२४।।
संबंध---- ठीक है, मान लिया कि आत्मा उपरोक्त स्थूल भूतों का विषय नहीं बन सकता लेकिन मन बुद्धि तो सूक्ष्म हैं इनका विषय तो बन ही सकता है ? इस पर कहते हैं…..
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानु शोचितुमर्हसि ।।२/२५।।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानु शोचितुमर्हसि ।।२/२५।।
शब्दार्थ---- इस आत्मा को अव्यक्त, अचिन्त्य, एवं अविकारी कहा गया है, इसलिए इस आत्मा को इस प्रकार से जानकर भी तू शोक करने योग्य नहीं है । अर्थात शोक को त्याग दे ।
तात्पर्यार्थ---- यह आत्मा बुद्धि द्वारा निश्चित की गई वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता इसीलिये अव्यक्त है, अव्यक्त होने के कारण मन द्वारा चिन्तन भी नहीं किया जा सकता अतः अचिन्त्य है ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' । आत्मा जन्मादि छः विकारों से रहित है, अतः अविकारी अर्थात निर्विकारी है । इस प्रकार आत्मा को जानकर आत्मभाव अर्थात मैं जन्मने मरने वाला नहीं, बल्कि मैं अज, नित्य, शाश्वत, नित्यानन्दैकरस 'तत्' पद से कहा जाने वाला 'त्वं' पद का लक्ष्यार्थ जिसकी ‘असि' मात्र सत्ता है वही ब्रह्म मैं हूँ । ऐसा जानकर संपूर्ण शोक का त्याग कर दे ।
भावार्थ----वासांसि जीर्णानि २/२२ में जो आत्मा के जन्मादि विकारों निषेध किया गया था, किन्तु सूक्ष्म शरीर रूप में विकार का भ्रम हो सकता था अतः उसका यहाँ निराकरण किया गया ।।२५।।
संबंध---- अशोच्यानन्वशोचस्त्वं २/११ प्राण शब्द से संबोधित करके जिस आत्मा का संकेत किया था उसी का विस्तार वेदाऽविनाशिनं नित्यं २/२१ तक विस्तार पूर्वक वर्णन किया, किन्तु अधिकारत्व की दृष्टि से अर्जुन को समझ में नहीं आया, अतः वासांसि जीर्णानि २/२२ का वर्णन करके सूक्ष्म शरीर भाव उत्पन्न न हो जाये, अतः अव्यक्तोऽयम् २/२५ के रूपक से समझाया । प्रत्येक आचार्य चाहता कि हमारा शिष्य शीघ्र लक्ष्य की चरमसीमा को प्राप्त कर ले, अतः पहले चरमतत्त्व का उपदेश करता है और जब समझ में नहीं आता तब निम्न स्तर पर आ जाता है । जैसे माँ बच्चे को शुद्ध दूध न पचने पर पानी मिलाकर देती है यही श्रीभगवान ने किया । अर्जुन को यह परम तत्त्व समझ में नहीं आया जानकर लोकदृष्टि से उपदेश करते हैं……
अथ चैनं नित्य जातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।।२/२६।।
शब्दार्थ---- हे महाबाहो ! यदि इस आत्मा को जन्मने मरने वाला भी मानते हो तो भी इस आत्मा को लेकर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए ।
तात्पर्यार्थ----- अथ शब्द से पूर्वोक्त प्रकार से यदि आत्मा को नित्य शाश्वत निर्विकार अजन्मा आदि लक्षणों वाला नहीं मानता है तो भी ‘का’ कथन है अर्थात उन उन लक्षणों के विरुद्ध भी नित्य जन्मने मरने वाला मानने पर भी शोक का कोई प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता है ।।२६।
संबंध---- उपरोक्त लौकिक दृष्टान्त देकर उसकी पुष्टि करते हैं…..
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्ममृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।२/२७।।
शब्दार्थ----जन्मने वाले की मृत्यु और मरने वाले का जन्म निश्चित और अपरिहार्य है इसलिये भी शोक नहीं करना चाहिए ।
तात्पर्यार्थ---- जो जन्म मृत्यु अटल है उसे टाला तो जा नहीं सकता और उसके विषय में देवत्त मर गया, यज्ञदत्त मर गया आदि का शोक क्यों करना ? अतः शोक इस अटल होनी के कारण भी शोक नहीं करना चाहिए ।।२/२७।।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्त निधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।२/२८।।
शब्दार्थ----क्योंकि यह आत्मा जन्म से पहले अव्यक्त था अब यह प्रकट है और मरने के पश्चात फिर अव्यक्त में लीन हो जायेगा । अतः इसके विषय में क्या शोक करना ?
तात्पर्यार्थ---- जो आदि में अव्यक्त यानी नहीं था और अन्त में भी अव्यक्त अर्थात नहीं होगा ऐसा आंखों को धोखा देने वाला ही मध्य में प्रकट हुआ सा दिखता है, ऐसे मायामय शरीरों के प्रकट नाश में क्या हर्ष और क्या शोक ? अर्थात ये दोनो ही अनुचित हैं । अर्जुन ने पिता, पितामह, पुत्र पौत्रादि संबन्धियों भीष्म, द्रोण को अलग से भी शोक का हेतु बताया था, यहाँ पर ये नाम रूप लेकर प्रकट हुए हैं वे पहले कहाँ थे और बाद में कहाँ रहेंगे ? इसप्रकार विचार पूर्वक शरीरों का अनित्यत्व समझकर आत्मनिष्ठ मोक्षाकांक्षी को शोक करना उचित नहीं है ।।२८।।
संबंध---- श्रीभगवान ने जो पहले आत्मा का स्वरूप बताया और अब उसको मध्य में प्रकट बताकर अव्यक्त बता रहे हैं, किन्तु यहाँ तो आत्मा कुछ और समझा जाता है । यह भी आश्चचर्यमय है कि आत्मा को कोई विरला ही जानता है , इस पर कहते हैं….
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चाऽन्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।२/२९।।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।२/२९।।
शब्दार्थ---- इस आत्मा को कोई ही आश्चर्य के समान देखता है, आश्चर्य के समान कोई ही कहता है आश्चर्य के समान कोई ही सुनता है और आश्चर्य तो यह भी है कि कोई तो सुनकर भी नहीं जान पाते ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ आत्मा के अत्यंत दुर्बोधत्व का बोध कराया गया है जिसके विषय में ७/३ में पुनः बताएंगे ।।२९।।
संबंध----उपरोक्तानुसार दुर्विज्ञेय आत्मा का नाश किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता है यह बताते हैं…..
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।।२/३०।।
शब्दार्थ---- देही अर्थात देहाभिमानी जीव उपाधि धारण करने वाला आत्मा संपूर्ण शरीरों में रहता है वह नित्य और अवध्य है, इसलिये सामने खड़े शरीरों का तुम शोक मत करो ।
तात्पर्यार्थ---- इसप्रकार दुर्विज्ञेय आत्मा के लिए कि मैं मारने वाला हूँ और भीष्म आदि मरने वाले हैं, ऐसा सोचकर शोक मत कर । क्योंकि प्रकृति का यही गुण है । अतः गुण ही गुणों में वर्त रहे हैं ३/२८ में बताऊंगा अभी तो इतना समझ ले कि आत्मा अकर्ता है, अतः अशोचनीय है ।।३०।।
संबंध---- पूर्वोक्त परमार्थ दृष्टि से भी शोक नहीं करना चाहिए ऐसा भी नहीं है, अपितु…..
स्वधर्ममपि चाऽवेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।।२/३१।।
शब्दार्थ---- अपने धर्म को देखकर भी प्रकंपित मत हो क्योंकि क्षत्रिय के लिए और कोई युद्ध के अतिरिक्त दूसरा श्रेष्ठ धर्म ही नहीं है ।
तात्पर्यार्थ---- कर्म से चित्त शुद्धि होती है, अतः पूर्वोक्त जो ब्रह्मत्त्व में प्रतिष्ठित नहीं हैं उन्हें स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिए, ब्राह्मणादि वर्ण, ब्रह्मचर्यादि आश्रम आदि में जिसका जो स्वधर्म है उसका पालन करने से ही चित्तशुद्धि और चित्तशुद्धि से ही ब्रह्मत्त्व में प्रतिष्ठा होती है ऐसा श्रीभगवान १८/४६ में भी कहेंगे । अतः स्वधर्म कितना भी बीभत्स या सौम्य हो भय या हर्ष न करते हुए कर्तव्यत्वेन स्वधर्म है, इसलिए बिना प्रकंपित हुए स्वधर्म श्रेष्ठ युद्ध करना ही चाहिए ।
भावार्थ---- प्रत्येक को अपना स्वाभाविक प्राप्त कर्म कर्तव्य है ऐसा समझकर प्रत्येक दशा में करना युद्ध ही है, यह भाव है ।।३१।।
संबंध---- प्रत्येक दशा में युद्ध क्यों करना चाहिए…..
यदृच्छया चोपपन्नस्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।।२/३२।।
शब्दार्थ---- हे पार्थ ! इसप्रकार का बिना प्रयत्न किये अपने आप खुले हुए स्वर्गद्वार वाला युद्ध प्राप्त करके तो क्षत्रिय सुखी होते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- स्वतः प्राप्त प्रजा रक्षार्थ-कल्याणार्थ कर्म यदि बीभत्स भी हो तो भी जनहित के लिए किये जाने वाला कर्तव्य कर्म स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला होता है । मुमुक्षु को स्वाभाविक नैष्कर्म्य पर अधिकार है । उसे हर परिस्थिति में करना ही चाहिए ।।३२।।
संबंध---- यदि पूर्वोक्त कर्तव्यकर्म नहीं करता है तो…..
अथ चेत्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।।२/३३।।
शब्दार्थ---- ऐसा जानकर भी इस धर्ममय युद्ध को नहीं करोगे तो स्वधर्म और यश का नाश करके पाप को प्राप्त करेगा ।
तात्पर्यार्थ---- मुमुक्षु को स्वधर्म प्राप्त कल्याणमय कर्तव्य में प्रमाद बिल्कुल नहीं करना चाहिए । यही मुमुक्षु का युद्ध है । क्योंकि आज हम नहीं करेंगे तो कल कोई और, परसों कोई और....., इस प्रकार अनर्थ परंपरा ही चल पड़ेगी जैसा कि आज दिख रहा है । हमने विरजा होम पूर्वक पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा नामक वासनाओं का ‘अभयं सर्वभूतेभ्यः ददाम्येतत्व्रतं मम' का वेद मंत्रों से वेदों और साक्षात नारायण को साक्षी करके व्रत लिया है । अगर वह नहीं करेंगे तो संन्यास रूप स्वधर्म का नाश करके हम पाप के भागी अवश्य बनेंगे । सर्वत्याग रूप जो स्वधर्म की प्राप्ति हुई है वह भी नष्ट हो जायेगा ।
संबंध---- इतना ही नहीं….
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादितिरिच्यते ।।२/३४।।
शब्दार्थ---- इस अपकीर्ति की सभी प्राणी(मनुष्य) अव्यय गाथा को बारंबार गायेंगे कि तेरी या उसकी ऐसी ऐसी पलायनमय गाथा है । यह अपकीर्ति तो किसी भी शिष्टजन के लिए मृत्यु से बढ़कर है ।
तात्पर्यार्थ---- जो स्वस्थानीय स्वधर्म अर्थात स्व-कर्तव्य का पालन अर्थात स्वधर्म का पालन नहीं करता वह मृत्यु पर्यंत निंदा का पात्र होता, शिष्टजनों के लिए यह क्लेश मृत्यु से भी बढ़कर है ।
भावार्थ---- कर्तव्य का पालन न करनेवाले का लोक परलोक सब नष्ट हो जाता है ।।३४।।
संबंध---- इतना ही नहीं….
भयाद्रणादुपरतं मन्स्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ।।२/३५।।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ।।२/३५।।
शब्दार्थ---- प्रतिपक्षी लोग यही कहेंगे कि भय के कारण पलायन कर गया, जो तुम्हें कर्तव्य पालन में अत्यन्त दृढ़ समझते थे उनके बीच तू लघुता को प्राप्त करेगा अर्थात ये लोग अपमानित करेंगे ।
तात्पर्यार्थ---- कोई नहीं देखता कि आप कितने दयालु और उदार हैं वे यह भी नहीं सोचेंगे कि आपने उनके हित में अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया, बल्कि भयभीत और पलायनवादी मानकर सदैव अपमान करेंगे ।।३५।।
संबंध---- इतना ही नहीं….
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाऽहिताः ।
निन्दन्स्तवसामर्थ्यं ततो दुःखरं नु किम् ।।२/३६।।
निन्दन्स्तवसामर्थ्यं ततो दुःखरं नु किम् ।।२/३६।।
शब्दार्थ---- तेरा अहित करने में तत्पर रहने वाले बहुत प्रकार के न कहने योग्य भी कहेंगे, तुमहारे सामर्थ्य की निंदा करेंगे और अकथनीय शब्द कहेंगे, अकथनीय यानी गाली..... जो लोग गांवों में रहते हैं वे गाली की सीमा जानते हैं । ऐसा असहनीय दुःख कैसे सहन करोगे ?
भावार्थ---- कर्तव्य का पलन न करने वाले की दयनीय दशा का ‘यदृच्छया चोपपन्नं' २/३२ से 'ततो दुःखतरं नु किम् २/३६ तक वर्णन किया । आज संपूर्ण समाज कर्तव्य पलायन और परधर्म आश्रित है । समाज को निर्भय करने वाले धर्माचार्य जेल में सड़ रहे हैं, नैष्कर्म्य के आचार्य गोशाला आदि के साथ क्या क्या कर रहे हैं किसी से छिपा नहीं है, अतः उसका परिणाम भी सबके सामने है अतः कहने की आवश्यकता नहीं है ।।३६।।
संबंध---- श्रीभगवान कहते हैं ऐसे जीने से तो मर जाना ही अच्छा है, लेकिन जब मरना ही है तो कर्तव्य का पालन करते हुए ही मरो जो कल्याणकारी होगा…..
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चयः ।।२/३७।।
शब्दार्थ---- मरोगे तो स्वर्ग मिलेगा, जीत गये तो पृथ्वी का राज्य मिलेगा । इसलिये हे कौन्तेय युद्ध का निश्चय करके खड़ा हो जा ।
तात्पर्यार्थ---- उपरोक्त अर्थ स्पष्ट है । तात्पर्य यह है कि व्यक्ति का स्व-स्थानीय प्राप्त शास्त्रीय कर्म निष्ठापूर्वक करने में सफल हुआ तो लोक और कर्तव्य पालन में मर गया तो परलोक, दोनो प्रकार से कल्याणकारी है ।।३७।।
संबंध---- २/३१ से २/३७ तक लौकिक कर्तव्य पालन न करने से हानि और करने से लाभ बताया, किन्तु से २/११ से २/३० तक का जो पारमार्थिक विषय छूट गया था उसका पुनः वर्णन करते हैं….
सुखदुःखे समेकृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।२/३८।।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।२/३८।।
शब्दार्थ---- सुख दुःख, लाभ हानि, जय पराजय सबको समान समझकर फिर युद्ध कर इससे तुझे पाप नहीं लगेगा ।
तात्पर्यार्थ---- अर्जुन ने कहा था ‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' २/७ तो श्रेय का मार्ग २/११ से २/३० तक बता दिया था अर्जुन को समझ नहीं आया अतः २/३१ से २/३७ तक लौकिक दृष्टि से भी शास्त्रीय स्वप्राप्त कर्तव्य का पालन करने पृथ्वी और स्वर्ग दोनों के लिए ही कल्याणकारी बताया । इस पर अर्जुन शंका कर सकता है कि हमने श्रेय का अर्थात निवृत्ति या मोक्ष का मार्ग पूछा था आप बीच में पृथ्वी और स्वर्ग क्यों ले आये ? हमने पहले ही कहा था ‘अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्' २/८ यह कुछ नहीं चाहिए मुझे श्रेय का मार्ग बताओ । इस पर भगवान कहते हैं कि मैने पहले ही कहा था पर तुम्हें समझ में नहीं आया तो मैं क्या करूँ ? पृथ्वी स्वर्ग की बात भी मैने इसीलिये की कि कैसे भी किसी भी दृष्टि से स्वभाव से अनिच्छित प्राप्त युद्ध रूप स्वधर्म का पालन कर । श्रेय का मार्ग चाहिए तो ‘पापमेवाश्रयेत्' १/३६ में कहा था तो यह भय भी सकाम कर्म हानि लाभ आदि की दृष्टि से ही होता है और इस भय की निवृत्ति के लिए सुख दुःख, हानि लाभ, जय पराजय को भी प्राप्त हो जाये तो भी हर्ष विषाद से रहित २/११-३० तक का विचार कर, उसमें स्थित हो जा तो पाप नहीं लगेगा ।
भावार्थ--- श्रेय की प्राप्ति में सकाम कर्म ही बाधक हैं, निष्काम नहीं, क्योंकि चित्तशुद्धि ही श्रेय का साधन है ।।२/३८।।
संबंध----पूर्वोक्त प्रकार से पहले समभाव में स्थित हो जा क्योंकि…..
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्म बन्धं प्रहास्यसि ।।२/३९।।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्म बन्धं प्रहास्यसि ।।२/३९।।
शब्दार्थ---- अभी तक साङ्ख्य विचार सुना और अब योग का विचार सुनो जिससे जिससे कर्म बन्धन नष्ट कर दोगे ।
तात्पर्यार्थ---- तेरे लिए अभी तक जो पहले कहा वह साङ्ख्ययोग अर्थात ज्ञानयोग का विचार था, किन्तु हर्ष विषाद वाले अनधिकारी के लिए नहीं है । मेरे कहने पर भी तुम्हारा शोक नष्ट नहीं हुआ, अतः तुम ज्ञान के अधिकारी नहीं हो । अतः अब योग अर्थात श्रुति-शास्त्र प्रतिपादित कर्मयोग को सुनो इस पर अर्जुन कह सकता है कि एक विज्ञान से सर्व विज्ञान हो जाता है, उसके दर्शन मात्र से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं तो कर्मों की क्या आवश्यकता ? कोई कर्म करके भी कर्म के बन्धन से कैसे मुक्त हो सकता है ? इस पर भगवान कहते हैं कि--- कहते तो तुम ठीक हो पण्डितों की तरह लेकिन यह उनके लिए है जो हर्ष विषाद आदि द्वन्दों को पार करके उस परम तत्त्व में आरूढ़ हो चुके हैं, तेरे लिए अर्थात जो आरूढ़ नहीं हुए हैं किन्तु आरूढ़ होने की इच्छा रखते हैं उनके लिए ही कर्मयोग है । अतः तुम अभी कर्मयोग के ही अधिकारी हो । जो तुमने कहा कर्म करके भी कोई कर्मबन्धन से कैसे छूट सकता है, तो यह कहना भी अविवेक अर्थात अविचार है क्योंकि कपड़ो पर लगी मिट्टी (गंदगी) छुटाने के लिए ऊसर मिट्टी (आजकल वाशिंगपावडर/साबुन) लगाते हैं कि नहीं ? और दोनो ही कपड़ों को उज्वल करके नष्ट हो जाते हैं कि नहीं ? इसी प्रकार तुम्हारी बुद्धि जब योग से युक्त होगी तब तुम समस्त कर्म बन्धनों को पार करके श्रेय को प्राप्त कर लोगे । इसके लिए पूर्व में कहे गए हर परिस्थिति में समभाव को अपनाना होगा क्योंकि यह समत्व ही योग है 'समत्वं योग उच्यते' २/४८ ऐसा आगे कहूँगा ।।३९।।
संबंध---- कर्मयोग की महिमा बता रहे हैं….
नेहाऽभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।।२/४०।।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।।२/४०।।
शब्दार्थ---- यह जो निष्काम कर्मयोग है, इसका आरंभ करने का फल कभी नष्ट नहीं होता, प्रत्यवाय अर्थात पाप भी नहीं लगता । थोड़ा सा भी स्वधर्म का पालन करने से महान भय की निवृत्त हो जाती है ।
तात्पर्यार्थ---- श्रीभगवान कहते हैं कि निष्काम कर्म भी फलदायी होता है । जैसे सकाम कर्म पाप पुण्य के भागीदार बनाकर उन उन सुख दुःख, उत्थान पतन आदि के कारण होते हैं, वैसे ही निष्काम कर्म खेती के समान नष्ट होने वाला नहीं होता । खेती में होने वाली फसल संदिग्ध होती है कि वह कितनी घर आयेगी ? आयेगी भी या नहीं ? सकाम यज्ञादि का फल भी यदि सफल हुआ तो लोक परलोक का फल सुख देकर और असफल हुआ तो नाना प्रकार के पापमय परिणाम देकर एक अवधि के बाद नष्ट हो ही जाते हैं । अतः सकाम कर्म की तरह समभाव में स्थित निष्काम कर्म नहीं होते । निष्काम कर्म चित्तशुद्धि रूप अक्षय फल देने वाले होते हैं, साथ ही ये कर्म स्वार्थपरता से रहित होने के कारण निष्पाप भी होते हैं । अतः पापमेवाश्रयेत् १/३६ जो तुमने कहा था वह कदापि संभव नहीं है । पाप नहीं लगेगा इसलिये स्वधर्म का अंशमात्र भी पालन बड़े बड़े भय का नाश कर देता है ।
भावार्थ---- निष्काम कर्म संशय रहित पुण्य पाप के भय से रहित अक्षय फल देने वाले होते हैं ।।४०।।
संबंध---- योगमय निष्काम कर्म करने के लिए आवश्यक है कि सकाम कर्मों का फल और उसकी स्थिति समझ ली जाये, अतः यहाँ बुद्धि के दो भेद कहकर समझाते हैं……
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्ध्योऽव्यवसायिनाम् ।।२/४१।।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्ध्योऽव्यवसायिनाम् ।।२/४१।।
संबंध---- हे कुरुनन्दन ! निश्चयात्मिका बुद्धि एक और अनिश्चयात्मिका बुद्धि शाखा प्रशाखा अनन्त होती है ।
तात्पर्यार्थ---- शास्त्रों में ‘मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाऽशुद्धमेव च' कहा गया है । शुद्ध मन वह जिसका निश्चय एक और अटल होता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक है, अद्वैत है आदि, वही हमारी गति, मति एवं सर्वस्व है उससे भिन्न मेरी कोई सत्ता नहीं है अथवा एक मात्र आत्मा ने संपूर्ण जगत को व्याप्त करके रखा है और वह व्यापक आत्मा मैं हूँ, ऐसा जिसका दृढ़ निश्चय है कि “सर्वभूतेषु येनैकं" १८/२० व्याख्या उसी स्थान पर की जायेगी वह निश्चय बुद्धि वाला है, एवं जो एक के बाद एक कामनाओं को जन्म देनेवाली संकल्प-विकल्प से युक्त अस्थिर बुद्धि है वही अनिश्चयात्मिका बुद्धि है जो फलाकांक्षा के कारण बकरी की तरह भटकती रहती है ।
भावार्थ---- आज संन्यासियों को इस खाते से मिलान अवश्य करना चाहिए ।।४१।।
संबंध----- निश्चय रहित चञ्चल बुद्धि का वर्णन…..
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नाऽन्यदस्तीति वादिनः ।।२/४२।।
वेदवादरताः पार्थ नाऽन्यदस्तीति वादिनः ।।२/४२।।
शब्दार्थ---- इनकी बुद्धि दिखाऊ फूल की तरह अविवेकपूर्ण वेद के सकाम कर्मकांड का वर्णन करती हैं । हे पार्थ ! ये वेदवादी लोग इसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं ऐसा कहते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- कदाचित् शंका हो कि कभी तो अनिश्चित बुद्धि वाले निश्चित बुद्धि वाले होते होंगे ? इसपर कहते हैं---उनका मन कर्मकांड और उसके फल का ही दिखाऊ फूल की तरह अर्थात जैसे फूल तो सुन्दर हो लेकिन सुगन्ध से रहित हो ऐसे वर्णन करते हैं । ऐसे वेद के तात्पर्य को न जानने वाले वेदावादी अर्थात झगड़ालु लोग इसके (कामपूर्ति के) अतिरिक्त ‘ईश्वर है’ यह मानते ही नहीं । वे कहते हैं अमुक यज्ञ करो तमुक यज्ञ करो यह तंत्र वह मंत्र करो इससे तुम्हारी यह कामना पूर्ण होगी वह कामना पूर्ण होगी स्वर्ग प्राप्त होगा इत्यादि, इसके अतिरिक्त और कोई ईश्वर नहीं है ।।४२।।
संबंध---- इतना ही नहीं इनका स्वभाव बहुत ही विकृत होता है……
कामात्मनः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।।२/४३।।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।।२/४३।।
शब्दार्थ----इस प्रकार जन्म-कर्म, कर्म-जन्म, जन्मकर्म रूप फलप्रदान करने वाला स्वर्ग से परे अन्य कोई ईश्वर है ही नहीं, ऐसा कामनाओं से ओतप्रोत नानाप्रकार की अग्निष्टोमादि क्रियाओं का ही वर्णन करते हैं, जो भोग ऐश्वर्य और जन्म-मृत्यु, जरा आदि रोगों की गति देने वाले हैं ।
तात्पर्यार्थ---- जो स्वर्गादि के अतिरिक्त ईश्वर को मानेगा ही नहीं तो उसकी बुद्धि स्थिर होगी नहीं तो योगबुद्धि का प्रश्न ही नहीं बैठता है इन विषयी कामी लोगों का वर्णन १६वें अध्याय में 'असौ मया हतः' इत्यादि से आसुरी संपत्ति में करेंगे ।।४३।।
संबंध---- उपरोक्त बुद्धि स्थिर हो ही नहीं सकती है अब यह बता रहे हैं…..
भौगैश्वर्यप्रसक्तानां तयाऽपहृतचेतसाम् ।
व्यवसात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।२/४४।।
व्यवसात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।२/४४।।
शब्दार्थ---- भौगैश्वर्य में आसक्त चित्तवाले की बुद्धि उन उन विषयों द्वारा हरण कर ली गई है ऐसी अनिश्चयात्मिका बुद्धि समाधि को प्राप्त नहीं होती ।
शब्दार्थ---- उपरोक्त विषयों द्वारा हरणचित्त जिनकी कामनाओं के कारण एक निश्चय को प्राप्त न होकर सैकड़ों हजारों अनन्त शाखाओं में विभक्त हो गई हैं २/४१, आगे सैकड़ों आशाओं के पाशों से बंधा है १६/१२ कहेंगे, जिनकी बुद्धि दिखाऊ आकर्षक पुष्प के समान है २/४२, दम्भाचार १६/१० से युक्त है ऐसा आगे भी कहेंगे, जिनकी बुद्धि कामासक्त २/४३ स्वर्गादि के अतिरिक्त कुछ नहीं मानती आगे जिनका कामोपभोग ही परम प्राप्तव्य है १६/११ कहेंगे, भोगैश्वर्य अर्थात नानाप्रकार की काम और स्त्री पुत्र मित्र धनादि को अपना मानकर स्वामीपने में आसक्त चित्त वाले जिन्हें मैं ही ईश्वर अर्थात स्त्री पुत्रादि का स्वामी, भोगी, सिद्ध बलवान, सुखी १६/१४ आदि हूँ कहेंगे, ऐसा विषयी अनिश्चित अर्थात चञ्चल बुद्धि वाले कभी भी एकीभाव अर्थात आत्मैक्य रूप योगारूढ़ता को प्राप्त ही नहीं सकते ।।४४।।
संबंध---- काममय अविवेकी पुरुष के लक्षण गिनाकर अर्जुन को कहते हैं कि तू तो विवेक वाला है और जो श्रेय अर्थात मोक्षमार्ग ही पूछा था, अतः ….
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भावार्जुन ।
निर्द्वन्दो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।।२/४५।।
निर्द्वन्दो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।।२/४५।।
शब्दार्थ---- वेद तीनों गुणों के विषय हैं, अतः पूर्वोक्त कामनाओं का त्यागकर तू निस्त्रैगुण्य हो जा और हे अर्जुन ! निर्द्वन्द, नित्य, सत्वस्थ, योगक्षेम की चिंता से रहित और आत्मवान् हो जा ।
तात्पर्यार्थ---- कुछ विचार अत्यंत गंभीर होते हैं जिनका विचार अत्यंत आवश्यक है । यहाँ वेदों को तीन गुणों का विषय बताया, किन्तु अर्जुन को वेदों से रहित होने की बात न कहकर तीनो गुणों से रहित होने की बात कर रहे हैं और जब तीनो गुणों से रहित होने की बात कह ही दी तो फिर नित्यसत्वस्थ अर्थात नित्य निरंतर ही सत्वगुण में रहने का आदेश देकर अपनी बात का ही विरोध क्यों कर रहे हैं ? अतः इसप्रकार समझते हैं---
त्रैगुण्यविषया वेदा---- इसी प्रसंग का २/४१ से २/४४ तक के वर्णन में यामिमां पुष्पितां वाचम् एवं वेदवादरताः शब्द आये हैं, जिनके अन्तर्गत काम्यकर्मों का वर्णन है । काम्यकर्म बिना राग द्वेष लोभ मोह के हो नहीं सकते । वादरताः अर्थात लोग वाद के साथ विवाद का भी अध्याहार करके विवाद तो करते हैं, किन्तु वेद का अन्तिम लक्ष्य क्या है वेद के इस तात्पर्य को नहीं जानते और हमेशा उन्हीं काम्यकर्मों का वर्णन करके राग-द्वेषमय संसार की वृद्धि करते हैं । जो इसप्रकार राग-द्वेष, लोभ-मोह, जन्म-मृत्यु रूप संसार की वृद्धि के हेतुभूत सकाम कर्मों की फलश्रुतियों का त्याग कर दे क्योंकि वहाँ स्वर्गादि के साधनभूत यज्ञादि कर्म भले सात्विक दिख रहे हों किन्तु वहाँ सात्विक दिखने पर भी राग-द्वेष रूप तमोगुण और लोभ-मोह रूप रजोगुण ही है सत्वगुण बिल्कुल नहीं है क्योंकि इन कर्मों में नानात्व द्वैत त्रैत स्पष्ट रूप से है जिसे १८/२१ में रजोगुण कहा गया है ऐसे कर्म सारहीन हैं इनमें कोई तत्त्व नहीं है । केवल जिस जिस कार्य का कोई उचित हेतु न हो और उसको कहा जाये कि बस यही पूर्ण है वह तामस ही है १८/२२ ।। अतः त्रिगुण दिखने पर भी राजसी तामसी गुण से ओतप्रोत कार्य उनका फल और उन फलों का वर्णन करने वाली श्रुति अर्थात वेद की पूर्वमीमांसा को त्यागकर तुम निस्त्रैगुण्य हो जाओ कारण कि श्रेय अर्थात मोक्षार्थी को इन संसार की वृद्धि करने वाली फलश्रुतियों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए ।
निस्त्रैगुण्यो भव---- सत्व रज तम इन तीन गुणों से संसार की वृद्धि करने वाली श्रुतियाँ अर्थात वेद हैं उनका मुमुक्षु को त्याग करना ही चाहिए, क्योंकि पहले कहा गया वेदावादी अर्थात वेद के तात्पर्य को सकामी जानने वाले नहीं, वे कामासक्ति के द्वारा हरणचित्त अर्थात बंधक बनाये जा चुके हैं, किन्तु तुम विवेकशील हो और वेदों के तात्पर्य को जानने वााले हो और वेद कामतृप्त को अपना तात्पर्य अन्त में बताते हैं जो उनका अन्तिम भाग वेदान्त है । उस वेदान्त के आत्मैक्य बोधपरक वाक्यों तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, प्रज्ञानं ब्रह्म आदि का श्रवण मनन निदिध्यासन करके निर्वेद आत्मा को अर्थात त्रिगुणों पर शासन करने वाली आत्मा को जानकर अर्थात ‘यह’ करके जाना जाने वाला स्वर्गादि त्रिगुणात्मक जगत का त्यागकर आत्मैक्य में स्थित हो जा । यही निस्त्रैगुण्यो भव का तात्पर्य है ।
निद्वन्द्वो---- संसार अथवा काम्यकर्मों में प्रवृत्ति, राग-द्वेष, लोभ-मोह रूप द्वन्दों के बिना नहीं होती, अतः इनका त्याग करके द्वन्द रहित हो जाना चाहिए । अथवा हानि-लाभ, जय-पराजय, वेद प्रतिपादित काम्यकर्मों एवं उनके फल रूप द्वन्दों का परित्याग कर देना चाहिए, क्योंकि जब तक कोई भी कैसी भी मन में कामना है, जब तक काम क्रोध लोभ मोह आदि संसार का हेतु भय मन में है, तब तक श्रुति प्रतिपादित श्रवण मनन निदिध्यासन हो नहीं सकता । अतः इन द्वन्द्वों का त्याग करके निर्द्वन्द हो जा ।
नित्यसत्त्वस्थो---- इस प्रकार उपरोक्त तीनों गुण दिखने पर भी इन्द्रिय संयम नहीं है और इन्द्रिय संयम के लिए पूर्ण सत्वगुण चाहिए, सत्वगुण के बिना विवेक, वैराग्य, षट्संपत्ति (अर्थात शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा एवं समाधान), एवं मुमुक्षा हो नहीं सकती । अतः षट्संपत्ति से युक्त इन्द्रिय संयम रूप सत्वगुण में निरंतर स्थित रहो, श्रवण, मनन, निदिध्यासन का निरंतर अभ्यास करो और आत्मैक्य रूप सत्वगुण में निरंतर स्थित हो जाओ, क्योंकि वेदवाणी अर्थात जिस नानात्व को लोग सत्वगुण मान लेते हैं वह नानात्व सत्वगुण हो ही नहीं सकता । सत्वगुण तो एकात्मैक्यता में ही है जो श्रुति प्रतिपादित है । गीता में भी भी 'सर्वभूतेषु येनैकं' १८/२० करके ही सत्वगुण कहा है । अतः आत्मैक्य रूप नित्य सत्वस्थ हो जा । साथ ही यह भी ध्यान रहे कि आत्मैक्य में जीव-ब्रह्म आदि नाम रूप का भी द्वन्द नहीं होता । अतः नाम रूप द्वन्द्वों का भी त्याग करके निरंतर सत्व में प्रतिष्ठित हो जा यह भाव है ।
निर्योगक्षेम---- योगक्षेम की सबसे बड़ी समस्या शरीर और उसके संसाधन हैं, हमारा शरीर कैसे चलेगा ? इसकी रक्षा कैसे होगी ? आदि के लिए अप्राप्त की प्राप्ति की इच्छा और प्राप्त की रक्षा करने की चिन्ता छोड़कर निश्चिंत होना, शरीर को सांप बिच्छू काटेगा, कोई जानवर खा जायेगा, इनका निवारण कैसे होगा ? इत्यादि चिन्ताएं हमारे श्रवण, मनन, निदिध्यासन रूप अनुष्ठान की बाधक हैं । शरीर सहित जगत ब्रह्मलोक पर्यंत नाशवान है, यह समझकर ये सभी द्वन्द छोड़कर इनकी रक्षा का होना न होना यह सब प्रारब्ध पर छोड़कर योगक्षेम से रहित हो जा । हमें सिद्धि प्राप्त होगी, या नहीं ? हानि होगी या लाभ ? जय होगी या पराजय ? इत्यादि सारी चिन्ताएं छोड़कर श्रवण, मनन, निदिध्यासन में तत्पर हो कर आत्मैक्य का अनुष्ठान कर ।
आत्मवान्---- यदि मन विषयी होगा तो स्थिर नहीं होगा तो आत्मवान् अर्थात स्वयं से स्वयं में स्थिर नहीं होगा । अतः मन को बाह्य विषयों से हटाकर, श्रवण मनन निदिध्यासन इत्यादि में लगाकर अन्तर्वृत्तिवाला होकर आत्मवान् हो जा । बहिर्वृत्ति से पूर्व में जो आत्मा के ब्रह्माकार के लक्षण कहे, वह ब्रह्माकार वृत्ति भी नहीं बनती । अतः बाह्यविषयों से मन को हटा लेना और व्यापक ‘अहं’ में स्थिर होना अर्थात ‘मैं ब्रह्म हूँ’ इस भाव में स्थिति ही आत्मवान् है, इसका ऐसा तात्पर्य है ।
त्रैगुण्यविषया वेदा---- त्रैगुण्यविषया वेदा अर्थात जन्ममृत्यु रूप संसार का प्रतिपान ।
निस्त्रैगुण्यो भव---- अर्थात जन्ममृत्यु रूप संसार से ऊपर उठना ।
निर्द्वन्द्वो----अर्थात रागद्वेष आदि से रहित होना ।
नित्यसत्वस्थो----अर्थात शम-दमादि पूर्वक सर्वत्र एक आत्मा या परमात्मा को देखना ।
निर्योगक्षेम---- अर्थात शरीर एवं उसके संसाधनों तक से भी निर्लिप्तता ।
आत्मवान्----अर्थात उपरोक्त सभी वाह्यवृत्तियों से ऊपर उठकर आत्मैक्य भाव में स्थित होना ।।४५।।
संबंध---- शास्त्रानुसार ब्रह्मज्ञानी के लिए ‘तस्य कार्यं न विद्यते' ३/१७ अर्थात उसके लिए कोई कार्य नहीं होता कहा गया है तो उपरोक्त साधन साध्य कैसे बन सकता है ? इस पर कहते हैं…..
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।३/४६।।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।३/४६।।
शब्दार्थ---- सर्वत्र परिपूर्ण जल के प्राप्त होने पर छोटे जलाशयों का जितना महत्व होता है उतना ही ब्रह्मवेत्ता का वेदों से होता है ।
तात्पर्यार्थ---- जैसे चारों ओर से परिपूर्ण समुद्र के न मिलने पर जो छोटे जलाशयों का कुआं, तालाब, नदी आदि का जो महत्व होता है अर्थात छोटे जलाशयों कुआं, तलाब, नदी आदि में जो स्नान दान आदि का फल प्राप्त होता है वही फल एकमात्र समुद्र के स्नान करने पर मिलता है, ठीक उसी प्रकार जो ब्रह्म को जानने वाला अर्थात ब्रह्मात्मैक्य को प्राप्त ज्ञानी का महत्व संपूर्ण वेदों में कहे गए काम्यकर्मों की फलश्रुतियों से है अर्थात जो स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो गया है वह स्वयं श्रुतिफल अर्थात यज्ञादि फल देने वाला है एवं लोगों द्वारा किये गये वैदिक कर्मों का फल भी उसी को प्राप्त होता है छान्दयोग्योपनिषद में भी राजा जानश्रुति और रैक्व के प्रसंग में राजा और प्रजा द्वारा किया गया संपूर्ण सत्कर्म का फल रैक्व गड़ीवाले को मिलता है ऐसा कहा गया है । अतः ऐसा ब्रह्मज्ञ को किस फल श्रुति की आवश्यकता होगी ? अर्थात फलश्रुति तो स्वयं उसका स्वरूप है, अभिन्न है, उसे उनकी आवश्यकता नहीं है ।
भावार्थ----श्रीभगवान कह रहे हैं कि जो ब्रह्मत्त्व को प्राप्त कर आत्मैक्य भाव में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ रूप में स्थित है उसके लिए कोई कर्म शेष नहीं रहता 'तस्य कार्यं न विद्यते ३/१७, ऐसा आगे भी कहेंगे, किन्तु जो आत्मा को नहीं जानना चहता है उसके लिए सकाम कर्म कुछ नहीं है, किन्तु चित्तशुद्धि के लिए निष्कामकर्म अवश्य करना चाहिए ।।४६।।
संबंध---- उपरोक्त ज्ञानी का लक्षण बताकर अब जिज्ञासु के लिए निष्कामकर्म का आदेश देते हैं…..
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।२/४७।।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।२/४७।।
शब्दार्थ---- तेरा कर्म करने का अधिकार है फल में कभी नहीं, अतः तू कर्मफल का हेतु मत बन, संग रहित होकर कर्म कर अर्थात अपने अकर्ता भाव को भी त्याग दे ।
तात्पर्यार्थ---- ऊपर ज्ञानी का सर्वकर्म संन्यास बताया गया है, किन्तु जिज्ञासु को श्रुतिस्मृति के फलश्रुति का त्याग बताकर नित्य नैमित्तिक कर्म को निष्काम करने का आदेश देते हैं, फल के लिए कभी भी नहीं । यज्ञोदानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् १८/५ का भी भाव नहीं होना चाहिए अर्थात इनसे होने वाले पुण्य की भी कामना नहीं होनी चाहिए, धर्म पालन से पाप नाश की भी कामना नहीं होनी चाहिए अर्थात कर्म करने का तो अधिकार है लेकिन फल पर कभी भी कहीं भी कैसे भी अधिकार नहीं है, अतः तो कर्म और उसके फल का भी हेतु मत बन अर्थात मुझे अमुक कर्म निष्काम करना ही चाहिए ऐसा भाव भी मत रख भाव से उत्पन्न कर्म का त्याग भी कर्म ही है इससे विरुद्ध जो कर्म का त्याग अर्थात अर्थात अकर्म है उसके त्याग में भी आसक्ति मत कर, क्योंकि मैं निष्काम कर्म करता हूँ का भाव भी वासना है । वह कर्म में प्रवृत्त कराकर जन्ममृत्यु का हेतु बन जायेगी, एवं मैं ज्ञानी हूँ मुझे कर्म नहीं करना चाहिए यह भाव प्रमादी बना देगा “प्रमादं वै मृत्युः" अर्थात प्रमाद ही सभी अनर्थों का अनर्थ है और यह जन्ममृत्यु रूप संसार चक्र के अनर्थ में बलात् डाल देगी । यह तात्पर्य है ।
भावार्थ---- जन्ममृत्यु की हेतु वासना ही है, अतः कर्म करने और न करने, श्रुति-स्मृति शास्त्र प्रमाणित कर्मफल की इच्छा करना, फल की इच्छा न करना रूप वासना का त्याग कर देना चाहिए । मैं कर्ता हूँ यह भाव कदापि नहीं होना चाहिए । यही बात “यस्य नाहङ्कृतोभावो" १८/१७ में भी कहेंगे ।।४७।।
संबंध---- तो फिर कर्म कैसे करें….
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।२/४८।।
शब्दार्थ---- हे धनञ्जय ! योग में स्थित होकर कर्मफल की आसक्ति का त्याग करके सिद्धि असिद्धि में समभावी होकर कर्म कर क्योंकि समत्व को ही योग कहते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- २/३९ मे अर्जुन से कहा कि जिस योग से युक्त बुद्धि से कर्मबन्धन का नाश कर देगा, उसी योग को यहाँ पुनः सुन---- बुद्धि को योग में स्थित करके आसक्ति और उसके कर्मफल का त्याग करके किये जाने वाले कर्मों की सफलता रूप सिद्धि और असफलता रूप असिद्धि या यूं कहिए अनुकूलता रूप सिद्धि और प्रतिकूलता रूप असिद्धि अर्थात २/४५ के अनुसार निर्द्वन्द एवं समभाव में स्थित होकर शास्त्रीय कर्म कर । यह जो समभाव है यही योग कहा जाता है । यह समभाव क्या है ? इसपर आगे कहेंगे “निर्दोषं हि समं ब्रह्म" ५/१९, ब्रह्म--- न जायते म्रियते वा कदाचित्" २/२० अर्थात वह जन्मादि छः विकार यानी दोष से रहित अज, नित्य, शाश्वत, चिन्मय, अद्वय, नित्यानन्दैकरस आत्म रूप है । “तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः" ५/१९ । इसलिए तू आत्मैक्य रूप ब्रह्म में स्थित होकर अर्थात मैं ब्रह्म हूँ ऐसी भावना में स्थित होकर शास्त्रीय कर्मों का निष्काम अनुष्ठान कर । यही योग अर्थात समत्व है ।।४८।।
संबंध---- सकाम कर्मों की अपेक्षा बुद्धियोग अर्थात ज्ञानयोग की श्रेष्ठता बताते हैं…..
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणः फलहेतवः ।।२/४९।।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणः फलहेतवः ।।२/४९।।
शब्दार्थ---- हे धनञ्जय ! सकाम कर्मों को बुद्धियोग अर्थात ज्ञानयोग के द्वारा दूर से ही त्यागकर ज्ञानयोग का अनुष्ठान करते हुए उसी का आश्रय ले, क्योंकि सकाम कर्मों से उत्पन्न कर्मफल दीनता के हेतु हैं ।
तात्पर्यार्थ---- कर्म शास्त्रों में जहाँ आया है वहाँ शास्त्रीय कर्म ही आया है, अतः यहाँ शास्त्रीय कर्म का त्याग कदापि नहीं समझना चाहिए, क्योंकि “कृपणः फलहेतवः" भी साथ में ही कहा गया है जिसका अर्थ है स्वर्गादि कामनाओं की पूर्ति के निमित्त किये जाने वाले सकाम कर्म का त्याग बुद्धियोग अर्थात ज्ञानयोग की शरण अर्थात आश्रय लेकर त्याग कर देना चाहिए और ज्ञानयोग का अनुष्ठान करना चाहिए, क्योंकि कर्मफल जन्ममृत्यु रूप दीनता को प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ---- श्रीभगवान यहाँ कहना चाहते हैं कि जन्ममृत्यु रूप संसार का बीज कर्म के फलस्वरूप जन्म मृत्यु का हेतु हैं अतः कर्मों को स्वरूप से त्यागकर आत्मभाव में ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा जानो और ऐसा यदि नहीं जाना, ऐसे ही बिना जाने मर गये तो जन्ममृत्यु रूप महान अनर्थ हो जायेगा ।।४९।।
संबंध----- अतः जो कहा उसपर ध्यान दे और…..
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत दुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मशु कौशलम् ।।२/५०।।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मशु कौशलम् ।।२/५०।।
शब्दार्थ---- इसीलिये ज्ञानयोग के द्वारा पुण्य और पाप दोनों को नष्ट करके ज्ञानयोग का अनुष्ठान कर, क्योंकि संपूर्ण कर्मों की कुशलता अर्थात चतुराई या बुद्धिमानी योग की प्राप्ति ही है ।
तात्पर्यार्थ----- बुद्धियोग अर्थात ज्ञानयोग के द्वारा पाप पुण्य रूप संपूर्ण किये गए अच्छे बुरे, शास्त्रीय-अशास्त्रीय कर्मों का नाश कर दे । प्रश्न उठता है कि पाप नाश के लिए कृच्छ्र चान्द्रायण आदि अनेकों प्रायश्चित कर्म हैं उनसे निवृत्ति हो ही जाती है तो ज्ञान की क्या आवश्यकता है ? इस पर कहते हैं कि प्रायश्चित कर्म नैमित्तिक है, उनसे सभी पापों की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जिस-जिस पाप की निवृत्ति हेतु प्रायश्चित कर्म किया जायेगा उसी-उसी पाप की निवृत्ति होगी, सबकी नहीं । दूसरी बात संसार का बीज पुण्य तो फिर भी रह ही जायेगा जबकि “ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते" ४/३७, पाप-पुण्य, दृष्ट-अदृष्ट सभी कर्मों का नाश कर देती है । इसीलिये ज्ञान के समान संसार में पवित्र करने वाला और कोई नहीं है “न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते" ३/३८ जो भी साधुओं अर्थात जो अन्तःकरण चतुष्टय से संपन्न होकर चित्त की शुद्धि रूप पवित्रता को प्राप्त हो चुके हैं, उनको पवित्र अर्थात संसार चक्र से मुक्त करने के लिए और पापकर्म करनेवाले हैं उनके विनाश के लिए अर्थात साधु भक्तों का उद्धार और पापों का नाश जिनका लक्ष्य है, जबकि यही कार्य ज्ञानाग्नि करती है पाप-पुण्य का नाश करके कैवल्य अर्थात जन्ममृत्यु के पास से मुक्त करके मोक्ष प्रदान करती है “ज्ञानादेव तु कैवल्यम्" ज्ञान से ही कैवल्य की प्राप्ति होती है ।
यहाँ श्रीभगवान ज्ञान से अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए कहना चाहते हैं कि मैं ही साक्षात ज्ञानस्वरूप हूँ, अतः तू मुझ ज्ञानस्वरूप का ही अनुष्ठान कर क्योंकि यज्ञ, दान, तपादि जितने भी शास्त्रीय कर्म हैं उन सभी कर्मों का चातुर्य मेरी प्राप्ति ही है अर्थात ज्ञान के द्वारा मुझसे अभिन्नता को प्राप्त कर लेना ही संपूर्ण कर्मों की कुशलता है ।।५०।।
संबंध---- कर्मफल के त्याग का फल बता रहे हैं…..
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ।।२/५१।।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ।।२/५१।।
शब्दार्थ---- मनीषीगण कर्म से उत्पन्न पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंत जो कुछ भी प्राप्त होने वाला है उसको त्याग करके बुद्धि को युक्त अर्थात परमात्मा के साथ एकीभूत होकर जन्मादि बन्धनों से भलीभाँति मुक्त होकर निर्मल पद अर्थात मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- कर्मफल के त्याग और ज्ञान की महिमा का वर्णन चल रहा है । कहते हैं कि बुद्धि को योग से युक्त करके अर्थात ज्ञानयोग में में स्थित होकर कर्म से उत्पन्न होने वाले स्वर्गादि फलों को मनीषी अर्थात ज्ञानयोगी त्याग देते हैं क्योंकि ये सभी फल शरीर के हेतु जन्म मृत्यु के कारण होते हैं, अतः उन्हें त्याग देते हैं । यह ज्ञानयोग द्वारा ही संभव है तभी २/३९ में ज्ञानयोग द्वारा कर्मबन्धन का नाश, ज्ञानयोग द्वारा सुकृत-दुष्कृत का नाश २/५१, ज्ञानयोग द्वारा सभी कर्मों का नाश ४/३७, ज्ञान पवित्र है इसकी समता कहीं नहीं है ४/३८, मैं ज्ञानयोग देता हूँ १०/१०, ज्ञानदीप के द्वारा १०/११, आदि आगे भी कहेंगे । बिना ब्राह्मी स्थिति के कर्म से उत्पन्न विभिन्न शरीरों, लोकों का नाश संभव नहीं है । अतः ज्ञानयोग के द्वारा जन्म मृत्यु के बन्धन से पूर्णतः मुक्त होकर षड्विकारों से रहित निर्मल पद अर्थात मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।।५१।।
संबंध---- यह ज्ञानयोग बिना वैराग्य के संभव नहीं है, ऐसा कहते हैं…..
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्ताऽसि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।५२।।
शब्दार्थ---- जिस समय तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी दलदल को पार कर जायेगी उसी समय सुने गये और सुने जाने वाले सभी फलश्रुति का त्याग कर देगा अर्थात लोक परलोक से वैराग्य हो जायेगा ।
तात्पर्यार्थ---- संसार का बीज मोह ही है । उससे पार पाना या निकल पाना अत्यंत दुष्कर है । तुम जो भी पिता, पितामह, द्रोण आदि की बात कर रहे हो यह मोह ही है । इस मोहरूपी कल्मष के कारण ही मनुष्य क्या करना और क्या नहीं करना ? आदि का विवेक नहीं कर पाता है । । राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि मोह के कारण ही प्रवृत्त होते हैं । इस मोह के कारण जमा हुआ इस आत्मा(चित्त) पर कीचड़ असिद्धि ‘अहं इदं’ का भेद करने में समर्थ नहीं होने देता और शरीरादि को ही मैं मेरा मानकर सुखी-दुःखी होता है । अधिक क्या कहा जाये मोह की महिमा बड़ी बलवान है । उसको तू जब पार कर जायेगा तब जिन फलश्रुतियों को तूने सुना है और आगे सुनेगा, देखा है, देखेगा इत्यादि की संवेदनाओं से रहित अर्थात वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा । बिना वैराग्य के चित्तशुद्धि और बिना चित्तशुद्धि के आत्मा-अनात्मा का विवेक नहीं हो सकता । अतः पहले वैराग्य को प्राप्त कर ।।५२।।
संबंध---- इसप्रकार वैराग्य को प्राप्त होने पर……
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।२/५३।।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।२/५३।।
शब्दार्थ---- श्रुतियों के परस्पर कथन से सन्देह को प्राप्त तेरी बुद्धि जब निश्चल हो जायेगी तब अचल समाधि रूप योग को प्राप्त करेगा ।
तात्पर्यार्थ---- साधक श्रुति-शास्त्र द्वारा कहे गए ब्रह्म प्राप्ति के विभिन्न परस्पर विरोधी साधन, साध्य के श्रवण से मन संदेह के कटघरे में खड़ा हो जाता है और वह निश्चय नहीं कर पाता कि कौन सा साधन करे जिससे कल्याण की प्राप्ति हो । श्रुति सगुण की भी महिमा का उत्कृष्ट गान करती है और निर्गुण का भी । इसप्रकार के भ्रम का निवारण गुरु परंपरा से जब वेदान्त शास्त्र श्रवण करके जब यह सुनिश्चित हो जायेगा कि सभी शास्त्रों का एक ही तात्पर्य है ब्रह्मतत्त्व की प्राप्ति, तब वह चित्त की विकृति को नष्ट करके समाधान रूप समाधि को प्राप्त करके योग अर्थात ज्ञान को प्राप्त करके अचल अर्थात स्थिर हो जायेगी ।।५३।।
संबंध----२/३९ से २/५३ तक ज्ञानयोग की महिमा का वर्णन करते हुए मुमुक्षु के लिए ज्ञानयोग की प्राप्ति के साधनों का वर्णन करते हुए ज्ञानयोग में आरूढ़ ज्ञानी का लक्षण कहा तथापि ज्ञानी का लक्षण ठीक ठीक समझ में नहीं आया, अतः अब अर्जुन ज्ञानी का लक्षण पूछते हैं……
अर्जुन उवाच
स्थित प्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ।।२/५४।।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ।।२/५४।।
शब्दार्थ---- हे केशव ! चित्त के समाधान रूप समाधि को प्राप्त होकर जिसकी बुद्धि स्थिर हो गई है उसका लक्षण क्या है ? वह कैसे बोलता, चलता और बैठता कैसे है ?
तात्पर्यार्थ---- यह प्रश्न अर्जुन का ही नहीं सर्वसामान्य का है कि व्यक्ति सिद्ध पुरुषों को पहचाना चाहता है । मैं सिद्ध हो गया वह स्वयं तो कहेगा नहीं, कहेगा भी तो कोई मानेगा भी नहीं, लक्षण ही एकमात्र पहचान का साधन है, इसीलिये जो ब्रह्म में स्थित हो चुका है उसका लक्षण अर्जुन पूछ रहे हैं ।
तात्पर्यार्थ---- यहाँ अर्जुन के द्वारा पूछे गए चार प्रश्न दिख रहे हैं -----
१- सिद्ध का लक्षण, २- सिद्ध का बोलना, ३- सिद्ध का बैठना और ४- सिद्ध का चलना । कुल मिलाकर सिद्ध की पहचान और उसका व्यवहार ।।५४।।
१- सिद्ध का लक्षण, २- सिद्ध का बोलना, ३- सिद्ध का बैठना और ४- सिद्ध का चलना । कुल मिलाकर सिद्ध की पहचान और उसका व्यवहार ।।५४।।
संबंध----सिद्ध के लक्षण साधक के लिए साध्य होते हैं, अतः अध्याय की समाप्ति पर्यंत विस्तृत उत्तर देते हैं…..
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मनातुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते ।।२/५५।।
आत्मन्येवात्मनातुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते ।।२/५५।।
शब्दार्थ---- जब मनोगत संपूर्ण कामनाएं अशेष रूप से चली जायें, आत्मा से आत्मा में संतुष्ट हो जाये तब उस समय स्थित प्रज्ञ कहते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- बहिर्गत मन जब संपूर्ण संकल्प विकल्प का त्याग कर देता है किसी भी प्रकार की लोक, परलोक, जीवन, मरण सिद्धि-असिद्धि यहाँ तक मोक्ष की भी कामना नहीं करता ऐसा मन ही आत्मा है । कामनाओं से रहित होने के कारण सदैव एकरस, चिद्रूप, कूटस्थ, आनन्दस्वरूप जब स्वयं से स्वयं में रमण करनेवाले नित्य एकरस में स्थित हो कुछ भी चिन्तन न करे “आत्मसंस्थं मन कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्" ६/२५, तब उस आत्मरूप समाधि में स्थित को स्थित प्रज्ञ कहते हैं ।
भावार्थ----- आत्मा से आत्मा में सन्तुष्ट होना अर्थात आत्मैक्य को प्राप्त होना । यह सिद्ध का लक्षण कहा और साधक को इसका अभ्यास करना चाहिए यह भी बताया ।।५५।।
संबंध---- अब सिद्ध बोलता कैसे है यह बताकर साधक को भी अनुसरण करने के लिए अगले दो श्लोक में कहते हैं…..
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।२/५६।।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।२/५६।।
शब्दार्थ---- जिसका मन दुःख से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता, सुख के स्पर्श से रहित होता है, राग, भय, क्रोध जिसके चले गए हैं ऐसे निरंतर मनन एवं मौन को प्राप्त स्थिर बुद्धि महात्मा को स्थितधी कहते हैं ।
तात्पर्यार्थ---- दुःख-सुख का स्पर्श कामनाओं के कारण होता है, किन्तु जीने मरने की भी इच्छा जिनकी समाप्त हो गई है ऐसे सर्वत्यागी संन्यासी, वर्षा, सर्दी, शत्रु, व्याघ्रादि शेष का अन्वय त्रिविध तापों में समझ लेना चाहिए अर्थात इनके अनुकूल होने से सुखी नहीं और प्रतिकूल होने से दुःखी नहीं नहीं होते । वेदान्त वाक्य तत्त्वमसि आदि के श्रवण, मनन, निदिध्यासन में निरंतर तत्पर मौन को प्राप्त होकर जो मौन हो चुका है वही मुनि है, वही स्थित प्रज्ञा वाला है ।।५६।।
संबंध---- आगे कहते हैं……
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्त्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/५७।।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/५७।।
शब्दार्थ----जो सर्वत्यागी संन्यासी आसक्ति रहित है फिर भी प्रारब्धानुसार जो भी शुभाशुभ प्राप्त हो जाये तो वह उनसे न तो प्रसन्न होता है और न ही द्वेष करता है, उस यति की प्रज्ञा ब्रह्म में प्रतिष्ठित है ।
तात्पर्यार्थ---- सर्वत्यागी संन्यासी की सर्वत्र आसक्ति रहित स्थिति है । वह जीवन अर्थात शरीर से भी निरासक्त हो चुका है । प्रारब्धानुसार शरीर के निमित्त लंगोटी, कंबल और जीवन के निमित्त भोजन अनुकूल मिल भी जाये तो प्रसन्न नहीं होता और न मिले तो शरीर अर्थात जीवन के निमित्त उन उन वस्तुओं को लेकर दुःखी नहीं होता । उसी परमभाग्यवान संन्यासी की बुद्धि ब्रह्म में प्रतिष्ठित है ।
भावार्थ---- उपरोक्त अर्जुन के– क्या अथवा कैसे बोतता है ? इस दूसरे प्रश्न का उत्तर दो श्लोक में हो चुका है । इससे मुमुक्षु साधक को इन परिस्थितियों में भी वाणी के संमय शिक्षा है ।।५७।।
संबंध---- अब सिद्ध के बैठने का लक्षण बताते हैं…….
यदा संहरते चाऽयं कर्मोऽङ्गानिव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/५८।।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/५८।।
शब्दार्थ---- जैसे कछुआ अपने शरीर को भय होने पर अपने अन्दर खींच लेता है वैसे ही चारो ओर से जिसने इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच लिया है उसी सर्वत्यागी संन्यासी की प्रज्ञा प्रतिष्ठित है ।
तात्पर्यार्थ---- जैसै आवश्यक होने पर ही कछुआ शरीर को बाहर निकालता है वैसे ही भिक्षादि जीवन निर्वाह संबंधित आवश्यक कृत्य के समय को छोड़कर इन्द्रियों उनके विषयों से हटाकर श्रवण मनन निदिध्यासन में लगा रहता है ।
संबंध---- तो फिर इद्रियों को जीवन निर्वाह के निमित्त भिक्षादि के निमित्त छूट देने पर तो अनियंत्रित होती होंगी ? इस आशंका पर…..
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निर्तते ।।२/५९।।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निर्तते ।।२/५९।।
शब्दार्थ---- शरीराभिमानी पुरुष इन्द्रियों के विषय न देने से उनके विषय तो छूट जाते हैं लेकिन आसक्ति नहीं जाती, किन्तु परम द्रष्टा अर्थात तत्त्ववेत्ता अर्थात ब्राह्मी स्थिति वाले संन्यासी की आसक्ति भी चली जाती है ।
तात्पर्यार्थ---- मुमुक्षु संन्यासी इसलिये श्रवण, मनन, निदिध्यासन में लगे रहते हैं कि इन्द्रिय निग्रह करने पर भी आसक्ति नहीं गई है, अतः पतन के अवसर बहुत हैं ।।५९।।
संबंध---- अगर मुमुक्षु इन्द्रिय निग्रह के अहंकार में श्रवण, मनन, निदिध्यासन में प्रमाद करता है तो……
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।।२/६०।।
शब्दार्थ---- विषयों के प्रति आसक्ति नष्ट न होने के कारण ब्रह्म निष्ठा में प्रयत्नशील पुरुष की प्रमथनशील इन्द्रियां अर्थात दही मथने के समान हे कौन्तेय ! मन का बलात् हरण कर लेती हैं ।
तात्पर्यार्थ---- विपश्चित अर्थात श्रवण, मनन, निदिध्यासन सर्वत्र ब्रह्म दृष्टि के अभ्यास में लगा हुआ बलात् इन्द्रियों पर शासन करनेवाला, उनके इन्द्रियों के वशीभूत अजितेन्द्रिय होने के कारण संपूर्ण इन्द्रियां उसके मन को बारंबार मथकर विषयों में बलात् डालदेती हैं ।जिससे वह स्वरूप च्युत हो जाता है । अतः आसक्ति का त्याग ही मुमुक्षु का सर्वश्रेष्ठ साधन है ।।६०।।
संबंध---- अब इन्द्रिय निग्रह पर बल देते हैं….
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/६१।।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/६१।।
शब्दार्थ---- इसीलिये उन सभी इन्द्रियों का नियमन करके मुझ परमतत्त्व से युक्त अर्थात एकीभूत हो जा, क्योंकि जिसकी इन्द्रियां वश में हैं उसी की बुद्धि ब्रह्म में प्रतिष्ठित है ।
तात्पर्यार्थ---- सभी इन्द्रियां अनुशासित करके परमतत्त्व में एकीभूत होकर शान्त हो जाना ही बुद्धि का ब्रह्म में प्रतिष्ठित होना है, अर्थात जिज्ञासु का आत्मैक्य लक्ष्य हेतु से अतिरिक्त सर्वत्र से उपराम हो जाना ही बुद्धि की स्थिरता है ।।६१।।
संबंध---- इन्द्रियों के संयमित न होने से क्या होगा ? विषय चिंतन करेगा…..
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।२/६२।।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।२/६२।।
शब्दार्थ--- पुरुष बारंबार विषयों का चिन्तन करेगा जिससे आसक्ति होगी आसक्ति से काम और काम से क्रोध उत्पन्न होगा ।
तात्पर्यार्थ---- विषयों के रम्यत्व अर्थात उनके द्वारा प्राप्त होने वाले सुखों एवं गुणों का चिन्तन करने से आसक्ति होगी फिर उन्हें प्राप्त करने की कामना होगी, प्राप्ति में बाधा होने से क्रोध उत्पन्न होगा । भाव यह कि विषयों में साधक को दोष देखना आवश्यक है ।।६२।।
संबंध---- अब क्रोध से ही पतन होता है यह बता रहे हैं…..
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धि नाशो बुद्धिनाशात्प्रणस्यति ।।२/६३।।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धि नाशो बुद्धिनाशात्प्रणस्यति ।।२/६३।।
शब्दार्थ---- क्रोध से उत्कृष्ट मोह, मोह से स्मृतिनाश, स्मृतिनाश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से साधक का विनाश हो जाता है ।
तात्पर्यार्थ---- क्रोध के कारण मनुष्य सम्मोह अर्थात मूढ़भाव को प्राप्त हो जाता है जिससे कर्तव्य, अकर्तव्य का विवेक नष्ट हो जाता है, जिससे कृत्याकृत्य का विवेक नष्ट हो जाता है । विवेक नष्ट होने से गुरु, शास्त्र का सम्मान नहीं करता वरन् अपमानित भी करता है, जिससे गुरु शास्त्र द्वारा प्राप्त संस्कार नष्ट हो जाने से सदसद् का विवेक नष्ट हो जाता जिससे उसके मनुष्यत्व का नाश हो जाता है ।।६३।।
संबंध---- अब तक श्रीभगवान अर्जुन के तीन प्रश्न लक्षण बोलना और बैठना का उत्तर देकर अब कैसे चलता है का उत्तर अगले आठ श्लोकों में दे रहे हैं….
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयनिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्वश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।।२/६४।।
शब्दार्थ---- मन को अपने वश में करके भलीभाँति इन्द्रियों को राग-द्वेष से दूर रखते हुए इन्द्रियों के द्वारा विषयों का उपभोग करने वाले को प्रसन्नता प्राप्त होती है ।
तात्पर्यार्थ---- कहीं किसी से लगाव नहीं, कहीं किसी से द्वेष नहीं प्रारब्धवश जो कुछ मिल जाये भिक्षादि में उसी से संतुष्ट होकर इन्द्रियों को वश में रखने मात्र से मुमुक्षु प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है ।
भावार्थ---- यहाँ श्रीभगवान ने प्रसन्नता की बात कही है अर्थात जब मन प्रसन्न होगा तभी लक्ष्यभूत कार्य में दृढ़ता होगी । प्रसन्नता के लिए मन का निर्विकार होना आवश्यक है इसलिये सर्वत्र अशेष रूप से राग-द्वेष का त्याग एवंं भोग बुद्धि का त्याग करके परमार्थ सिद्धि के लिए विचरण करे ।।२/६४।।
संबंध---- चित्तशुद्धि से क्या होगा ?....
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्न चेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।२/६५।।
प्रसन्न चेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।२/६५।।
शब्दार्थ---- मुमुक्षु साधक के चित्त की प्रसन्नता होने से संपूर्ण दुःखों की निवृत्ति हो जाती है, चित्त की प्रसन्नता से बुद्धि शीघ्र ही परमतत्त्व “मैं ब्रह्म हूँ” में स्थिर हो जाती है ।
तात्पर्यार्थ---- जब सभी प्रकार के राग-द्वेष, सुख-दुःख की निवृत्ति हो जाती है मन में किसी भी प्रकार का विक्षेप अर्थात आवश्यकता के प्रति आसक्ति, उसके न प्राप्त होने पर विक्षेप और विक्षेप से नानाप्रकार के संकट उत्पन्न हो जाते हैं । उन्हीं विक्षेप की निवृत्ति ही चित्त की प्रसन्नता है, जो बैठने के लक्षणों के अनुष्ठान से प्राप्त होती है अतः उन सभी विक्षेपों की निवृत्ति “यदृच्छा लाभसन्तुष्टः" ४/२२ से ही होगी । विक्षेप न होने से मुमुक्षु संन्यासी की “मैं ब्रह्म हूँ" की भावना शीघ्र स्थिर भाव को प्राप्त हो जाती है । “हि" शब्द से मुमुक्षु की संशय रहित स्थिरता का सूचक है ।।६५।।
संबंध---- क्योंकि अस्थिर बुद्धि में भावना और शान्ति नहीं होती…..
नास्तिबुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।।२/६६।।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।।२/६६।।
शब्दार्थ---- शब्दार्थ जो पुरुष अयुक्त अर्थात ब्राह्मी भाव से युक्त नहीं है उसके पास न बुद्धि होती है और न भाव ही, बिना भाव के शान्ति कहाँ ?
तात्पर्यार्थ---- यहाँ पर पहले अयुक्त समझना चाहिए कर्म २/४७ का प्रसंग चल रहा था कि जब युक्त बुद्धि से सुकृत दुष्कृत कर्मफल आदि के त्याग की बात चल रही थी, अन्त में अचला एवं निश्चला २/५३ के द्वारा योग प्राप्ति की बात कही गई थी । तब अर्जुन ने सिद्ध का लक्षण पूछा था जिसके उत्तर में ब्रजेत किम् का उत्तर दे रहे हैं । श्रीभगवान यहाँ पर बता रहे हैं कि जिसकी बुद्धि जिन साधनों से युक्त होकर राग आदि का नाश कर देती है उन्हीं संसाधनों का जब त्याग कर देती है अर्थात एक निश्चय २/४१ वाली नहीं होती है तो ऐसे संसाधनों अर्थात शमदमादि से रहित पुरुष के पास जो वेदान्त, शास्त्र, आचार्य आदि से श्रुत वाक्यों पर सत्, असत्, आत्मा, अनात्मा का विचार करने वाली बुद्धि नहीं होती और बिना आत्मा, अनात्मा विवेक बुद्धि के एक निश्चय वाली बुद्धि “वासुदेवः सर्वम्" ७/१९ अर्थात वासुदेव ही सब कुछ है वह वासुदेव अभिन्न भाव से मैं हूँ ऐसा आत्मैक्य भाव बनेगा नहीं और बिना आत्मैक्य भाव की भावना के शान्ति अर्थात स्थिरता नहीं बनती और बिना आत्मैक्य भाव में स्थिर हुए सुख कहां ? अर्थात बाह्य और चंचल वृत्ति वाले मनुष्यों को कभी अखण्डानन्दैकरस की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
भावार्थ---- निश्चय- स्थिरता ब्राह्मी भाव से, ब्राह्मी भाव आत्मा अनात्मा के विवेक से, आत्मा अनात्मा का विवेक श्रुत्याचार्य के द्वारा श्रवण और श्रवण से इन्द्रियों का दमन होता है । इन्द्रिय दमन के बिना समाहित चित्त नहीं हो सकता, अतः समाहित चित्त होना आवश्यक है तभी बुद्धि ब्राह्मी भाव में स्थित होगी ।।६६।।
संबंध---- अन्यथा….
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।२/६७।।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।२/६७।।
शब्दार्थ----विषयों में विचरण करती हुई एक इन्द्रिय भी मन को अपने अनुकूल बनाकर जैसे वायु नौका का हरण कर लेती है वैसे अजितेन्द्रिय मुमुक्षुओं की प्रज्ञा हरण कर लेती है ।
तात्पर्यार्थ---- सिद्ध पुरुष किस प्रकार (विषयों में) विचरण करता है और मुमुक्षु को कैसे रहना चाहिए ? इस पर प्रकाश डाला गया है । २/६० में असमाहित विवेकशील की इन्द्रियों के द्वारा बुद्धि का बलात् हरण करने की बात कही गई है, उसी बात को यहाँ पुष्ट करते हैं कि जैसे वायु जल में नाव का हरण कर लेती है अर्थात या तो नाव विपरीत दिशा में बह जायेगी या डुबो देगी, इसी प्रकार जब एक भी इन्द्रिय मन को अपने अनुकूल बना लेती है तो मन विषयों में विचरण करने लगता है तब उन विषय रूपी बयार के द्वारा मन रूपी जल में प्रज्ञा रूपी किस्ती डूब जाती है । अथवा अपने आत्म कल्याण का पथ त्याग करके पतित हो जाती है ।।६७।।
संबंध---- एक भी इन्द्रिय भी यह सामर्थ्य रखती है तो सब मिलकर क्या कर सकती हैं ? यह अनुमान कर लो । इसलिए…..
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/६८।।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।२/६८।।
शब्दार्थ----इसलिये हे महाबाहो ! जिस मुमुक्षु साधक की इन्द्रियां इन्द्रियों के विषयों से हटा ली गई हैं उसी की बुद्धि तत्त्व में प्रतिष्ठित है ।
तात्पर्यार्थ---- पूर्व में बताया गया कि किस प्रकार विषयासक्त मुमुक्षु अजितेन्द्रिय होने के कारण पतन को प्राप्त होता है, पतन को प्राप्त न हो इसलिये सब तरफ से राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, के जनक इन्द्रियों को उनके विषयों से निग्रह अर्थात शासन करते हुए जो समाहित चित्त अर्थात शमदमादि में तारतम्य रूप एकाग्रता करनी चाहिए अर्थात जो इन्द्रियों का निग्रह कर चुका है उसी की बुद्धि स्थित है ।
भावार्थ---- २/४४ में भोगैश्वर्य प्रसक्तानां.......समाधौ न विधीयते जो कहा था उसका उत्तर अब यहाँ पर देकर विषयों से उपराम और इन्द्रिय निग्रह में तत्पर जो श्रुत्याचार्य वाक्यों में “मैं ब्रह्म हूँ अथवा वासुदेवः सर्वम्" में दृढ़ निश्चय रूप समाधि कही गई है, उसे अवश्य करना चाहिए इस बात पर यहाँ बल दिया गया है ।।६८।।
संबंध---- जब उपरोक्त प्रकार से मन चारों ओर से समाधिस्थ अर्थात एकीभाव को प्राप्त हो जाये तब…….
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।।२/६९।।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।।२/६९।।
शब्दार्थ---- जो संपूर्ण प्राणियों की रात्रि कही गई है वही संयमी के जागने का स्थान अर्थात दिन है जब संपूर्ण प्राणी जागते हैं तब वही मुनि की रात्रि होती है ।
तात्पर्यार्थ---- भोगैश्वर्य प्रसक्तानां २/४४ से लेकर यहाँ तक जो अजितेन्द्रिय पुरुष के लक्षण बताए गये हैं और आगे ईश्वरोऽहमहं भोगी आदि से जो भी बताए जायेंगे वह सब अविद्या ग्रस्त अज्ञानी का दिन है, इसी में रात-दिन जागते रहते हैं रात्रि में सोकर भी स्वप्नादि में भी जागते अर्थात उसी का चिन्तन करते रहते हैं । उनके मन में जगत के वास्तविक प्रकाश को प्रकाशित करने वाली बुद्धि प्रकाश रूपा होने के कारण समझ में नहीं आती । संपूर्ण अविद्या ग्रस्त पशु-पक्षियों सहित मनुष्य आहार निद्रा भय मैथुन में ही जीवन व्यतीत कर देता है, ऐसा है अविद्या ग्रस्त जिन प्राणियों का दिन । उसमें मन और इन्द्रियों पर शासन करने वाला अर्थात श्रुत्याचार्य के प्रसाद से श्रवण, मनन, निदिध्यासन रूप समाधि से जिनके विवेक के द्वारा संसार की नश्वरता को जानकर आत्मा-अनात्मा का विवेक करने वाली प्रकाश रूपा बुद्धि अनात्मा जगत के सदैव सोते हुए पुरुष के समान सदैव औदासीन्य भाव में स्थित रहने के कारण रात्रि ही है जिसका विवेक स्वयं प्रकाश रूप होकर ब्रह्मविद्या रूप प्रकाशिका बुद्धि के साथ जिनका तादात्म्य होकर “मैं ब्रह्म ही हूँ" मुझसे न तो कुछ भिन्न है, न तो कुछ अभिन्न अर्थात भिन्न वस्तु के प्राप्ति के संकल्प-विकल्प से रहित, किन्तु सभी मुझसे अभिन्न हैं ऐसा व्यापक भाव रूप ही जिस संयमी का दिन है अर्थात इसी ब्रह्मी भाव में नित्य निरंतर रमण करने वाला स्वयं से स्वयं में संतुष्ट रहने वाला “आत्मन्येवात्मनातुष्टः" २/५५।। स्वयं से स्वयं में रति अर्थात प्रेम अर्थात आत्ममिथुन, आत्मक्रीड़ा करने वाला आत्मतृप्त ३/१७, एक स्वयं से स्वयं में स्थित होकर कुछ भी चिन्तन न करने वाला ६/२५, ऐसे जितेन्द्रिय आत्मयोगी यति सर्वत्यागी, संन्यासी के लिए कुछ भी करणीय कृत्य शेष नहीं रहता “तस्य कार्यं न विद्यते" ३/१७, यही आश्चचर्यमय है दिन जिसका, जिसे अविद्याकाल में सोच भी नहीं सकता वही देखकर आश्चर्य होता है, “आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्" २/२९, ऐसा आश्चर्य जिसका मनन करते करते मौन ही हो गया, ऐसा मुनि यदि उस आत्मा के विषय में कहे भी तो भी जैसे सुषुप्तावस्था में बाहर क्या हुआ पता नहीं चलता वैसे ही अविद्या अर्थात अज्ञानरूपी रात्रि में सोने वाले को सुनाया, बताया भी जाये तो भी “श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्" २/२९, कोई भी उसे देख समझ नहीं सकता ।
भावार्थ---- श्रुत्याचार्य के प्रसाद से “सर्वसङ्कल्प संन्यासी" ६/४ को ही ब्रह्मप्राप्ति का अधिकार है अन्य विषयी का नहीं, क्योंकि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का रात्रि और दिन की तरह विरोध है । जैसे रात्रि और दिन एक साथ नहीं रह सकते वैसे प्रवृत्ति और निवृत्ति भी एक साथ नहीं रह सकते, अर्थात कर्ममार्ग एवं ज्ञानमार्ग एक साथ नहीं हो सकते । अतः मुमुक्षु को कर्ममार्ग की ओर से उदासीन होकर नित्य “मैं ब्रह्म हूँ" रूप समाधि का चिन्तन करना चाहिए । अर्थात सिद्ध सर्वत्र ब्राह्मीभाव में स्थित होकर विचरण करता है ।
संबंध----प्रश्न उठता है कि कर्म करेगा नहीं तो जीवन यात्रा भी कैसे चलेगी ? इस पर कहते हैं……
आपूर्यमाणमचलप्रतिषठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न काम कामी ।।२/७०।।
शब्दार्थ---- नदियाँ जिस प्रकार से चारों ओर जल से परिपूर्ण समुद्र में नाम रूप त्यागकर प्रवेश कर जाती है उसी प्रकार संपूर्ण कामनाएं जिसमें अपने नाम रूप और गुण का त्याग कर प्रवेश कर गई हैं अर्थात जो समाहित चित्त हो गया है वही शान्ति को प्राप्त करता है, कामनाओं की कामना करने वाला नहीं ।
तात्पर्यार्थ---- तुलसीदास जी ने भी कहा है…. जिमि सरिता सागर महुं जाहीं । जद्यपि ताहि कामना नाहीं ।। तिमि सुख संपति बिनहिं बुलाए । धरमशील पर जाहिं सुभाए ।। अर्थात समुद्र में कोई कामना नहीं कि नदियाँ उसमें जाकर उससे अभिन्न हो जायें, किन्तु वह मना भी नहीं करता । वर्षाकाल में नदियाँ कितनी भी उफान पर हों किन्तु समुद्र अचल अर्थात अपनी मर्यादा में सदैव स्थिर है, कभी बढ़ता अर्थात हर्षित नहीं होता नदियां ग्रीष्मकाल में सूखकर कम पानी से युक्त हो जायें तो भी समुद्र सूखता अर्थात दुःखी नहीं होता, क्योंकि नदियों को सत्ता तो समुद्र ही दे रहा है, वे उससे अभिन्न हैं वैसे ही समाधिनिष्ठ ज्ञानी में संपूर्ण कामनाएं प्रवेश करके तद्रूप हो जाती हैं, ज्ञान तो कामनाओं का बीज है । बीज को वृक्ष की कामना नहीं होती, किन्तु वह स्वयं वृक्ष को अपने अन्दर समेटे है, उसी प्रकार ज्ञानी तो स्वयं कामरूप है, उसे किसी अन्य कामना की क्या आवश्यकता ? वह तो समुद्र की तरह निश्चल मर्यादित है अथवा जो सर्वकर्म संन्यासी आत्मनिष्ठा मे स्थित है जिसने संपूर्ण जागतिक भोगों की उपेक्षा करके राग द्वेष से रहित होकर प्रारब्धानुसार प्राप्त भोग्य पदार्थों के आश्रित जीवन यापन करते हुए ब्राह्मी भाव में स्थित है, उसके पास भोग्य पदार्थ स्वतः चारों ओर से आकर ब्रह्मज्ञानी की कृपाकटाक्ष के पिपासु होते हैं और हाथ जोड़कर मुझे ग्रहण करो की भिक्षा की अभिलाषा रखते हैं तथापि वह समुद्र की तरह आत्मज्ञ अपनी मर्यादा में स्थित रहता है । कभी किसी से कोई किसी प्रकार का राग नहीं होता और जो पदार्थ प्राप्त नहीं हैं या विपरीत हैं उनके प्रति उनके द्वेष नहीं होता ।
राग द्वेष से रहित अपनी मर्यादा में स्थित समुद्र की भांति स्थित संन्यासी को ही शान्ति प्राप्त होती है । कामकामी अर्थात विभिन्न कामनाओं से युक्त राग द्वेष वाले को कभी शान्ति नहीं मिलती क्योंकि वह हर पदार्थ अपने से भिन्न देखता है, इसी भिन्नभाव के कारण रम्यत्व दिखता है जिसके कारण उन भोग्य पदार्थों की प्राप्ति की दिखाऊ फूल की तरह २/४२ कभी सुगंध अर्थात सुख न देने वाली हैं अर्थात जहाँ भी द्वैतभाव है वहीं अशान्ति और अद्वैत भाव ही शान्ति का श्रोत है ।
भावार्थ---- आत्मैक्य भाव की स्थिति ही संपूर्ण सुखों का साधन है न कि द्वैतभाव, अर्थात संन्यास ही मोक्ष का साधन है कर्म नहीं ।।७०।।
संबंध---- स्थित प्रज्ञ के चलने संबंधित प्रश्न का उपसंहार और उसको शान्ति अर्थात मोक्ष की प्राप्ति…..
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ।।२/७१।।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ।।२/७१।।
शब्दार्थ---- जो पुरुष अशेष कामनाओं का त्यागकर निःस्पृह, निर्मम, निरहंकारी है उसी को परम शान्ति प्राप्त होती है ।
तात्पर्यार्थ---- जो पुरुष यानी मुमुक्षु अशेष अर्थात कुछ भी बची न रहने वाली कामनाओं “सर्वान्पार्थ मनोगतान्" २/५५ अर्थात जितनी भी मन में कामनाएं समाहित हो सकती हैं उन सभी कामनाओं का त्याग करके स्पृहा रहित अर्थात जो प्राप्त नहीं है उसकी इच्छा न करना और प्राप्त है उसके स्पर्श अर्थात रक्षा की परवाह भले ही वह शरीर अर्थात जीवन ही क्यों न हो--- न करना स्पृहा से रहित होना है फिर ‘मैं मेरा’ जहाँ तक संबंध है वहाँ तक के संबंधों से ममता, लगाव, मोह न करना, अहंकार अर्थात शरीर आदि की दृष्टि से भी अहंकार रहित और अपने ज्ञानी होने के अहंकार से रहित होकर मुमुक्षु परमशान्ति अर्थात निर्वाण पद को प्राप्त करता है अर्थात ‘मैं ब्रह्म हूँ’ का भाव अनात्म पदार्थ के नष्ट होने पर शेष बचता है, क्योंकि अनात्म पदार्थ को धारण करने के कारण ही तो जीव है “ययेदं धार्यते जगत्" ७/५ ।। अनात्म भाव नष्ट होने पर अहंभाव ही शेष रहता है अर्थात यही मैं ब्रह्म हूँ की अनुभूति है इसी कैवल्य पद को अकाम, निःस्पृह, निर्मम, निरहंकार मुमुक्षु प्राप्त कर लेता है ।
यह श्लोक पूरे दूसरे अध्याय का अवलोकन करता है, पहले “सोऽमृतत्वाय कल्पते" २/१५, कहकर ज्ञानी की ब्राह्मी गति अर्थात मोक्ष प्राप्ति बताया तथापि आगे चलकर “एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये" २/३९ से कर्मयोग का वर्णन प्रारंभ किया क्योंकि ज्ञानमार्ग संन्यासी के लिए ही विहित है, गृहस्थ के लिए नहीं । अर्जुन गृहस्थ है अतः कर्ममार्ग का वर्णन करते हुए श्रेयमार्ग के बाधक होने के कारण “यामिमां पुष्पितां वाचम्" २/४२ “भौगैश्वर्यप्रसक्तानां" २/४४ से सकाम कर्म की निंदा करते हुए हर प्रकार की कामनाओं से रहित अर्थात अकाम, निःस्पृह, निर्मम, निरहङ्कार में सब कुछ वर्णन करके “स शान्तिमधिगच्छति" कहकर मोक्ष की प्राप्ति करा देते हैं अर्थात दोनो ही मार्ग अधिकार भेद से मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं ऐसा यहाँ कह रहे हैं और आगे तीसरे, पांचवें अध्याय में भी इसी की पुष्टि करेंगे ।।७१।।
संबंध---- पूर्व कथित ज्ञान की स्तुति….
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्यविमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।२/७२।।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।२/७२।।
शब्दार्थ---- हे पार्थ ! यही ब्राह्मी स्थिति है, जिसे प्राप्त कर लेने पर मुमुक्षु पुनः मोहित नहीं होता, यदि अन्तिम काल में भी इसमें स्थिति हो जाये तो भी मोक्ष पा लेता है ।
तात्पर्यार्थ---- एषा ब्राह्मी स्थितिः अर्थात यह २/३९ से २/६८ तक जो कर्मयोग हमने कहा उसको सामान्य मत समझ, सभी शास्त्रीय कर्म के फल की प्राप्ति जो शान्ति कही गई है उसी स्थिति को प्राप्त करा देने वाला ज्ञान है, इसलिये यह ज्ञानमात्र नहीं ब्रह्मज्ञान है और इसमें आरूढ़ता ही ब्राह्मी स्थिति है । इसी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करके मुमुक्षु संन्यासी फिर कभी मोहित नहीं होता अर्थात जब तक ब्राह्मीभाव प्राप्त न हो जाये तब तक संसाराकर्षण स्वाभाविक ही है । कभी भी हमें विवश कर सकता है, अतः सतत अभ्यास करके इस ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त ही कर लेना चाहिए यही मानव मात्र का कर्तव्य है । आवश्यक नहीं कि ब्रह्मचर्यादि आश्रमों का पालन करने वाले को ही यह स्थिति प्राप्त हो, अन्तकाल में अर्थात मृत्युशैय्या पर लेटा हुआ भी जब स्वतः सब कुछ छूट रहा हो उस समय भी अहंता का फैला हुआ तादात्म्य खींचकर मात्र अहं भाव अर्थात मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, जरा, मरण आदि से रहित हूँ के भाव में स्थित हो जाये तो भी ऐसा अन्तकाल में आपात्संन्यासी भी ब्रह्मरूप परम निर्वाण अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है ।
भावार्थ---- कहने का भाव यह है कि जब अन्तकाल में भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है तो आजीवन ब्रह्मचर्यादि शास्त्रीय स्वधर्मानुष्ठान करने से मोक्ष की प्राप्ति हो इसमें क्या संदेह ? अर्थात मोक्ष निःसंदेह आत्मैक्य के साधक को मिलता ही है ।।७२।।
।।ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।
हरिः ॐ तत्सत् ! हरिः ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ तत्सत् !!!
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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